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Thursday, July 25, 2013

देख ली है अपन ने औकात, फिर क्या उलझना-सुलझना

[LARGE][LINK=/article-comment/13285-2013-07-24-20-57-09.html]देख ली है अपन ने औकात, फिर क्या उलझना-सुलझना  [/LINK] [/LARGE]

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Details Category: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK] Created on Thursday, 25 July 2013 02:27 Written by यशवंत
एक झलक देखकर मुग्ध हो जाने के बाद इस एनीमेटेड तस्वीर को अपने मेल (भेजने वाले Giriraj Daga और Saurabh Rastogi को धन्यवाद) से अपने डेस्कटाप पर सेव ऐज किया फिर इस तस्वीर की जिफ फाइल पर कर्सर रखकर राइट क्लिक किया और ओपेन विथ आप्शन सेलेक्ट करने के बाद विंडोज एक्सप्लोरर ब्राउजर को चूज करते हुए तस्वीर को खोला, फिर देर तक इत्मीनान से देखता रहा. देश बड़ा है, दुनिया बड़ी है, जल-जंगल-जमीन-हवा-रोशनी-आसमान-पाताल को समेटे-संभाले यह पृथ्वी यानि अर्थ तो बहुत ही बिग साइज चीज है. पर काहे को बड़ी है ये धरती? बिलकुल नहीं.

ये तो इत्ती छोटी है कि शायद इसी कारण इस धरती को भी अपने खुद पर बड़े होने का तनिक भी अभिमान नहीं. इसी कारण धरती की कोई एक विशिष्ट पहचान नहीं, कोई एकल चिन्ह या प्रतीक नहीं जिसे हम उंगली दिखाकर कह दें कि देखो ये धरती है. धरती ने अपनी पहचान दूसरों में बिखेर बांट दी है और दूसरों यानि जल-जंगल-जमीन-हवा-रोशनी-आसमान-पाताल सबके अलग-अलग पहचान को भी धरती नहीं कहा जा सकता. इन सभी कुछ को समेट कर एकीकृत कर जो वृहदाकार चीज, कंबाइंड इमेज तैयार होती है उसको हम धरती कहते हैं. हम धरती को धरती यानि अर्थ कहते हुए इसके अति-विस्तार अति-विशाल को हमेशा ध्यान में रखते हैं और इसे बहुत बड़ी चीज कहते हैं. धरती को बड़ी चीज हमने कहा, हमने बताया, हमने माना, पर धरती ने कभी खुद को बड़ा नहीं माना, खुद को कभी विशालकाय नहीं करार दिया. धरती ने कभी अभिमान नहीं किया. क्यों नहीं किया? इस तस्वीर को देख कर समझ में आया.

Who says you or me or this or that or world or earth is the biggest ?  Watch slowly What happens...!


(ये एनीमेटेड पिक्चर है, इसलिए इसे लैपटाप या कंप्यूटर पर देखें, ठीकठाक नेट कनेक्शन के जरिए, मोबाइल पर संभवतः इस तस्वीर को ठीक से नहीं देखा जा सकेगा... इस एनीमेटेड पिक्चर को और बड़े साइज में देखने के लिए तस्वीर के उपर ही क्लिक कर दें)

[HR]

ये तथ्य तो हम सभी को पहले से मालूम हैं कि मून, मरकरी, मार्स आदि धरती से साइज में छोटे हैं.. और ये भी पता है कि  नेपच्यून, यूरेनस, सैटर्न, ज्यूपिटर, सन आदि धरती से बड़े हैं.. पर इन्हें हम सिर्फ एक तथ्य मान कर छोड़ देते हैं या भूल जाते हैं.. हम लोगों की पढ़ाई लिखाई भी ऐसे ही कराई जाती है कि हम रट्टा मारें और बिना समझे बूझे उसे याद कर एक्जाम में लिख देने के बाद भूल जाएं और असल जीवन से इन चीजों का दूर-दूर संबंध न रखने देने वाली अबूझ अमानवीय असंवेदनशील व्यवस्था / सिस्टम में चीत्कार मारते या चुप्पी साधे हुए रेंगते रह जाएं... सारी बातें हम सबको पता होती हैं, पर जब हमारे मन मिजाज अनुभव संघर्ष सोच समझ संगीत संवेदना उम्र विजन विचार... इन हर एक की और सब की गांठें एक-एक कर या एक साथ या अलग-अलग भी व एक साथ भी खुलने लगती हैं और इनसे निकले इनविजिबल वाइब्रेशन आपस में मिलने-एकीकृत होने लगते हैं तो फिर यही तस्वीर जानकारी तथ्य ''यूरेका यूरेका...'' के अंदाज में कुछ नया बड़ा समझ में आने लगते हैं..

मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ... आजकल हर छोटी सी चीज जैसे कोई नई समझ दे जाती है. पहले से बिलकुल अलग अर्थों में. तब सोच में पड़ जाता हूं कि मैं तो बड़ा नासमझ और अहंकारी हूं जो माने बैठा हूं कि बहुत कुछ जान समझ लिया है... मुझे तो लगता है कि मैं अभी तक जो कुछ भी जानता हूं, वह सब नादान, अबोध, अनगढ़, एकांगी और आम सी चीजें हैं. इनसे खास समझ की तरफ बढ़ने का दौर तो अब शुरू हुआ है.. इस तस्वीर को अभी तक मैंने बीसियों पर देख डाला है... आनलाइन से आफलाइन होता हूं और आटो या कार से कहीं जाने को होता हूं तो इस तस्वीर के मूव करते हिस्से दिखने लगते हैं बोलने लगते हैं बतियाने लगते हैं समझाने लगते हैं चिकोटी काटने लगते हैं कि देखो... ये देखो, तेरी धरती से ये बड़ा, तेरी धरती से ये भी बड़ा, अबे देख तेरी धरती तो एक पिक्सेल में सिमट गई है.. और ये ले देख तेरी धरती तो अब दिखने से रही... जब धरती गायब है, खत्म है, तब भी बहुत कुछ है.. देख देख... पढ़ इनके नाम, याद कर इन धरतियों सरीखी बड़ी धरतीधारियों के नाम... जब धरती की उम्र पूरी होगी और धरती की शक्ल कुछ और सी होगी तो कहीं और कुछ चीजें धीरे धीरे लोग में तब्दील हो चुकी होंगी और वे लोग अपने उस इलाके के अनंत विस्तार को धरती का नाम दे रहे होंगे या दे चुके होंगे... तब तक तेरी इस धरती के ढेर सारे टुकड़े दूसरी धरतियों से मिल बस चुके होंगे या दूसरे धरतियों में आसमान-पाताल पैदा होने का कारण बन चुके होंगे... या दूसरे विशालकाय धरतियों से लड़-भिड़-टकरा-टूट के मेरी ये धरती इतना गर्मी खुद में ला चुकी होगी, इतना आकार बढ़ा चुकी होगी कि फिर ये धरती कतई ये धरती नहीं बल्कि उन धरतियों सरीखी हो चुकी होगी जहां हम न होंगे तुम न होंगे बस होगी विशाल अदभुत संभावना....

