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Saturday, June 9, 2012

क्या वाकई त्रुटिहीन है एनसीईआरटी की विवादस्पद पुस्तक ?

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क्या वाकई त्रुटिहीन है एनसीईआरटी की विवादस्पद पुस्तक ?

क्या वाकई त्रुटिहीन है एनसीईआरटी की विवादस्पद पुस्तक ?

By  | June 9, 2012 at 6:30 pm | No comments | बहस

रत्नेश

एनसीईआरटी की किताब के विवाद में इसके समर्थकों द्वारा इस पर किसी किस्म के बदलाव लाने या प्रतिबन्ध लगाने पर इतने जोरदार तरीके से विरोध किया जा रहा है कि मानो यह कोई धार्मिक ग्रन्थ हो!  उनके द्वारा सरकार के ऐसे किसी भी प्रयास को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया जा रहा है. वहीँ दूसरी ओर इसके विरोधियों ने भी इसमें प्रयुक्त डॉ आंबेडकर पर बने अपमानजनक कार्टून को हर तरह से गलत बताते हुए इसके खिलाफ़ मुहिम छेड रखी है. दोनों ही तरफ से इस बहस का केंद्र यह कार्टून ही है.
जबकि इस किताब में कुछ ऐसी बाते भी हैं जिस पर हमारा ध्यान अभी तक नहीं गया है. ऐसी ही कुछ बातों का उल्लेख इस आलेख में किया जा रहा है.
इस पुस्तक के अन्य पहलुओं पर चर्चा करने से पहले हमें यह ख्याल रखना चाहिए कि इसके लेखकों के अनुसार इस किताब की रचना का मूल उद्देश्य छात्रों में उनकी आलोचनात्मक समझ को विकसित करना है. यानि यह किताब विद्यार्थियों को महज तथ्यों से रूबरू नहीं करा रही है बल्कि इसमें छात्रों को संविधान से जुड़े हर पहलुओं पर अपनी व्यक्तिगत राय रखने का मौका भी दिया जा रहा है.
भारत जैसा देश जहां तोता रटंत करने वालों को बुद्धिमान समझा जाता रहा हैं वहाँ यह पहल निश्चित ही स्वागत योग्य है.
पर जब हम इस किताब को पढते हैं तो इसमें उपर्युक्त प्रयास कई जगह असफल होता दिखता है और यह किताब भारत के संविधान पर उपलब्ध अन्य किताबों से काफी फीकी नज़र आती है. वास्तव में यह पुस्तक संविधान निर्माण से जुड़े बहुत सारे तथ्यों पर मौन है जिनके अभाव में हमारे विद्यार्थी यदि अपनी आलोचनात्मक समझ विकसित करने लगे तो वह हमारे संविधान का सही आंकलन नहीं कर पायेंगे.
सबसे पहले हम इस किताब के प्रथम अध्याय 'संविधान क्यों और कैसे' की बात करते हैं. इसमें बताया गया कि भारत के संविधान के निर्माण में पूरे दो वर्ष और ग्यारह महीने लगे तथा इस अवधि में संविधान सभा की 166 दिनों तक बैठके चली. पर संविधान के बनने में भला इतना वक्त क्यों लगा? और क्या यह समय वाकई बहुत अधिक था? इन दो जायज़ सवालों का जवाब इस किताब में कहीं भी नहीं दिया गया है. बल्कि इसके स्थान वहाँ शंकर का विवादस्पद कार्टून प्रकाशित किया गया है और इस कार्टून की वकालत करते हुए इसके नीचे लिखा गया है-

