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Friday, July 26, 2013

आज़ाद के इतिहास पर धूल की परतें

लेख

आज़ाद के इतिहास पर धूल की परतें

सुधीर विद्यार्थी 

            वह चन्दशेखर आज़ाद के बलिदान का अर्धशती वर्ष था यानी 1981 का साल। शहादत हुई थी उनकी 27फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रे ड पार्क में। कंपनी बाग का वह सुनसान इलाका उस रोज क्रांतिकारी संग्राम के अनोखे रक्तरंजित अध्याय का साक्षी बना जब 'हिन्दुस्तान  समाजवादी प्रजातंत्र संघका सेनापति ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों और उनके सिपाहियों से घिराअपनी एक पिस्तौल और चंद कारतूसों से अभिमन्यु की भांति संघर्ष करते हुए शहीद हो गया......

      हम उसी बलिदान स्थल पर मूक खड़े थे। आजाद को श्रध्दांजलि देने आए उनके दल के पुराने क्रांतिकारी साथी आज उत्साह और गर्व से भरे हुए थे। वहां थे रामकृष्ण खत्रीभवानीसिंह रावतभवानी सहायशचीन्द्रनाथ बख्शीपं. किशोरी लालजयदेव कपूरशिव वर्माप्रकाशवती और कामरेड  रमेश सिन्हा । हम सब इस शहर के रसूलाबाद घाट पर बनी आजाद की जर्जर समाधि पर भी पुष्प अर्पित करने गए जिसे कु छ दिनों बाद ही इलाहाबाद नगर पालिका के एक इंजीनियर ने तुड़वा दिया था और हम अपने विरोध के बावजूद उसका पुनर्निर्माण नहीं करवा सके। क्रांतिकारी भवानी सिंह तब गढ़वाल के अपने गांव नाथोपुर से चलकर हमारे पास शाहजहांपुर आए और फिर  इलाहाबाद की धरती पर पहुंचकर उन्होंने वे स्मृतियां भी हमसे साझा कीं जब 27फरवरी 1931 को इस शहर के कटरा मुहल्ले के एक मकान में आजाद के साथ रहते हुए उनके बलिदान की खबर मिलने पर वे फरार हो गए थे। बहुत प्रात: ही आजाद उनसे बोले थे--'किसी व्यक्ति से मिलना है। लौटकर चाय-नाश्ता करूंगा।यह कहकर पार्टी का वह 'कमाण्डर-इन-चीफअपनी सदरी की भीतरी जेब में पिस्तौल डाल कर लंबे डग भरता हुआ अल्फ्रेड पार्क के उन झुरमुटों में जा बैठा जहां उनकी भेंट साथी सुखदेव राज से हुई। किसी योजना पर बतियाते हुए कुछ पल ही बीते होंगे कि एकाएक एक गोली उनके कान के पास से निकलती चली गई। उन्होंने पिस्तौल संभाल ली और अपने साथी को निकल जाने को कहा। तभी दूसरी गोली उनकी जांघ में आ लगी। वहां खड़े मौलश्री के वृक्ष की आड़ लेकर अब उन्होंने मोर्चा संभाल लिया। अंग्र्रेज पुलिस अधिकारी नॉट बाबर और दरोगा विश्वेश्वर सिंह के छक्के छुड़ाते हुए थोड़े ही पलों के उस सन्मुख संग्राम में अंतत: आजाद के रक्त से वह युध्दभूमि लाल हो गई। वे शहीद हो गए.......

      अगले दिन  'अभ्युदयमें छपा-- ÒÒप्रयाग में सनसनी फैलाने वाला गोलीकांड । क्रांतिकारियों और पुलिस में गोलियां चलीं। प्रसिध्द क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का देहान्त। दूसरा साथी चला गया। सीआईडी अफसर घायल। आजाद के खून से सनी मिट्टी लोग ले गए।'' छपा यह भी था कि कल प्रयाग में आजाद का खून होने के कारण प्रयाग के सारे नगर  भर में सुबह से ही पूरी हड़ताल रही। चौककटरादारागंजकीटगंज,मुट्ठीगंज आदि समस्त मुहल्लों में लोगों ने शोक मनाया और  दुकानें बंद रखीं। चूंकि आजाद की लाश लोगों को नहीं मिली थी और स्थानीय विद्यार्थी संघ के लोग उनके शव का जुलूस निकालना चाहते थेइसलिए उनकी अस्थियों का जुलूस निकाला गया। यह जुलूस शहर में घूमता हुआ एक पार्क में समाप्त हुआ। वहां सभा हुई जिसमें बाबू पुरुषोत्त्म दास टण्डनश्रीमती कमला नेहरू और पं. शिवविनायक मिश्र के व्याख्यान हुए।

      उस रोज सब ओर आजाद की बहादुरी के किस्से थे। कोई कहता कि आजाद ने अपनी कनपटी पर अंतिम गोली मार  ली......वे ब्रिटिश पुलिस के हाथों नहीं पड़ना चाहते थे......अपने नाम आजाद को सार्थक कर दिया उन्होंने.......अनोखे निशानेबाज थे आजादअकेले ही पूरी पुलिस टुकड़ी के होश उड़ा दिए। जवाहरलाल नेहरू ने यह बलिदान गाथा सुनी तो कहा कि इस लड़के  की शहादत ने आज इलाहाबाद वालों का सिर ऊंचा कर दिया। ये वही नेहरू थे जिन्होंने अपनी आत्मकथा में आजाद को फासिस्ट मनोवृत्ति का बताया था। आजाद की शहादत के बाद पुलिस अधिकारी नॉट बाबर ने अपने बयान में कहा - ÒÒठाकुर विश्वेश्वर सिंह से मुझे संदेश आया कि उसने एक व्यक्ति को अल्फ्रे ड  पार्क में देखा जिसका हुलिया आजाद से मिलता है जो क्रांतिकारी मशहूर है। मैं अपने साथ मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह कांस्टेबिल को लेता गया। जब हम उस जगह पहुंचे जहां समाचार लाने वाले ने विश्वेश्वर सिंह को छोड़ा था तो वहां उन्हें विश्वेश्वर सिंह नहीं दिखाई दिया। मैंने कार दूर  खड़ी कर दी और दोनों व्यक्तियों की ओर बढ़ा। मेरे  पीछे  कांस्टेबिल थे। लगभग दस गज के फासले पर खड़े होकर पूछा कि वे कौन हैं। उत्तर में उन्होंने पिस्तौल निकाल कर गोलियां चला दीं। मेरी पिस्तौल तैयार ही थी। जैसे ही मैंने देखा कि मोटा आदमी (आजाद) पिस्तौल निकाल रहा हैमैंने उसके गोली चलाने के क्षण भर  पहले ही गोली चला दी। साथी अपनी मैगजीन खाली कर कूद कर भाग गया । मेरे  साथ जो तीन आदमी थे उन्होंने गोलियां कुछ तो मोटे आदमी पर और कुछ दूसरे व्यक्ति पर चलाईं। जबकि मैं मैगजीन निकाल कर दूसरी भर रहा थामुझे मोटे व्यक्ति ने गोली मारी जिससे मैगजीन गिर पड़ी जो मेरे दाएं हाथ में थी। तब मैं एक पेड़ (मौलश्री) की ओर भागा जो वहां से दस गज पर था। सिपाही पास की खाई में जा छिपे। इसी बीच विश्वेश्वर सिंह एक झाड़ी मे रेंगकर पहुंचा। वहां से उसने मोटे आदमी पर गोली चलाई। जवाब में मोटे आदमी ने गोली चलाई जो विश्वेश्वर सिंह के मुंह पर लगी। मैं पिस्टल न भर सका। जब-जब मैं दिखाई देतामोटा व्यक्ति मुझ पर गोली चलाता रहा। आखिर वह पीठ के बल गिर पड़ा। मैं नहीं कह सकता कि उस पर किसी ने गोली चलाई या वह पहले के जख्मों से मर गया। इस बीच लोग जमा हो गए। इसी बीच एक व्यक्ति एक बकशाट गन लेकर आया जो भरी थी। मैं नहीं जानता था कि मोटा आदमी सचमुच मरा है या बहाना कर रहा है। इसलिए मैंने उस आदमी से उसके पैरों पर निशाना मारने को कहा। उस आदमी ने बंदूक चलाई। उसके बाद मैं मोटे आदमी के पास गया तो वह मरा पड़ा था। उसका साथी भाग गया। मुझे पता नहीं कि वह घायल हुआ भी था या नहीं।''

