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Tuesday, July 16, 2013

मशरख जैसा हादसा बंगाल में भी संभव!

मशरख जैसा हादसा बंगाल में भी संभव!


भुखमरी के कगार पर खड़े परिवारों के बच्चे शिक्षा के लिए नहीं, दोपहर के भोजन के लिए इन स्कूलों में जाते हैं। कैसा राशन आता है,किस तेल में पकाया जाता है भोजन, उस भोजन का पुष्टिगुण क्या है,इसकी निगरानी का कोई इंतजाम कहीं नहीं है।बंगाल में भी नहीं है।सामाजिक योजनाओं की आड़ में मौत का जो कारोबार चल रहा है,उसकी निगरानी का कोई चाकचौबंद इंतजाम कहीं भी नहीं है। सत्ता का एजंडा तो वोट बैंक सध जाने से पूरा हो जाता है, लेकिन मृत्यु और विकलांगता के अंधकूप में धकेले दी जा रही गरीब जनता के मताधिकार के अलावा उनके मनुष्य अस्तित्व का तनिक सम्मान करने से भी बचता है नागरिक समाज।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​



अभी कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के औचित्य पर बोलते हुए विश्वविख्यात अर्थशास्त्री डा.अमर्त्य सेन ने सामाजिक योजनाओं के तहत दिये जाने वाले भोजन की गुणवत्ता और शिक्षा बजट के सवाळ उठाये थे।यह खबर जैसी छपनी चाहिए थी और इस पर गंभीरता पूर्वक जो बहस चलनी चाहिए थी,उसकी गुंजाइश बनने से पहले बिहार के छपरा में बच्चों के मृत्युजुलूस ने साप बता दिया कि खैरात में मिला भोजन कितना जहरीला हो सकता है और वह सर्वव्यापी कुपोषण का इलाज नहीं है।प्राथमिक शिक्षा पर बजट और शिक्षा की गुणबत्ता मिड डे मील तक सीमाबद्ध हो गया है।छोटे बड़े हादसे होते रहे हैं,लेकिन एक रुपये दो रुपये का  चावल बांटकर गरीबोंके वोट खरीदने के खतरनाक दस्तूर मिड डे मील के तमाशे से निकले इस मृत्यु जुलूस ने बेपर्दा कर दिया है।बिहार के सारण जिला के मशरख प्रखंड अंतर्गत धर्मशाती गंदावन गांव में स्थित एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में मंगलवार को विषाक्त मध्याहन भोजन खाने से 20 बच्चों की मौत हो गई, जबकि 48 अन्य बीमार पड़ गए। मुख्यमंत्री ने मृतकों के परिवार को दो-दो लाख रुपये देने की घोषणा की और कहा कि बीमार बच्चों का मुफ्त में इलाज किया जाएगा।


जिनके पास क्रयशक्ति नहीं है और इस शिक्षा बाजार के निजी स्कूलों में बच्चों को दाखिला दिलान की कुव्वत नहीं है जिनकी,सर्वशिक्षा अभियान के तहत उनके बच्चे शिक्षा पाये या नहीं पाये, उनको खिचड़ी का प्रसाद अवश्य मिल जाता है। इन स्कूलों में शिक्षक पर्याप्त संख्या में होते नहीं हैं।जो होते हैं,वे खिचड़ी प्रबंधन में निष्णात होते हैं। भुखमरी के कगार पर खड़े परिवारों के बच्चे शिक्षा के लिए नहीं, दोपहर के भोजन के लिए इन स्कूलों में जाते हैं। कैसा राशन आता है,किस तेल में पकाया जाता है भोजन, उस भोजन का पुष्टिगुण क्या है,इसकी निगरानी का कोई इंतजाम कहीं नहीं है।बंगाल में भी नहीं है।


मशरख जैसा हादसा बंगाल में भी हो सकता है। यहां मिड डे मील पर जो थोड़ी बहुत सुर्खियां बनती रही है, वह खाना पकाने वालों के जाति प्रसंग को लेकर हैं। नीची जाति के हाथों पकाया भोजन खाने से इंकार से संबंधित है। अभी भारतीय खाद्य निगम के गोदामों और यात्रापथ पर सड़ते अनाज की खैरात पर देशभर में कहीं चर्चा हुई ही नहीं है।बंगाल के अतिमुखर कामरेड और अति सक्रिय सिविल सोसाइटी को खाद्य सुरक्षा अभियान और स्रवशिक्षा अभियान के संदर्भ में जरूरी सवाल करने की फुरसत ही नहीं मिली। यहां तक कि विश्वविख्यात डा. अमर्त्य सेन भी राजनीतिक रुप से सही होने के फिराक में साफगोई से बचते रहे हैं। सामाजिक योजनाओं की आड़ में मौत का जो कारोबार चल रहा है,उसकी निगरानी का कोई चाकचौबंद इंतजाम कहीं भी नहीं है। सत्ता का एजंडा तो वो़ट बैंक सध जाने से पूरा हो जाता है, लेकिन मृत्यु और विकलांगता के अंधकूप में धकेले दी जा रही गरीब जनता के मताधिकार के अलावा उनके मनुष्य अस्तित्व का तनिक सम्मान करने से भी बचता है नागरिक समाज।


