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Saturday, July 6, 2013

इतिहास के गर्भ से निकला डाइवर्सिटी का मुद्दा एच एल दुसाध

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-21

इतिहास के गर्भ से निकला डाइवर्सिटी का मुद्दा

                                     एच एल दुसाध

भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है.कारण,जिस वर्ण–व्यवस्था के द्वारा यह देश सदियों से परिचालित होता रहा है उसके प्रवर्तक आर्यों ने इसकी परिकल्पना चिरस्थाई तौर पर शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) को अपनी भावी पीढ़ी के लिए आरक्षित करने को दृष्टिगत रखकर की थी.चूँकि शुद्रातिशूद्र वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे इसलिए वे समय-समय पर इसमें अपनी हिस्सेदारी के लिए संघर्ष करते रहे.इस क्रम में शक्ति के स्रोतों पर काबिज हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों से उनका सघर्ष होता रहा.संपदा-संसाधनों के मसले पर शक्तिशून्य शुद्रातिशूद्रों और शक्तिसंपन्न हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों के मध्य संघर्ष ही भारत में वर्ग संघर्ष का इतिहास है;सदियों से शुद्रातिशूद्र बहुजनों का वर्ण-व्वस्था के खिलाफ संघर्ष और कुछ नहीं ,मात्र शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष है.आधुनिक भारत में इस संघर्ष को ऊंचाई प्रदान किया ज्योतिबा फुले,शाहूजी महाराज,रामासामी पेरियार और खास तौर से डॉ. आंबेडकर इत्यादि जैसे बहुजन नायकों ने .आंबेडकर उत्तर काल में जिन्होंने हिस्सेदारी की जोरदार लड़ाई लड़ी वे थे बिहार के लेनिन जगदेव प्रसाद और बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम.जगदेव प्रसाद ने जहां वर्ण-व्यवस्था के शोषितों को नब्बे प्रतिशत हिस्सेदारी दिलाने के प्रयास में अपना प्राण विसर्जित कर दिया,वहीँ कांशीराम ने अपने जीवन का एक-एक पल प्रत्येक क्षेत्र में 'जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी' लागू  करवाने में लगा दिया.

हिन्दू-आरक्षण की काट के लिए आधुनिक भारत में फुले ने जो विचार प्रणाली दिया उसका सुफल तब सामने आया जब आंबेडकर के प्रयत्नों से संविधान में आरक्षण का प्रावधान रचा गया.इससे दुनिया के सर्वाधिक अधिकारविहीन लोगों (दलित-आदिवासियों) को शक्ति के कुछ स्रोतों(आर्थिक –राजनीतिक) में कुछ शेयर सुनिश्चित हुआ.किन्तु भारत का इतिहास विशुद्ध आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है यह अप्रिय यथार्थ बड़ा रूप लेकर तब सामने आया जब मण्डलवादी आरक्षण की घोषणा हुई.इसके घोषित  होने के बाद जहाँ हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों की काबिल संताने आत्म-दाह और राष्ट्र की सम्पदा –दाह में जुट गईं,वहीँ सवर्णवादी संघ परिवार ने स्वधीनोत्तर भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन ही खड़ा कर दिया जिसके फलस्वरूप हजारों करोड़ की सम्पदा  तथा असंख्य लोगों  प्राणहानि हुई.बाद में दूसरी सवर्णवादी पार्टी के ब्राह्मण प्रधानमंत्री ने आंबेडकरी  आरक्षण को कागजों तक सिमटाये रखने के लिए 24 जुलाई,1991 को देश को भूमंडलीकरण की राह पर ठेल दिया.