      नॉट बाबर की रिपोर्ट यह बताती है कि अकेले आज़ाद ने सशस्त्र ब्रिटिश पुलिस का बहुत वीरता से मुकाबला ही नहीं किया बल्कि उसके छक्के  छुड़ा दिए। यह आजाद का रणकौशल था और अचूक निशाने बाजी भीजिसने नॉट बाबर के हाथ में थमी पिस्तौल नीचे गिरा दी और पुलिस इंसपेक्टर विश्वेश्वर सिंह का दाहिना जबड़ा घायल कर दिया। इस सन्मुख युध्द में उनके मन-मस्तिष्क की दृढ़ता को भी बहुत गहराई से चीन्हा जा सकता है। देखने योग्य यह है कि आज़ाद की लाश तो पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई लेकिन जहां आज़ाद का रक्त पड़ा था वहां जनता ने पुष्प बरसाए और उस मौलश्री के वृक्ष को भी पूजा जिसने कुछ क्षण ही सही,आज़ाद को लड़ने के लिए सहारा और सुरक्षा प्रदान की थी। अंग्रेजी हुकूमत ने यह नज़ारा देखा तो उस पेड़ को ही कटवा डाला जो एक तरह से आज़ाद की अंतिम निशानी और उस युध्द का सर्वाधिक मुखर साक्षी बना तनकर खड़ा दिखाई पड़ रहा था। शक्तिशाली हुकूमतें भी किस तरह प्रतीकों से डरने लग जाती हैं.......  

      23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भावरा गांव में आज़ाद का जन्म हुआ था। पिता सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश में उन्नाव के बदरका के निवासी थे। भावरा वे रोजगार के सिलसिले में जा पहुंचे थे। आज़ाद का जन्म यहीं हुआ था। एक गरीब ब्राह्मण परिवार जो पूरी तरह रू ढ़ियों  में बंधा था। भीलों का इलाका जहां वे पले-बढ़े । ऐसे में पढ़ना-लिखना क्या। वे थोड़े  से बड़े हुए ही थे कि एक मोती बेचने वाले के साथ बम्बई चले गए। वहां उन्हें कुछ मजदूरों की सहायता से जहाजों को रंगने वाले रंगसाज़ों का काम मिल गया और उन्हीं की सहायता से उनके साथ के लोगों की कोठरी  में लेटने भर की जगह भी। वे शाम को मजदूरी करके अपनी कोठरी पर आते। किसी तरह मूंगफली-भेल आदि खाकर पानी पी लेते। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह जिंदगी बहुत बदतर लगने लगी। सोचने लगे कि इतने कष्ट उठाकर घर छोड़ने की क्या जरूरत थी। और एक दिन उन्होंने वहीं से बनारस की राह ले ली जहां उन्नाव के पं. शिवविनायक मिश्र उन्हें मिल गए। उनकी सहायता से वहां उन्हें एक संस्कृत पाठशाला में प्रवेश भी मिल गया जिसमें ब्राह्मण बच्चों को संस्कृत की शिक्षा और  भोजन नि:शुल्क दिया जाता था । पर पारिवारिक रूढ़ियों -बंधनों से मुक्त होकर और अपनी शुरूआती संस्कृत की पढ़ाई से पीछा छुड़ाकर उनके विद्रोही व्यक्तित्व ने जल्दी ही नए रास्ते की तलाश कर  ली और वह साधारण बच्चा उन दिनों देश की आज़ादी के लिए चलाए जा रहे गांधी के असहयोग आंदोलन में जा शामिल हो गया। प्रेरणा क्यागांधी की आंधी तब न जाने देश के कितने छात्रों-नौजवानों को देश की राजनीति की ओर बहा ले हई थी। साधारण कुर्ता और धोती। चौदह साल की अल्प उम्र। भारत माता और महात्मा गांधी की जय बोलते हुए आखिर एक रोज उन्हें पकड़  लिया गया। मजिस्टे्रट ने नाम पूछा तो बोले-- 'आज़ाद।'पिता का नाम-- 'स्वराज्य।घर--'जेलखाना।इस गुस्ताखी पर बालक चन्द्रशेखर को 14 बेतों की सजा मिली। पर उस रोज से वे 'आज़ादकहे जाने लगे। सवालों के जवाब उन्होंने पहले से सोचे या रटे नहीं थे। जो उन क्षणों में मन में आया बोल दिया। यह किसी के  कहे  'तीन शब्दों का अमर  इतिहासहै और एक बालक का जुनून भी जिसकी देश की आज़ादी के संग्राम में हिस्सेदारी करने की अदम्य इच्छा थी।

      आजाद उस दिन से किशोर स्वतंत्रता सेनानी बन गए। गांधी की फौज के अनगढ़  सिपाही। कहा जाता है कि बेतों की सजा मिलने और छूटने के बाद आज़ाद का बनारस के ज्ञानवापी में अभूतपूर्व स्वागत हुआ। वे छोटे थे इसलिए उन्हें मेज पर खड़ा किया गया। इस अवसर पर उन्होंने कुछ कहा भी पर भीड़ में वह सुनाई नहीं पड़ा । उन्हीं दिनों की आज़ाद की एक दुर्लभ तस्वीर है जिसमें वे चरखे के पास खड़े दिखाई पड़ते हैं। स्थिर और शांत बालसुलभ चेहरा। मानो अपनी नन्हीं आंखों से तब वे देश  का वर्तमान और भविष्य एक टक निहार रहे हों।

      गांधी ने चौरी-चौरा की हिंसा के बहाने तेजी से चल रहे असहयोग आंदोलन को एकाएक अवरूध्द कर  दिया। इससे उनके साथी और सहयोगी भी नाराज़ और निराश हुए। भारतीय क्रांतिकारियों ने गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन के इस नए प्रयोग को बहुत धैर्य के साथ देखते हुए अपने हथियारों को एक तरफ रख दिया था। ऐसा कलकत्ते की एक गुप्त बैठक में क्रांतिकारियों ने बाकायदा तय किया था। पर असहयोग की निराशाजनक समाप्ति उन्हें फिर से क्रांतिकर्म की ओर प्रेरित करने लगी। लगा कि आज़ादी के लिए गांधी का रास्ता पर्याप्त नहीं है। ऐसे में अपने छोड़े हुए शस्त्र उठाकर वे फिर मैदान में आ डटे। चन्द्रशेखर आज़ादमन्मथनाथ गुप्त और आगे चलकर 'काकोरी काण्डमें फांसी पाने वाले रोशनसिंह एक वक्त में असहयोग  के सक्रिय सिपाही बनकर ही राजनीति में कूदे जिन्हें भविष्य के क्रांतिकारी संग्राम में अपनी बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिकाएं तय करनी थीं।

