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Monday, July 15, 2013

साक्षात्कार : ‘मैं अपने आसपास के लोगों से गहरे रूप में जुड़ा हूं!’

साक्षात्कार : 'मैं अपने आसपास के लोगों से गहरे रूप में जुड़ा हूं!'

Vishwaroopam_posterविश्वरूपम अपनी विषय वस्तु के लिए तो विवादास्पद रही ही है, इसके प्रदर्शन के तरीके पर भी कम विवाद नहीं रहा। यद्यपि अंतत: फिल्म का प्रदर्शन हॉलों में ही हुआ पर कमल हासन के इस प्रयत्न ने ऐसी शुरूआत कर दी है जो कि फिल्मों के परंपरागत प्रदर्शन के तरीके में निकट भविष्य में होनेवाले भारी बदलाव का संकेत भी देती है। प्रस्तुत है व्यावसायिक फिल्मों के अभिनेता, निर्माता और निर्देशक कमल हासन से अनवर अब्दुल्ला की थोड़ी संपादित बातचीत।

प्रश्न : 'विश्वरूपम' की रिलीज संबंधी बातों ने कई विवादों को खड़ा किया है। मीडिया के माध्यम से कई अफवाहें भी फैली। आप बताइए, 'विश्वरूपम' असल में क्या है?

कमल हासन : असल में इतना हंगामा मचाने के लिए मैंने कुछ नहीं किया है। इस फिल्म के बारे में कई सालों से सोच रहा हूं। मन्मथन अंबु के बदले उस समय विश्वरूपम के बारे में मैं सोच रहा था। लेकिन उस समय के निर्माताओं की हास्यप्रधान फिल्मों की मांग थी तो इसको टाल दिया गया। विश्वरूपम बहुत ज्यादा खर्च की मांग करने वाली फिल्म थी। जितनी पूंजी उसमें लगाएंगे उतना या उससे ज्यादा वापस प्राप्त करने तथा इतनी गंभीरता के साथ बनाई जाने वाली उस फिल्म को अधिक से अधिक लोगों को दिखाने के संबंध में भी पहले से सोच-विचार जारी था। ऐसा नहीं कि अचानक मैं डीटीएच (डारेक्ट टु होम – सीधे घर को यानी बिना केबल वितरण के माध्यम के) की ओर गया। यहां जो भी घटनाएं घटीं सब मेरी सोच से परे अत्यधिक घबड़ाहट वाली थीं। आज की नई नौकरी-जिंदगी शैली के चलते सिनेमा हॉल में आकर फिल्म न देख सकने वाले कई लोग हमारे समाज में हैं। यह काफी नया समुदाय है। आई.टी. (इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी या सूचना प्रौद्योगिकी) क्षेत्र में काम करने वाले लोग, रात भर काम कर दिन में सोने वाले लोग, बहुत कम हॉलों वाली जगहों के मजदूर लोग, देश व राज्य के प्रवासी लोग, गर्भवतियां, बीमार-लोग आदि हॉल में आकर फिल्म देख नहीं सकते। अब पहले की तरह नहीं है। हॉलों में फिल्मों के प्रदर्शन को कम किया गया है। रिलीज होते ही शुरू के कुछ हफ्ते तक की भीड़ के रूप में आज स्थिति बदल गई है। सिनेमा हॉलों की संख्या भी बहुत कम हो गई है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए एक नई प्रदर्शन पद्धति के बारे में मैंने सोचा। आगे भविष्य में डीटीएच तथा इंटरनेट के माध्यम से फिल्में व्यापक रूप से प्रदर्शित (रिलीज) होंगी। उसकी शुरुआत के रूप में मैंने विश्वरूपम को इस तरह रिलीज करने पर विचार किया। उत्तर भारत में मैंने इस तरह रिलीज करने के लिए नहीं सोचा। मेरा यह विश्वास था कि दक्षिण भारत के दर्शकगण इस तरह की नई तकनीकों का काफी उत्साह के साथ स्वागत करेंगे। इसीलिए, सिर्फ दक्षिण भारत में मैंने डीटीएच प्रदर्शन का काम किया। लेकिन उधर भी उसे अच्छे से पहचाना नहीं गया। हॉल वालों में भय और आशंका फैल गई थी। बाद में उन लोगों ने वितरकों को भी उसमें शामिल किया। कुल मिलाकर हल्ला मच गया। जो कुछ भी है, उससे हटकर कुछ और रूप में मामला बदल गया। इस तरह बहुत ज्यादा विरोध किए जाने पर मैंने डीटीएच रिलीज को रोक दिया। बात के इस तरह बिगड़ जाने से मैं बिल्कुल हताश हो गया हूं, लेकिन इस तरह अपनी हार मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं।

