हमारी अर्थव्यवस्था पर मंडराता मत्स्य संकट
'विश्व सागर दिवस' पर डेढ़ करोड़ लोगों की आजीविका तथा अनेक समुद्री मत्स्य प्रजातियों का अस्तित्व दांव पर होने की सच्चाई उजागर करती रिपोर्ट
आठ जून 2012, नयी दिल्ली : पर्यावरण संरक्षण के लिये काम कर रही अंतराष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस ने आज एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट के अनुसार मत्स्य भंडार में तेजी से होती कमी तथा समुद्र संरक्षण की ऐतिहासिक घोर अनदेखी के कारण भारत को त्रि-आयामी खतरे का सामना करना पड़ सकता है। देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद में मत्स्य उद्योग का योगदान 1-2 प्रतिशत है, साथ ही वह तटीय क्षेत्रों के करीब डेढ़ करोड़़ लोगों की आजीविका का माध्यम भी है। मत्स्य भंडार में आती कमी के परिणामस्वरूप न सिर्फ बड़े पैमाने पर लोगों का रोजगार खत्म होगा बल्कि इससे हमारी पारिस्थितिकी और राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद भी प्रभावित होगा।
कृषि से सम्बन्धित संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष श्री बासुदेव आचार्य ने विश्व सागर दिवस पर "Safeguard or Squander? Deciding the future of India's Fisheries" (रक्षा कवच या अपव्ययी? भारतीय मत्स्य का भविष्य निर्धारक) शीर्षक वाली रिपोर्ट जारी करते हुए कहा "भारतीय मत्स्य उद्योग के भविष्य के मामले में हम इस वक्त नाजुक मोड़ पर खड़े हैं और इस उद्योग के प्रबंधन तथा उसके संरक्षण के लिये आज लिया जाने वाला निर्णय भावी पीढि़यों के लिये इस क्षेत्र की परिभाषा तय करेगा।"
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के 90 प्रतिशत मत्स्य संसाधन का दोहन उसके अधिकतम सतत स्तर पर आ पहुंचा है या उससे आगे भी निकल चुका है। यह तथ्य उस सरकारी दावे का खंडन करता है जिसमें कहा गया है कि मत्स्य भंडार में खतरनाक ढंग से हो रही कमी के बावजूद देश में मत्स्य के भौतिक क्षेत्र को विस्तार देने की सम्भावना अभी बरकरार है।
देश के सकल घरेलू उत्पाद में करीब दो प्रतिशत का योगदान तथा औसतन सालाना 42,178 करोड़ रुपए का उत्पादन करने वाला समुद्री मत्स्य उद्योग तटीय क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक घटक भी तैयार करता है। मत्स्य क्षेत्र उत्पाद निर्यात के जरिये विदेशी विनिमय अर्जन के रूप योगदान करने वाले प्रमुख क्षेत्रों में भी शामिल है। वर्ष 2010-11 में भारत का मछली निर्यात दो अरब 80 करोड़ डालर से भी ज्यादा था। इस निर्यात मूल्य का 45 प्रतिशत हिस्सा समुद्र से पकड़ी गयी मछलियों से प्राप्त हुआ है और सरकार का लक्ष्य वर्ष 2015 तक इसे छह अरब के स्तर तक ले जाना है।
यह रिपोर्ट सांख्यिकीय आंकड़ों तथा मौजूदा मत्स्य उद्योग संकट के दौर से गुजर रहे मछुआरों के अनुभवों पर आधारित है।
कार्यक्रम में उपस्थित नेशनल फिशरवर्कर्स फोरम के सचिव टी. पीटर ने एक व्यापक नीति बनाने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि एक ऐसी नीति बनायी जानी चाहिये जिसमें मत्स्य आखेट के प्रति सतत रवैया अपनाने तथा निर्णय लेने के काम में मछुआरों को भी शामिल करके संकट को दूर करने की बात कही गयी हो।
उन्होंने कहा कि पिछले करीब दो दशक में मत्स्य भंडार में कमी आने से मछुआरा समुदायों को गम्भीर सामाजिक तथा आर्थिक दुष्परिणाम भुगतने पड़े हैं। इसका शिकार खासतौर पर वे लोग हुए हैं जो मझोले या लघु स्तर पर गैर-मशीनीकृत साधनों से मत्स्य आखेट तथा कारोबार करते हैं। पूर्व में, परम्परागत रूप से काम करने वाले मछुआरा समुदायों को अपने प्राकृतिक संसाधन आधार का विनाश होते देखना पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप गरीबी से घिरे ऐसे समुदायों के लोगों को रोजगार के दूसरे कार्यों को अपनाना पड़ा अथवा क्षेत्र से पलायन को मजबूर होना पड़ा।
ग्रीनपीस की अभियानकर्ता अरीबा हामिद ने इस अवसर पर कहा "मशीनीकृत मत्स्य आखेट का मौजूदा स्तर पारिस्थितिकीय रूप से सतत नहीं है और वह इस वक्त आजीविका के लिये गैर-मशीनीकृत मत्स्य आखेट पर निर्भर लाखों लोगों को रोजगार कभी नहीं दे सकता।"
ग्रीनपीस की रिपोर्ट में मत्स्य संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण सामुद्रिक जैव-विविधता को हुई पारिस्थितिकीय क्षति को भी प्रस्तुत किया गया है। क्षमता, गहनता तथा प्रौद्योगिकी का सामूहिक इस्तेमाल न सिर्फ मछलियों की कुछ खास प्रजातियों की आबादी पर बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र पर भी विपरीत प्रभाव डालता है।
बड़़ी संख्या में मत्स्य आखेट नौकाओं के काम करने से ज्यादा मछलियां पकड़ी जाती हैं। इसके अलावा बाटम ट्रालिंग जैसी मत्स्य आखेट की नुकसानदेह तकनीक पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता, अपेक्षाकृत ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाले अधिक सतत गैर-मशीनीकृत (मोटरचालित तथा गैर मोटरचालित) क्षेत्र के बजाय मशीनीकृत मत्स्य आखेट को सरकारी अनुदान दिया जाना इत्यादि मत्स्य भंडार के अत्यधिक दोहन के मुख्य कारण हैं। भयंकर प्रदूषण तथा कच्छ वनस्पति एवं मुहाने जैसे प्रजनन आधार क्षेत्रों के विनाश, तापीय विद्युत संयंत्रों से निकले गर्म पानी, औद्योगिक कचरे के स्राव, मुख्य नगरीय केन्द्रों से निकलने वाली गन्दगी तथा तटीय क्षेत्रों का अतिविकास होने से स्थिति बदतर हो गयी है। इस रिपोर्ट में इन कारणों का विस्तार से परीक्षण करते हुए भविष्य में आने वाले संकट का सामना करने के लिये मत्स्य आखेट का पारिस्थितिकीय ढंग सुझाया गया है।
हामिद ने अंत में कहा "बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत की स्थिति सागरों की वैश्विक स्थिति के हालात का अक्स पेश करती है। भारत अक्तूबर 2012 में जैव विविधता पर आयोजित सम्मेलन की अध्यक्षता की तैयारी कर रहा है, ऐसे में पूरी दुनिया की नजरें हम पर हैं। चूंकि हमने सामुद्रिक जैव-विविधता को इस सम्मेलन की मुख्य थीम के रूप में चुना है इसलिये हमारे पास तटीय समुदायों का तारणहार बनने तथा तटीय संसाधनों के सतत इस्तेमाल की बात को मजबूती से रखने का मौका है।"

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