बंगाल में पिछले दिनों 35 हजार शिक्षकों की भर्ती के लिए 45 लाख युवाओं ने जान की बाजी लगाकर दूर दराज के परीक्षाकेंद्रों में पहुंचकर परीक्षा दी। उसका नतीजा आया नहीं  है।प्राथमिक शिक्षा और सर्व शिक्षा के खिचड़ी बजट में इन स्कूलों में शिक्षकों की सर्वोच्च योग्यता खिचड़ी पकाने की सक्षमता ही है। इन स्कूलों में मिड डे मील के लिए लगती भीड़ में शामिल भूख के मारे बच्चों के माता पिता को भोजन के सिवाय कोई और चिंता नहीं भहोती। निजी स्कूलों केअभिभावकों की जागरुकता की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती। राश न की दुकानों में बीपीएल अनाज की कतार में जिस देश प्रदेश का भूगोल सिमट रहा हो, वहां इससे बेहतर व्यवस्था की उम्मीद भी नहीं की जा सकती।


मध्यान्ह भोजन (मिड डे मील) योजना भारत सरकार तथा राज्य सरकार द्वारा संचालित की जाती है, जो कि 15 अगस्त 1995 को लागू की गई थी, जिसमे  कक्षा 1 से 5 तक के सरकारी, परिषदीय, राज्य सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थियों को, जिनकी उपस्थिति 80 प्रतिशत है, उन्हे हर महीने 3 किलो गेहूं या चावल दिए जाने का प्रावधान था। लेकिन इस योजना के अंतर्गत पढ़ने वाले बच्चो को दिए जाने वाले खाद्यान्न का पूरा फायदा उन्हे न पहुंचाकर, उनके परिवार के बीच बंट जाता था, जिससे उन्हे जरूरी पोषक तत्व कम मात्रा में मिलते थे।


28 नवम्बर 2001 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश मे दिनांक 1 सितम्बर 2004 से पका पकाया भोजन प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराये जाने की योजना आरम्भ कर दी गई। योजना की सफलता को देखते हुए अक्तूबर 2007 से इसे शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े ब्लॉकों में स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालयों तथा अप्रैल 2008 से शेष ब्लॉकों एवं नगर क्षेत्र में स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालयों तक विस्तारित कर दिया गया।


इस योजना पर साल 2008 से लेकर 2012 तक क्रमश: 5835.44, 6539.52. 6937.79, 9128.44, 9901.92 करोड़ एवं जुलाई 2012 तक 4343.14 करोड़ रुपये खर्च किया जा जुका है। वर्तमान मे इस योजना द्वारा लगभग 12 लाख विद्यालयों के 11 करोड़ विद्यार्थियों को लाभान्वित किया जा रहा है।


पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा कर बच्चों में शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता को विकसित करने, विद्यालयों में छात्र संख्या बढ़ाने, प्राथमिक कक्षाओं में विद्यालय में छात्रों के रुकने की मानसिकता विकसित करने, बच्चों में भाई-चारे की भावना विकसित करने तथा उन्हें एक साथ बिठा कर भोजन कराना, ताकि उनमे अच्छी समझ पैदा हो और विभिन्न जातियों एवं धर्मों के बीच के अंतर को दूर करें, इसके लिए मध्यान्ह भोजन प्राधिकरण का गठन अक्टूबर 2006 मे किया गया।


इस योजना के अन्तर्गत विद्यालयों में मध्यावकाश में बच्चो को स्वादिष्ट भोजन दिये जाने का प्रावधान है। प्रत्येक छात्र को सप्ताह में 4 दिन चावल का बना भोजन तथा 2 दिन गेहूं से बना भोजन दिए जाने की व्यवस्था है। इस योजना मे भारत सरकार द्वारा प्राथमिक स्तर पर 100 ग्राम प्रति छात्र प्रति दिन एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर 150 ग्राम प्रति छात्र प्रति दिन की दर से भोजन (गेहू/चावल) उपलब्ध कराया जाता है।


प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराये जा रहे भोजन में कम से कम 450 कैलोरी ऊर्जा व 12 ग्राम प्रोटीन एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में कम से कम 700 कैलोरी ऊर्जा व 20 ग्राम प्रोटीन उपलब्ध होना चाहिए। भोजन पकाने का काम ग्राम पंचायतों व वार्ड सभासदों की देख रेख में किया जा रहा है।


भोजन बनाने के लिए आवश्यक खाद्यान्न (गेहूं एवं चावल) फूड कॉरपोरशन ऑफ इंडिया से निःशुल्क प्रदान किया जाता है। ये सारी सामग्री ग्राम प्रधान को उपलब्ध करायी जाती है, जो अपनी देखरेख में विद्यालय परिसर में बने किचन शेड में भोजन तैयार कराते है।


भोजन बनाने के लिए लगने वाली अन्य आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी भी ग्राम प्रधान की ही है। इसलिए उसे उसकी लागत ग्राम प्रधान व प्रधानाध्यापक के ज्वाइंट खाते मे उपलब्ध करायी जाती है। नगर क्षेत्रों में अधिकतर स्थानों पर भोजन बनाने का कार्य स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है।


विद्यालयों में पके-पकाए भोजन की व्यवस्था की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए नगर क्षेत्र पर वार्ड समिति एवं ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम पंचायत समिति का गठन किया गया है। मंडल स्तर पर मंडलीय सहायक निदेशक (बेसिक शिक्षा) को दायित्व सौंपा गया है।


जनपद स्तर पर जिलाधिकारी को नोडल अधिकारी का दायित्व सौंपा गया है। विकास खंड स्तर पर उपजिलाधिकारी की अध्यक्षता में टास्क फोर्स गठित की गई है, जिसमे सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी उप विद्यालय निरीक्षक को सदस्य सचिव के रूप में नियुक्त किया गया है।


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