गरीबी उन्मूलन नहीं हैं, गरीबों के सफाये के आँकड़े हैं ये
पलाश विश्वास
योजना आयोग के ताजा आँकड़ों से पता चलता है कि भारत लोक गणराज्य में लोक कल्याणकारी राज्य के अवसान के बाद क्रयशक्ति निर्भर खुले बाजार में किस तेजी से गरीबों का सफाया हो रहा है। लगातार बढ़ती महँगाई के बीच केन्द्र की संप्रग सरकार ने दावा किया है कि उनके कार्यकाल में गरीबों की संख्या पहले के मुकाबले आधी रह गयी है। गरीबों की संख्या घट रही है, कम से कम सरकारी आँकड़े तो यही बता रहे हैं। 2005 में देश की करीब 48 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी, अब ये गिनती घटकर 22 फीसदी पर आ गयी है। योजना आयोग ने जो आँकड़े जारी किये हैं उसके हिसाब से देश के गाँवों में करीब 26 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं, जबकि शहरों में करीब 14 फीसदी गरीब हैं। आयोग के मुताबिक गाँवों में जो लोग 816 रुपये महीना और शहरों में 1,000 रुपये महीना से कम कमाते हैं वो गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं।
ये आँकड़े गरीबी उन्मूलन के नहीं हैं, गरीबों के सफाये के हैं। पूरी विकासगाथा आँकड़ा निर्भर हैं और आँकड़ों को ग्राफिक्स में ठीक-ठाक दिखाने के लिये परिभाषाएं बदलने में योजना आयोग उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया किसी जादूगर से कम करिश्माई नहीं हैं। हम भारत के पढ़े लिखे सभ्य लोग इसी आँकड़ों के तिलिस्म में साँस लेने के अभ्यस्त हो गये हैं, क्योंकि विकास की चूंती हुयी मलाई पढ़े लिखों तक अब भी पहुँच रही है। मुश्किल उन लोगों की है जिन्हें रोज नये- नये आँकड़े, ताजातरीन कॉरपोरेट नीति निर्धारण और रोज बदलते कानून के तहत हाशिये पर धकेल दिया जाता है। प्रति व्यक्ति खपत के आधार पर देश की आबादी में गरीबों का अनुपात 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत पर आ गया। यह 2004-05 में 37.2 प्रतिशत पर था। योजना आयोग ने एक प्रकार से अपने पूर्व के विवादास्पद गरीबी गणना के तरीके के आधार पर ही यह आँकड़ा निकाला है। यानी जो प्रतिशत घटा है, वह योजना आयोग के मानदण्ड के मुताबिक अब किसी सरकारी अनुदान, मदद या राहत के पात्र नहीं है। उन्हें अपनी अर्जित क्रयशक्ति के अनुसार बची हुई साँसें खरीदकर जीना है। ये आँकड़े उसी को अधिसूचित कर रहे हैं।
राजनीति का हाल यह है कि कुड़नकुलम परमाणु बिजली केन्द्र हो या जैतापुर, नियमागिरि हो या पास्को साम्राज्य ओड़ीशा के विस्तीर्ण इलाका, सेज पर सजा कच्छ का रण हो या नर्मदा बाँध से लेकर टिहरी बांध, या समूचा हिमालय. समूचा पूर्वोत्तर, समूचा दंडकारण्य जहाँ भारतीय जनता पर सैन्य राष्ट्र सबसे ज्यादा हमलावर है, वहाँ राजनीति खामोश है और लोकतन्त्र भी। जनप्रतिरोध राष्ट्रद्रोह का पर्याय बना दिया गया है जबकि असली राष्ट्रद्रोही देश बेचने का धंधा कर रहे हैं। लातिन अमेरिकी देशों में, अमेरिका के सहोगी समेत ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों मे अमेरिकी प्रिज्म निगरानी की कड़ी आलोचना हो रही है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति जो बिडन को भारत आने से पहले ब्राजील सरकार को सफाई देनी पड़ी। पर अपने ही नागरिकों की निगरानी के खिलाफ स्टिंग आपरेशन, फोन टैपिंग और घोटलों के पर्दाफाश, आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दलों के लेने पर भारी हंगामा करने वाली राजनीति एकदम खामोश रही। भारत सरकार बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के जरिये नागरिकों की निगरानी और उनसे निष्कृति के तमाम कारपोरेट उपाय कॉरपोरेट पुरोहित नंदन निलेकणि के अश्वमेधी आधार अभियान के जरिये कर ही रही है और इस असंवैधानिक गैरकानूनी कॉरपोरेट योजना से सारी बुनियादी सेवाएं जोड़कर नागरिकों के अधिकारों को नलंबित कर रही है। भारत सरकार तो विरोध करने से रही जबकि भारत अब आतंक के खिलाफ अमेरिका और इजराइल के युद्ध में साझेदार है और इसी साझेदारी की शर्त पर भारत अमेरिकी परमाणु संधि पर दस्तखत करके दक्षिण एशिया को युद्ध और गृहयुद्ध का स्थाई कुरुक्षेत्र बना दिया गया है। हमारी आंतरिक सुरक्षा अब अमेरिकी और इजराइली निगरानी पर निर्भर है।
