ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही भूमिसुधार में सबसे बड़ी बाधा!
पलाश विश्वास
भारत में अतिअल्पसंख्यक ब्राह्मण ही हजारों साल से शिक्षा और ज्ञान पर एकाधिकार के कारण वास्तविक सत्तावर्ग है। ब्राह्मण वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ही सत्तावर्ग के असली महाअधिनायक हैं, जनगणमन अधिनायक भारत भाग्यविधाता! भले ही यूपीए की नेता सोनिया गांधी हों या फिर एनडीए के नेता लालकृष्ण आडवाणी! विश्वपुत्र प्रणवदादा को राष्ट्रपति बनाने के लिए जहां बाजार की तमाम ताकतें एकजुट हैं, वहीं संघ परिवार भी अब राष्ट्रपति भवन में प्रणव मुखर्जी को देखना चाहता है। क्या यह अकारण है? जब तक भारत में मनुस्मृति व्यवस्था जारी रहेगी और हिंदुत्व के उन्माद पर लगाम नहीं लगता, न भूमि सुधार की कोई गुंजाइश है और न शरणार्थी समस्या का कभी समाधान होने वाला है। भारत विभाजन के नतीजन जितने शरणार्थी बने, उससे कई गुणा ज्यादा विकास, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण बने हैं।
जब सत्तावर्ग पूरे देश को सेज, सिडकुल, एनएमजेड,औद्योगिक कारीडोर, परमाणुसंयंत्र संकुल, शापिंग माल में तब्दील करने पर तुला हो, जब ठेके पर खेती कानूनी हो गया हो, हरित क्रांति और दूसरी हरित क्रांति के बहाने कृषि का सत्यानाश हो गया हो, देहात की कीमत पर नरसंहार की संस्कृति के जरिये खुला बाजार की सेनसेक्स फ्रीसेक्स अर्थ व्यवस्था हो, उत्तराखंड और हिमाचल की सवर्णबहुल देवभूमि और सिक्किम को छोड़कर समूचे हिमालय में विशेष सैन्य अधिकार अधिनियम के तहत बिल्डरों, प्रोमोटरों, जंगल माफिया का राज हो और मणिपुर की इरोम शर्मिला नाम की एक लड़की के लगातार ग्यारह साल से आमरण अनशन का बाकी देश की सेहत पर कोई असर न हो रहा हो, संविधान के खुला उल्लंघन के तहत पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तमाम प्रावधानों को तोड़कर देशभर के आदिवासी इलाकों में आदिवासियों को माओवादी नक्सलवादी घोषित करके निरंकुश कारपोरेट राज हो और आदिवासी जनता का नरसंहार हो रहा हो, जल, जंगल, जमीन, आजीविका और जीवन, मानव व नागरिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा हो प्रकृति से जुड़े जनसमुदायों को, देशभर में धार्मिक और भाषिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध निरंतर घृणा अभियान जारी हो और मीडिया बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार हो, हिंदुत्व ग्लोबल हो और उसका कारपोरेट साम्राज्यवाद और जिओनिस्ट विश्वव्यवस्था के साथ पारमाणविक गठजोड़ हो, हिमालय को तबाही के कगार पर धकेलते हुए स्थगित परमाणु विस्फोट में तब्दील कर दिया गया हो, तब आप किससे भूमि सुधार की उम्मीद करते हैं? २००८ में भूमि सुधार पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में उच्चस्तरीय कमिटी बनी है, जिसकी आजतक कोई बैठक नहीं हुई और आर्थिक सुधारों की कवावद में सरकार और विपक्ष, तमाम राजनीतिक दल और विचारधाराएं लामबंद हैं जनता के विरुद्ध, तब आप कैसे समावेशी विकास, सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और भूमिसुधार की बात करते हैं?