बहरहाल जब मंडलोत्तर काल में आधुनिक भारत के चाणक्य नरसिंह राव ने भूमंडलीकरण अर्थनीति (रणनीति) ग्रहण की तब आरक्षित वर्ग के लोगों के मन में निंजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग कुण्डली मारने लगी.धीरे-धीरे कई संगठन निजी क्षेत्र  में आरक्षण की मांग को लेकर सडकों पर उतरने लगे.और जब सत्ता में आकर राष्ट्रवादी अटल बिहारी वाजपेयी अपने गुरु घंटाल नरसिंह राव को बौना साबित करने का लक्षण दिखाने लगे ,तब मूलनिवासी शुद्रतिशूद्रों को शतप्रतिशत विश्वास  हो गया कि सत्ता पर हिन्दू आरक्षणवादियों का एकमेव लक्ष्य आंबेडकरी आरक्षण को महज़ कागजो तक सिमटा देना है.तब निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग शोर में बदलने लगी.और समस्त आर्थिक गतिविधियों को निजी हाथों में सौंपने पर आमादा अटलजी जब 31  मार्च 2003 तक का समय रहते 31 मार्च 2001 तक ही 1429 वस्तुओं पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटाने के बाद चरम आंबेडकर विरोधी अरुण शौरी को विनिवेश मंत्री बनाकर सरकारी उपक्रमों को औने-पौने दामों में में बेचने की दिशा में अगसर हुए ,उन्ही दिनों चर्चित दलित बुद्धिजीवी चंद्रभान प्रसाद और उनके सहयोगी मित्रों के सौजन्य से भारतीय बौद्धिक क्षितिज पर सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी का उदय हुआ.चूँकि भारत का इतिहास निर्विवाद रूप से आरक्षण पर संघर्ष इतिहास है इसलिए जब अल्पजन सत्ताधारी जमात की ओर से आरक्षण के खात्मे के लिए सत्ता का इस्तेमाल होने लगा तब प्रतिकार स्वरूप मूलनिवासी बुद्धिजीवियों के समक्ष आरक्षण पर लम्बी लकीर खीचने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रहा.तो ऐसे में कहा जा सकता है कि भारतीय इतिहास(आरक्षण पर संघर्ष) के गर्भ से ही सर्वव्यापी आरक्षणवाली डाइवर्सिटी का जन्म हुआ.

खैर!आरक्षण के खात्मे षड्यंत्र के विरुद्ध जिस डाइवर्सिटी की विचार प्रणाली का उदय हुआ,वह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय तब बनी अब्राहम लिंकन सरीखे संवेदनशील ह्रदय के स्वामी दिग्विजय सिंह के सक्रिय सहयोग से 12-13  जनवरी ,2002 को भोपाल में चंद्रभान प्रसाद के नेतृत्व में दलित बुद्धिजीवियों का विशाल सम्मेलन आयोजित हुआ.दो दिन के भारी विचार मंथन के बाद उस सम्मलेन से डाइवर्सिटी केन्द्रित 21 सूत्रीय दलित एजेंडा जारी हुआ जिसे भोपाल घोषणापत्र भी कहा जाता है.भोपाल घोषणा को दलित मुक्ति का चार्टर मानते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायण ने 25  जनवरी,2002 को  राष्ट्र के समक्ष इसे अपनाने की अपील कर डाली .वैसे तो घोषित तौर पर भोपाल घोषणापत्र इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निबटने का 21 सूत्रीय एजेंडा था पर,सच तो यह है कि कई हज़ार वर्ष पूर्व वैदिक मनीषियों ने हिन्दू आरक्षण (वर्ण-व्यवस्था) के द्वारा मूलनिवासियों को शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत करने का जो सूत्र रचा था उसी का मुक्कमल प्रतिकार था डाइवर्सिटी केन्द्रित दलित एजेंडा.यह आरक्षण के संघर्ष पर केन्द्रित भारत के इतिहास में संभवतः सबसे महत्वपूर्ण अध्याय का आगाज़ था.

भोपाल सम्मलेन के बाद डाइवर्सिटी ने बड़े पैमाने पर राष्ट्र का ध्यान जरुर आकर्षित किया पर,लोग शंकित थे कि  क्या यह कभी लागू  भी हो पायेगी?किन्तु जब 27 अगस्त 2002  को मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने राज्य के समाज कल्याण विभाग में कुछ वस्तुओं की सप्लाई में एससी/एसटी के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की शुरुवात की,आरक्षण के खात्मे से भयाक्रांत लोगों,खासकर दलितों में एक नई उम्मीद का संचार हुआ.फिर तो ढेरों व्यक्ति और संगठन अपने-अपने तरीके से डाइवर्सिटी आन्दोलन को आगे बढाने जुट गए.नेताओं में जहा डॉ संजय पासवान ने इस मुद्दे पर पहली बार राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करने के बाद कई महत्वपूर्ण संगोष्ठियाँ आयोजित कीं,वहीँ बीएस-4  के राष्ट्रीय  अध्यक्ष आरके चौधरी ने 'निजी क्षेत्र में आरक्षण,अमेरिका  के डाइवर्सिटी पैटर्न पर' को अपनी पार्टी का एक सूत्रीय  एजेंडा बनाकर डाइवर्सिटी के पक्ष में अलख जगाना शुरू किया.डॉ.उदित राज भी इस मामले में पीछे नहीं रहे.भोपाल घोषणा से प्रेरित  होकर कई संगठनों  ने डाइवर्सिटी केन्द्रित मांगपत्र जारी किया.इस बीच कई डाइवर्सिटी संघर्ष समितियां भी आईं जिनमें 'दिल्ली डाईवर्सिटी ग्रुप' और और 'उत्तर प्रदेश डाइवर्सिटी ग्रुप' स्वयं चंद्रभानजी के नेतृत्व में गठित हुआ.इसके कुछ अन्तराल बाद स्वयं इस लेखक ने कुछ लेखकों के साथ मिलकर बहुजन डाइवर्सिटी मिशन(बीडीएम) की स्थापना किया.

