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Saturday, July 20, 2013

आईपीएल कैसिनो के देश में ध्यानचंद

आईपीएल कैसिनो के देश में ध्यानचंद


पलाश विश्वास


हमारे बचपन में न क्रिकेट था और न थे सचिन तेंदुलकर। आईपीएल कैसिनो की चियरन कल्चर तो अभी अभी शुरु हुआ है। इस व्यवस्था में सरकारी सम्मान और पुरस्कारों में भी हमारी बहुत ज्यादा आस्था नहीं है।लेकिन भारत रत्न प्रसंग में इस देश को फिर हाकी के जादूगर ध्यानचंद अचानक याद आ गये, यह कारपोरेट आपदा समय का सबसे बड़ा चमत्कार है।खेल मंत्रालय ने न जाने किस प्रेरणा से ध्यानचंद को सचिन के मुकाबले तरजीह दी। सचिन न सिर्फ क्रिकेट के भगवान हैं, बल्कि वे आइकन अर्थव्यवस्था के शाश्वत ब्रांड हैं।खेल मंत्रालय ने शुक्रवार को कहा कि भारत रत्न सम्मान के लिए सचिन तेंदुलकर की बजाय हाकी के महानतम खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद के नाम का सिफारिश किया जाना उचित कदम है। मंत्रालय के पास भारत रत्न पुरस्कार के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय भेजने के लिए केवल एक नाम था और 1979 में स्वर्गवासी हुए तीन बार के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता ध्यानचंद इसके लिए सही चयन थे।


खेल सचिव प्रदीप देब ने कहा कि हमें भारत रत्न के लिए केवल एक खिलाड़ी का नाम देना था और वह ध्यानचंद थे। तेंदुलकर के प्रति पूरा सम्मान है, फिर भी ध्यानचंद भारतीय खेल के आदर्श हैं। उनका नाम भारत रत्न के लिए प्रस्तावित करना उचित था, जिनके नाम पर हर दूसरी ट्राफी का नाम रखा जाता है।


इस वर्ष के शुरू में ही ध्यानचंद का नाम प्रस्तावित करने वाली हाकी इंडिया भी इससे गर्वित है। हाकी इंडिया के महासचिव नरेंद्र बत्रा ने कहा कि हाकी इंडिया के लिए यह एक गर्व का दिन है। हमें उम्मीद है कि उनको सम्मान दिया जाएगा।


ध्यानचंद लगातार 1928,1932 और 1936 में ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता भारतीय टीम के सदस्य रहे। उनको दुनिया के महानतम हाकी खिलाड़ियों में एक माना जाता है।


हम जब जूनियर कक्षा के छात्र थे, तो शायद छठीं या सातवीं में हमने पहली बार अपने हिंदी के पाठ्य पुस्तक के जरिये ध्यानचंद के बारे में जाना था। हाकी का जादूकर शीर्षक पाठ था वह। हमें नहीं मालूम कि अभी किसी पाठ्य पुस्तक में ध्यान चंद हैं या नहीं।


साठ और सत्तर के दशक में भी भारतीय हाकी की खूब धूम थी। तब भी हम ओलंपिक का स्वर्ण और विश्वकप जीत लेते थे। एस्ट्रो टर्फ आने से पहले तक हाकी में हमारा एकमात्र प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान हुआ करता था। तब एशियाई देसों में से दक्षिण कोरिया और मलेशिया की टीमें भी यूरोप पर भारी पड़ती थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग में हाकी टीम के खिलाड़ियों का सचित्र परिचय आता था। हमारे जीवन में तब भी दूरदर्शन नहीं था। रेडियो पर आंखोदेखा हाल के माध्यम से वे तमाम खिलाड़ी देशभर के नायक बने हुए थे।


