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Monday, July 15, 2013

यह तबाही तो होनी ही थी…

यह तबाही तो होनी ही थी…

kedarnath-aftermath-2013लगभग 10 महीने पहले केदारनाथ से लौटते हुए रामबाड़ा की एक चाय की दुकान में बैठे हुए एक सिख सैनिक की बात आज बार-बार याद आ रही है। केदारनाथ में उन दिनों मन्दिर का प्रबन्ध देखने वाली पंजाब रेजीमेंट का वह सैनिक अपने किसी साथी को लेने के लिए रामबाड़ा पहुँचा था बहुत गुस्सा था उसके मन में। केदारनाथ में लगातार बढ़ते अतिक्रमण और अनीति को लेकर बहुत कुछ कहा था उसने। बार-बार वह कहता था, देखना एक दिन सब खत्म हो जाएगा, नदी सब बहा ले जाएगी…..।

उसने बताया था कि इस बार केदारनाथ में अतिक्रमण तोड़ने की कोशिश भी की गई थी। ऐसी कुछ इमारतें तोड़ी भी गई थीं, जो नदी में ही बन रही थीं। पंडों-पुजारियों के मर्यादाओं और परम्पराओं का निर्वहन न करने का गुस्सा भी उसके मन में था। मुझे याद आ रहा था कि एक दिन पहले ही मैंने उसे मन्दिर के अन्दर बेहद शांत भाव से पूरी तत्परता के साथ भीड़ को नियंत्रित करते देखा था मगर चाय की दुकान में बातें करते वक्त उसके मन में सिर्फ गुस्सा ही गुस्सा था।

आज मुझे उसका गुस्सा फिर याद आ रहा है। उसने केदारनाथ को देखा था- महसूस किया था सो उसे केदारनाथ को लेकर गुस्सा था। आज मैं सोच रहा हूँ कि लगभग ऐसा ही गुस्सा तो उत्तराखण्ड के हर उस इलाके के लोगों के मन में भी जमा है जहाँ-जहाँ आज आपदा की बेरहम मार पड़ रही है। जिस तरह केदारनाथ को लेकर उस सिख सैनिक की नाराजगी को किसी ने भी नहीं सुना उसी तरह उत्तराखण्ड के जर्रे-जर्रे में जमा गुस्से को भी हमारे जन विरोधी तंत्र ने लगातार अनुसुना ही किया। हालाँकि उत्तराखण्ड की वर्तमान आपदा के लिए उत्तराखण्ड में चल रहे 'विकास' को ही एकमात्र कारण के तौर पर चिन्हित नहीं किया जा सकता और यह माना जा सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और मानसून की बिगड़ी चाल जैसे बड़े-बड़े कारकों ने भी इस आपदा को जन्म देने में हिस्सेदारी की थी। लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि इस आपदा को प्रलय बनाने में हमारा कथित विकास और मानव निर्मित कारण ही काफी अधिक जिम्मेदार हैं। यह बात भी विचारणीय है कि उत्तराखण्ड में टिहरी बाँध और मनेरी-भाली परियोजनाओं की शुरुआत के चरण में ही भागीरथी घाटी में कनोडि़या गाड़ में बादल फटने की बड़ी घटना हुई थी जिससे बनी झील के टूटने से 1978 में भागीरथी घाटी में भारी तबाही हुई थी। हाल के वर्षों में उत्तराखण्ड में बादल फटने की शुरूआत भी यहीं से मानी जा सकती है।

