नई दिल्ली, 23 जुलाई, 2013.
डॉ0 उदित राज, राष्ट्रीय अध्यक्ष - अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघएवं इंडियन जस्टिस पार्टी ने कहा कि 19 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, श्री अल्तमस कबीर ने एक फैसला सुनाया कि अब मेडिकल मंे प्रवेश लेने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक ही परीक्षा नहीं देना होगा बल्कि निजी कॉलेज स्वयं प्रवेश परीक्षा लेकर कर सकते हैं। सन् 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला दिया था कि अखिल भारतीय स्तर पर प्रवेश के लिए एक ही परीक्षा हो ताकि मेरिट भी बनी रहे और साथ-साथ गरीब एवं ग्रामीण क्षेत्र के भी विद्यार्थी प्रवेश पा सकें। क्या यह समझना मुश्किल है कि मुख्य न्यायाधीश ने ऐसा फैसला अपने सेवानिवृत्ति के आखिरी दिन क्यों किया? सरकारी मेडिकल कॉलेज देश में लगभग 150 हैं और निजी क्षेत्र में 200 से ऊपर हैं। हाल में संतोष मेेडिकल कॉलेज, गाजियाबाद में आयकर विभाग का छापा पड़ा तो पता लगा कि एक सीट 1 करोड़ से 2 करोड़ तक में बिकती है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अब लूट और बढ़ जाएगी। इससे न केवल गरीब एवं ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थी प्रभावित होेंगे बल्कि गुणवत्ता पर भी भारी असर पड़ेगा। निर्णय के बाद से ही देश में चर्चा होने लगी है कि अब भविष्य में यदि डॉक्टर को दिखाने जाएं तो यह जांच कर लें कि वे सरकारी कॉलेज में पढ़े हैं या निजी में। कॉलेज मैनेजमेंट कोटा के तहत जो भी प्रवेश पाते हैं उनका पढ़ाई-लिखाई का क्या स्तर होता है यह समझना मुश्किल नहीं है। अखिल भारतीय स्तर पर जब प्रवेश परीक्षा होती थी तो यह निश्चित होता था कि प्रवेश लेने वाले छात्र के पास न्यूनतम मेरिट होती है और वह मरीज के साथ में खिलवाड़ नहीं करेगा।
डॉ. उदित राज ने कहा कि उच्च न्यायपालिका यदि कानून का व्याख्यान समय पर कर दे तो उससे ही तमाम समस्या का समाधान हो जाएगा। अदालतों में मुकदमें 50 वर्ष से ज्यादा अवधि के पड़े हुए हैं। न्याय पाने के लिए ऐसे वकील के पास जाना मजबूरी होता है जो कि लाखों नहीं बल्कि करोड़ों मंे फीस लेते हैें। यह भी नहीं है कि उन्हीं के पास कानून का ज्ञान होता है। न्यायपालिका की ही गलती और पक्षपात से ही कुछ ही वकील ऐसे हैं जिनकी फेस वैल्यू है और लोग मजबूरी में उन्हीं के पास जाते हैं। वरिष्ठ वकील के पास शायद ही समय होता है कि वह केस को बहुत बारीकी से अध्ययन करे, जूनियर वकील पूरी तैयारी करके उन्हें बताते हैें और फिर जाकर के फेस वैल्यू के आधार पर बहस करते हैंे। यदि न्यायपालिका बिना फेस वैल्यू के बहस को महत्व दे तो यह महंगी न्यायप्रणाली काफी सस्ती हो सकती है। जो न्यायपालिका मेरिट के नाम पर जनप्रतिनिधि के बनाए कानून में टांग अड़ाती है क्या वह कभी सोचा कि वह किस मेरिट के तहत आए हैं? जज बनने के लिए क्या कोई इम्तिहान है? भाई-भतीजावाद एवं सिफारिश से ही ज्यादा जज बन रहे हैं, यह कौन नहीं जानता? हाल ही में सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश अपनी बहन को जज बनाना चाहते थे, इत्तिफाक से विरोध हो गया वरना बन भी जाती तो इसमें कहां मेरिट है? ये जज खुद मेरिट से आते तो जनप्रतिनिधियों के द्वारा बनाए कानून को बदलते तो बात समझ मंे आती। किसी भी देश में न्यायपालिका कानून बनाने का काम नहीं करती सिवाय भारत के। हद तो तब हो जाती है जब जज ही जज की नियुक्ति करते हैं। जनता के चुने प्रतिनिधियों ने यदि स्पेशयिलिटी और सुपर स्पेशयिलिटी में मेडिकल एवं इंजीनियरिंग में आरक्षण दिया तो उसको वे कैसे बदल सकते हैं? 50 वर्ष से ज्यादा अवधि के मुकदमे लंबित पड़े हैं न्यायपालिका उन्हें निबटाने में ध्यान दे न कि जनप्रतिनिधियों के बनाए कानून में अड़ंगा लगाकर के समय बर्बाद करे। डॉ. उदित राज ने आगे कहा कि दुर्भाग्य है कि ऐसा उच्चतम न्यायालय इसलिए कर रही है कि हमारे तमाम राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैंे और उसी का फायदा उठाया जा रहा है। सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्केंडेय काटजू ने कहा कि जजों को कानून नहीं बनाना चाहिए बल्कि वे इसे लागू करने के लिए निर्णय लें। विधायिका ही नहीं बल्कि कार्यपालिका भी भ्रष्ट है इसलिए इन्हें सीमा को पार करने का लाइसेंस मिल गया है।
(सी.एल. मौर्य)
निजी सचिव
9899766882
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