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Thursday, July 11, 2013

ड्रिफ्ट इरीगेशन तकनीक ने बंजर को दी नयी हरियाली

ड्रिफ्ट इरीगेशन तकनीक ने बंजर को दी नयी हरियाली

11 JULY 2013 NO COMMENT

♦ अनुपमा

झारखंड की राजधानी रांची से करीब 25 किलोमीटर दूर ओरमांझी प्रखंड के धुपाई गांव के रहनेवाले किसान "बालक महतो" अब सालों किसी बड़े व्यवसायी या अन्य व्यस्ततम पेशेवर की तरह व्यस्त रहते हैं। उनसे हमारी मुलाकात उनके गांव में ही होती है। बालक विस्तार से अपनी किसानी कथा बताने के पहले अपने घर को दिखाते हैं, जो पारंपरिकता और आधुनिकता के घालमेल से बना है और गांव के उस घर में जरूरत के हर जरूरी आधुनिक उपकरण दिखते हैं। बालक घर से लेकर खेतों तक किसानी के करिश्मे को दिखाते हैं। वह बताते हैं कि कैसे 16 एकड़ जमीन रहने के बावजूद कुछ साल पहले तक वे जिंदगी के तीन अहम फेज यानि भोजन, वस्त्र और आवास के फेर में ही सालों भर लगे रह जाते थे और ठीक ढंग से उसकी भरपाई भी नहीं हो पाती थी। लेकिन अब उनके पांचों बच्चे रांची के हॉस्टल में रहकर मजे से पढ़ाई कर रहे हैं और बालक महतो खुद नित नये ख्वाब बुनने की स्थिति में हैं। बालक कहते हैं कि इतनी ही जमीन में अब सालाना 20-25 लाख रुपये का कारोबार हो जाता है और सब काट-कूट भी दिया, तो पांच लाख तो बचत हो ही जाती है। इतनी ही जमीन में बालक महतो खाने के लिए चावल-गेहूं तो उपजाते ही हैं, लेकिन कमाई के लिए ओल, अदरख, टमाटर, बैंगन, शिमला मिर्च, गोभी आदि जमकर पैदा करते हैं। उन्होंने खुद का ग्रीन हाउस भी बना रखा है, जहां वे नर्सरी संचालित करते हैं। गाय, बकरी, मुर्गी पालन के साथ-साथ पेशेवर तरीके से डेयरी के कारोबारी भी अब हो गये हैं। सागवान-शिशम जैसे कीमती वृक्षों को भी लगाये हुए हैं। पपीता की खेती भी करते हैं। फलदार पेड़ों के बाग भी लगा चुके हैं। और इतने के बाद अब शीघ्र ही बीज उत्पादन केंद्र भी शुरू करनेवाले हैं।

बालक कहते हैं कि खेती की एक तकनीक ने किसानी और जीवन में इतने बदलाव इतनी तेजी से कर दी। वह तकनीक है ड्रिफ्ट एरिगेशन यानि टपक सिंचाई का। यानी बूंद-बूंद सिंचाई की तकनीक, जिसके जरिये एक-एक बूंद पानी सीधे फसलों की जड़ों में समाता है और फसल का उत्पादन और उसकी गुणवत्ता, दोनों में करिश्माई ढंग से इजाफा करता है। बालक दिखाते हैं कि अब हम इसके जरिये सिर्फ पानी ही नहीं पहुंचाते बल्कि पानी के साथ ही खाद वगैरह भी पहुंचा देते हैं, जिससे पूरे खेत में खाद छींट कर बर्बाद करने से मुक्ति मिल गयी है। खाद-पानी का खर्च भी कम हो गया है और आमदनी भी ज्यादा…! खेतिहर दुनिया में बूंद-बूंद वाली सिंचाई की इस तकनीक के करिश्मे को बालक के खेतों में और खेतों के जरिये घरों में पहुंची समृद्धि को देख साफ लगता है कि यदि यह सफल हुआ तो आनेवाले दिनों में कई किसान स्वरोजगार, उद्यमिता और 'खेती करे सो मरे' की बजाय खेती करे सो बढे का फॉरमूला अपना कर नयी इबारतें लिखेंगे।