प्रश्न : देखा जाए तो हॉल वालों की आशंका भी गलत नहीं है। डीटीएच माध्यम से पहले ही फिल्म रिलीज हो जाती है तो लोग, खासकर वे लोग जिन्हें पहला शो ही देखने का शौक होता है, उनका उसी के पीछे जाना भी स्वाभाविक है?

कमल हासन : यह धारणा बिल्कुल गलत है। पहला शो हॉल की क्षमता के अनुसार कुछ ही लोग देख सकते हैं, वे सारे लोक नहीं जो उसे देखना चाहते हैं। उसके बाद के शो में भी लोगों की भीड़ लगी रहती है। विश्वरूपम के डीटीएच रिलीज के बारे में जानने के बाद भी तमिलनाडु के हॉलों में पूर्व आरक्षण बहुत ज्यादा था। दो हफ्ते तक के सारे शो आरक्षित हो जाने की संभावना थी। इसका स्पष्ट अर्थ है कि डीटीएच माध्यम से प्रदर्शन किए जाने के बावजूद हॉल में देखने वाले दर्शक कम नहीं होनेवाले थे। आप सोचिए-सभी घरों में भगवान अय्यप्पा की फोटो है तो भी लोग शबरीमला जाते हैं। जिन्हें जाना है वे तो जाएंगे ही। टीवी, वीडियो कैसेट, डीवीडी आदि के आने से फिल्म तथा सिनेमा हॉल से जुड़े लोग डर गए थे। धीरे-धीरे हॉल वालों ने उसको पार कर लिया। अब इस समय सबसे बड़ी समस्या हो रही है चोरी की डीवीडी से। इसे देखने वालों में अधिकांश लोग वे हैं जिनके लिए हॉल में फिल्म देखना नामुमकिन होता है। आज फिल्म संबंधी कई ऑनलाइन परिचर्चाएं भी हो रही हैं। इसलिए लोग फिल्म के रिलीज होते ही उसे देखना चाहते हैं। सीडी के आने तक वे इंतजार नहीं कर पाते तो चोरी की सीडी को देखेंगे। फिर भी, इनमें से कुछेक प्रतिशत लोग असली डीवीडी के लिए खर्च करने को तैयार भी रहते हैं। अच्छी चीज नहीं मिलती तो खराब लेने के लिए वे मजबूर हो जाते हैं। उन्हें भी इस मनोरंजन व्यवसाय की मुख्यधारा की ओर ले आने का एक उत्तम रास्ता है डीटीएच। उससे सिनेमा व्यवसाय की अच्छाई ही होगी। यह सिनेमा हॉल वालों को मुश्किल में फंसाकर पैसा लूटने के लिए कमल हासन की कोई जालसाजी नहीं है। अगर कमल हासन का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ पैसा है तो तीन-चार साल मेहनत कर इतनी बड़ी फिल्में बनाने की कोई जरूरत नहीं। उसका भी रास्ता मैं अच्छी तरह से जानता हूं। हजार रुपया मैंने डीटीएच के लिए रखा था। उतना पैसा देकर फिल्म देखने वाला एक समाज मेरा लक्ष्य था। उसका सामुदायिक सिनेमा हॉल के दर्शक से कोई ताल्लुकात नहीं है।

प्रश्न : मल्टीप्लेक्स फिल्में सचमुच आम आदमी के फिल्मी सपनों को खत्म कर देती हैं। कहा जाए तो उसके द्वारा फिल्में आम आदमी की नहीं रह जाती हैं। आपकी राय क्या है?