तस्वीर देखते देखते ही दिल से होते हुए मुंह से निकल गया... देख ले बेटा यशवंत, तू क्या चीज है जो इतराएगा, अपन की धरती तक को खुद पर अभिमान नहीं..... यह बोलते बुदबुदाते कह बैठा तेज तेज... देख ली है अपन ने औकात, फिर क्या उलझना-सुलझना... फिर मुस्कराने और हंसने लगा.... जैसे लगा कि यूं ही कभी बुद्ध मुस्कराए होंगे और उनके सारे सवाल खत्म हो गए होंगे.... लेकिन वो बाकियों को समझा न पाए आज तक कि जवाब उन्हें असल में मिला क्या था कि वो मुस्कराए... जवाब कुछ और नहीं बल्कि उस समझ व संवेदना का हासिल होना है जहां खुद का होना न होना उतना प्रासंगिक और अप्रासंगिक होता है जितना यह सब लिखा जाना और किन्हीं लोगों द्वारा पढ़ा जाना... लिखने वाला जो लिखना चाहता है उसका बड़ा छोटा हिस्सा / संवेदना / कहन / बात शब्दों के जरिए सामने रख पाता है और जितना भी प्रतिशत वह सामने रख पाता है उसका बहुत छोटा या बड़ा हिस्सा पढ़ने वाला महसूस करने से महरूम रह जाता है.. क्योंकि सबकी रिसीविंग सेंडिंग इनकमिंग आउटगोइंग स्पीड अलग होती है और तकनीक की भाषा में ही कहें तो ढेर सारे अब भी 2जी एज में है जबकि दुनिया में 3जी व 4जी चलन में है और जाने कितने जीजी, जोजो, जेजे, जने, जाने-माने  हैं जिन्हें आना है और यूं ही तकनीक को अपडेट अपग्रेड करते रहना है... उलटबांसी ये देखिए कि तकनीक को अपग्रेड अपडेट कम होना चाहिए था, पर वो हर पल अपग्रेड हो रही है कि क्योंकि धरती के सर्वश्रेष्ठ दिल-ओ-दिमाग, मेधा को इसी काम में झोंक दिया गया है, क्योंकि इसी काम से महालूट का कार्यक्रम आगे बढ़ेगा, चलेगा... यही बाजार, मुनाफा, सत्ता का नियम रहा है व है.., मनुष्य दिन प्रतिदिन डिग्रेड होता जा रहा है... चेतना शून्य, संवेदनहीन, मशीनी बनता जा रहा है मनुष्य... मनुष्यों की महाफौज और महाभीड़ में हमने ज्यादातर को पैदल सिपाही की भूमिका में रखा है, जिनको दिमाग लगाना ही नहीं है, वही खाना पहनना करना जीना है, जो हम कहें, सिखाएं, रटाएं, बस... उल्टी गंगा बहाई गई, पूरी स्पीड में, और इसी को ओरीजनल प्रवाह, वास्तविक स्पीड बता समझा सिखा दिया गया है हम लोगों को और आश्चर्य  तो ये कि हमने मान भी लिया है, कुबूल भी लिया है.... हम जान गए हैं कि सब ऐसे ही है, ऐसे ही चलेगा, ऐसा ही चलता रहा है, यही मुख्यधारा है, यही तरीका ही है, यही मोस्ट डिफाइंड डिफनीशन है.... और इस प्रकार, हमने विकल्पों, विभिन्नताओं आदि पर सोचना विचारना जूझना बूझना बंद कर दिया... बस,  सब कुछ स्टीरियोटाइप हो गया है... जिंदगी भी, सोच भी, समाज भी, देश भी, धरती भी...

तकनीक ने मनुष्य को मारा है... यह सच है.. गलत यह है कि मनुष्य महाशक्तिशाली हो गया है... मनुष्य ज्यादा मजबूर और अशक्त हो गया है... तकनीक को अपग्रेड अपडेट करते रहने के जुनून के कारण जल्द ही आपको भी नई धरती, नए विस्तार के बारे में देखना सोचना पड़ सकता है... और, कुछ ही लोग होंगे जो यहीं बैठे बैठे उस मशीनी राकेट की तरह अंतरक्षि की दूसरी दुनियाओं में पहुंच जाते होंगे जहां जाने जीने की चाह सदियों से हम मनुष्यों में है पर उसके रास्ते व वाहन बनाने तलाशने का तरीका थोड़ा उल्टा कर दिया है.... एक जो चेतना, संवेदना, समझ, वाइब्रेशंस का राजपथ, हाइवे बन रहा था, बना हुआ था काफी कुछ हिस्सों तक में... उसे हमने यूं ही छोड़ दिया, रद्द कर दिया और उसकी जगह हमने गैर-मानवीय, मशीनी तरीकों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया... यह सब आदमी ने अपने लालच में किया.. आदमी ने आजतक जो कुछ भी हासिल में किया है, अपने लालच में पाया है और लालच में पाई हुई चीजें कब आपके खात्मे का कारण बन जाती हैं, इसके उदाहरण हम आप आये दिन अपने आसपास देखते रहते हैं...