ऐसा भी नहीं है कि यह बदलाव सिर्फ एक बालक के घर जाकर देखा जा सकता है। या यह भी नहीं कि सिर्फ एक तकनीक ने ही ये सारे बदलाव कर दिये। तकनीक तो सहारा भर बनी, असल बात रही बालक जैसे किसानों का नये वैज्ञानिक प्रयोग को आजमाने का साहस जुटाना, जिससे संभावनाओं के नये द्वार खुले और उसका असर यह हुआ है कि अब रांची के आसपास के कई किसान बालक महतो की राह पर चलते हुए उनकी तरह बन जाना चाहते हैं। रांची जिले के ही गोंदलीपोखर के रहनेवाले किसान दिनेश महतो तो और भी करिश्माई किसान बनते जा रहे हैं। मात्र डेढ़ एकड़ जमीन रखनेवाले किसान दिनेश ने इस तकनीक की वजह से अपनी इतनी-सी जमीन से ही सालाना डेढ़-दो लाख तक की बचत करने लगे हैं। खेती के अर्थशास्त्र ने उनका परिवारशास्त्र और समाजशास्त्र बदला, तो उनका उत्साह भी परवान चढ़ा है। दिनेश कहते हैं, अब मैंने 15 एकड़ जमीन लीज पर लेकर खेती का पेशा शुरू किया है, जिसमें तरह-तरह की सब्जियों की खेती करेंगे। खेती के तमाम प्रयोग करेंगे। दिनेश के इलाके के ही अनगड़ा के गोवर्धन मुंडा भी डेढ़ एकड़ जमीन के साथ ही व्यस्ततम किसान हो गये हैं।

बालक, दिनेश या गोवर्धन की सफलता की कहानी सिर्फ बानगी भर है। जो झारखंड के भूगोल से परिचित हैं, वे जानते हैं कि इसकी पहचान कभी मूल रूप से खेतिहर राज्य के रूप में नहीं रही है। खान-खदान को लेकर ही यह ज्यादातर विख्यात और अब कुख्यात राज्य माना जाता रहा है। लेकिन धीरे-धीरे ही सही, इस राज्य के सुदूरवर्ती इलाके से लेकर राजधानी से सटे इलाके में खेती की दुनिया में एक खामोश क्रांति भी हो रही है। इसका नतीजा आनेवाले दिनों में व्यापक स्तर पर दिखेगा। यह भी संभव है कि खान-खनिज के लिए विख्यात और कुख्यात यह राज्य खेतिहर राज्य के रूप में भी अपनी पहचान बना ले।

जैसा कि कृषि वैज्ञानिक डॉ सुप्रिया सिंह कहती हैं, झारखंड में सिर्फ 20-22 प्रतिशत जमीन ही सिंचित हैं। 70 प्रतिशत से अधिक जमीन की सिंचाई बारिश पर ही निर्भर रहती है। ऐसे में टपक सिंचाई यहां के लिए वरदान साबित हो रहा है। ऐसा नहीं है कि टपक सिंचाई खेतिहर दुनिया में कोई बहुत नयी तकनीक है लेकिन झारखंड जैसे राज्य में अब जाकर यह किसानों की समझ में आना शुरू हुआ है। सरकार की ओर से जब इस पर 90 प्रतिशत तक सब्सिडी मिलनी शुरू हुई, तो किसानों का आकर्षण अब इसमें धीरे-धीरे बढना शुरू हुआ है और अब नतीजे भी दिखने लगे हैं। यहां हम बताते चलें कि टपक सिंचाई के तहत पाइप पानी के स्नेत से पाईप वगैरह के जरिये खेतों में सीधे फसलों की जड़ तक पानी पहुंचाया जाता है, जहां बूंद-बूंद पानी सीधे जड़ में गिरता है और उसी से सिंचाई होती है। आधे एकड़ जमीन में टपक सिंचाई संयत्र लगाने का खर्च अनुमानत: 30-36 हजार रुपये के बीच आता है, जिसमें सरकार 24,905 रुपये का सहयोग करती है। इस योजना के सफल होने की एक बडी वजह यह रही है कि इसके तहत किसानों को सब्सिडी की राशि सीधे उनके बैंक खाते में दे दी जाती है, जिससे बिचैलिया तंत्र पनप नहीं पा रहा है और दूसरी बड़ी वजह तो पहले ही बतायी कि बालक जैसे किसानों ने साहस दिखाया तो इस तकनीक को पनपने और पांव पसारकर किसानों की जिंदगी में बदलाव लाने का मौका मिला।