आज जिसे माओइस्ट मीनेस कहा जाता है, वह तो जल, जंगल ,जमीन, आजीविका, जीवन और लोकतंत्र के लिए वंचित मूलनिवासियों की हजारों साल से जारी महासंग्राम ही है, जिसमें भद्रलोक लोकतांत्रिक ताकते एकदम अनुपस्थित हैं, क्योकि वे ब्राहमणवादी वर्चस्व के तहत कारपोरेट मनुस्मृति व्यवस्था के पोषक बन गयी हैं।
लगातार खबरें आती रही हैं कि भूमि अधिग्रहण बिल को संसद में पेश करने के बाद सरकार का अगला लक्ष्य देश में भूमि से जुड़े मुद्दों पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने का है। इसी के मद्देजनर जल्दी ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश भर मुख्यमंत्रियों के साथ एक बैठक कर सकते हैं जिसमें भूमि सुधार से जुडे़ विभिन्न मसलों पर विचार-विमर्श किया जाएगा।पर प्रगति क्या हुई? राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद की किसी बैठक के बारे में हमें तो कोई जानकारी नहीं है। लगातार खबरें आती रही हैं कि राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद की पहली बैठक में भूमि सुधार, जमीनी दस्तावेजों के आधुनिकीकरण और राजस्व प्रशासन में सुधार के प्रस्तावित मुद्दे होंगे। गौरतलब है कि इस मुद्दे पर बनी विभिन्न सचिवों की एक समिति ने 'कमिटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एंड द अनफिनिश्ड टास्क इन लैंड रिफॉर्म्स' की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों की जांच की है। इसके बाद भूमि संसाधन विभाग स्थापित किया गया। सचिवों की समिति ने रिपोर्ट के आधार पर तत्काल कदम उठाने की सिफारिश की है। कमिटी द्वारा की गई सिफारिशों में अलग-अलग श्रेणियों में भूमि की सीलिंग की सीमा तय करने की बात भी की गई है। इसके अलावा, इसमें सरकारी जमीन, भूदान में आई जमीन, जंगल की जमीन, आदिवासी इलाकों से जुड़ी भूमि सहित जमीन संबंधी अन्य महत्वपूर्ण मामलों पर सिफारिशें की गई हैं। क्या यह पहली बैठक हो गयी है? किसी को कोई ब्यौरा मालूम हो तो बतायें! केंद्र और राज्य सरकारों का सारा फोकस देशी औदयोगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों, निगमों को बेरोकटोक जमीन का हस्तातंण पूंजी का अबाध प्रवाह और कालेधन को सफेद करने पर है। बहुप्रचारित भूमि सुधार का लक्ष्य भी वही है। भूमि अधिग्रहण संशोधन कानून, खनन संशोधन अधिनियम, नागरिकता सं संशोधन धन कानून और आधार कार्ड गैरकानूनी प्रोजेक्ट के स्वर्णिम चतुर्भुज के मध्य बेरोकटोक जल, जंगल और जमीन से बेदखली अभियान असली एजंडा है और यही सत्ता वर्ग का भूमि सुधार है।
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने जब जाति उन्मूलन के खिलाफ जेहाद का ऐलान किया था, तब क्या प्रतिक्रिया हुई थी, इसका हमें अंदाजा नहीं है, पर तेलंगना, ढिमरी ब्लाक, नक्सलबाड़ी, मध्य बिहार, श्रीकाकुलम, समूचे मध्य भारत में भूमि आंदोलनों का क्या हश्र हुआ हम जानते हैं।