"संविधान बनाने की रफ़्तार को घोंघे की रफ़्तार बताने वाला यह कार्टून. संविधान निर्माण में तीन वर्ष लगे. क्या कार्टूनिस्ट इसी बात पर टिपण्णी कर रहा है?" इसके साथ ही यहाँ वह छात्रों से यह सवाल पूछने में नहीं हिचके  कि "संविधान सभा को अपना कार्य करने में इतना वक्त क्यों लगा?"
जबकि इस सवाल का जवाब भारतीय संविधान पर लिखी हर किताबों में आसानी से उपलब्ध हैं. गौरतलब है कि इस इल्ज़ाम का जवाब स्वयं डॉ आंबेडकर ने इस तरह दिया था:
"विश्व के तमाम देशो के संविधान निर्माण में जहां अमरीका एक मात्र देश है जिसने 4 महीने के  भीतर अपना संविधान का निर्माण कर रिकॉर्ड कायम किया, वहीँ कनाडा के संविधान निर्माण मे 2 साल 5 माह लगे तो ऑस्ट्रेलिया को इस काम में पूरे 9 साल का समय लगा. जबकि इन तमाम देशो के संविधान के विपरीत भारत का संविधान सबसे बड़ा था इसमे जहाँ 395 अनुच्छेद थे वहाँ अमरीका के संविधान में मात्र 7, कनाडा में 147 और ऑस्ट्रेलिया में 128 अनुच्छेद ही थे. हमारे संविधान के इतने विशाल आकार के बावजूद भी यह और जल्दी तैयार हो चुका होता पर इस विलम्ब के पीछे इसमे संविधान सभा के द्वारा हर प्रस्ताव पर चर्चा और इसमें 2,473 संशोधन कराया जाना था."
आश्चर्य की बात है कि डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के इस व्यक्तव्य को किताब में स्थान दिए बिना इसके लेखक हमारे विद्यर्थियों की किस ज्ञानेन्द्रिय की परीक्षा लेना चाह रहे हैं?
इस तथ्य के अभाव  में  विद्यार्थी यदि उक्त कार्टून का विवेचन कहीं ऐसा करने लगे कि संविधान निर्माण में हुई देरी के पीछे डॉ आंबेडकर का आलस्य जिम्मेदार है. तो क्या वे गलत होंगे!
आखिर किसी भी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए तथ्य ही तो जिम्मेदार होते हैं. ऐसे में यदि हमारे विद्यार्थी यदि इस निर्णय पर पहुचें तो भले ही वे गलत हों पर तर्क के आधार पर तो उनका इस निष्कर्ष पर पहुँचना कतई गलत नहीं होगा. हमारे शिक्षा शास्त्रियों को इस पर ज़रूर विचार करना चाहिए.
इस अध्याय के अंतिम भाग में तीन मित्र- हरबंस, नेहा और नाजिमा एक विषय पर बहस करते पाए गएँ कि 'हमारा संविधान सफल रहा या असफल सिद्ध हुआ.'
पाठ्य पुस्तक के तीनों चरित्र जहाँ क्रमशः सिख, हिंदू और इस्लाम धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर देश सर्वधर्म समभाव को प्रदर्शित करने में कामयाब हुए हैं पर उनकी बहस का कोई भी निष्कर्ष किताब में मौजूद नहीं है. जबकि इस जायज़ बहस को सही निष्कर्ष तक लाने के लिए  यदि यहाँ डॉ आंबेडकर के कथन:
"राजनीतिक लोकतंत्र केवल सामाजिक लोकतंत्र की नींव पर ही खड़ा रह सकता….. 26 जनवरी 1950 को हमें राजनीतिक समता प्राप्त होगी. किन्तु हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता रहेगी. अगर यह विसंगति दूर नहीं होगी तो तो समाज का वह वर्ग जो विषमता से पीड़ित है वह इस परिश्रम से बनाई लोकतंत्र की मीनार को मिटटी में मिलाए बिना नहीं रहेगा."
प्रस्तुत किया जाता तो क्या ये हमारे संविधान की सफलता और उसके क्रियान्वयन में आने वाली कठिनाईओं से हमारे विद्यार्थियों को अवगत कराने में सफल नहीं होता?
अब हम इस किताब के दूसरे अध्याय 'भारतीय संविधान में अधिकार' की बात करें तो यहाँ हमारे संविधान द्वारा प्रदत्त तमाम अधिकारों का वर्णन है. चूँकि विद्यार्थियों में आलोचनात्मक समझ विकसित हो इसलिए इसमें प्रश्न भी उठायें गए हैं कि क्या इनमें मौलिक अधिकारों का उपयोग या हनन हो रहा या नहीं, जैसे:
क)    एक निर्देशक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है जिसमें वह सरकारी नीतियों की आलोचना करता है.
ख)    एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की मांग करते हुए रैली निकालते हैं.