पहले भी कह चुका हूं कि अब जिस रास्ते पर मनुष्य दौड़ रहा है, उस रास्ते के आध्यात्मिक विश्लेषक बार-बार यही कहेंगे इस धरती के कथित विकास के पीछे ड्राइविंग फोर्स वाइलेंस है, हिंसा है. हम सभी पढ़े लिखों का माइंडसेट ऐसा बना दिया गया है कि इसे खूब विकास मानते हैं, इस रास्ते को अल्ट्रा माडर्न मानते हैं, और इससे इतर बात करने वालों को पिछड़ा, पागल और असामाजिक...

कोई बहस नहीं पढ़े लिखों से, कोई जीत नहीं जाना है उनसे, कोई तुलना भी नहीं उनसे.. बल्कि उन्हें तो दिल से प्यार-दुलार कि उनके रास्ते न होते तो हमारे रास्ते क्योंकर हमें याद आते... दुख ये कि बहुतायत बहुमत मनुष्य को मनुष्य नहीं बनने दिया गया, भेड़-बकरियों-उल्लू-कबूतर की समझ-चेतना में ही उन्हें पड़े रहने दिया गया... इन आदमियों के इस धरती पर बने रहने की जो कुछ मुख्य वजहें मुहैया हुई थी, उसे अब इन आदमियों ने री-साइज कर दिया है.. वैसे ही जैसे बारूद वाले बम को हम रि-साइज कर दें, कहीं फोड़ दें, पटक दें, और वह फट जाए... क्योंकि आपने उसकी ओरिजनलिटी को छेड़ दिया, सो उसने कुछ और शेप ले लिया... यह जो छेड़ना है न, वही हमने पाया है.. हासिल किया है.. तमगा लगाया है खुद पर.... जाने क्या कुछ खत्म हो गया, लुप्त हो गया, बिखर गया, हमें होश ही नहीं... इसका कोई लेखा जोखा नहीं क्योंकि मनुष्य और बाजार ने मिल जुल कर जो तामझाम खड़ा किया है उसमें डूबते सूरजों की गुंजाइश ही नहीं, नामलेवा ही नहीं... सब मुखातिब हैं उगते हुओं की तरफ.... इसलिए इतिहास, सोच, समझ, संवेदना, लेखा-जोखा, डायरेक्शन, पालिसी सब कुछ उगते हुओं के लिए बनेगा, बन रहा है... इसलिए इसमें रोने की गुंजाइश भी नहीं रहेगी, भले ही सारे हालात बस रुलाई छुड़ा भर देने वाले हों पर खुल कर रोना भी मुनासिब नहीं क्योंकि सबको सबका उगता हुआ सूरज कहीं न कहीं छिपा बैठा हुआ और जल्द ही निकल आने वाला दिख रहा है....

परवाज साहब के दो शेर.. बड़े गहरे अर्थ वाले हैं... पर पता है मुझको, कि इनकी गहराई हर किसी को उसकी खुद की गहराई के हिसाब से डुबकी लगवाएगी... कइयों को तो यूं ही उथली कंकड़ी छिछली सी पानी भरी जमीन नजर आएगी... तो भी... कोशिश करें समझने की... वैसे ही जैसे सामान्य से तथ्य किन्हीं खास परिस्थितियों में बेहद असामान्य दर्शन समझ में आने लगते हैं.....

बचपन की वो अमीरी ना जाने कहां खो गई
जब पानी में हमारे भी जहाज चला करते थे....

और एक ये कि...

सूखे पत्तों की तरह बिखरे थे हम ऐ दोस्तों
किसी ने समेटा भी तो सिर्फ जलाने के लिए....