कमल हासन : आज मनुष्य को अधिक से अधिक सुविधाओं की चाहत है। उसे पूरा करने की स्थिति भी किसी न किसी तरह आज उपलब्ध है। इसकी खरीददारी कर पाने वाले लोग इसका उपयोग कर रहे हैं।

प्रश्न : 'सन ऑफ सरदार' जैसी फिल्में भी सौ करोड़ की कमाई कर रही हैं। तब क्या 'विश्वरूपम' से, सिनेमा हॉल तथा चैनल बाजार के माध्यम से बड़ी सफलता की उम्मीद कर सकते हैं?

कमल हासन : यह हार और जीत की बात नहीं है। पहले चैनल बाजार नहीं था। अब है। आय का एक नया माध्यम है वह। उसी तरह डीटीएच भी आय का नया रास्ता है। उसके अलावा इससे नकली डीवीडी व्यापार को खत्म कर, आय को बढ़ा भी सकेंगे। इस तरह ज्यादा खर्च वाली फिल्मों के लिए तैयारी व इंतजाम और बेहतर ढंग से कर पाएंगे। कुल मिलाकर इससे फिल्मों को और भी अच्छी तरह प्रस्तुत कर पाएंगे। बेनहर, टाइटेनिक, अवतार जैसी फिल्मों के बारे में सोचने की स्थिति दक्षिण भारतीय सिनेमा की भी हो जाएगी।

जहां तक सन ऑफ सरदार की बात है तो वह कमाई के लिए फिल्म हॉल पर ही निर्भर रही होगी। वह तो चाहिए ही और साथ में अन्य तरीके भी अपनाए जा सकते हैं। इससे हॉल में भीड़ कम नहीं होगी। गांव में चाय की दुकानें थीं, धीरे-धीरे छोटे-छोटे रेस्तरां आ गए। इसके बाद कई तरह के होटल भी आ गए। लोग होटलों का उपयोग पहले से ज्यादा करने लगे। इस पर भी किसी घर में रसोई को बंद नहीं किया गया है। घर की रसोई अलग चीज है, बाजार की रसोई अलग। कई ऐसा सोच रहे हैं कि विश्वरूपम के लिए खर्च किए गए पैसे वापस न मिलने के डर से कमल उल्टा-सीधा कुछ कर रहा है। यह बिल्कुल गलत धारणा है। विश्वरूपम को डीटीएच बाजार पर निर्भर किए बिना भी लागत वसूलने में कोई कठिनाई नहीं होगी। लेकिन, यह एक नई व्यापार-नीति की शुरुआत करने की मेरी कोशिश थी।

प्रश्न : यह थोड़ा वैयक्तिक सवाल है। इस तरह के मार्केटिंग मामलों में फंसने पर कमल नामक कलाकार व सर्जक को वह नष्ट कर देता है या नहीं?

कमल हासन : नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। कमल के कलाकार व सर्जक, मनुष्य के रूप में यहीं लोगों के बीच ही रहता है। विश्वरूपम से जुड़ी समस्याएं, उनमें विभिन्न लोगों का हस्तक्षेप तथा भाग लेना आदि कुछ नए अनुभव, दृष्टिकोण और आविष्कार की ओर हमें ले जा रहे हैं। सच कहें तो, उम्मीद नहीं थी तो भी एक नया प्रचार-विस्फोट हुआ है। विश्वरूपम के लिए मैं पचास करोड़ खर्च करने पर भी इतना बड़ा प्रचार-कोलाहल नहीं कर पाता, जितना बड़ा प्रचार उन लोगों ने कर दिया। इसलिए इन समस्याओं के दौरान, मुझे काफी दुख, निराशा और ईष्र्या भी हुई थी लेकिन अब इन सबसे परे, मैं उसका आनंद भी ले रहा हूं। मैं कभी हारना नहीं चाहता हूं। इसलिए, चुनौतियां हमेशा मेरे अंदर की ऊर्जा को और तेज कर देती हैं।

प्रश्न : हमने पहले आम आदमी की फिल्म पर बात की। उससे जुड़ा एक सवाल-क्या असल में इन सौ करोड़ वाली फिल्मों की जरूरत हमें है?