इसमे कोई शक नहीं कि इस तरह प्रश्न विद्यार्थियों को मौलिक अधिकारों के बारे में सोचने के लिए मजबूर करेंगे और वे अधिकारों की लिस्ट के तोता रटंत से बचेंगे पर यदि इसके लेखक वाकई हमारे छात्रों को मौलिक अधिकारों के व्यवहारिक पक्ष से अवगत कराना चाहते हैं तो वे यहाँ धार्मिक अधिकार के वर्णन के समय बिहार स्थित बोधगया महाबोधि महाविहार, जो दुनिया भर के बौद्धों का प्रेरक स्थल है का उल्लेख करते तो बेहतर होता. गौरतलब है कि इसका प्रबंधन आज भी बौद्धों के पास न होकर हिंदुओं के ही हाथों में हैं. किताब में यदि इस तथ्य का ज़िक्र करते हुए इस पर विद्यार्थियों से इस पर उनकी राय व्यक्त करने की अपील की जाती तो क्या यह उन्हें संविधान प्रदत्त 'धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार' को समझाने में अधिक सहायक नहीं होती?
किताब के अध्याय तीन 'चुनाव और प्रतिनिधित्व' की बात करें तो यहाँ (पृ.66) में लिखा गया है कि 'भारत की आबादी में मुसलमान 13.5  प्रतिशत हैं. लेकिन लोकसभा में मुसलमान सांसदों की संख्या सामान्यतः 6 प्रतिशत से थोडा कम रही है जो जनसँख्या में उनके अनुपात के आधे से भी कम हैं. यही स्थिति अधिकतर राज्य विधान सभाओं में भी हैं.' उपर्युक्त आधार पर तीन छात्रों के बीच कुछ इस तरह का संवाद बताया गया है-
हिलाल: 'यह सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली के अन्याय को दिखाता है. हमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली    प्रणाली अपनानी चाहिए थी.
आरिफ: यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने का औचित्य बताता है. आवश्यकता इस बात की है मुसलमानों को भी उसी तरह आरक्षण दिया जाये जैसे अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया गया.
सबा: सभी मुसलमानों को एक जैसा मानकर बात करने का कोई मतलब नहीं है. मुसलमान महिलाओं को इसमे कुछ नहीं मिलेगा. हमें मुसलमान महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण चाहिए.
इन तीनों मुस्लिम पात्रों में जहां सबा एक स्त्री होने के कारण मुस्लिम महिला के मुसलमानों के भीतर अलग आरक्षण की ज़रूरत को बता रही है वहीँ यदि इन तीनों के अतिरिक्त यह पुस्तक इनके साथ एक पसमांदा मुसलमान मित्र को भी शामिल कर लेती जो इस प्रस्तावित मुसलमान आरक्षण में दलित-मुसलमानों के लिए भी महिलाओं की तरह पृथक आरक्षण की बात रखता तो क्या यह बेहतर नहीं होता?
अब अध्याय पांच 'विधायिका' की बात की जाए. यहाँ पृ. 106 पर लिखा है कि इस समय लोकसभा के 543  निर्वाचन क्षेत्र हैं. यह संख्या 1971 की जनगणना से चली आ रही है.
क्या इस जगह जनगणना में जाति को शामिल किये जाने के पक्ष और विपक्ष में चर्चा किया जाना हमारे विद्यार्थियों में बेहतर समझ विकसित करने में मददगार नहीं होता?
इसके अध्याय छः में 'न्यायपालिका' में न्यायाधीशो को पद से हटाने में आने वाली व्यावहारिक परेशानियों का वर्णन है और इसे समझाने के लिए किताब में न्यायाधीश के दोषी पाए जाने पर उसपर महाभियोग लगाने में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन है. इसे समझाने के लिए इसमे वर्ष 1991 में संसद द्वारा पहली बार किसी के न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग लाने के असफल प्रयास का भी वर्णन है.
पर न्यायालयों की हकीकतों से वाकिफ कराने के लिए यदि यह पाठ्यपुस्तक हमारे न्यायालयों के कुछ विवादस्पद फैसलों का ज़िक्र करती तो क्या यह उदाहरण हमारे विद्यार्थियों में आलोचनात्मक समझ को बढाने में सहायक नहीं होता? न्यायालय की जातीय मानसिकता को समझाने के लिए यदि इसमें राजस्थान के हाई कोर्ट के भंवरी देवी केस का ज़िक्र किया जाता, जिसमे उसने उसके बलात्कारियों को यह कहकर बाइज्ज़त बरी किया गया कि चूँकि पीड़ित  महिला एक दलित है इसलिए उसे कोई सवर्ण छू ही नहीं सकता, ऐसे में वे भला इस महिला का बलात्कार कैसे कर सकते है!! हमारे कोर्ट द्वारा दिए गए इस तरह के अतार्किक फैसले क्या हमारे विद्यार्थियों को न्यायपालिका के व्यावहारिक पक्ष से अवगत कराने के लिए बेहतर उदाहरण नहीं हो सकते थे?