सबसे मजे की बात है कि बात बात पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रबल जनान्दोलन करने वाले वामपंथियों को बंगाल में खोयी सत्ता का ऐसा सदमा लगा है कि जिस परमाणु संधि को रोकने के लिये उसने संधि का कार्यान्वन सुनिश्चित हो जाने पर तत्कालीन यूपीए सरकार से नाता तोड़ लिया, वह परमाणु संधि उसके लिये अब कोई मुद्दा ही नहीं है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति के आने से पहले रुपये की गिरावट थामने चिदंबरम वाशिंगटन भागे थे जहाँ वे देश बेचने का पक्का इन्तजाम कर आये। अमेरिका से उनके लौटते ही सुधारों की बहार आ गयी। बाकी क्षेत्रों को खोल देने के बाद भारतीय प्रतिरक्षा और भारतीय मीडिया को प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश के लिये खोलकर देश की संप्रभुता और लोकतन्त्र के ताबूत पर आखिरी कीलें ठोंकने का काम कर ही चुके हैं चिदंबरम और सारी राजनीति और अराजनीति चिदंबरम मोंचेक के आँकड़ों के तिलस्मी भूलभुलैया में भटक गयी है। लोकसभा चुनावों के समीकरण साधन में बिजी राजनीति को यह अहसास ही नहीं होता कि रोज आर्थिक सुधारों के अश्वमेध में कोताही के लिये अमेरिकी आकाओं से घुड़की खाने के बाद कैसे कैसे संसद को बाईपास करके रातों रात कानून बदल दिये जा रहे हैं। राजनय भारतीय संसद और कानून व्यवस्था के मातहत है ही नहीं और न विदेशों के साथ होने वाले समझौते। जाहिर है कि वित्तीय प्रबन्धक से लेकर सत्ता शिखरों के लोगो का कायाकल्प शेयर बाजार के आक्रामक सांड के रूप में हो गया है, जिनके आँकड़े छलावा के सिवाय कुछ नहीं हैं और जिनकी परिभाषाएं अब जनविरोधी ही नहीं, बाकायदा देशद्रोही हैं।इसी तरह अमेरिकी युद्ध कारोबार के तमाम सौदागर भारत आ जा रहे हैं। चिंदंबरम उनसे मिल ही आये। भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के वाणिज्यिक इस्तेमाल पर समझौते बेखटके हो रहे हैं और किसी को कोई मतलब नहीं है। हमारे सामने व्यापार घाटे, विदेशी मुद्रा भंडार, रुपये के अवमूल्यन, विकास, राजस्व घाटे, रेटिंग, शेयरों की ताजा उछाल के आकड़ें छत्तीस व्यंजन की तरह सजा दिये गये तो हम खाते हुये अघाते ही नहीं है। भुक्खड़ों के देश में इसके अलावा कुछ हो भी नहीं सकता।
भारतीय अर्थव्यवस्था अब आँकड़ों में ही सिमट कर रह गयी है। विदेशी रेटिंग संस्थाएं विदेशी निवेशकों के हितों के मुताबिक कारपोरेट लॉबिंइंग को मजबूत करते हुये अपनी रेटिंग के जरिये विकास भविष्यवाणियां करके मौद्रिक व वित्तीय नीतियों का समायोजन करती हैं। राजस्व घाटा के अबाध विदेशी पूँजी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनिवार्यता को साबित करने के मद्देनजर दर्शाया जाता है। जबकि बजट घाटा हो या भुगतान संतुलन, उसके स्थाई समाधान के कोई उपाय ही नहीं होते। बहिष्कार और जनसंहार संस्कृति पर आधारित इस अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याओं को संबोधित करने की कोई कोशिश नहीं होती। 