      आज़ाद भी गांधी-मार्ग छोड़कारी क्रांति-पथ पर चले आए। तब वे निरे नौजवान ही थे। असहयोग के बाद जैसे ही 'हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघके रूप में क्रातिकारी दल का नए सिरे से गठन हुआ और उसका संविधान'पीला पर्चालिखा गयाआज़ाद का उससे गहराई से जुड़ाव हो गया। यह क्रांतिकर्म की ओर  उनका अनोखा रूपांतरण था। दल के नेता रामप्रसाद 'बिस्मिलने उनकी असाधारण कार्यक्षमता और  लगन देखकर 18 वर्ष  की उम्र में ही उन्हें अपने पहले बड़े क्रांतिकारी  अभियान 'काकोरी टे्रन लूट कांडमें सम्मिलित कर  लिया। यह अगस्त 1925 की ऐतिहासिक घटना है जब 'बिस्मिल'  के नेतृत्व में दस नौजवानों ने अदम्य साहस से काकोरी और लखनऊ के बीच चलती रेल रोककर सरकारी खजाना हथिया लिया। उन दिनों ब्रिटिश सरकार को क्रांतिकारियों की यह खुली चुनौती थी जिसमें वे कामयाब हुए। बाद को क्रांतिकारियों की धर-पकड़ में दल के नेता रामप्रसाद 'बिस्मिलसहित अनेक लोग सरकार के हाथ आ गए। नहीं पकड़े गए तो आज़ाद और कुन्दनलाल। इन लोगों ने ऐसी डुबकी लगाई कि पुलिस ढूंढती ही रह गई। क्रांतिकारी के रूप में  आज़ाद की यह कड़ी परीक्षा थी। आज़ाद अनोखे ढंग से फरार हो गए। उन्होंने साधु वेश धरामोटर ड्राइवरी की लेकिन वे गुप्त होकर  चुप नहीं बैठ गए। काकोरी के मुकदमे के दौरान भी वे बेहद सक्रिय बने रहे। उन दिनों की यादों को ताजा करते हुए अशंफाक उल्ला के भाई रियासतउल्ला खां ने बताया था-- ''मैं अशंफाक  उल्ला से फांसीघर में मिला। अशंफाक उल्ला ने मुझसे पूछा कि क्या मुकदमा लड़ने के लिए पैसों की जरूरत है ।  इस पर मैंने कहा कि तुम कैदी हो। तुम क्या कर सकते हो। पर अशफाक ने कहा--मैं आपको पैसे भेजूंगा। मैं शाहजहांपुर लौट गया। इसके एक हफ्ते बाद जब मैं खाना खा रहा था तो कोई मुझसे मिलने आया ।  मैंने देखा कि एक नौजवान खड़ा है। मैंने पूछा कि क्या मामला है। नौजवान बोला--अशंफाक ने आपको कुछ पैसे भेजे हैं। कह कर उसने मुझे रूपयों का एक थैला दिया। मैंने पूछा कि आपका नाम क्या है। इस पर बोला--मैं आपको सब कुछ बताऊं गापर पहले मुझे एक माचिस दीजिए। मैंने सबेरे से बीड़ी नहीं पी है। मैंने वह थैला ले लिया और माता जी को सौंप दिया और उनसे पूछकर माचिस लेकर नौजवान से मिलने पहुंचा। पर वहां कोई नहीं था। उस थैले में 200 रुपये थे। एक हफ्ते बाद मैं अशंफाक  के पास गया और मैंने सारी बात बताई। इस पर अशंफाक  ने मुस्करा कर कहा--वे चन्द्रशेखर आज़ाद थे।''

      और  फिर  काकोरी मामले में 19 दिसम्बर 1927 को उत्तर  भारत के चार बड़े  क्रांतिकारियों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने फांसी के फंदों पर झुला दिया । 'बिस्मिलको गोरखपुरअशफ़ाक उल्ला फैजाबादरोशनसिंह इलाहाबाद में और राजेन्द्र लाहिड़ी को गोंडा की जेल में शहादत के रास्ते पर जाना पड़ा । सिर्फ अशंफाक की ही लाश उनके घरवालों को उनके खानदानी कब्रिस्तान में दफनाने के लिए दी गई। रियासत उल्ला खां ने यह भी बताया था कि जब वे अशंफाक  की लाश शाहजहांपुर  ले जा रहे थे तो एक आदमी बालामऊ स्टेशन पर मुझसे मिला। वह व्यक्ति सूट पहने था। वह मालगाड़ी के अंदर आ गया और बोला--मैं शहीद की एक झांकी चाहता हूं। मैंने अशंफाक  का चेहरा खोल दिया। उन्होंने तीन बार अशंफाक  को सलामी दी।  वे लालटेन पकड़ कर देख रहे थे। मैंने देखा कि उनकी आंखों में आंसू हैं। फिर उन्होंने कहा--अब ढक दीजिए। मैंने उनका नाम पूछा तब उन्होंने कहा--मुझे लालटेन दीजिए। मैं अभी लौटकर आता हूं। उसके बाद वे फिर नहीं लौटे। मैंने सोचा कि हो न होवह चन्द्रशेखर आज़ाद हों। मुझे दुख हुआ कि मैं उनसे बात नहीं कर सका। आज़ाद बहुत बहादुर आदमी थे। यह दुख की बात है कि वह भी बाद को शहीद हो गए। उनका नाम कयामत तक सोने के हरफ़ों में लिखा रहेगा।