झारखंड जैसे बंजर, पहाड़ी, पठारी और रेनशैडो जोन में आनेवाले राज्य में खेती की इस तकनीक का आगामी दिनों में कितना जोर बढ़ेगा, इसका अंदाजा इस राज्य में इस तकनीक के संयत्र बेचने और सेवा मुहैया कराने पहुंची कंपनियों की संख्या से भी लगाया जा सकता है। बकौल निदेशक एपी सिंह, फिलहाल झारखंड में 28 कंपनियां ड्रिफ एरिगेशन के क्षेत्र में निबंधित हो चुकी हैं, जिनमें पांच-छह कंपनियां सक्रिय हैं और तीन कंपनियों का काम तेजी से बडे दायरे तक फैल गया है। उन तीन कंपनियों में जैन, प्रीमियर अैर मेटाफर कंपनी के नाम शामिल हैं। जैन एरिगेशन से जुड़े कृषि अभियंता ओपी गुप्ता कहते हैं कि हमने इस साल पूरे झारखंड में 100 हेक्टेयर जमीन में ड्रिफ एरिगेशन सिस्टम को लागू करवाया है। चालू वर्ष में 127 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा है। बकौल गुप्ता, हमेशा पानी की समस्या से जूझते रहनेवाले झारखंड के किसानों को बात समझ में आ गयी है कि यह एक ऐसी तकनीक है, जिससे वे बगैर कहीं हाथ फैलाये अपनी उद्यमिता के बूते सुखी जिंदगी गुजार सकते हैं।

हालांकि अभी यह तकनीक वहीं तेजी से पहुंच रही है, जहां कुआं, तालाब आदि की सुविधा उपलब्ध है और बिजली है। वहां के किसान आसानी से अपने खेत तक इस तकनीक के जरिये पानी पहुंचा पा रहे हैं और इसका पूरा लाभ उठा रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉ सुप्रिया सिंह कहती हैं कि अब किसानों को अगर इसका फायदा सच में समझ में आ गया है, तो उन्हें एक दूसरे को सहयोग देने का रुख अपनाते हुए समझदारी से काम लेना होगा। झारखंड में सभी जगह कुआं खोद लेना इतना आसान नहीं है, इसलिए किसानों को चाहिए कि वे सामूहिक तौर पर खेतों में छोटे-छोटे जल संग्रहण केंद्र बनाएं और उसे प्लास्टिक से कोटेड कर दें ताकि जो पानी आये, उसे जमीन सोख न सके और फिर उसी पानी को अपने खेतों तक पहुंचाकर इसका अधिक से अधिक लाभ उठाएं। डॉ सुप्रिया सिंह की बातों को आगे बढ़ाते हुए कृषि अभियंता डॉ आरके रूसिया कहते हैं कि यही तो खासियत इस तकनीक की है कि इसमें पानी की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती। यदि जल का संग्रहण कहीं कर लिया गया, तो उसकी एक-एक बूंद का उपयोग फायदे के लिए किया जा सकता है।

झारखंड जैसे राज्य में इस योजना की सफलता के पीछे एक बड़ी वजह यहां की जमीनों का बंजर, पथरीला होना और सिंचाई की सुविधा नहीं होना तो है ही, दूसरी बड़ी बात यह भी है कि अनेक कंपनियों के आने से और सब्सिडी के कारण किसानों का झुकाव तेजी से इस ओर बढ़ने से स्थानीय युवकों को इसमें रोजगार भी मिलने लगा है। कंपनियां जहां भी काम करवा रही हैं, वहां स्थानीय युवक ही प्रशिक्षण प्राप्त इसे कर रहे हैं। इससे एक तो उन्हें काम के दौरान रोजगार मिल रहा है और उसके बाद के लिए भी वे एक हुनर में माहिर हो जा रहे हैं, इसलिए ग्रामीण युवकों का रुझान भी इस ओर ज्यादा दिख रहा है।

(अनुपमा। झारखंड की चर्चित पत्रकार। प्रभात खबर में लंबे समय तक जुड़ाव के बाद स्‍वतंत्र रूप से रूरल रिपोर्टिंग। महिला और मानवाधिकार के सवालों पर लगातार सजग। देशाटन में दिलचस्‍पी। फिलहाल तरुण तेजपाल के संपादन में निकलने वाली पत्रिका तहलका की झारखंड संवाददाता। अनुपमा का एक ब्‍लॉग है: एक सिलसिला। उनसे log2anupama@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

http://mohallalive.com/2013/07/11/miracle-of-drift-irrigation-system/

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