हॉकी एक ऐसा खेल है जिसमें दो टीमें लकड़ी या कठोर धातु या फाईबर से बनी विशेष लाठी (स्टिक) की सहायता से रबर या कठोर प्लास्टिक की गेंद को अपनी विरोधी टीम के नेट या गोल में डालने की कोशिश करती हैं । हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है। हॉकी का प्रारम्भ वर्ष 2010 से 4,000 वर्ष पूर्व ईरान में हुआ था। इसके बाद बहुत से देशों में इसका आगमन हुआ पर उचित स्थान न मिल सका। अन्त में इसे भारत में विशेष सम्मान मिला और यह राष्ट्रीय खेल बना गया। भारत में इसका आरम्भ 100 वर्षों से पहले हुआ था। 11 खिलाड़ियों के दो विरोधी दलों के बीच मैदान में खेले जाने वाले इस खेल में प्रत्येक खिलाड़ी मारक बिंदु पर मुड़ी हुई एक छड़ी (स्टिक) का इस्तेमाल एक छोटी व कठोर गेंद को विरोधी दल के गोल में मारने के लिए करता है। बर्फ़ में खेले जाने वाले इसी तरह के एक खेल आईस हॉकी से भिन्नता दर्शाने के लिए इसे मैदानी हॉकी कहते हैं। चारदीवारी में खेली जाने वाली हॉकी, जिसमें एक दल में छह खिलाड़ी होते हैं और छह खिलाड़ी परिवर्तन के लिए रखे जाते हैं। हॉकी के विस्तार का श्रेय, विशेषकर भारत और सुदूर पूर्व में, ब्रिटेन की सेना को है। अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के आह्वान के फलस्वरूप 1971 में विश्व कप की शुरुआत हुई। हॉकी की अन्य मुख्य अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं हैं- ओलम्पिक, एशियन कप, एशियाई खेल, यूरोपियन कप और पैन-अमेरिकी खेल। दुनिया में हॉकी निम्न प्रकार से खेली जाती है ।


हम लोग तब हाकी ही खेलते थे। फुटबाल और बालीबाल का भी खूब प्रचलन था। कबड्डी और खोखो लोकप्रिय खेल होते थे क्योंकि इसे खेलने के लिए पैसे नहीं लगते थे। हाकी हम स्कूल कालेज में खेलते थे और हास्टलों में बतौर हथियार हाकी स्टीक खूब काम आते थे। फुटबाल के लिए एक गेंद होना जरुरी था। उसे खरीदने के लिए हमें चंदा करते हुए पसीना आ जाता था। बसंतीपुर में हमारे दिवंगत मित्र कृष्ण पद मंडल हर खेल में पारंगत थे। बंगाल में अपने ननिहाल में दो  साल गुजारकर जब वह लौटा, तब हमने नवीन संघ नाम का क्लब बनाकर गांव में फुटबाल और स्कूल में हाकी खेलना जारी रखा। मैं खेलने में बहुत तेज नहीं था। लेकिन हाकी और फुटबाल दोनों में सेंटर फारवर्ड में ही खेलता था। कृष्ण के पिता मांदार मंडलजी हम बच्चों के घोषित अभिभावक थे । पिताजी हमेशा बाहर होते थे। गांव के दो और मातबर थे सेक्रेटरी  अतुल शील और शिशुवर मंडल। अतुल बाबू विवादों को निरपटारे के जिम्मेवार थे तो लिखापढ़ी, हिसाब किताब और पंचाग कैशियर शिशुवर मंडल के हवाले थे। प्रेसीडेंट मांदार मंडल सख्त अनुशासन प्रिय थे। उन्हें हमारा ज्यादी उछल कूद पसंद था नहीं और अक्सर उन्हें हाथ में जो भी कुछ मिल जाता था, ुसे हथियार बनाकर हमें दौड़ाते रहते थे। इसके बावजूद हमें खेल से रोका इसलिे नहीं जा सका क्योंकि हमारा खेल तब क्रयशक्ति निर्भर नहीं था। हम लोग निरमल आनंद के लिए खेलते थे। उसीतरह हाकी हमारी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति की सबसे उत्तम अभिव्यक्ति थी और ओलंपिक जैसे खेलो में पदक की इकलौती उम्मीद भी। हाकी तब प्रायोजित नहीं थी। खिलाड़ी  तब देश के लिए खेलते थे। किसी क्लब, कंपनी या फ्रेंचाइजी के लिए नहीं। क्रिकेट की तरह एकल नायक न फुटबाल के थे और न हाकी के। हमारे लिए हाकी और फुटबाल के सारे के सारे खिलाड़ी महानायक थे लेकिन वे किसी विज्ञापन में दीखते न थे।