      काकोरी की फांसियों के बाद तो दल के गठन और उसके संचालन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी ही आज़ाद के कंधों पर आ पड़ी । वे सर्वसम्मति से पार्टी के 'कमाण्डर-इन-चीफनियुक्त कर लिए गए। 14 वर्ष के एक किशोर असहयोगी से यात्रा प्रारम्भ करके भारतीय क्रांतिकारी दल के अजेय सेनापति बनने तक की आज़ाद की महागाथा अत्यन्त घटनाबहुल और रोमांचकारी है। उनके नेतृत्व में देश भर  के शहर कानपुरइलाहाबादझांसी,लाहौरआगरादिल्लीसहारनपुरग्वालियरशाहजहांपुर उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र बने। काकोरी के बाद आज़ाद के नेतृत्व में दिल्ली की गादोड़िया डकैती हुईउन्हीं की अगर्ुआई में लाहौर में लाला लाजपतराय पर साइमन कमीशन का विरोध करते हुए जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए पुलिस अफसर साण्डर्स पर गोलियां चलाई गईंदिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने पर्चे और बम भी उनके ही निर्देश और नेतृत्व में फेंकेलाहौर में भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी आज़ाद ने अपने दल के सदस्यों को लेकर बनाई जो किन्हीं कारणों से कामयाब नहीं हो पाई और उत्तर भारत से बाहर जाकर क्रांतिकर्म के लिए जाते हुए भुसावल रेलवे स्टेशन पर पकड़े गए भगवानदास माहौर व सदाशिव राव मलकापुरकर ने उस पूरे अभियान ही नहीं बल्कि अदालत के भीतर मुखबिरों पर गोली चलाने की कार्यवाही भी आज़ाद के निर्देशन में ही सम्पन्न की थी। ऐसे में झांसी से लेकर ग्वालियर और भुसावल तक पार्टी की सयि गतिविधियों के जरिए उसका विस्तार करने में अकेले आज़ाद की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। आज़ाद अपनी पार्टी के बहुत चहेते सेनापति थे। साथियों को प्यार-सम्मानउनकी भूमिकाओं का निर्धारणकिस ऐक्शन में किसे कब और कहां भेजना-जाना है यह सब तय करने और निर्णय लेने की जिम्मेदारी आज़ाद की थी। खतरनाक अभियानों और संकट की घड़ी में कुशल और निर्णायक क्रांतिकारी नेता होना उन्होंने अनेक बार साबित किया। वे हरदम अपने फैसले बहुत कड़ाई से लागू करते और अभियान पर चल पड़ते । जानने योग्य यह है कि दल का प्रत्येक सदस्य उनकी क्षमताओं पर बहुत भरोसा करता था। यहां तक कि उनके लिए अपना बलिदान देने में उसे गर्व की अनुभूति होती थी। साथ ही आज़ाद की सहृदयता ने पार्टी को बड़ी मजबूत प्रदान की। उनके नेतृत्व में क्रांतिकारी दल की प्रगति और उसके विस्तार को जानना सचमुच हमें रोमांचित कर जाता है। यह देखना और भी हैरत भरा है कि उन्हीं के समय में पार्टी ने 'समाजवादको अपना लक्ष्य घोषित किया और विचार की सर्वोत्तम ऊंचाई हासिल करते हुए वे भगतसिंह जैसे बौध्दिक क्राांतिकारी के कदम-से-कदम मिलाकर चलने में कभी हिचके नहीं। उनकी प्रगतिशीलता को जानने के लिए आजाद के जीवन के उन पहलुओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बाद भी पूजा-पाठ और धर्म की बेड़ियों से उन्होंने पूरी तरह मुक्ति पा ली थी। क्रांतिकर्म के लिए उन्होंने अपने घर-परिवार को पूरी तरह छोड़ दिया था। अपने घरबार का अता-पता भी वे कभी किसी को बताते नहीं थे। एक बार दल के अपने साथी सदाशिवराव मलकापुरकर को लेकर वे जरूर भावरा गए और उन्हें अपनी मां से भी मिलवाया। लेकिन यह भी निर्देश दिया कि यह बात वे कभी किसी को बताएंगे नहीं। आज़ाद अपने कर्म और चिंतन से सम्पूर्ण क्रांतिकारी थे। उन्होंने दल में केन्द्रीय समिति के फैसलों के ऊपर अपने निर्णय कभी नहीं लादे। वे साम्राज्यवाद के कट्टर शत्रु थे और पूंजीवादी समाज व्यवस्था को समाप्त कर  समाजवाद की स्थापना उनके जीवन का उद्देश्य था। मन्मथनाथ गुप्त ने उनका मूल्यांकन करते हुए एक बार कहा भी था कि भगतसिंह अनेक पुस्तकों के अध्ययन-मनन के बाद क्रांति के जिस सोपान पर पहुंचेआज़ाद अपने जीवन और तज् ाुर्बों से वहां पहुंच गए थे। लेकिन आज़ाद पर कुछ दर्ज करते हुए नेहरू जैसा बुध्दिजीवी आखिर चूक ही गया। नेहरू ने उन्हें फासिस्ट मनोवृत्ति का बताया लेकिन वे फासिज्म को व्याख्यायित नहीं कर पाए। अपनी आत्मकथा में नेहरू ने लिखा है कि वह (आज़ाद) यह मानने को तैयार नहीं था कि शांतिपूर्ण साधनों से ही हिन्दुस्तान को आज़ादी मिल जाएगी। आज़ाद ने यह भी तर्क किया कि आगे कभी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है पर वह आतंकवाद न होगा। क्या ऐसा कहने वाला फासिस्ट हो सकता है। नेहरू से आज़ाद के यह तर्क उन्हें बौध्दिक क्रांतिकारी की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं । गांधी और गांधीवादी निरन्तर क्रांतिकारियों की आलोचना करते हुए उन्हें  'हिंसक', 'हत्यारेऔर  'फासिस्टकहते रहेपर आश्चर्य होता है कि गांधी ने क्रांतिकारियों की जो आलोचना की उसे भारतीय जनता सिरे से खारिज करती रही। उसने गांधी को सम्मान तो आजाद को प्यार करने में भी कोई कोताही नहीं की। हैरत नहीं कि भगतसिंह और आज़ाद पर हमारे देश की कम पढ़ी-लिखी या अपढ़ जनता ने सर्वाधिक लोक गीत रचे और गाए। अपने जीते जी आज़ाद कि वदंती बन गए थे। उनका जीवन बहुत सादा था और ज़रूरतें बहुत कम। उनका जीवन एक सामान्य व्यक्ति के समान था। जनसाधारण के बीच उनकी गजब की लोकप्रियता थी। वे सही अर्थों में लोकनायक थे। देश के लोगों में उनके प्रति अद्भुत प्यार और सम्मान था। याद आता है 'दिल्ली षड़यंत्र केसके क्रांतिकारी काशीराम का एक प्रसंग। काशीराम जब दिल्ली में थे तब एक बार पुलिस उनके पीछे पड़ गई। आगे-आगे काशीराम पीछे पुलिस के सिपाही। काशीराम दौड़ते-दौड़ते थक गए। आखिर एक गली में मुड़कर उन्होंने एक अनजाने घर  का दरवाजा खटखटा दिया। एक महिला बाहर आईं। काशीराम को कुछ न सूझा। एकाएक बोल पड़े --'मैं चन्द्रशेखर आज़ाद का साथी हूं। पुलिस मेरे पीछे पड़ी है।'इतना कहना था कि उस महिला ने उन्हें घर के भीतर छिपा लिया। पुलिस थोड़ी देर में उस दरवाजे पर आई लेकिन 'यहां कोई नहीं आयाकहकर उस महिला ने काशीराम को पुलिस के हाथों पड़ने से बचा लिया। यह जनता के मध्य आज़ाद के जनप्रिय होने का प्रमाण था। साधारण जनता के बीच उनके नायकत्व का साक्ष्य हमें तब भी मिलता रहा जब आज़ादी प्राप्त होने के बाद के अनेक वर्षों तकगांव-देहात के मेलों-बाजारों में पान की दुकानों पर चन्द्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह की तस्वीरे लगी हम देखते थे। ट्रकों के दोनों ओर के दरवाजों पर भी इन शहीदों की फोटुएं  लगाई जाती थीं। 1981 में जब आज़ाद और भगतसिंह की बलिदान अर्धशताब्दी आई तब हमने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और केन्द्रीय संचार मंत्री सी.एम. स्टीफन से यह मांग की थी कि इन अमर शहीदों  की स्मृति में भारत सरकार डाक टिकट जारी करे। हमारे अनुरोध को स्वीकार न किए जाने का दुख तब हमें और भी सालता रहा जब गुलाम भारत के अंतिम वायसराय और हमारे आज़ाद मुल्क के पहले गवर्नर जनरल लार्ड माउण्टबेटन ही नहींसंजय गांधी पर भी डाक निकाले गए। मुझे याद आता है कि उन दिनों उपराष्ट्रपति एम. हिदायतुल्ला ने अपने एक बयान में माउण्टबेटन की प्रशंसा करते हुए कहा था कि यदि वे प्रयास न करते तो देश को आज़ादी इतनी जल्दी नहीं मिल पाती। अपने साम्राज्यवादी आकाओं के प्रति हमारे सत्ताधारियों की कृतज्ञता (गुलाम मानसिकता) का यह नमूना भर है। हमें जानना चाहिए 15 अगस्त 1947 की तारीख की सही असलियत जो तब ही हमारे  सामने प्रकट हो गई जब आज़ाद भारत की हुकूमत में 1948 में ही 'हंसमें छपे कवि शंकर शैलेन्द्र के गीत 'भगतसिंह सेको  'लोकप्रिय सरकार के विरूध्द जनता में घृणा फैलाने का जिम्मेदारमानते हुए जब्त कर लिया था। उन दिनों इस पत्रिका के संपादक अमृतराय और नरोत्तम नागर थे। यह विचारोत्तेजक गीत आज़ादी के नाम पर 1947 के समझौते का पर्दाफाश करने के साथ ही यह देखने-जानने की आंखें भी हमें प्रदान करता है कि वह मात्र सत्ता का हस्तांतरण थापूर्ण स्वतंत्रता नहीं और हम ब्रिटिश कामनवेल्थ के अंग बने रह कर वैसा प्रमाणित भी करते रहे ।