बीडीएम की स्थापना के पूर्व जहाँ सिर्फ एससी/एसटी के लिए परम्परागत आरक्षण (सरकारी नौकरियों) से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार में संख्यानुपात में आरक्षण की मांग उठ रही थी,वहीँ शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने अर्थात भारत के चार सामाजिक समूहों-सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों –के स्त्री –पुरुषों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किये जाने की नई मांग उठने लगी.केंद्र और राज्य सरकारों ने कुछ-कुछ क्षेत्रों में डाइवर्सिटी नीति लागू कर दिया है और वामपंथी दलों को छोड़कर शेष दलों ने अपने घोषणापत्रों में इसके प्रति सकारात्मक रुख दिखाया है.उम्मीद करनी चाहिए आनेवाले दिनों में भारतीय राजनीति डाइवर्सिटी पर केन्द्रित होगी

मित्रों ! 12-16 मार्च,2013 तक चंडीगढ़ के  'भकना भवन'  में आयोजित मार्क्सवादियों ने जिस तरह बुद्ध और आंबेडकर को पूरी तरह खारिज करते हुए जाति उन्मूलन की सतही परियोजना पेश की उससे आहत होकर मैंने 27 मार्च,2013 से आपसे संवाद बनाना शुरू किया.इस क्रम में अबतक 20 लेख आप पढ़ चुके हैं जिसमें  मैंने मार्क्सवादियों के खिलाफ सौ से ज्यादा सवाल खड़े किये हैं.प्रस्तुत लेख उस श्रृखला की 21 वीं व संभवतः समापन कड़ी है जो आज अर्थात 6 जुलाई के देशबंधु में प्रकाशित हुई है.विगत लेखों के जरिये मैंने यह बताने की कोशिश की है -

कि अगर मार्क्स के अनुसार दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का है तो सदियों से भारत में वह वर्ग संघर्ष वर्ण-व्यवस्था के सुविधायुक्त(सवर्णों) और वंचितों(शुद्रातिशूद्रों)के मध्य होता रहा है तथा संघर्ष मुख्य मुद्दा आरक्षण रहा है.क्योंकि जिस धर्माधारित वर्ण-व्यवस्था के द्वारा विभिन्न वर्णों/जातियों बंटा भारत समाज परिचालित होता रहा वह वर्ण-व्यवस्था विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही.इसके प्रवर्तन के पीछे आर्यों मुख्य लक्ष्य चिरस्थाई तौर पर शक्ति के सारे स्रोत(आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) अपनी भावी पीढ़ी के लिए अरक्षित करना था. शासकों द्वारा पूरी तरह शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किये गए लोग इस आरक्षण व्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी के लिए समय-समय पर संगठित प्रयास करते रहे जिससे सुविधाभोगी वर्ग के साथ उनका अविराम संघर्ष चलता रहा जो आज भी जारी है;

चूँकि वर्ण-व्यवस्था में ही सारे शक्ति के स्रोत आरक्षित रहे और वर्ण-व्यवस्था के सुविधाभोगी वर्ग  इस्लामी और ब्रितानी सम्र्ज्यवादियों को सहयोग के विनिमय में इस व्यवस्था को जारी रखने में कामयाब रहा  इसलिए इस्लामी और ब्रितानी साम्राज्यवाद के बरक्श हिन्दुस्तानी साम्राज्यवाद कायम रहा .उसी का परिणाम है कि आज की तारीख में भी हिनदुस्तानी साम्राज्यवादियों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है जिससे ध्यान बंटाने के लिए ही हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों का मार्क्सवादी खेमा वर्षों से  अमेरिकी साम्राज्यवाद का हौव्वा खड़ा कर रहा है;

चूँकि भूमंडलीकरण के रास्ते हिन्दुस्तानी साम्राज्यवादियों ने आरक्षण के खात्मे की नई चाल चल दिया इसलिए मूलनिवासी समाज के बुद्धिजीवियों के समक्ष लम्बी लकीर खीचने के सिवाय कोई उपाय नहीं रहा जिसके परिणाम स्वरूप वजूद में आई है सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी .अब दो ही रास्ते बचते हैं –या तो आप जाती उन्मूलन की समाजवादी परियोजना का साथ दें या आंबेडकरवादी परियोजना डाइवर्सिटी का.

6 जुलाई,2013               जय भीम-जय भारत

                                    







                 


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