1991 में मनमोहनी अवतार के बाद से कारपोरेट आकाओं का वर्चस्व है सलोकतान्त्रिक प्रणाली, जहाँ संसद, न्यायपालिका, मीडिया और सरकार गैर प्रासंगिक हैं। कारपोरेट हित में राष्ट्रपति भवन तक का भी बेहिचक इस्तेमाल हो रहा है। निजी बिजली कम्पनियों के हित साधने के लिये कोयला घोटाला के राष्ट्रव्यापी शोरशराबे के बीच कोल इण्डिया का वर्चस्व तोड़कर कोल नियामक ही नहीं बनाया गया, बल्कि ईंधन आपूर्ति समझौते के लिये कोल इण्डिया को मजबूर करने के लिये दो दो बार राष्ट्रपतिभवन से डिक्री जारी हो गयी। जाते जाते प्रतिभा पाटिल एक डिक्री जारी कर गयी, तो प्रणव मुखर्जी ने एक और जारी कर दिया। आँकड़ों और ग्राफिक्स के सहारे ऊर्जा संकट परिभाषित करके कोयला आयात का बोझ उपभोक्ताओं पर डाल दिया गया और बिजली दरें बेलगाम हो गयी। तेल व गैस भंडार खत्म हो रहे हैं, तो जापान के समुंदर स्रोत से अर्जित गैस के मूल्य निर्धारण तरीका अपनाकर भारत के गैर समुद्रीय गैस भंडार की गैस की कीमतें दोगुणी कर दी गया। रिलायंस का लाभ 33 फीसद से ज्यादा हो गया। शेयर बाजार की सेहत सुधर गयी। जबकि सरकारी प्रचार तन्त्र के आँकड़े यही साबित करने में लगे हैं कि ओएनजीसी समेत सरकारी तेल कम्पनियां कितने फायदे में हैं। जैसे कि रिलायंस को इस वृद्धि से कोई मुनाफा होना ही नहीं है। हाल यह है कि कोल इण्डिया और ओएनजीसी समेत जीवन बीमा निगम, भारतीय स्टेट बैंक, बंदरगाह, भारतीय रेल और भारतीय डाक जैसी सेवाओं का बेतहाशा निजीकरण हो रहा है। यूनियनें दलाली के सिवाय कुछ नहीं कर रहीं।
अर्थव्यवस्था की बुनियाद उसकी उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करके उसी मलबे की नींव पर यह हवाई बुलबुले को भारतीय वित्त प्रबन्धक आँकड़ों के जरिये मैनेज कर रहे हैं। औद्योगिक उत्पादन शून्य से थोड़ा ऊपर है और भारत जैसे कृषि प्रधान देश, जहाँ जनसंख्या का निनानब्वे फीसद हिस्सा किसी न किसी रुप से खेतों से जुड़ा हुआ है, वहां कृषि की हत्या करदी गयी। कृषि विकास दर औरऔद्योगिक विकास दर बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था को आउटसोर्सिंग, आयात, विदेशी निवशक संस्था, अबाध पूँजी प्रवाह, कालाधन, घोटाला, और शिक्षा, चिकित्सा, खाद्य, रोजगार, आवास, परिवहन, बिजली, ईंधन, बुनियादी ढाँचा जैसी सेवाओं के निजीकरण के गड़बड़झाला का पर्याय बना दिया गया है। यह पूरा तन्त्र क्रयशक्ति के वर्चस्व, बहिष्कार, अस्पृश्यता, नस्ली भेदभाव और जनसंहार आधारित है। जाजार के विस्तार को ही विकास बताया जा रहा है। भारतीय जनता को जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता नागरिक और मानव अधिकारों से वंचित करना ही विकास है। नस्ली भेदभाव के तहत चुने हुये भूगोल के विरुद्ध युद्ध की निरंतरता ही आर्थिक नीतियों की निरंतरता है।
ऊर्जा की खपत और प्रतिरक्षा व्यय अर्थव्वस्था के मौजूदा हालात के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं और इस मामले में नीति निर्धारण प्रक्रिया में कोई पारदर्शिता नहीं है। आटोमोबाइल उद्योग को हर किस्म का प्रोत्साहन है और सारे स्वर्णिम राजपथ उन्हीं के हैं। सड़कें हैं नहीं, पर्यावरण को दावँ पर लगाकर कार्बन उत्सर्जन को चरम सीमा पर पहुँचाकर सत्ता वर्ग की जो ऊर्जा खपत है, उसकी चपेट में है पूरा देश। सब्सिडी घटाकर गरीबों के सफाये का इन्तजाम हुआ लेकिन किसी भी स्तर पर ऊर्जा अनुशासन है नहीं। सत्ता वर्ग के इस ऊर्जा खपत का खर्च हर करदाता की जेब से जाती हैं। सामाजिक सुरक्षा का बंदोबस्त राजनीतिक है वोट बैंक सापेक्ष और उसका कोई आर्थिक प्रबन्धन है नहीं। खास वोटबैंक को खुसकरने के लिये बाकी जनता पर और ज्यादा बोझ का तन्त्र है यह। बाजार के विस्तार के लिये सरकारी खर्च बढ़ाने की रणनीति के तहत इन योजनाओं की पात्रता तय करने और बाकी लोगों के बहिष्कार, नस्ली भेदभाव, अस्पृश्यता और जनसंहार के आधार तय करनेके लिये विकास दर राजस्व घाटा, गरीब, जैसे आधारभूत परिभाषाएं बार बार बदली जा रही हैं
No comments:
Post a Comment