      आज़ाद ने अपने जीवन में कु छ भी दस्तावेजी लिखा या बोला नहीं। आज़ाद के कानपुर के साथी सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय बताया करते थे कि आज़ाद अपने अंतिम दिनों में विस्तृत जनआंदोलन की आवश्यकता अनुभव करने लगे थे और वे गुप्त आंतककारी घटनाओं और कार्यों के अब और अधिक किए जाने की असामयिकता और अनुपयोगिता को हृदयंगम कर चुके थे। अपनी शहादत के पूर्व के समय में उन्होंने दल को विघटित करने का उपम भी किया था। पर ऐसा वे दल के प्रति विश्वासघात करने वालों की गतिविधियों के चलते भी करने को विवश हुए थे। आज़ाद बहुत सहृदय और भावुक भी थे। बात दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने के बाद की है। सब लोग झांसी केन्द्र पर थे। आज़ादकुन्दनलालसदाशिवराव  माहौरवैशम्पायन और राजगुरू वहां थे। शिव वर्मा भी पहुंच गए। सब इकट्ठे होकर उनसे यह जानने को उत्सुक थे कि दिल्ली के बम कांड के बाद क्याआजाद को घेर लिया गया । गिरफ्तारी दे चुके भगत सिंह और दत्त के बारे में अधिक-से-अधिक सुनने के लिए। अपने इन दोनों  क्रांतिकारी साथियों के चित्र देखकर सभी की आंखों में आंसू झलक आए। पर आजाद किसी तरह अपने को संभाले रहे। उसी समय सामने रखे अखबार पर किसी साथी का पांव पड़ गया जिसमें भगतसिंह और दत्त के फोटो छपे थे। आजाद ने यह देखा तो नाराज़ हो उठे। फिर तो उनकी भी आंखें भर आईं। किसी तरह बोले-- 'अब यह लोग देश की सम्पत्ति हैंशहीद हैं। देश इनको पूजेगा। अब इनका दर्जा हम लोगों से बहुत ऊंचा है। इनके चित्रों पर पैर रखना देश की आत्मा को रौंदने के बराबर है।यह कहते-कहते उनका स्वर भर्रा गया। अब दोनों साथियों को छुड़ाने की बात होने लगी। शिव वर्मा बोले-- 'मैं और जयदेव इस काम को कर लेंगे।आज़ाद ने फौरन मना कर दिया। बहुत भीतर से वे कठिनाई से कह सके--'अब मैं अलग-अलग साथियों को ऐक्शन में नहीं झोंकूंगा। दल के सेनापति के नाते क्या मेरा यही काम है कि लगातार नए-नए साथी जमा करूंउनसे अपनापन बढ़ाऊं  और फिर योजना बनाकर अपने ही हाथों उन्हें मौत के हवाले  कर दूं और मैं आराम से बैठकर आग में झोंकने के लिए नए सिरे से नया ईंधन बटोरना शुरू कर दूं।इसके बाद थोड़ रूककर कहा--'अब अगर  चलना ही होगा तो सब लोग एक साथ चलेंगे ......।'

      बम्बई के लेमिंग्टन रोड पर जब दुर्गा भाभीपृथ्वीसिंह आज़ाद और सुखदेव राज ने उनसे अनुमति लिए बगैर जल्दबाजी में गर्वनर पर गोलियां चला दीं तब पहले वे बहुत नाराज़ हुए। अपनी पार्टी के सदस्यों को बिना किसी तैयारी के बड़े खतरे में डालने के लिए वे कभी कतई तैयार नहीं होते थे। भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना के दिनों में अपने दल के महत्वपूर्ण साथी भगवतीचरण को बम परीक्षण में खोकर उन्हें बहुत सदमा पहुंचा था। वे अपने साथियों को बहुत प्यार करते थे और उनके लिए कुछ भी करने को तैयार होते थे। कभी किसी ऐक्शन में ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने लड़ने  के लिए दूसरे को आगे भेज दिया हो और स्वयं पीछे रहकर नेतृत्व का डंका बजाया हो। उनमें बड़े-से-बड़ा खतरा उठाने का अद्भुत साहस था। बलशाली थे ही। कठिन परिस्थितियों में वे अपने मस्तिष्क में तुरन्त योजनाओं को गढ़ लेते और उनमें कामयाब भी होते थे। उन पर  विभिन्न षड़यंत्रों में सयि रूप से सम्मिलित होने के आरोप थे। ऐसे में वे पकड़े जाते तो फांसी की सजा तज़वीज होती। लेकिन फंदे में झुलाने से पहले उन्हें यातनाएं भी दी जातीं,  यह आज़ाद बखूबी जानते थे। कभी इस तरह की बात चल पड़ती तो वे स्वाभाविक निडरता से बोल उठते--'इन हाथों में पुलिस की हथक ड़ियां कभी नहीं पड़ेंगी ।और वे अपनी बलिष्ठ कलाइयों पर नजर डालने लगते। पुलिस को धोखा देने और उससे निपटने में उनका दिमाग बहुत तेज था। एक बार वे छद्म वेश में झांसी में एसपी के ड्राइवर का काम भी करते रहे। वहां से जब वे एकाएक गायब हुए तभी पुलिस को उनके आज़ाद होने की सूचना मिली जिनकी गिरफ्तारी के लिए बहुत पहले वारन्ट निकाला जा चुका था। जिन परिवारों में वे आश्रय पाते थे उनमें रामचन्द्र मुसद्दी की पत्नी श्रीदेवी मुसद्दी के वे स्नेहपात्र थे तो तारा अग्रवाल भाई और मास्टर रूद्रनारायण की पत्नी के चहेते देवर तथा माहौर जी की माता के प्यारे बिटवा बनकर उन घरों में वे इस तरह घुलमिल जाते थे कि किसी को उनके बाहरी होने का अनुमान ही नहीं होता था।

      आज़ाद कम पढ़े-लिखे थेयह उनकी हस्तलिपि से भी विदित होता था। हिंदी पुस्तकें वे स्वयं पढ़ लेते थे तो अंग्रेज़ी की किसी जरूरी पुस्तक को किसी से पढ़वाकर सुन लेते थे। दल के सदस्यों के साथ वैचारिक बहसों में उनकी समान हिस्सेदारी हुआ करती थी। उनके पत्र का एक ही नमूना हमें प्राप्त होता है जिसकी प्रतिलिपि झांसी के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित है। इस पत्र की इबारत देखिए--'श्रीमान मंत्री साहबनगर  कांग्रेस कमेटी बनारस। आपके वहां से जो धोती व दो लंगोट दिए गए थेवो कपड़े जिला जेल बनारस में मुंशी हरनारायण लाल जिला बस्ती तहसील बांसी को दे दिया गया। तारीख  9.9.22--आज़ाद।समझा जाता है कि पत्र में कपड़ा का अर्थ पिस्तौल-गोली से है।