'पानी से धारदार कोई औजार नहीं होता' यह उक्ति अब एक वैज्ञानिक सत्य भी है और दुनिया के हर ईको सिस्टम की तरह अभी अपने निर्माण की प्रक्रिया में ही चल रहे हिमालय जैसे युवा पर्वत के लिए उसकी नदियाँ उसके ड्रैनेज सिस्टम का एक महत्वपूर्ण अंग हैं, इसलिए हिमालय की सेहत के लिए उसकी नदियों के प्रवाह तंत्र का सेहतमंद बने रहना बहुत जरूरी है। मगर हमारे विकास की परिभाषा में इस सबसे महत्वपूर्ण तथ्य की लगातार अनदेखी की जा रही है, लगातार हिमालय की चीत्कारों को अनसुना किया जाता रहा है। यह एक दुःखद दुर्योग ही है कि आज जहाँ-जहाँ आपदा की मार पड़ी है वहाँ हमारे कथित 'विकास' की कोई न कोई गतिविधि जरूर मौजूद है। पिथौरागढ़ की घौली घाटी में तपोवन जल विद्युत परियोजना, गोरी गंगा की पन बिजली परियोजना, पिण्डर घाटी के देवाल इलाके में पनबिजली योजना, चमोली में विष्णुप्रयाग और ऊपरी गंगा बेसिन यानी धौली घाटी की तपोवन, जेलम आदि योजनाएं, रुद्रप्रयाग में सिंगोली-भटवाड़ी और फाटा-ब्यूँगाड़ परियोजनाएं, पौड़ी की श्रीनगर बाँध योजना, उत्तरकाशी में असीगंगा घाटी की योजनाएं, यमुना घाटी और ऊपरी भागीरथी क्षेत्र में फिलहाल बन्द पड़ी योजनाएं कुछ उदाहरण हैं। इनमें से ज्यादातर के निर्माण के विरुद्ध स्थानीय चैतन्य समाज की आवाजें उठती रही हैं। भले ही इन आवाजों को नक्कार खाने की तूती की तरह उड़ा दिया गया हो मगर लोगों ने आवाजें उठाईं, आन्दोलन किए, दमन भी झेला और जेल भी गए। मंदाकिनी घाटी हो या भिलंगना घाटी, पिण्डर घाटी हो या सरयू घाटी हर जगह योजनाओं के निर्माण का सीधा-सीधा खामियाजा स्थानीय ग्रामीणों को झेलना पड़ा है। घरों में दरारें, खेतों का खत्म हो जाना, जल स्रोतों का सूख जाना जैसी बातें इन योजनाओं के निकटवर्ती गाँवों में बहुत आम हो गई हैं। पहाड़ लगातार दरक रहे हैं। पहाड़ों के अन्दर मौजूद पानी का प्रवाह तंत्र छिन्न-भिन्न हो रहा है मगर इसके विरुद्ध आवाजें उठाने वालों को विकास विरोधी बना कर उनका उपहास उड़ाया जाता है और विकास की काली कमाई के सारे हिस्सेदार एक साथ मिल कर ऐसी आवाज को कुचलने के कुचक्र के साझीदार बन जाते हैं।

बाँधों के निर्माण में नदियों को मलबे से पाट दिया जाता है जो आगे चलकर बड़े कटावों की वजह बनता है। सुरंगों के निर्माण में विस्फोटकों का जो अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है उसने भी उत्तराखण्ड के कमजोर पहाड़ों की भीतरी संरचना को लगातार कमजोर किया है। नदियों की सेहत को बिगाड़ने में दूसरा सबसे बड़ा कारण खनन है। नदियों से रेता-बजरी, गिट्टी-पत्थर लूटने का धंधा आज उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा धन्धा बन गया है। इस बेतरतीब खनन ने नदियों की धाराओं की दिशा बदल दी है और नदियों के बहाव को अनियमित बनाया है। उत्तरकाशी में इस वर्ष भागीरथी का प्रवाह जोशियाड़ा की ओर मुड़ने की एक बड़ी वजह यही थी। कोटद्वार, हल्द्वानी, रामनगर, टनकपुर, बागेश्वर, थराली, सतपुली, आप नदी किनारे की किसी भी बस्ती का नाम लीजिए खनन के देवता वहीं मिल जाते हैं।

खनन के साथ ही अतिक्रमण और अवैध निर्माण भी उत्तराखण्ड के नदी प्रवाह तंत्र के लिए केंसर का काम कर रहे हैं। गोविन्द घाट में नदी पर लटक रही पाँच-सात मंजिला इमारत के चित्र इन दिनों टीवी स्क्रीन पर खूब दिखाई दे रहे हैं। नदी घाटी के बीच में, भीतरी हिमालय की एक नदी के लगभग उद्गम क्षेत्र में इतना बड़ा निर्माण किस तरह हो गया यह सवाल कम से कम अब तो पूछा ही जाना चाहिए। गंगोत्री हो या केदारनाथ, श्रीनगर हो या धारचूला उत्तराखण्ड के हर नदी नगर में ऐसे निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। किसी गाँव को जोड़ने वाली सड़कों की बात हो या बिजली लाइनों की, हर जगह वन कानूनों के रोड़ों का रोना रोया जाता है मगर केदारनाथ वन्य जीव बिहार या वैली ऑफ फ्लावर्स नेशनल पार्क के प्रतिबन्ध केदारनाथ, रामबाड़ा या गोविन्द घाट के भारी भरकम निर्माणों के आड़े कभी नहीं आते। पिछले 20 वर्षो में 2 बड़े भूकम्पों में बड़ी तबाहियाँ झेल चुके उत्तराखण्ड की भूगर्भीय संरचना क्या इस तरह के निर्माणों की इजाजत देती है, यह सवाल भी कहीं नहीं पूछा जाता।

