चोटी के विचारक, भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता थे बाबू जगजीवन राम
दलितों के मसीहा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, महान राजनेता
बाबू जगजीनराम की 27 वीं पुण्य तिथि पर विशेष
शेष नारायण सिंह
महात्मा गाँधी ने जगजीवनराम बारे में कहा था कि "जगजीवन राम कंचन की भांति खरे और सच्चे हैं। मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण प्रशंसा से आपूरित है।"
यह तारीफ़ किसी के लिये भी एक बहुत बड़ी प्रमाणपत्र हो सकती है। जब आज़ादी के लड़ाई शिखर पर थी तब महात्मा गाँधी ने बाबू जगजीवन राम के प्रति यह राय बनायी थी। लेकिन जगजीवन राम ने इसे कभी भी अपने सर पर सवार नहीं होने दिया, हमेशा महात्माजी के बताये गये रास्ते पर चलते रहे और कंचन की तरह तप कर भारत राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के निर्माण में लगे रहे। जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमण्डल के सदस्य रहे, जब कामराज योजना आयी तो सरकार से इस्तीफा दिया, फिर नेहरू के आवाहन सरकार में आये। लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में मन्त्री रहे, इन्दिरा गाँधी के साथ मन्त्री रहे। जब इन्दिरा गाँधी ने कुछ क़दम उठाये तो काँग्रेसी मठाधीशों के वर्ग सिंडिकेट वालों ने इन्दिरा गाँधी को औकात बताने की योजना पर काम शुरू किया तो वे इन्दिरा गाँधी एक साथ रहे। उन्होंने कहा किपूंजीवादी विचारों से अभिभूत काँग्रेसी अगर इन्दिरा गाँधी को हटाने में सफल हो जाते हैं तो काँग्रेस ने जो भी प्रगतिशील काम करना शुरू किया है वह सब ख़त्म हो जायेगा। इसी सोच के तहत उन्होंने चट्टान की तरह इन्दिरा गाँधी का साथ दिया। काँग्रेस विभाजन के बाद वे काँग्रेस के अध्यक्ष बने और काँग्रेस का नाम उनके नाम से जोड़कर देखा गया।इन्दिरा गाँधी जिस काँग्रेस की नेता के रूप में प्रधानमन्त्री बनी थीं उसका नाम काँग्रेस ( जगजीवन राम ) था।
पिछली सदी के सबसे महान राजनेताओं में उनका नाम शुमार किया जाता है। दलित अधिकारों के संघर्ष का पर्याय बन चुके डॉ. भीम राव आंबेडकर ने उनके बारे में जो कहा वह किसी भी भारतीय के लिये गर्व की बात हो सकती है। बाबासाहेब ने कहा कि,"बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक, भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं"।
इतनी सारी खूबियों के बावजूद बाबू जगजीवन राम ने कभी भी सफलता को अन्तिम लक्ष्य नहीं माना। अपने जीवन एक अन्तिम क्षण तक उन्होंने लोकतन्त्र, समानता और इंसानी सम्मान के लिये प्रयास किया।
यह बता ऐतिहासिक रूप से साबित हो चुकी है कि जब बाबू जगजीवन राम ने काँग्रेस से किनारा किया तो काँग्रेस के सबसे पक्के वोट बैंक ने काँग्रेस से अपने आपको अलाग कर लिया था। जानकार बताते हैं कि अगर 1977 की फरवरी में बाबू जगजीवन राम ने काँग्रेस से इस्तीफ़ा न दिया होता तो काँग्रेस को 1977 न देखना पड़ा होता। इस पहेली को समझने के लिये समकालीन इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है।
24 मार्च 1977 के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली थी। काँग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था। अजीब इत्तेफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था। मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिये जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया।
उत्तर भारत में काँग्रेस के खिलाफ जनता खड़ी हो गयी थी। जो भी काँग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया। काँग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली थी, चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था। सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से एक मई 1977 के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया था।
काँग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियाँ थीं। इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी। उस लड़के ने इंदिरा गाँधी के शासन काल में सरकार के फैसलों दखल देना शुरू कर दिया था। वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था। इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया। कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था। इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि काँग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिये काम करती थी। इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति काँग्रेस का जो रुख सामने आया, वह बहुत ही डरावना था। दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुये। देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बेटे ने ऐसे लोगों को काँग्रेस की मुख्यधारा में ला दिया था जिसकी वजह से काँग्रेस का पुराना स्वरूप पूरी तरह से बदल गया। संजय गाँधी के कारण काँग्रेस ऐलानियाँ सामन्तों और उच्च वर्गों की हितचिन्तक पार्टी बन चुकी थी। ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में काँग्रेस से किनारा कर लिया। नतीजा दुनिया जानती है। काँग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केन्द्र में पहली बार गैरकाँग्रेसी सरकार स्थापित हुयी। लेकिन सत्ता में आने के पहले ही काँग्रेस के खिलाफ जीत कर आयी पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया। जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व, बाबू जगजीवन राम का था। आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधानमन्त्री पद पर उनको ही बैठाया जायेगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिये थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी। इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था। आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमन्त्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियाँ और सक्रिय हो जायेंगी। जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता। जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर काँग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इन्दिरा गाँधी ने इसलिये की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था। विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं। जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे, वे आराम की बात ही कर रहे थे। सबकी हिम्मत पस्त थी लेकिन दो फरवरी 1977 के दिन सब कुछ बदल गया। जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मन्त्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी। सरकार से इस्तीफ़ा देकर काँग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथीभी थे। उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया। इंदिरा गाँधी के खिलाफ आँधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं। सबको मालूम था कि 1977 के चुनाव में उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से काँग्रेस के खिलाफ वोट दिया था लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधानमन्त्री बनाने की बात आयी तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमन्त्री स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है।मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे। और इस तरह एक बड़ी सम्भावित सामाजिक क्रान्ति को कुचल दिया गया। जनाकाँक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया। उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर
अपने हितों की साधना में लग गये। जनता पार्टी में आरएसएस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे। ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामन्ती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था। जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिन्दा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी। जो सरकार पाँच साल के लिये बनायी गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी।
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भाँप लिया था। और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गये थे। 1971 में ही वंचितों के हक के पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिये काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने डॉ. अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस, छह दिसम्बर के दिन 1978 में नई दिल्ली के बोट क्लब पर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत बड़ा सम्मलेन किया।बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था। शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गयी। इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बँधी उसके निराशा में बदल जाने के बाददलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना। जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिये एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया। बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी। इस तरह हम देखते हैं कि हालाँकि मोरारजी देसाई का प्रधानमन्त्री बनना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की हैसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक बहुत बड़े रोड़े के के रूप में हमेशा याद किया जायेगा। यह भी सच है कि जगजीवन राम के काँग्रेस से अलग होने के बाद सामाजिक परिवर्तन की जो सम्भावना बनी थी वह मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्री बनने के बाद शून्य में बदल गयी।
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