      आज़ाद की पिस्तौल जो अंतिम दिन 27 फरवरी 1931 को उनके पास थीउसकी खोजबीन शुरू हुई। वह उनकी सबसे बड़ी स्मृति थी। पर  उसकी तलाश करने में हमें काफी वक्त लग गया। तब उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री थे चन्द्रभानु गुप्त । आज़ाद के  साथियों ने उनसे अनुरोध किया कि उसका पता लगाया जाए। बहुत खोजबीन के बाद जानकारी मिली जो इलाहाबाद के सरकारी मालखाने के रजिस्टर में दर्ज थी--'कोल्ट पिस्तौल पीटीएफए मैन्युफैक्चर्स कं. हार्टफोर्ड सिटी (अमरीका)पेटेण्डेट अप्रैल 20, 1897, दिसम्बर 22, 1903, कोल्ट आटोमैटिक कैलिवर, 32, रिमलैस एंड स्मोकलेस।इसके साथ ही यह नोट भी लिखा हुआ था कि वह पिस्तौल नॉट बाबर एसएसपी कोजिनकी पहली गोली से आज़ाद घायल हुए थेइंग्लैण्ड जाते समय भेंट कर दी जिसे वह अपने साथ इंग्लैण्ड ले गए। नॉट बाबर उत्तर प्रदेश सरकार  से पेंशन पाते थेअत: उन्हें तुरन्त यह पिस्तौल वापस करने के लिए लिखा गया। कोई उत्तर न मिलने पर तब केन्द्र सरकार से मदद मांगी गई। याद पड़ता है कि इंग्लैण्ड  स्थित भारतीय उपायुक्त अप्पा साहब ने इसमें बड़ी मदद की। वह नॉट बाबर से मिले और उनके समझाने-बुझाने परपिस्तौल को उस पूर्व ब्रिटिश पुलिस अधिकारी ने इस शर्त पर लौटाने की बात कही कि भारत सरकार उन्हें एक अनुरोध पत्र लिखने के साथ ही इलाहाबाद के अल्फ्रे्रड पार्क में लगी आज़ाद की प्रतिमा की एक फोटो ग्राफ उन्हें भेजे। इस तरह आज़ाद का वह पिस्तौल देश वापस आया और उसे लखनऊ के संग्र्रहालय में संरक्षित किया गया है। आज़ाद के पास एक माउज़र पिस्तौल भी था पर उस अंतिम रोज उनकी जेब में कोल्ट ही था। साण्डर्स वध में आज़ाद ने माउज़र का इस्तेमाल किया था।

      आज़ाद के एक चित्र को लेकर मुझे अनेक प्रगतिशील मित्रों ने कई बार कुरेदा जिसमें उनके नंगे बदन पर जनेऊ दिखाई पड़ रहा है और उनका एक हाथ मूंछ पर है। इस पर टिप्पणी करने वाले यह बताना चाह रहे थे कि आज़ाद पोंगापंथी ब्राह्मण थेजनेऊ पहनने वालेजिनका प्रगतिशीलता से कोई वास्ता नहीं था। ऐसे लोगों को मैं बताना चाहता हूं कि उस तस्वीर की ऐतिहासिकता को जानें। शुरूआती दिनों में जब उनके शरीर पर जनेऊ था और वे उन दिनों पहलवानी-करसत किया करते थे। ऐसे ही किसी क्षण में अचानक चुपके के कैमरा लेकर उनके मित्र मास्टर रूद्रनारायण सामने फोटो खींचने आ खड़े हुए। आजाद ने उन्हें रोकना चाहा लेकिन मास्टर साहब जब नहीं माने तो आज़ाद अखाड़ों में ही खड़े-खड़े  बोले--'अच्छाजरा मूंछ ठीक कर लेने दो।'और उनका हाथ मूंछों पर चला गया कि तस्वीर खिंच गई। आजाद ने अपने जीवन में उत्तरोत्तर प्रगति की,क्रांतिकर्म और विचारों में भी। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने क्रांतिकारी कृतित्व से उन्होंने अपने समय में इतिहास के पहिए को जिस तेजी से घुमाया उसका उदाहरण देखने में नहीं आता। लेनिन कहा करते थे कि प्रत्येक क्रांतिकारी की जिंदगी दो-ढाई साल से अधिक नहीं होती। इस अवधि में उसे लगकर काम करना चाहिए अन्यथा किसी रोज पुलिस के हाथों मार  दिया जाएगा और बिना कुछ किए धरे जेल जाने पर वह डिमारलाइज़ हो जाएगाा। आजाद ने पार्टी का नेतृत्व करते हुए साढ़े छह साल का सयि क्रांतिकारी जीवन जिया जो दुनिया में रिकार्ड है। 1923-24 से लेकर उनके नेतृत्व संभालने और फिर उनकी शहादत के समय तक क्रांतिकारी दल ने उनकी अगुआई में लगातार ऊंचाइयों को छुआ। 'हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघसे लेकर 'हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघमें उसके रूपांतरण तक का इतिहास सचमुच हमारी थाती है। हंसराज रहबर कहा भी करते थे कि आज़ाद और भगतसिंह की शहादत के बाद 'हिसप्रसके विघटन से जो स्थान रिक्त हुआ उसकी कभी भरपाई नहीं हो पाई। यद्यपि यह कार्यभार देश के प्रगतिशील कम्युनिस्ट दलों का था जिसे उन्होंने पूरा नहीं किया। रहबर इस भूल को उन दलों का ऐतिहासिक गुनाह मानते थे।