सड़कों का निर्माण उत्तराखण्ड को आपदा प्रदेश बनाने का एक और कारक है। 25-30 वर्ष पूर्व तक सड़कों के निर्माण में डायनामाइट का उपयोग बहुत नियंत्रित ढंग से होता था। मशीनों का इस्तेमाल तो होता ही नहीं था, मगर आज उत्तराखण्ड में बनने वाली हर छोटी-बड़ी सड़क बुलडोजरों और जे सी बी मशीनों से बन रही है, अंधाधुंध विस्फोटकों का इस्तेमाल हो रहा है। इस तरह के निर्माण में कटान-भराव की पुरानी तकनीक के बजाय सीधे कटान कर मलवा नीचे फैंक देने का आसान तरीका अपनाया जाता है। यही मलवा पहाड़ों में भूक्षरण और भू कटाव की एक बड़ी वजह बनता है। 2012 में भी अतिवृष्टि के दौरान उत्तराखण्ड में 120 से ज्यादा मोटर मार्गों पर इसी मलवे के बहाव और कटान ने भारी नुकसान किया था। गौरतलब है कि लगभग 10 वर्ष पूर्व भारत सरकार की एक उच्च स्तरीय समिति ने हिमालयी क्षेत्रों में सड़क निर्माण के लिए 50 फीसदी कटान और पचास फीसदी भराव की तकनीक का ही इस्तेमाल करने की सलाह दी थी। इस तकनीक में आधी सड़क कटान से बनती है और आधी सड़क की चौड़ाई नीचे से दीवाल बना कर ऊपर से निकले मलवे की भरान से बनाई जाती है। इससे ऊपर से निकला मलवा नीचे नहीं जाता और वहीं इस्तेमाल हो जाता है। मगर अंधाधुंध विकास इन बातों को नहीं मानता और इसीलिए यह सलाह उत्तराखण्ड में रद्दी की टोकरी में डाल दी गई है। जबकि हर कोई जानता है कि इस तरह के सड़क निर्माण ने उत्तराखण्ड को बहुत बर्बादी दे दी है।

वन विनाश, जंगलों की लगातार बढ़ती आग, चीड़ जैसे एकल प्रजाति के वनों की घुसपैठ भी पहाड़ों की कमजोर करने के अन्य कारक रहे हैं। हालाँकि मौजूदा आपदा के प्रभाव वाले ज्यादातर क्षेत्रों में इन कारकों का रोल लगभग नहीं के बराबर है मगर जनसंख्या दबाव एक अन्य कारण माना जा सकता है जिसने न सिर्फ आपदा को बढ़ाया बल्कि राहत अभियान को भी ज्यादा मुश्किल बना दिया।