कमल हासन : अगर आप इस तरह सवाल कर रहे हैं तो मुझे यह पूछना पड़ेगा कि क्या हमें फिल्मों की ही जरूरत है? फिल्म कभी भी एक जरूरी चीज नहीं है। वास्तव में सिनेमा से हमारी कौन-सी ऐसी जरूरत पूरी हो रही है? कोई भी नहीं। कल्पना कीजिए कि अगर यहां लड़ाई हो रही हो तो कौन फिल्म बनाएगा? अगर बनाएगा भी तो उसे देखेगा कौन? बड़ी आंतरिक समस्याओं से टूट चुके कई राष्ट्रों में अभी फिल्म या सिनेमा नहीं है। यह कोई जरूरी सेवा बिल्कुल भी नहीं है। अगर कभी सवाल खड़ा हो कि स्कूल चाहिए या फिल्म हॉल? तो हम स्कूल के पक्ष में खड़े होंगे। तो बात यही है कि सिनेमा कोई जरूरी चीज नहीं है। फिर अगर बन रही है तो उसमें सौ करोड़ भी खर्च होंगे और एक करोड़ भी। मेरी अपनी सभी फिल्में सौ करोड़ की नहीं हैं। उन्नै पोल ओरुवन के बाद मैंने विश्वरूपम की है। सालों पहले जब इतना बड़ा बाजार सामने नहीं था तो मैंने उस वक्त के बाजार के अनुरूप कम बजट वाली फिल्में भी बनाई थीं। फिर, खर्चे की बात, राजनीतिक पार्टी तथा नेताओं द्वारा अपनी छवि-निर्माण हेतु कितना खर्चा किया जा रहा है। चुनावों के लिए कई हजार करोड़ खर्चा किया जा रहा है। वह खर्चा किसके लिए उपयोगी है? फिल्म बनाना उससे बड़ा पाप तो नहीं। अब विश्वरूपम तक पहुंचा मैं वही कमल हासन हूं जो सात दिन में शूटिंग पूरी की गई कन्याकुमारी का नायक रहा है।

प्रश्न : वही बात मुझे पूछनी भी है। 'कन्याकुमारी' से शुरू की गई फिल्मी जिंदगी, बाद में 'डेयसी', 'महरासन' आदि कई फिल्मों में बिना पारिश्रमिक के आपने अभिनय किया है। आज का जमाना ऐसा है कि नई तकनीकों से कम खर्चे में फिल्में बनाई जा सकती हैं। इस क्रांति के साथ आप जैसा एक बड़ा लोकप्रिय अभिनेता भी जुडऩे पर क्या, वह एक नई शुरूआत का कारण हो सकता है? 'मैना' फिल्म का पोस्टर आया था उस फिल्म तथा निर्देशक को बधाई देने वाले आपके संदेश के साथ।

कमल हासन : छोटे बजट की फिल्में न बनाने के लिए मैंने नहीं कहा है। मैंने भी छोटी फिल्में की हैं। लेकिन हमेशा सभी फिल्में छोटी ही न रह जाएं। छोटी फिल्में ही बनानी हैं तो हमें मानना पड़ेगा कि हमें कोई डेविड लीन नहीं चाहिए। हमें भी ब्रिज ऑन द रिवर क्वायी चाहिए कि नहीं? हमें एक चेम्मीन भी चाहिए। हमें एक रामु कार्याट भी चाहिए। चाहिए…वह भी…यह भी…सब कुछ। ये सब कुछ साकार करने वाली विस्तृत जगह है फिल्म क्षेत्र।