      आज़ाद के जीवन का आइना सही अर्थों में उनका क्रांतिकारी कृतित्व है जिसे विस्तार को देख पाने के लिए ख़ास आंखें चाहिए। निरे किताबी बुध्दिजीवी के लिए उनका मूल्यांकन करना आसान भी नहीं है। आज़ाद की जगह जनता के मध्य थी। उनके जीवन और  क्रांतिकर्म पर कविताएंमहाकाव्य रचे गएढेरों संस्मृतियां लिपिबध्द की गईं जिनमें आज़ाद का संघर्ष ध्वनित होताबोलता है। उनकी ज़िंदगी के चित्रों को सामने लाने के लिए भगवानदास माहौरशिव वर्मारामकृष्ण खत्रीकाशीरामदुर्गा भाभीसदाशिवराव मलकापुरकरशचीन्द्रनाथ बख्शीराजाराम शास्त्रीरमेशचन्द्र गुप्तविश्वनाथ वैशम्पायनमन्मथनाथ गुप्तभवानीसिंह रावतसुखदेव राज,सुरेन्द्र शर्मातारा अग्रवालराजेन्द्रपाल सिंह वारियरश्रीदेवी मुसद्दी आदि उनके संगी-साथियों ने गम्भीर और आत्मीय प्रयास किए। लिखा यशपाल ने भी उस दौर परलेकिन आज़ाद पर लिखते समय उनकी कलम की स्याही में थोड़ी कमी रह गई थी। आज़ाद का उनका मूल्यांकन नितांत पक्षपातपूर्ण था। कौन जाने कि 'दादा कामरेडऔर  'पार्टी कामरेडमें उन्होंने आजाद को ओछा और नीचा साबित करने की असफल कोशिशें कीं और  'सिंहावलोकनसेल्फ डिफेन्स में लिखा। उन्होंने घटनाओं को बहुत तोड़ा-मरोड़ा और मनमर्जी से गढ़ा भी। ऐसा करते हुए यशपाल बहुत उलझते चले गए और अंतत: अनेक बार उन्हें निरूत्तर होना पड़ा। शिव वर्मा कहा भी करते थे--'आज़ाद के बारे में अधिकांश लोगों ने या तो कल्पना के सहारे लिखा है या फिर दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को एक जगह बटोर कर रख दिया है। कुछ लोगों ने उन्हें जासूसी उपन्यास का नायक बनाकर उनके चारों ओर तिलिस्म खड़ा  करने की कोशिश की है। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपने को ऊंचा दिखाने के ख्याल से उन्हें निरा जाहिल साबित करने का प्रयत्न किया है। फलस्वरूप उनके बारे में अजीब-अजीब धारणाएं बनर् गई हैं - उनमें मानव सुलभ कोमल भावनाओं का अभाव थावे केवल अनुशासन का डंडा चलाना जानते थेवे क्रोधी एवं हठी थेकिसी को गोली से उड़ा देना उनके बाएं हाथ का खेल थाउनके निकट न दूसरों के प्राणों का मूल्य था न अपने प्राणों का कोई मोहउनमें राजनीतिक सूझबूझ नहीं के बराबर थी,उनका रूझान फासिस्टी थापढ़ने -लिखने से उनकी पैदाइशी दुश्मनी थी आदि। कहना न होगा कि आज़ाद इनमें से कुछ भी न थे। और  जाने-अनजाने उनके प्रति इस प्रकार की धारणाओं को प्रोत्साहन देकर लोगों ने उनके व्यक्तित्व के प्रति अन्याय ही किया है।आजाद की जिंदगी की टुकड़े-टुकड़े दास्तां जब हम मनोहरलाल त्रिवेदी,महाराज खलक सिंह जूदेवपं. शिवविनायक मिश्रबाबा पृथ्वीसिंह आजादमुंशीराम शर्मा 'सोम', रियासतउल्ला खांभवानी सहायप्रो. नंदकिशोर निगमबटुकनाथ अग्रवालपं. पद्मकांत मालवीयजितेन्द्रनाथ सान्याल,इन्द्रपालमास्टर छैलबिहारी लालमनमोहन गुप्त की यादों में भी तलाश करते-देखते हैं तो हमें आज़ाद का दूसरा ही रूप दिखाई पड़ता है। उनके व्यक्तित्व का यह बड़प्पन था कि वे एक ऐसे सेनानायक के रूप में हमारे मुक्तियुध्द के इतिहास के पृष्ठों में दर्ज हैं जिनकी छवि अपने सिपाहियों के दिलों के भीतर बहुत आत्मीय ढंग की दिखाई पड़ती है। क्रांतिकर्म में ऐसा भावनात्मक लगाव 'आज़ाद हिंद फौजके नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के प्रति ही उनके सैनिकों में दृष्टिगोचर होता  है। आज़ाद अपने दल के सदस्यों के सेनापति ही नहीं थेवे उनके परिवार के अग्रज भी थे जिन्हें हर साथी की छोटी-से-छोटी आवश्यकता का ध्यान रहता है। मोहन (बटुकेश्वर दत्त) की दवाई नहीं आईहरीश (जयदेव कपूर) को कमीज की आवश्यकता  हैरघुनाथ (राजगुरू) के पास जूता नहीं हैबल्लू (विजयकुमार सिन्हा) का स्वास्थ्य ठीक नहीं हैआदि उनकी रोज की चिंताएं थीं। यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि दिल्ली में  जब निश्चित रूप से यह फैसला हो गया कि भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ही असेम्बली में बम फेंकने जाएंगेंतो शिव वर्मा और जयदेव कपूर को छोड़कर बाकी सब साथियों को आदेश दिया गया कि वे दिल्ली से बाहर चले जाएं। आज़ाद को झांसी जाना था। जब वे चलने लगे तो शिव दा उन्हें स्टेशन तक छोड़ने गए। रास्ते में आज़ाद उनसे बोले - 'प्रभात (पार्टी का नाम)अब कुछ ही दिनों में यह दोनों (भगतसिंह और दत्त) देश की सम्पत्ति हो जाएंगे। तब हमारे पास इनकी यादें भर रह जाएंगी। तब तक के लिए मेहमान समझकर इनकी आराम-तकलीफ का ध्यान रखना।उस दिन रास्ते भर वे भगतसिंह और दत्त की ही बातें करते रहे। वे भगतसिंह को इस काम के लिए भेजने के पक्ष में नहीं थेपर सुखदेव और स्वयं भगतसिंह की जिद के सामने उन्हें यह कठिन फैसला मानना पड़ा । आज़ाद अन्दर से भगत सिंह को खोने के विचार से दुखी थे।

      याद आता है कि भगतसिंह की जन्मशती जहां बड़े पैमाने पर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संगठनों ने मना कर उनके योगदान को रेखांकित किया वहां सरकारखासकर पंजाब में सत्ता प्रतिष्ठान ने भी उन आयोजनों में भरपूर मदद की। इस अवसर पर भगत सिंह को न केवल बिकाऊ माल में तब्दील किया गया,उनकी स्मृति को सत्ता प्रतिष्ठान का मोहताज बना दिया गयावहीं दूसरा षड़यंत्र उनके साथ बहुत बेशर्म तरीके से उनके सिर पर पगड़ी पहनाने का भी हुआ। (अगले अंक में इस पर लेख) अर्थ यह कि भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी चिंतक को उन्हें स्मरण करने वालों ने जाति और धर्म के खाने में ले जा पटका। बिना यह जाने-समझे कि वे पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे और मार्क्सवादी रास्ते से नए समाज का निर्माण करना चाहते थे तथा उन्होंने अपना अंतिम आलेख 'मैं नास्तिक क्यों हूंलिखकर अपने चिंतन को निर्भीकता से लोगों के सामने रखने का प्रयास किया। यही नहींसंसद में भी भगत सिंह की पगड़ीधारी स्टेच्यु  लगा दी गई। पर चन्दशेखर आज़ाद को उनके जन्मशती वर्षा में याद करने में सरकारों और लोगों दोनों ने कोताही बरती। क्रांतिकारी गतिविधियों के दिनों में जो शहरखासकर कानपुरआगरादिल्लीग्वालियरझांसीसहारनपुर और इलाहाबाद उनकी सक्रियता के प्रमुख केन्द्र रहेवहां भी उनकी स्मृति के नाम पर गजब का सन्नाटा पसरा रहा। उनके पैतृक घर बदरका (उन्नाव) में प्रतिवर्ष एक मेला सरकारी तामझाम से लगता है पर उसमें आज़ाद और उनकी विचारधारा कहीं नहीं होती। शर्मनाक यह रहा कि आज़ाद का शताब्दी वर्ष बीतते-बीतते उनके जन्मस्थान भावरा में उनकी कुटिया जिला प्रशासन की ओर से ढहा दी गई । गांव के लोग चीखते-चिल्लाते रहे पर अंतत: आज़ाद का वह स्मारक हमारी आंखों के सामने ही विकास के नाम ज़मींदोज कर  दिया गया और हम कुछ नहीं कर पाए। हम सातार तट पर आजाद के उस कुटिया के भीतर खडे  हैं जिसमें काकोरी की फरारी के बाद आज़ाद साधु वेश में काफी समय तक छिपकर रहे। यहां से एक सुरंग सातार के किनारे तक जाती है। निकट ही आज़ाद की एक आदमकद प्रतिमा लगी है। सातार सूख गई है। उसमें पानी नहीं रहा। आज़ाद इसके जल में नित्य नहाते होंगे। नदी की तलहटी को इन दिनों खोद कर गहरा किया जा रहा है जिससे बरसात में बहाव बन सके। आज़ाद की स्मृति भी सातार की भांति विलुप्त न हो जाए कहींमैं इसी चिंता में उस कुटिया की जर्जर दीवारें अपनी उंगलियों से स्पर्श कर रहा हूं। इसके बाद मुझे वह रूदन भी सुनाई पड़ने लगता है जब स्वतंत्रता के बाद आजाद की मां जगरानी देवी को पं. बनारसीदास चतुर्वेदी और आज़ाद के अभिन्न मित्र भगवानदास माहौर और सदाशिवराव मलकापुरकर यहां लेकर आए थे। अपने शहीद पुत्र की याद में जगरानी देवी दहाड़ मार कर रोयी थींबिलख-बिलख कर। सदाशिव जी ही थे जो किसी तरह उन्हें संभालते-बटोरते रहे। जिन दिनों भावरा में आज़ाद की मां भूखों मर रही थीं तब बनारसीदास चतुर्वेदी को उनका ध्यान आया। उन्होंने उस वृध्दा की खोज-खबर ली और झांसी में भगवानदास माहौर के घर लाकर उन्हें रखा गया। सेवा में जुटे सदाशिव जी। एक रोज मां कहने भी लगीं-- 'चन्दू (चन्दशेखर) अगर जिंदा होता तो क्या वह सदू (सदाशिव) से ज्यादा सेवा करता।पर हम उस मां को एक बार भी राष्ट्रीय शहीद की मां होने का गौरवबोध नहीं करा पाए । यह हमारी असफलता थी। वे नहीं जानती थीं कि उनका बेटा क्यों शहीद हो गया और  वह आज़ादी के लिए संग्राम  करने वाली बड़ी क्रांतिकारी पार्टी का सर्वोच्च सेनापति था। वे तो कहती थीं--'उसकी किसी से क्या दुश्मनी थी जो वह मार दिया गया।यह लिखते-कहते हुए मेरी कलम कांप जाती है कि अपने अंतिम दिनों में आज़ाद की मां जगरानी देवी को अपने पेट का गङ्ढा किसी तरह कोदो जैसे निम्न कोटि के अनाज को खाकर भरना पड़ा था। आज़ाद जैसे शहीद की स्मृति और उनकी मुर्दा निशानियों को कौन जिंदा रखे जब उनके सबसे बड़े ज़िंदा स्मारक (उनकी मां) की सुरक्षा और देखभाल करने से हम चूक जाते रहे। इसे हमारे राष्ट्रीय अपराधों में गिना जाना चाहिए। देख रहा हूं कि आज़ाद की मां की समाधि झांसी में बना दी गई है पर उस पर फूल चढ़ाने का साहस नहीं होता मेरा। हमारे मन में लज्जा है और हम सचमुच कितने कृतघ्न हैं।