केदारनाथ जैसी बेहद संकरी घाटी में, जहाँ चारों ओर हिम शिखर घिरे हुए हैं, सैर-सपाटे के लिए हैलीकॉप्टरों की घड़घड़ाहट क्यों जरूरी है। यात्रा सीजन में हर दिन अलग-अलग कम्पनियों के हैलीकॉप्टरों की 100 से ज्यादा उड़ानों से पैदा होने वाला कंपन क्या पहाड़ों को अस्थिर और कमजोर नहीं बना रहा होगा। किसी ग्रामीण के एक पेड़ काटने पर हाहाकार मच जाता है मगर ध्वनि प्रदूषण के मानकों को तार-तार कर रही हैलीकॉप्टरों की घड़घड़ाहट केदारनाथ वन जीव विहार के पैरोकारों को भी नहीं सुनाई देती और अधिकारियों को भी नहीं। निश्चित रूप से पर्यटन उत्तराखण्ड की जान है मगर क्या राज्य बनने के बाद भी उत्तराखण्ड अपनी कोई पर्यटन नीति बना पाया है, कहने को गंगोत्री से आगे का इलाका गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान में आता है, मगर हर वर्ष काँवड़ के नाम पर वहाँ पहुँचने वाले हजारों कावडि़यों की भीड़ क्या उस इलाके का पर्यावरण संतुलन नहीं बिगाड़ती। हेमकुण्ड लोकपाल की यात्रा आस्था से ज्यादा पिकनिक में क्यों तब्दील होती जा रही है। बद्रीनाथ हनीमून के लिए पसंदीदा जगहों में क्यों बदलता जा रहा है। यात्रा मार्ग पर वाहनों की बेतरतीब भीड़ क्यों अनियंत्रित होती जा रही है। पर्यावरण के लिहाज से अतिसंवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में होने वाली नन्दा राजजात जैसी आस्था भरी यात्राओं को तमाशा बनाने की कोशिशें क्यों की जा रही हैं। चारधाम यात्रा के लिए कोई निगरानी तंत्र क्यों नहीं बनाया जा सका है आदि-आदि अनेक प्रश्न ऐसे हैं जिन्हे इस आपदा के बाद पर्यटन नीति का हिस्सा बनाया ही जाना चाहिए।

हालाँकि इस आपदा ने उत्तराखण्ड के विकास माडल पर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। लेकिन विकास के लिए वर्तमान माडल के समर्थकों की हर बात मान भी लें तो भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि आखिर इस विकास का क्या मूल्य देश को चुकाना पड़ रहा है।

2010 में उत्तराखण्ड को राष्ट्रीय आपदा राहत कोष से 115 करोड़ रुपए नियमित आपदा राहत राशि के तौर पर मिले थे। जून 2010 से सितम्बर 2010 तक वर्षा जनित आपदा के दौर के बाद 500 करोड़ फौरी राहत के तौर पर उसे मिले थे और 517 करोड़ बाद में दिए गए थे। हालाँकि निशंक सरकार की माँग 21 हजार करोड़ की थी। 2011 और 2012 में भी आपदा राहत राशि हजार करोड़ से अधिक ही रही और इस वर्ष तो पहली ही किस्त हजार करोड़ की है। एक आकलन के मुताबिक पिछले चार वर्षो में प्राकृतिक आपदा से हर वर्ष उत्तराखण्ड को 5 हजार करोड़ से ज्यादा की चोट पहुँचती रही है और इस वर्ष तो नुकसान ने सारे आँकड़े ही छोटे कर दिए हैं। सड़कें बह गई हैं, इमारतें-बस्तियाँ बह गई हैं। पुलों का नामोनिशान मिट गया है, गाँव के गाँव तबाह हो गए हैं और कथित विकास के प्रतीक कहे जाने वाले अनेक बाँधों-टनलों और अन्य निर्माणों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है। हालाँकि कुछ लोग इस बात की भी दुहाई दे रहे हैं कि टिहरी बाँध ने आपदा को भयावह होने से बचा लिया और अगर यह बाँध नहीं होता तो हरिद्वार और ऋषिकेश भी साफ हो जाते।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि टिहरी बाँध से आपदा की भयावहता कम हुई है। सत्रह जून से 18 जून के बीच लगभग 12 घण्टे में ही टिहरी बाँध का जल स्तर 25 मीटर ऊपर चढ़ गया था। करीब 5 हजार क्यूसेक पानी टिहरी बाँध ने रोक लिया और उन दिनों भी टिहरी से बिजली बनने के बाद सिर्फ 565 क्यूसेक पानी ही नीचे को छोड़ा जाता रहा। ऐसे में यह कल्पना डरावनी लगती है कि जब अकलनन्दा के 4000 क्यूसेक पानी ने ही इतनी तबाही मचाई है तो अगर इसमें भागीरथी का 5000 क्यूसेक पानी भी मिल जाता तो क्या होता। लेकिन सिर्फ इसी एक तर्क से टिहरी बाँध के सारे गुनाहों को माफ नहीं किया जा सकता। यह तो संयोग ही था कि इस वर्ष यह जल प्रलय बरसात के पहले दिन ही आ गई। लेकिन अगर यही अतिवृष्टि बरसात के अंतिम चरण में हुई होती जब टिहरी बाँध अपने उच्चतम जल स्तर को छू रहा होता तब क्या यह टिहरी बाँध ही विनाश का टाइम बम नहीं बन जाता। और फिर यह भी देखा जाना चाहिए कि भागीरथी के ऊपरी क्षेत्र से पानी के साथ बह कर आई अथाह गाद, मलवा मिट्टी और पत्थरों ने टिहरी बाँध की उम्र को कितना कम कर दिया होगा। हजारों करोड़ के निर्माण की अल्पायु में मृत्यु विकास लाएगी या देश की जनता की गाढ़ी कमाई की आपराधिक बर्बादी। टिहरी बाँध सहित उत्तराखण्ड की हर बिजली परियोजना की उत्पादकता को हर वर्ष वर्षा के बाढ़ में भरने वाली गाद-मिट्टी से कम होती जा रही उसकी उम्र के सापेक्ष भी देखा जाना चाहिए और उसी आधार पर विकास के लाभ-हानि की गणना भी होनी चाहिए।

