Wednesday, 18 April 2012 10:32 |
पुष्परंजन लेकिन ईरान के लेखकों और राजनेताओं के लिए ग्रास का त्रास, इजराइल समर्थकों पर हल्ला बोल के काम आ रहा है। ईरान के संस्कृति उपमंत्री जवाद शामगदरी ने ग्रास को इसके लिए शाबासी दी है। उन्हें लिखे पत्र में कहा, 'कोई शक नहीं कि आपकी यह कविता पश्चिम के सोए विवेक को फिर से जगाने में मदद करेगी।' पिछले गुरुवार तक कोई पैंतीस सौ फेसबुक गुंटर ग्रास के लिए समर्पित थे। क्लाउस स्टीफेन श्लांगेल जर्मनी के माने हुए ब्लॉगबाज हैं। क्लाउस ने बाकायदा 'सपोर्ट गुंटर ग्रास' नाम से अभियान छेड़ रखा है। इस बार जर्मनी में ईस्टर गुंटर ग्रास के लिए शायद मनाया गया था। अक्सर ईस्टर के अवसर पर जर्मनी में शांति रैलियां निकलती हैं। इस बार जर्मन शांति आंदोलन के स्वर, उनके बैनर, पोस्टरों को देख कर लगता था, गोया वे गुंटर ग्रास के समर्थन में सड़क पर हों। 'ईस्टर मार्च' के संस्थापकों में से एक, आंद्रेयास बूरो ने बयान दिया कि ग्रास ने अपनी कविता के माध्यम से ईरान विवाद के शांतिपूर्ण समाधान को कार्यसूची में लाने का काम किया है। यू ट्यूब पर 'इजराइल आई लव यू, बट डोंट अटैक ईरान' से मशहूर हुए म्युनिख के संगीतकार मोरिज एगर्ट ने कहा कि ग्रास की छवि का सत्यानाश करने पर कुछ बुद्धिजीवी जिस तरह तुल गए हैं, उसे लेकर मुझे मानसिक कष्ट होता है। साफ दिख रहा है कि ग्रास को लेकर साहित्य, संगीत, शिल्प, पेंटिंग, नाटक और दूसरी विधाओं के कलाकार और साहित्यकार बंट गए हैं। यह देख कर लगता है कि ग्रास ने सचमुच एक वैचारिक युद्ध की शुरुआत कर दी है। निश्चित रूप से इसका कारण ईरान है। ग्रास ने 2006 में जब अपने अतीत की चर्चा की और स्वीकार किया कि द्वितीय विश्वयुद्ध में वे हिटलर की सेना में काम कर चुके थे, तो यूरोप का साहित्य जगत स्तब्ध रह गया था। इस पर जमकर राजनीति हुई। उस दौर में गुंटर ग्रास की सर्वश्रेष्ठ कृति 'द टीन ड्रम' जिस पर 1999 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल चुका था, उसके दोहरे चेहरे पर सवाल खड़ा हो गया। 'द टीन ड्रम' में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में एक ऐसे बौने बच्चे के चरित्र को ग्रास ने उकेरा था, जो हिटलर की तानाशाही के कारण विकसित नहीं हो पाया था। 'द टीन ड्रम' का वह वामन बच्चा सबको सजग करता है कि सावधान नाजी अब आने ही वाले हैं। ग्रास को जब 1999 में नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो जर्मनी और पोलैंड का साहित्य जगत सीना चौड़ा किए फिर रहा था। गुंटर ग्रास 16 अक्टूबर 1927 को बंदरगाह शहर गेदांस्क में पैदा हुए थे। तब गेदांस्क जर्मनी का हिस्सा हुआ करता था। वक्त बदला और गेदांस्क पोलैंड की भौगोलिक परिधि में आ गया। गुंटर ग्रास गेदांस्क से जर्मनी के शहर बेहलेनडोर्फ में आकर बस गए। लेकिन पोलैंड फिर भी गुंटर ग्रास को गेदांस्क का मानद नागरिक मानता रहा। 1999 में नोबेल पुरस्कार के बाद ग्रास का कद आसमान छूने लगा था। स्वतंत्र पोलैंड के प्रथम राष्ट्रपति लेख बाउएन्सा (जिन्हें भारत में लेख वालेसा कहते हैं) ने इच्छा व्यक्त की थी कि काश, मैं कभी गुंटर ग्रास से हाथ मिला पाता। सात साल बाद, 2006 में यही गुंटर ग्रास लेख बाउएन्सा के लिए घृणा के प्रतीक हो गए। वजह उस समय प्रकाशित ग्रास की पुस्तक 'बाइम होयटन देयर स्वीबेल' थी, जिसका अर्थ प्याज छीलना होता है। इस पुस्तक में ग्रास ने अपने अतीत की परतें खोलते हुए मान लिया था कि वे हिटलर की सशस्त्र सेना 'एसएस' में थे। लेख बाउएन्सा ने तब कहा था, 'अच्छा हुआ कि इस व्यक्ति से मैंने हाथ नहीं मिलाया था। कभी मिलाऊंगा भी नहीं!' 1990 से पहले पोलैंड और जर्मनी के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के घावों लेकर तनाव ताजा होता रहा है। पोलैंड के आउत्सविज में हिटलर के समय का सबसे बड़ा नाजी शिविर आज संग्रहालय के रूप में है। 'आउत्सविज' का नाजी शिविर हिटलर और जर्मनी के अत्याचारों का हौलनाक सबूत है। आज पोलैंड एक बार फिर ग्रास के उस 'टीन के ड्रम' को बजा रहा है। लेकिन 2006 के हालात में, और अब के हालात में काफी अंतर है। अमेरिका समेत पश्चिम में साहित्य का ध्रुवीकरण इस तरह से हो सकता है, और उसमें इस कदर कूटनीति घुस जाएगी, ऐसी स्थिति बहुत कम देखने को मिलती है। सवाल यह है कि ग्रास पर पूर्वी और दक्षिण एशिया में बहस क्यों नहीं हो रही है? |
Wednesday, April 18, 2012
एक कविता से उठी बहस
एक कविता से उठी बहस
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1 comment:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 14 मार्च 2020 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
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