प्रश्न : कभी-कभी आप हिंदी फिल्मों से अपनी फिल्मों के लिए कथा-बिंदु को अपनाते हैं। उदाहरण के लिए कहें तो द्रोहकाल' को 'कुरुतिपुनल', 'ए वेनस्डे' को 'उन्नै पोल ओरुवन' के रूप में परिवर्तित किया। इन संदर्भों में आप हिंदी के वर्तमान सिनेमा को चुनते हैं तो भी उसे यहां पर तमिलनाडु में बिल्कुल अलग और बेहतर ढंग से प्रभावकारी जनप्रिय फिल्म के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सह अभिनेताओं के रूप में आप अर्जुन, मोहन लाल जैसे लोगों को चुनते हैं। यह एक तरह का बाजारी षड्यंत्र है?

कमल हासन : दक्षिण भारत के फिल्म क्षेत्र का यह सौभाग्य है। हमारे यहां विशेषकर मलयालम में सबसे अच्छे अभिनेताओं ने ही हमेशा यहां की समसामयिक फिल्मों को प्रोत्साहित किया है। ऐसा पहले से ही हो रहा है। चेम्मीन नामक फिल्म में उस समय के मशहूर अभिनेताओं ने किरदार निभाना ही था। यह उत्तर भारत में संभव नहीं है। वहां पर ये दोनों धाराएं बिल्कुल अलग रहती हैं। यहां मम्मूटी मतिलुकल के बाद व्यावसायिक फिल्म भी करेंगे। इस तरह अच्छे सोच-विचार के साथ जो कुछ भी वह करेंगे, उसका नतीजा भी अच्छा ही होगा। अच्छी व्यापार-नीति कोई दिक्कत वाली बात नहीं है।

प्रश्न : आपने विरुमांडि, अनपे शिवम जैसी कुछ फिल्में कुछ साल पहले बनाई थीं। उससे पहले इंडियन, अव्वै षण्मुखी आदि भी। इंडियन और अव्वै षण्मुखी सुपर हिट होने पर बेहतर सामाजिक विषयों को गहराई में व्यवस्थित ढंग से चित्रित करने वाली विरुमांडि व अनपे शिवम उसके लायक जीत हासिल नहीं कर पायी। हे राम एक विशेष/ गंभीर बात को प्रस्तुत करने वाली होने पर भी उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। दशावतारम भी समीक्षक व दर्शकों से खराब प्रतिक्रियाएं बटोर रही है। क्या, इन खराब प्रतिक्रियाओं के कारण फिर से आप मन्मथन अंबु जैसी फिल्में बनाने लगे हैं?

कमल हासन : इनमें से विरुमांडि को अच्छा खासा प्रचार व जन सम्मति मिली थी। पैसा भी मिला था। आज के बाजार मूल्य के हिसाब से देखें तो भी फिल्म ने काफी मुनाफा कमाया था। अनपे शिवम से जिस तरह उम्मीद की गई थी वैसी प्रतिक्रियाएं नहीं मिलीं। दशावतारम को दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं फिर भी पैसा काफी मिला था। हे राम भी अपने लक्ष्य को लेकर साकार हुई फिल्म है। मैं किसी फॉर्मेट या फॉर्मुला वाली फिल्मों को लगातार करने पर विश्वास नहीं रखता हूं। हे राम के बाद मैंने तेनाली बनाई। फिर पंचतंत्रम और पम्मल के संबंधम जैसी फिल्में। अब बड़ी हिट फिल्म दशावतारम के बाद मन्मथन अंबु की। उस बीच उन्नै पोल ओरुवन भी की। खुद या किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा सोचकर उत्पन्न होने वाली विभिन्नताओं के बीच से उपजने वाली फिल्म से जुड़ा आनंद एक अभिनेता के रूप में मेरा पारिश्रमिक है।

प्रश्न : दशावतारम पर तमिलनाडु को मिलाकर दुनिया भर के बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा विरोधी राय दी गई थी। इन संदर्भों में खुद एक बुद्धिजीवी फिल्मकार कमल हासन क्या कहना चाहते हैं और इन बातों को कैसे देख रहे हैं?