अगर यह मान भी लिया जाए कि उत्तराखण्ड में कथित विकास से कोई समस्या पैदा नहीं हो रही है। बड़े बाँधों ने, बारूदी विस्फोटों ने, अवैध खनन ने, अतिक्रमण ने, नदियों को नालियों में तब्दील किए जाने ने, अनियंत्रित पर्यटन ने और वन विनाश ने भी कहीं कोई समस्या पैदा नहीं की है तो भी उत्तराखण्ड में हर वर्ष जो तबाही हो रही है उसे तो स्वीकार करना ही होगा ना। और इस तबाही में अगर हमारे बाँध नहीं बच पा रहे हैं, हमारी टनलें नही बच पा रही हैं, हमारी सड़कें नहीं बच पा रही हैं, बस्तियाँ नहीं बच पा रही हैं तो इन्हंे बचाने का उपाय सोचने की जरूरत तो आज महसूस की जानी ही चाहिए और इस प्रश्न पर तो किसी को असहमति नहीं होनी चाहिए।

इसलिए मौजूदा आपदा का सबसे बड़ा सबक यही होना चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर हिमालय की सेहत को ठीक रखने के उपाय तय हों, उन पर प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई हो और उसमें किसी भी तरह के अपवाद न छोड़े जाएं।

उत्तराखण्ड के स्तर पर भी अनेक सतर्क कदमों की जरूरत है और उत्तराखण्ड की विकास नीतियों को भी नए सिरे से प्राथमिकताओं और सीमाओं के आधार पर तय किया जाना चाहिए। पैसे के बूते वोट खरीद कर जनता के विकास के भाग्य विधाता बने राजनेताओं के भरोसे इस सवाल को नहीं छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि यह सवाल आज उत्तराखण्ड में हर वर्ष आने वाली तबाही का ही सवाल नहीं है। यह तो अब उत्तराखण्ड के अस्तित्व का सवाल बन चुका है। इसलिए इसके समाधान की राह खोजने में स्थानीय चेतना, अनुभवों और ज्ञान का भी सहयोग लिया जाना चाहिए। बार-बार के अनुभवों ने सिखाया है कि उत्तराखण्ड में अब आपदा राहत का सारा महत्वपूर्ण कार्य सेना के हवाले कर दिया जाना चाहिए। कम से कम सड़कों के निर्माण और नदियों के किनारे कटान रोकने आदि के काम तो स्थानीय ठेकेदार -नेता के भ्रष्टतम गठजोड़ के हवाले नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उत्तराखण्ड में अभी से यह चर्चाएं शुरू हो गई हैं कि बहुत से लोग अभी से आपदा राहत से होने वाली कमाई की गिनती में जुट गए हैं, ऐसे में आपदा राहत की भारी-भरकम रकम और काम पूरा करने की जल्दी पहले से ही चल रहे भ्रष्टाचार के कारोबार को ही फलने-फूलने का मौका देगी। इसलिएऐसे सभी कार्य सेना के हवाले कर दिए जाने चाहिए ताकि भ्रष्टाचार भी न हो, काम की गुणवत्ता भी बनी रहे और आपदा के कफन से अपने सूट सिलाने वाले भ्रष्टतंत्र के घर भी न भर सकें।