      आज़ाद की एक और स्मृति इन दिनों मिटने के कगार  पर है। दिल्ली के गाड़ोदिया एक्शन के बाद आजाद अपने क्रांतिकारी साथियों--विशवम्भर दयालरामचन्द्रहजारीलालमास्टर छैलबिहारी और भवानीसिंह को लेकर गढ़वाल के नाथोपुर गांव चले गए। यह उनके साथी भवानीसिंह का गांव था। तब भवानीसिंह के पिता जीवित थेजो फौज में रह चुके थे। भवानीसिंह उन दिनों दिल्ली में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। ऐसे में उन्होंने अपने पिता को बताया कि वे सब उनके कालेज के सहपाठी हैं और आज़ाद रेंज आफीसर। पिस्तौल और रायफलगोलियां साथ में ले ली थीं। भवानीसिंह के घर पर भी रायफल थी। दिल्ली से कोटद्वार तक रेल और फिर 10 मील मोटर से चलकर दुगड्डा पहुंचे और वहां से गढ़वाल का नाथोपुर गांव। आजाद 10 दिन तक घने जंगलों में अपने साथियों को निशाने की टे्रनिंग देते रहे। जब लौटने लगे तब उन्होंने रास्ते में एक वृक्ष पर निशाना साधते हुए गोली दागी। वह गोली आज भी उस पेड़  के अंदर मौजूद है। आज़ादी के बाद भवानीसिंह ने वहां एक चबूतरा बनाकर आज़ाद का स्मारक निर्मित कर दिया। फिर उन्होंने शासन को अनेक बार उसे विकसित किए जाने के लिए पत्र लिखेलेकिन कोई उत्तर नहीं। शायद आज़ाद की यादों को अपने भीतर समेटे वह वृक्ष भी अब ढहने-गिरने की कगार पर हो। पर किसे फुर्सत है शहीदों की यादगारों को संवारने-बचाने-बनाने की। अचानक साथी प्रियंवद मुझे बताते हैं कि कानपुर के 100 वर्ष पुराने तिलक हाल वाले पुस्तकालयजहां कांग्रेस कमेटी का दफ्तर हैउसे बहुत अरसे बाद खोला गया है । उसमें चन्द्रशेखर आज़ाद की एक टोपी सुरक्षित है। शीशे के बाक्स में रखी सफेद कांग्रेसी टोपी की तरहजिस पर नीली धारियां हैं। सुनकर मैं भावुक हो जाता हूं। आज़ाद की उस दुर्लभ स्मृति को स्पर्श करने का भाव मन में आता है। मन-ही-मन आज़ाद के चित्र को प्रणाम करता हूं। मैं प्रियंवद से कहता हूं कि 'हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघके उस अजेय सेनापति की निशानियां कब हमारी राष्ट्रीय धरोहर बनेंगीहमें उस दिन की प्रतीक्षा है। अपने मुक्तियुध्द के इतिहास और उन शहीदों के प्रति हमारे भीतर सम्मान जगे तभी तो नई पीढ़ी को संघर्ष की वह विरासत हम साहस के साथ सौंप सकेंगे जो नएशोषणमुक्त समाज निर्माण के लिए रोशनी का काम करेगी। आज देश में दलीय राजनीति का दलदल बजबजा रहा है। जाति और धर्म के टंटे। सब ओर शोषण और घोटाले-दर-घोटाले। पूंजी का अनाप-शनाप विस्तार और उसका नंगा नाच। दूसरी ओर आबादी के एक बड़े हिस्से को अपनी गुजर-बसर के लिए 20 रुपए प्रतिदिन में काम चलाना पड़ता है। हमारा कोई-कोई भूखण्ड भूख से बिलख रहा है तो कहीं किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। ऐसे में हमें आज़ाद की स्वतंत्रता का वह सपना याद आता है जिसे वे कभी-कभी गुनगुनाते थे - 'जेहि दिन हुइहै सुरजवाअरहर के दलिया चावल के भतुवाखूब कचरि के खैबो ना।' (जिस दिन देश स्वतंत्र हो जाएगा उस रोज अरहर की दाल और भात खूब पेट भर कर  खाएंगे)। भूखे पेट के लिए इससे ज्यादा आज़ादी का अर्थ भी क्या हो सकता है।

      स्वतंत्रता-प्राप्ति के इतने लंबे समय बाद जब मैं चन्द्रशेखर आज़ाद के किसी भी उपेक्षित और बदहाल स्मारक का ध्यान करता हूं तब मैं बार-बार सोचता हूं कि आज़ाद की स्मृतियां आखिर किसके लिए?  ऐसे में मुझे उनके साथी भगवानदास माहौर का कथन शिद्दत से याद आता है-- 'अमर शहीद क्रांतिकारी सेनानी चन्द्रशेखर आज़ाद का स्मारक अशिक्षितकु संस्कारग्रस्तगरीबी में पड़ी हुई जनता का क्रांति के मार्र्ग पर उत्तरोत्तर बढ़ते जाने का स्मारक हैअदम्य साहसव्यवहारिक सूझ-बूझऔर साथियों के लिए हार्दिक स्नेह,त्याग और बलिदान के लिए सतत तत्परता के द्वारा प्राप्त नेतृत्व का स्मारक हैऔर है साम्राज्यवाद के विरूध्द आमरण दृढ़ निश्चयी  युध्द और  समाजवाद की स्थापना के लिए निर्भयता से बढ़ते जाने का स्मारक।आज़ाद के स्मृतियों की सार्थकता भी इसी में है।

 

1953 में जन्मे सुधीर जी भारतीय क्रांतिकारियों के अपने ज्ञान और अध्ययन के लिए पूरे देश में विख्यात हैं । क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास पर लगभग दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं। मजदूर आंदोलन में 20 वर्ष तक भागीदारी, 'संर्दशका सम्पादनदो बार जेल यात्रा । शहीदों और क्रांतिकारियों की स्मृति रक्षा के लिये देश भर में काम ।

 

 

संपर्क-6, पवन विहार फेज-5 विस्तार,

पो. रूहेलखण्ड विश्वविद्यालयबरेली-243006

मो-09760875491, 08439077677

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