अब इसके एक अध्याय 'स्थानीय स्वशासन' को देखे. यहाँ (पृ. 180) इन्होने गाँधी जी के गाँव-प्रेम का एक वक्तव्य दिया है कि "…हर गाँव एक गणराज्य होगा…वह अपने मामले खुद निपटाएगा." इसके उत्तर में इस किताब में डॉ आंबेडकर के विचार "ग्रामीण भारत में जाति-पांति और आपसी फूट का बोलबाला है. स्थानीय शासन का उद्देश्य तो बड़ा अच्छा है लेकिन ग्रामीण भारत के ऐसे माहौल में यह उद्देश्य मटियामेट हो जाएगा" दिया गया है जो बहुत सार्थक है. पर इसके साथ यह किताब यदि डॉ आंबेडकर के 'एक व्यक्ति एक वोट' के सिद्धांत का विवेचन करते हुए आजकल चर्चा में आई खाप पंचायतो के निर्णय और खेरलांजी तथा बथानी टोला जैसी घटनाओं का ज़िक्र करती तो क्या ये उदाहरण हमारे विद्यर्थियों को संविधान द्वारा गाँव को इकाई न मानते हुए व्यक्ति को लोकतंत्र की इकाई बताने में बेहतर नहीं होता?
किताब में आरक्षण का ज़िक्र हुआ है पृष्ठ 33 में इस पर लिखा है 'आपने नौकरियों और स्कूलों में प्रवेश के लिए 'आरक्षण' के बारे में अवश्य सुना होगा. आपको आश्चर्य भी हुआ होगा समानता के सिद्धांत का पालन करने के बावजूद भी यहाँ आरक्षण क्यों हैं…..पर अनुच्छेद 16(4)  के अनुसार यह समानता के अधिकार का उन्लंघन नहीं करता.
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि ग्याहरवीं और बारहवीं के विद्यार्थियों में 'आरक्षण' एक गरम मुद्दा होता है इसका बड़ा कारण यह है कि दसवीं बोर्ड परीक्षा के बाद विज्ञान जैसे विषयों में प्रवेश लेने के लिए दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को उनकी ग्याहरवीं कक्षा में आरक्षण होता है. इसलिए हमारे अधिकांश विद्यार्थी इस क्लास से ही आरक्षण का सीधा सामना करते हैं. दूसरा उन्हें अपनी बारहवी के बाद करियर के लिए विशिष्ट शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेने का सपना होता है और यहाँ पर प्रवेश के लिए आरक्षण द्वारा सीटों के बटवारे से वे भलीभांति वाकिफ होते है. ज़ाहिर है कि हमारे सवर्ण विद्यार्थी इस क्लास से आरक्षण और दलितों के प्रति अपनी विशेष सोच को विकसित करते हैं जो आगे चलकर दलित विद्यार्थियों को जातिगत ताने और शोषण के रूप में सामने आती हैं.
यदि किताब में इस टॉपिक की चर्चा में समाज के दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्गे को दिए जाने वाले आरक्षण का सबसे मज़बूत कारण इन वर्गों का लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व तय करना भी लिख देती तो क्या ये हमारे सवर्ण विद्यार्थियों के मन में आरक्षण के प्रति द्वेष को कम करने में सहायक नहीं होता? साथ ही इससे दलित विद्यार्थियों के मन से आरक्षण के नाम पर पैदा होने वाली हीन ग्रंथि से उन्हें मुक्त करने में सहायता मिलती सकती थी.
आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे को आलोचनात्मक विचार के दायरे में लाकर यदि इसके पक्ष में कुछ दलीलें रखीं जाती तो निश्चित ही यह विभिन्न समुदायों के बीच शांति और सदभाव का निर्माण करने में अहम भूमिका अदा कर सकती थी. लेकिन शायद किताब के रचियताओं को गवारा नहीं था कि ये ऐसी कोई भूमिका अदा करे.
इस पुस्तक की एक बड़ी खामी यह भी है कि वह हमारे संविधान लागू होने के बाद इसमें महिलाओं के अधिकारों के लिए तैयार किये हिंदू कोड बिल पर मौन है. जबकि यह हमारे संविधान का एक महत्वपूर्ण परन्तु विवादास्पद मुद्दा था जिसका हमारे पुरातनपंथी संसद सदस्यों ने पुरजोर विरोध किया था. नतीजतन इन अनावश्यक अवरोधों के चलते डॉ आंबेडकर ने नेहरु मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा अपना विरोध प्रगट किया था.