राज्य में पर्यटन को नियंत्रित करने की दिशा में भी अब ठोस कदम उठाने का वक्त आ गया है। केदारनाथ या यमुनोत्री जैसी जगहों में इलाहाबाद कुम्भ की तर्ज पर यात्रियों के आने-जाने को नियंत्रित किया जाना जरूरी है। जिसे अपना परलोक सुधारना हो वह समय निकाल कर आए। तसल्ली से यात्रा करे और जमीन से आए-जाए ताकि यात्रा पर्यटन आम आदमी से जुड़ा रहे। हेमकुण्ड लोकपाल, गौमुख या अन्य उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पिकनिक के लिए आने पर भी सख्त रोक होनी चाहिए। यात्रा सीजन में आपात स्थितियों से निपटने के लिए सभी यात्रा पड़ावों में पूरे प्रबन्ध होने चाहिए। केदारनाथ या गंगोत्री जैसी जगहों में मेडिकल सुविधाओं का स्तर भी सुधारा जाना चाहिए ताकि आपदा की स्थितियों में लोगों को मदद पहुँचाई जा सके और उनकी जान बचाई जा सके।

राहत के लिए एक त्वरित राहत और बचाव बल की स्थापना भी होनी चाहिए। इस बल में स्थानीय ग्रामीणों को भी प्रशिक्षित कर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जरूर शामिल किया जाना चाहिए। स्थानीय सहयोग एक जमाने में पहाड़ों की आग बुझाने में बहुत प्रभावकारी होता था। किसी जमाने में एस एस बी के जरिए उत्तराखण्ड की ग्रामीण महिलाओं एवं पुरुषों को प्रशिक्षित किया जाता था। वर्तमान में भी आपदा से निपटने और प्राथमिक राहत के तरीकों के लिए इसी तरह का प्रशिक्षण स्थानीय लोगों को दिया जाना चाहिए। बरसात के दिनों में दूर-दराज के स्थानों के लिए राशन और ईंधन के पर्याप्त स्टाक की व्यवस्था की जानी चाहिए। सड़कों में अस्थाई पुलों का निर्माण हो सके इसके लिए अति संवेदनशील इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था का भी प्रबन्ध होना चाहिए। यात्रा क्षेत्र में मोटर मार्गों के साथ पुराने पैदल मार्गों को वैकल्पिक मार्गों के तौर पर तैयार किया जाना चाहिए। स्थानीय आपदा पीडि़तों के राहत और पुनर्वास के लिए भी नए मानक बनाए जाने चाहिए और इसमें मानवीय पक्ष को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। आपदा के पूर्वानुमान के बारे में भी अत्याधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों का इस्तेमाल करने की योजना को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर लागू किया जाना चाहिए। इस आपदा ने बता दिया है कि अब वक्त हिमालय को संवेदनशीलता के साथ समझने का है। दम्भ- लोभ-लालच की जिद और हठधर्मिता अब खत्म होनी चाहिए। मौजूदा आपदा को लेकर भी वोटों के सौदागर जिस तरह से बाजार सजा रहे हैं यह तो अब बन्द ही हो जाना चाहिए।

16-17 जून 2013 की आपदा उत्तराखण्ड के अस्तित्व के लिए अन्तिम चेतावनी समझी जानी चाहिए। अब हिमालय में जीने के लिए संयमित संतुलित विकास की नयी सोच अपनाए जाने की जरूरत है। अब भी नहीं संभले तो यह तय है कि उत्तराखण्ड नहीं बचेगा। और अगर उत्तराखण्ड नहीं बचा तो देश का बहुत बड़ा हिस्सा भी तबाही झेलने को मजबूर होगा। क्योंकि हिमालय न सिर्फ देश के मौसम का नियंत्रक है बल्कि वो उत्तर भारत के लिए पानी का भी सबसे बड़ा स्रोत है। साथ ही कमजोर और निर्माण के दौर से गुजर रहे हिमालय में उत्तराखण्ड भूगर्भीय दृष्टिकोण से भी बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। इसलिए इस अंतिम चेतावनी को किसी भी हाल में अनसुना-अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।

http://www.nainitalsamachar.in/this-disaster-was-destined-to-happen/

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