सारी कवायद किसानों, आदिवासियों, बस्ती में रहनेवालों और शरणार्थियो की बिना प्रतिरोध बेदखली पर है। नगरों और महानगरों में देशव्यापी सीमापार और सीमा के भीतर विस्थापन के नतीजन बेशकीमती जमीन पर आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों का कब्जा है, चाहे वह मुंबई का विश्व प्रसिद्ध धारावी हो, कोलकाता, चेनन्ई, दिल्ली की गंदी बस्तियां हों या उत्ताराखंड की तराई की बस्तियां, बस्ती जनसंख्या का गणित यही है। इसके अलावा अंबेडकर के पूरे चुनाव क्षेत्र को पाकिस्तान में डाल देने के बाद जो विभाजन पीड़ित अछूत शरणार्थी भारत में विभिन्न राज्यों में बसाये गये, वे सारे इलाके आदिवासियों के रहे हैं। मसलन दंडकारण्य, उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश, दक्षिण भारत और अंडमान निकोबार द्वीप समूह, पूर्वोत्तर। यह महज किसान और भूमिसुधार आंदोलन का विघटन नहीं था और न ही ब्राह्मणवादी वर्चस्व बनाये रखने के लिए राष्ट्रीय मूलनिवासी आंदोलन की भ्रूणहत्या, बल्कि यह आदिवासी इलाको में पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के प्रावधानों को तोड़ने की अचूक रणनीति थी। जिसके तहत राष्ट्रीय नेताओं के वायदे के मुताबिक शरणार्थी पुनर्वास के मानवीय कार्यभार निष्पादन का निर्विरोध उपाय रहा है यह और इस बहाने आदिवासी इलाकों में गैर आदिवासी प्रभावशाली वर्गों के लिए राजमार्ग बनाने और आदिवासियों की बेदखली का पूरा बंदोबस्त है। एक तीर से दो शिकार। आखिर दोनों, आदिवासी और शरणार्थी मारे जाने के लिए एक दूसरे के विरुद्ध लामबंद कर दिये गये। उनकी बेदखली के खिलाफ कहीं कोई प्रतिवाद न हो और हाशिये पर जी रहे इन लोगों के समर्थन में बाकी देश की कोई प्रतिक्रिया न हो , इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट का माहौल अंध हिंदू राष्ट्रवाद के तहत शरणार्थियों, आदिवासियों, बस्ती वालों और अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ जारी है। विभाजन पीड़ित सिख या सिंधी शरणार्थियों को कभी पाकिस्तानी शरणार्थी नहीं कहा जाता, पर बंगाली शरणार्थियों और बंगाल से बाहर आजीविका के लिए जाने वाले तमाम लोग बांग्लादेशी बताये जाते हैं। बांग्लादेशी होने से तात्पर्य यह कि वह शख्स भारत का नागरिक नहीं है, घुसपैठिया है, देशनिकाले के लिए सजायाफ्ता है और अमेरिका के आतंकवाद विरोधी युद्ध के तहत संदिग्ध राष्ट्रद्रोही या फिर आतंकवादी।
भूमिसुधार पर मेरी पिछला आलेख उत्तराखंड के सितारगंज के भाजपा विधायक किरण मंडल को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को विधानसभा पहुंचाने के लिए तोड़ लेने और इस सौदेबाजी के तहत शक्तिफार्म में बंगाली शरणार्थियों को दिये गये भूमिधारी हक से मचे राजनीतिक भूचाल, संघ परिवार के घृणा अभियान और मित्र प्रयाग पांडेय के भूमि सुधार पर आलेख के जवाब में कैविएट बतौर था। इस आलेख से प्रयाग भाई को दो बातों पर खास आपत्ति है, एक तो उन्हें लगा कि मैं उन्हें संघ परिवार के अभियान से जोड़ रहा हूं और दूसरा यह कि मैं उन्हें इस आलेख में कोई निष्पक्ष पत्रकार नहीं लगा और उनके मुताबिक भारत विभाजन की पृष्ठभूमि बताते हुए ब्राह्मणवादी वर्चस्व का खुलासा करते हुए मैंने जातिवादी नजरिया पेश किया है। भूमि सुधार का मसला मेरे लिए कोई नया मसला नहीं है और न शरणार्थी समस्या पर मैं पहली दफा लिख रहा हूं। तराई पर जो आंकड़े और भूमि विवरण प्रयाग भाई ने पेश किये हैं, वे १९७८ से नैनीताल समाचार, दिनमान और तमाम पत्र पत्रिकाओं में मैं पेश करता रहा हूं, उनसे मेरी असहमति का प्रश्न नहीं उठता।
