विजय बहुगुणा ने बहुत से कानूनी फैसले सुनाये होंगे. बस उन्हें एक बार यह भी सोचना चाहिए कि क्या उनके विधानसभा पहुंचने का यही रास्ता था. भाजपा के कमल ने राज्य में पहले से ही बहुत कीचड़ फैला दिया है...
नरेन्द्र देव सिंह
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के सितारगंज से विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद सितारगंज में विकास के वायदों की सूची लम्बी होती जा रही है. गढ़वाल के विजय बहुगुणा कुमाऊं की ऐसी विधानसभा सीट से भाग्य आजमाने को तैयार हें जिसमें पर्वतीय मूल के लोगों की तादात बहुत कम है. बंगाली और मुस्लिम मतदाताओं के बहुतायत वाली इस सीट पर यह मतदाता किसी भी विधायक को विधानसभा पहुंचाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
मुख्यमंत्री ने अटकलों को विराम देते हुये घोषणा कर दी है कि वह विधानसभा सदस्य के लिए सितारगंज से मैदान में हैं. सितारगंज में आचानक से विकास के शिलान्यास पट के अम्बार लग गये हैं. मुख्यमंत्री मैदान में हैं इसलिए यह सीट अब वीआइपी हो गयी है. भाजपा के पूर्व विधायक किरन मंडल ने इस सीट पर भगवा फहराकर उत्तराखण्ड में भाजपा को मतगणना वाले दिन पहली सीट जीतने की खुशियां मनाने का मौका दिया था.
संयोग की ही बात है कि यह सीट मतगणना वाले दिन चुनावी नतीजे की भी पहली सीट थी. अब इसी सीट के मतदाता यह तय करेंगे कि मंडल-कमंडल की राजनीति से उदय हुई भाजपा के लिए किरन मंडल अब कितने याद रखने लायक नेता साबित होते हैं. भाजपा के हाथ में आज भी कमंडल ही रह गया है. क्योंकि मंडल अब विजय बहुगुणा के पास हैं.
किरन मंडल ने विधानसभा सीट छोड़ने के लिए जो मांगे रखीं थीं उन सब पर पूरी मुस्तैदी के साथ काम हो रहा है. सिरसा मोड़ से शक्तिफार्म तक 58 करोड़ की लागत से निर्माण के साथ-साथ अन्य भी विकास योजनाओं का शिलान्यास कर दिया गया है. इसके साथ रिजर्व फोरेस्ट की जमीन को भूमिधरों के हक में परिवर्तित करना जैसे बड़े मुद्दों पर भी गंभीर मंथन चल रहा है. यह तो तय है कि देहरादून की नजर सितारगंज पर तब तक लगी रहेगी जब तक विजय बहुगुणा उप-चुनाव नहीं जीत जाते हैं.
पिछले दो महीने से भी ज्यादा समय की सुस्ती के बाद अचानक भाजपा भी नींद से जाग गयी और विधानमंडल में किरन मंडल के नाम पर शोर-शराबा करने लगी. पिछले पांच साल सरकार में रहने के बावजूद आराम करने की आदत के चलते विपक्ष में भी भाजपा की आराम करने की आदत नहीं जा रही है. मुख्यमंत्री के ऊधमसिंह नगर जिले के दौर के बाद से ही यह लगने लगा था कि किरन मंडल यह सीट मुख्यमंत्री के लिए छोड़ सकते हैं. लेकिन भाजपा तब हरकत में आयी जब किरन मंडल लगभग कांग्रेस में शामिल हो गये थे. बाद में नैतिकता की दुहाई देने वाले भाजपा नेताओं को इतिहास में झांकने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि वह भी टीपीएस रावत जैसे अवसरवादियों को पनाह दे चुके हैं.
इस प्रकरण के बीच हरीश रावत गुट पर भी नजर डाल लेना सही रहेगा. हरीश रावत गुट कहना इसलिए सही होगा क्योंकि इस गुट के विधायक व अन्य नेता कांग्रेस पार्टी के सदस्यों की तरह व्यवहार करते हुये नजर नहीं आते हैं. पार्टी के अन्दर एक और पार्टी जैसी खड़ी कर चुके सांसद हरीश रावत और प्रदीप टम्टा इस मुद्दे पर अन्दर ही अन्दर मन मसोस कर रहे गये होंगे. क्योंकि पिछले कई दिनों से विजय बहुगुणा को आंख दिखा रहे इस गुट के नेताओं के सामने विजय बहुगुणा ने शायद पहली बार किरन मंडल को अपने साथ लाकर अपनी ताकत का एहसास कराया होगा.
अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिले में विकास के मुद्दे पर विजय बहुगुणा को बार-बार घेरने वाले हरीश रावत गुट के नेताओं की पहुंच से दूर मुख्यमंत्री कुमाऊं के मैदानी सीट से मैदान में है. हालांकि गौर करने लायक बात यह भी उत्तराखण्ड के विकास के मुद्दे पर संसद में मुंह में ताला लगाये हुए हरीश रावत और प्रदीप टम्टा को अब पहाड़ के विकास की याद आ रही है.
मुख्यमंत्री के सेनापति की भूमिका निभाने वाले राज्य के सबसे ताकतवर कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्या, विजय बहुगुणा के पूरी तरह से संकटमोचक बनते हुए नजर आ रहे हैं. राज्य में खुद को सबसे बड़ा दलित नेता समझने वाले यशपाल आर्या डाÛ अम्बेडकर के कार्टून विवाद के मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठे रहे. पिछले दो महीने में उन्होंने एक भी ऐसा फैसला नहीं लिया है जिससे दलित समाज का सीधे तौर पर कुछ भला हो सके. वो तो भला हो बसपा के सुरेन्द्र राकेश का जिन्होंने विधानसभा में दलित हितों की गूँज बरकरार रखी है.
पूर्व न्यायाधीश रह चुके विजय बहुगुणा ने बहुत से कानूनी फैसले सुनाये होंगे. बस उन्हें एक बार यह भी सोचना चाहिए कि क्या उनके विधानसभा पहुंचने का यही रास्ता था. भाजपा के कमल ने राज्य में पहले से ही बहुत कीचड़ फैला दिया है. कांग्रेस का हाथ उसे और फैलाने में लगा हुआ है.
पत्रकार नरेन्द्र देव उत्तराखंड के राजनीतिक मसलों पर लिखते हैं.
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