इन दोनों शेर को जो ठीक से समझ ले, वो खुद को कभी शेर-चीता-हाथी संप्रदाय का यानि एलीट नहीं मानेगा कहेगा बल्कि उसकी जगह उसे बच्चा और सूखा पत्ता होने की ललक होगी... बच्चा और सूखा पत्ता, इन दोनों पर ध्यान दीजिए, कंसंट्रेट करिए.... बच्चा ... सूखा पत्ता... बच्चा... सूखा पत्ता... ध्यान दीजिए... बच्चा... सूखा पत्ता.... ये दोनों एक ही हैं यारों.. बच्चा सूखा पत्ता है.... और... सूखा पत्ता बच्चा है....  बच्चे की मासूमियत, नादानी, अबोधपना सब तो सब है सूखे पत्ते में... बस खिलंदड़ नहीं है... क्योंकि सूखा है... अपने यहां कहते भी हैं कि आदमी बुजुर्ग होकर बूढ़ा होकर बिलकुल बच्चा जी बन जाता है... मेरे नाना की मुझे याद है... सौ के आसपास के रहे होंगे... वे लेमनचूस खूब चूसते-खाते थे, उनके सिरहाने पैकेट का पैकेट रखा होता था... उन्हें दिखता कम था, सो हम लोग मुट्ठी भर भर कई मुट्ठी दिन में मार दिया करते थे और वो शाम होते होते शिकायत करते कि सारे लेमनचूस जाने कैसे खत्म हो गए.. कभी कभी उन्हें हम बच्चों पर शक होता तो हम लोग उनके यूरिनल वाली कृत्रिम पाइप को हटा देते जिससे उनका सारा शू शू बिस्तरे पर होता रहता... वो फिर शिकायत करते कि ये काम भी उन बच्चों ने ही किया होगा.... बाद में उनमें और हममें बिना कोई मीटिंग हुए समझौता हो गया... तुम्हारा लेमनचूस हम लूटेंगे, शिकायत न करना... बाकी हम गारंटी करेंगे कि शूशू बिस्तरे पर न हो.... बच्चा.. सूखा पत्ता... सूखा पत्ता ... बच्चा.... दोनों की अपनी सीमाएं.. दोनों की अपनी हदें... दोनों की अपनी खासियतें... और, दोनों की तरफ से इस दुनिया के संसाधनों के न्यूनतम नाश, न्यूनतम इस्तेमाल की गारंटी.. इसी पर मुझे भी पद्य में कहने का मन कर रहा है.... वो ये कि...

वो बच्चे
सूखे पत्ते
निरपेक्ष रहे
बचाए रखे
बहुत देर
उस धरती को
जिसे हम
काबिलों ने
बहुत पहले ही
नाकाबिलेबर्दाश्त
बना दिया था

चलो मित्रों.. राम राम.. जय जय... सलाम... सत श्री अकाल... ओके.. बाय... टाटा.. सी यू.. लव यू... :)


(ये एनीमेटेड पिक्चर है, इसलिए इसे लैपटाप या कंप्यूटर पर देखें, ठीकठाक नेट कनेक्शन के जरिए, मोबाइल पर संभवतः इस तस्वीर को ठीक से नहीं देखा जा सकेगा... इस एनीमेटेड पिक्चर को और बड़े साइज में देखने के लिए तस्वीर के उपर ही क्लिक कर दें)

[HR]

उपर जो तस्वीर है, धरती है, और दूसरी छोटी-बड़ी धरतियां हैं, उसे अपने डेस्कटाप पर भी सेवएज कर लो. जब कभी खुद पर गर्व हो या दूसरों पर गुस्सा आए या इसके ठीक उलट, खुद पर गुस्सा आए और दूसरों पर गर्व, तो इस तस्वीर को देखते रहना... बूझते रहना... और आंखें बंद करके सोचते रहना... फिर आप भी शायद मेरी तरह गाने लगोगे...

देख ली है अपन ने औकात, फिर क्या उलझना-सुलझना...

मदमस्त रह मेरे मुसाफिर, फिर क्या रोना, क्या ठहरना...

[B]यशवंत[/B]

[B]एडिटर, भड़ास4मीडिया[/B]

[B] [/B]

[B]09999330099[/B]

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