कमल हासन : कुछ नहीं है…कुछ भी नहीं है। उन्हीं लोगों द्वारा पांच साल बाद इस तरह पूछा जाएगा कि दुबारा ऐसी फिल्में क्यों नहीं बना रहे हैं? यह सब मैं व्यर्थ में नहीं बोल रहा हूं। तमिलनाडु के बुद्धिजीवी वर्गों ने अनपे शिवम देखकर कहा कि यह थोड़ा लेफ्टिस्ट मनोभाव वाली फिल्म है इसलिए इससे हम सहमत नहीं हैं। उन्हीं लोगों द्वारा अब लेफ्टिस्ट मनोभाव वाली मानविकता पर बात की जा रही है! यह सब कुछ मैं पहले ही सुन-भोग चुका हूं। इसलिए परिचित हो गया हूं, जल्दी प्रतिक्रिया देकर उससे मुश्किल में फंसता नहीं हूं। हे राम रिलीज होते समय बहुत ज्यादा नारेबाजी और हल्ला मच गया था। अब मुझसे यह सवाल किया जा रहा है कि ऐसी दूसरी फिल्म कब करेंगे आप? मैं कहना चाहूंगा कि यह सब खेल का एक हिस्सा है — पार्ट ऑफ गेम। जो आम दर्शक गण हैं उनकी प्रतिक्रिया जल्दी मिल जाती है। बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया के लिए मुझे कुछ दिन तक इंतजार करना पड़ता है। यही फर्क है। कभी छह महीने, और कभी छह साल। जाने कैसी-कैसी समीक्षाएं आ रही हैं…लगता है समीक्षक वर्ग आलोचना/समीक्षा का असली मकसद भूल चुके हैं।

प्रश्न : हमारे कई फिल्मकार हैं, फिल्म शोधार्थी-समीक्षक हैं, आप जैसे फिल्म के विभिन्न पक्षों पर काम करने वाले लोग हैं। क्या हमारा कोई फिल्मी दर्शन है? फिल्म को उसके पूरे हाव-भाव के साथ प्रयोग करने वाले आपको अगर मैं फिल्मी दार्शनिक कहूं तो अपने फिल्मी दार्शन के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

कमल हासन : मेरे जीवन का दर्शन ही मेरी फिल्मों का दर्शन है। वह किसी न किसी तरह उसमें आ ही जाती है। मेरी फिल्म अनपे शिवम कौन-सी दर्शन को दिखा रही है? मनुष्य का प्यार, मानवीयता…सिर्फ यही उस फिल्म का दर्शन है। वह एक कुत्ते को, एक पौधे को साथ ले चलने का भाव है — उस तरह के विश्वव्यापी प्यार को छोड़कर मुझमें और कोई ईश्वर भक्ति या ईश्वर-विश्वास या सेवा-भाव नहीं है।

प्रश्न : 'मैंने तो नहीं कहा कि ईश्वर नहीं है…लेकिन अगर होता तो अच्छा रहता…' आपकी बहुचर्चित फिल्म दशावतारम के अंत में ऐसा कहा गया है…

कमल हासन : हां,अगर होता तो अच्छा रहता। लेकिन न भी हो तो वही सच है…यह सब मेरी फिल्मों में आएगा। अगर मैं फिल्म क्षेत्र में न आया होता तो कोई स्कूल अध्यापक या नक्सलवादी बन सकता था। कुछ भी हो सकता है। मैं ईश्वर पर या उसके प्यार पर भरोसा नहीं करता हूं। मगर इंसान पर मेरा भरोसा है – प्यार है। सौभाग्य से, मेरे लगभग सारे मित्र कलाकार हैं। अगर वे कुछ और होते तो मैं भी उनके प्रभाव से और कुछ हो सकता था। उस हद तक मैं अपने आसपास के लोगों से जुड़ा हूं। ठ्ठ

मलयालम से अनुवाद : सुमित पी.वी. साभार: माध्यम

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