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Tuesday, July 16, 2013

आज का उत्तराखंड तो ‘ठेकेदारखंड’ है।

Status Update
By Rajiv Lochan Sah
कल मित्रों के बीच 'योग्य मुख्यमंत्री' को लेकर चर्चा चल रही थी। निहायत गैरजरूरी होने पर भी ऐसे सौलकठौल ध्यान तो खींचते ही हैं। इसलिये अपनी राय जाहिर करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूं। 'नैनीताल समाचार' में एक बार ऐसा ही कुछ लिख दिया था तो एक कामरेड घनघोर लानत-मलामत पर उतर आये थे। दरअसल कई बार उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में हम हिमाचल का संदर्भ लेते हैं और यशवंत सिंह परमार की उपलब्धियों का उदाहरण देने लगते हैं। मगर यह भूल जाते हैं कि उस दौर की राजनीति आज की तरह घटिया नहीं थी। आज का उत्तराखंड तो 'ठेकेदारखंड' है। कोई भी गांव स्तर तक फैले ठेकेदारों के तंत्र को अनदेखा कर और अपनी पार्टी के ठेकेदारों के आर्थिक स्वार्थ पूरे किये बगैर एक पल के लिये भी मुख्यमंत्री बना नहीं रह सकता। इसके साथ-साथ छोटा राज्य होने के कारण अपनी गद्दी बचाने के लिये उसे अपनी पार्टी के केन्द्रीय नेताओं तक लगातार डालियां पहुंचानी पड़ती हैं। बड़े प्रदेशों में शायद यह मजबूरी न होती हो। जल विद्युत परियोजनाओं में एक मेगावाट के पीछे जो एक करोड़ का कमीशन बंधा हुआ है, वह क्या यों ही है ? क्या परमार साहब को ऐसे कीचड़ में राजनीति करनी पड़ी थी ? आज आप छांट कर सबसे ईमानदार, कर्मठ और 'विजन' वाले व्यक्ति को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दीजिये। या तो वह छः महीने में इसी राजनीति में रंग कर ऐसे ही जोड़तोड़ में फंस जायेगा या फिर राजनीति से तौबा कर भाग खड़ा होगा। इस पैमाने पर परखने से तमाम सीमाओं के बावजूद मैं भुवन चन्द्र खंडूरी को उनकी दूसरी पारी में इन तेरह सालों का सबसे बेहतर मुख्यमंत्री पाता हूं। अपनी पहली पारी में उन्होंने ठेकेदारों और दलालों को किनारे लगाने की पूरी कोशिश की थी। हालांकि केन्द्र को डाली पहुंचाना उनकी भी मजबूरी थी, सो इसके लिये उन्होंने प्रभात कुमार सारंगी को छुट्टा छोड़ दिया। उस कीचड़ में खुद हाथ खराब नहीं किये। मगर चूंकि ठेकेदारों को संतुष्ट करने का कोई तरीका उन्हें नहीं सूझा, इसलिये उनकी गद्दी जल्दी छिन गई। उनकी चार महीने की दूसरी पारी में उन पर ऐसा कोई दबाव नहीं था। अपनी डूबती नैया पार लगाने के लिये भाजपा उन्हें मजबूर होकर वापस लाई थी। न तो निचले स्तर के ठेकेदार उनसे ठेके मांग सकते थे और न हाईकमान थैलियां। इसलिये उन्होंने अपने ढंग से काम किया और अच्छा काम किया।
मगर यह हमेशा सम्भव नहीं है। इस कम्पनी-ठेकेदार-दलाल नियंत्रित, लगातार केन्द्रीकृत होती राजनीति को समूल नष्ट किये बगैर न उत्तराखंड का भला हो सकता है और न देश का। इसीलिये एक स्थानीय, स्वावलम्बी, स्वशासी और विकेन्द्रित शासन व्यवस्था ही समय की मांग है। अन्यथा हम अराजकता और फिर फासीवाद की ओर बढ़ रहे हैं।
एक सूचना:-
परसों 'नैनीताल समाचार: पच्चीस साल का सफर' के सिलसिले में किसी ने ई मेल आई.डी. और फोन नंबर पूछे थे। समाचार की ई मेल आई.डी. है ntl_samachar@rediffmail.com और अल्मोड़ा किताबघर की almorakitabghar@gmail.com। समाचार के लिये फोन 9411597423 और 8937084006 पर कर सकते हैं और 'अल्मोड़ा किताबघर' के लिये 05962230342 या 9412044298 पर।

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