बात यहीं खत्म नहीं होती! यह किताब कहीं भी इस बात का ज़िक्र नहीं करती कि डॉ आम्बेडकर संविधान निर्माण की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे या उनकी संविधान निर्माण में कोई विशेष भूमिका थी. इसके स्थान पर वह बार-बार संविधान समिति का ज़िक्र भर करती रहती है. इस सम्बन्ध में आइये टी टी कृष्णामचारी के सदन में दिए गए इस बयान पर गौर करें.
"सदन शायद इस बात से अवगत होगा कि (संविधान निर्माण समिति में) आपके चुने हुए सात सदस्यों में एक ने इस्तीफा दे दिया उसकी जगह खाली ही रही. एक सदस्य की मृत्यु हो गयी उसकी जगह भी रिक्त ही रही. एक अमरीका चले गए और उनकी जगह भी खाली ही रही. चोथे सदस्य रियासतदारों-सम्बन्धी कामकाज में व्यस्त रहे, इसलिए वे सदस्य होकर भी नहीं के बराबर ही थे. दो-एक सदस्य दिल्ली से दूरी पर थे और उनका स्वाथ्य बिगडने से वे भी उपस्थित नहीं हो सके. आखिर यह हुआ कि संविधान बनाने का सारा बोझ अकेले डॉ आंबेडकर पर ही पड गया. इस स्थिति में उन्होंने जिस पद्धति से काम किया उसके लिए वे निसंदेह आदर के पात्र है. मैं निश्चय के साथ बताना चाहूँगा कि जिस परेशानी के साथ जूझते हुए डॉ आंबेडकर ने यह कार्य किया है उसके लिए हम हमेशा उनके ऋणी रहेंगे"
अगर इस ब्यान को भी किताब में शामिल कर लिया जाता तो यह हमारे विद्यार्थियों को संविधान निर्माण की वास्तविकता से बाखूबी अवगत करा पाता. पर इस बात का ज़िक्र तो दूर किताब के लेखकों ने उलटे इस बात का भरपूर ध्यान रखा कि हमारे विद्यार्थी कहीं भूल से भी अपनी क्रिटिकल थिंकिंग का प्रयोग कर डॉ आंबेडकर को संविधान निर्माता या इसमें उनकी मुख्य भूमिका के बारे में ना सोच सके. खासकर तब जब वे डॉ आंबेडकर की प्रतिमा में उनके हाथ में संविधान को देखे. किताब के पृष्ठ  235 में लिखा है:
"क्या यह संयोग मात्र है कि आज हर शहर के नुक्कड़ पर हमें हाथ में संविधान लिए आंबेडकर की प्रतिमा मिलती है? यह आंबेडकर के प्रति महज़ सांकेतिक श्रद्धांजलि नहीं है. यह प्रतिमा दलितों की इस भावना का इज़हार करती है कि संविधान में उनकी अनेक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई है"
यानि हमें ये लेखक डॉ आंबेडकर की प्रतिमाओं की एक नयी और अनोखी व्याख्या देकर यह जताना चाह रहे हैं कि संविधान निर्माण में डॉ आंबेडकर की भूमिका सिर्फ दलित हितों को शामिल करने भर की है. जबकि सदन में संविधान के वाद-विवाद में सभी सदस्य जिनमें प्रधानमंत्री नेहरु और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे, ने बड़े उत्साह के साथ इसमें डॉ आंबेडकर की सम्पूर्ण संविधान के निर्माण में भूमिका की तारीफ़ की थी. यह अचरज की बात है कि इस किताब में फिर भी इस तथ्य को छिपाया गया.
अंत में मै इस किताब के मुख पृष्ठ के एक कार्टून का ज़िक्र करना चाहूँगा जो इस किताब के अनुसार ऐतिहासिक महत्व का है, जिसे शंकर द्वारा 1950 में भारत के संविधान लागू होने के समय बनाया गया था.

यह कार्टून संविधान निर्माण का जश्न दिखा रहा हैं जिसमे तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद शंख बजाते हुए आगे चल रहे हैं जिनके पीछे सरदार वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरु शहनाई बजाते हुए चल रहे हैं और इनके पीछे ढोल-ढमाकों के साथ अन्य गणमान्य व्यक्ति हैं. पर इसमे डॉ आंबेडकर कहीं भी नहीं हैं.
संविधान निर्माण में कथित देरी के लिए डॉ आंबेडकर को पिटता हुआ दिखाना पर उसके लागू होने पर उन्हें दृश्य से हटा देना कार्टूनिस्ट शंकर की किस मानसिकता का प्रदर्शन है इस साफ़ समझा जा सकता है.
क्या इस किताब के विद्वान लेखक और कार्टूनिस्ट शंकर दोनों ही आज़ाद भारत के अलग-अलग कालखंडो में मनुस्मृति और गीता के उपदेश को चरितार्थ करते नहीं दीख रहे हैं! कम से कम इस आलेख को पढने के बाद क्रिटिकल थिंकिंग रखने वाले लोग तो इसी निर्णय पर पहुचेंगे.

रत्नेश इनसाईट फाउण्डेशन में कार्यरत है.

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