मेरे लिए भूमि सुधार का मामला किसी किरण मंडल के भाजपा से कांग्रेस में दलबदल और दशकों से लंबित भूमिधारी हक एक निर्दिष्ट इलाके के एक समुदाय को दे देने की राजनैतिक सौदेबाजी का मामला कतई नहीं है। बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता, धर्मनिरपेक्षता, अर्थव्यवस्था से जुड़ा मूलनिवासियों के मानव और नागरिक अधिकारों का मामला है, जिसके तहत में पिछले चार दशक से न सिर्फ लिख रहा हूं, लड़ भी रहा हूं। यह कोई तदर्थ पत्रकारिता का मामला नहीं है मेरे लिए, एक निरंतर मुद्दा है। मुझे भारतीय नागरिकों को विस्थापित या शरणार्थी कहे जाने पर कोई खास आपत्ति नहीं है। मैंने प्रयाग जी के आलेख में बंगाली और बांग्लादेशी को मीडिया की प्रचलित मुद्रा के तहत एकाकार कर दिये जाने पर आपत्ति जतायी है। प्रयाग जी दुबारा मेरा लेख पढ़ लें। एक ओर तो वे भूमि सुधार की बात कर रहे हैं, चाहे वह किसी भाजपा विधायक के कांग्रेस में चले जाने के संदर्ब में ही क्यों न हों, निःसंदेह उन्होंने निहायत जरूरी मुद्दा उठाया है। पर बंगाली शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताते जाने से स्वतः ही उनके इस आलेख और माडिया में छप रही या प्रायोजित तमाम चीजों से संघ परिवार के घृणा अभियान को ही वैधता मिल जाती है। जिस पर बाहैसियत एक बंगाली शरणार्थी मेरा आपत्ति दर्ज करना जरूरी हो जाता है। यह पत्रकारिता नहीं , हमारे वजूद और पहचान, हमारी नागरिकता का मामला है, प्रयाग जी! मैं प्रयाग जी को जानता हूं और मुझ उनकी नीय़त पर कोई शक नहीं है। बहरहाल बहस शुरू करने के लिए प्रयाग जी की भूमिका सराहनीय है और यह बहस चलनी चाहिए। लेकिन भूमि सुदार की चर्चा हो और ब्राह्ममवादी वर्चस्व, जो भारतीय भूमि बंदोबस्त का इतिहास , भूगोल और वास्तव है, उससे परहेज?
मामला कुछ जमता नहीं। अब आगे भी यह चर्चा जारी रहेगी। जरूरी हुआ तो हम दस्तावेजी सबूत भी पेश करेंगे। पहाड़ के ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों और राजनेताओं की भूमिका तो अभी हमने खुलासा किया ही नहीं है। महज बंगाली ब्राह्मणवादी वर्चस्व की बात की है। इसी से आपको तकलीफ हो गयी तो आगे आप भूमि सुधार पर बहस कैसे चलायेंगे क्योंकि भूमि सुधार में ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही सबसे बड़ी बाधा है?
यह बहस आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि पाठक हमारे प्रिय मित्र प्रयाग जी का पक्ष भी समझ लें जो उन्होंने फेसबुक पर नैनीताल की विधायक सरिता आर्य के वाल पर पोस्ट किया है। तो पेश है प्रयाग जी का नजरिया। बाकी पाठकों और खासकर भूमि सुधार की लड़ाई लड़ रहे सहयोद्धायों से आगे बहस जारी रखने की अपेक्षा रहेगी।
[NAINITAL MLA. ( SARITA ARYA )] १९५० से १९८० के बीच कृषि भूमि के पट्टाधारकों को…
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पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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