हॉकी के खेल में भारत ने हमेशा विजय पाई है। इस स्‍वर्ण युग के दौरान भारत ने 24 ओलम्पिक मैच खेले और सभी 24 मैचों में जीत कर 178 गोल बनाए तथा केवल 7 गोल छोड़े।भारत के पास 8 ओलम्पिक स्‍वर्ण पदकों का उत्‍कृष्‍ट रिकॉर्ड है। भारतीय हॉकी का स्‍वर्णिम युग 1928-56 तक था जब भारतीय हॉकी दल ने लगातार 6 ओलम्पिक स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त किए। 1928 तक हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल बन गई थी और इसी वर्ष एमस्टर्डम ओलम्पिक में भारतीय टीम पहली बार प्रतियोगिता में शामिल हुई। भारतीय टीम ने पांच मुक़ाबलों में एक भी गोल दिए बगैर स्वर्ण पदक जीता। जयपाल सिंह की कप्तानी में टीम ने, जिसमें महान खिलाड़ी ध्यानचंद भी शामिल थे, अंतिम मुक़ाबले में हॉलैंड को आसानी से हराकर स्वर्ण पदक जीता।


भारतीय हॉकी संघ के इतिहास की शुरुआत ओलम्पिक में अपनी स्‍वर्ण गाथा शुरू करने के लिए की गई। इस गाथा की शुरुआत एमस्‍टर्डम में 1928 में हुई और भारत लगातार लॉस एंजेलस में 1932 के दौरान तथा बर्लिन में 1936 के दौरान जीतता गया और इस प्रकार उसने ओलम्पिक में स्‍वर्ण पदकों की हैटट्रिक प्राप्‍त की।किशनलाला के नेतृत्व में दल ने लंदन में स्वर्ण पदक जीता। भारतीय हॉकी दल ने 1975 में विश्‍व कप जीतने के अलावा दो अन्‍य पदक (रजत और कांस्‍य) भी जीते। भारतीय हॉकी संघ ने 1927 में वैश्विक संबद्धता अर्जित की और अंतरराष्‍ट्रीय हॉकी संघ (एफआईएच) की सदस्‍यता प्राप्‍त की। भारत को 1964 टोकियो ओलम्पिक और 1980 मॉस्‍को ओलम्पिक में दो अन्‍य स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त हुए। 1962 में कांस्य पदक और 1980 में स्वर्ण पदक प्राप्त किया और देश का नाम ऊँचा कर दिया।



नैनीताल में हाकी और फुटबाल की खूब धूम थी। हमारे नैनीताल पहुंचने से पहले टानी लुइस की टीम भारत आ चुके थे और भारतीय क्रिकेट को सुनील गावस्कर जैसा शतक वीर भी मिल गया था। वेस्टइंडीज की टीम जब कप्तान लायड की अगुवाई में भारत आयी और कप्तान पटौदी की भारतीय टीम ने उनका जमकर मुकाबला किया तो रेडियो आंखों देखा हाल के जरिये क्रिकेट भी लोकप्रिय होने लगा। हम लोग स्पिन चौकड़ी पर ग्रव भी करने लगे। पर नैनीताल फ्लैट्स पर तो ट्रेडर्स कप हाकी ही धूम लगी रहती थी। नैनीताल में 1922 से ´´आल इण्डिया ट्रेडर्स कप हाकी प्रतियोगिता´´ का आयोजन होता रहा है। देश भर के ओलंपियन खेलते थे। जिन्हें हम खेलते हुए छू सकते थे और उनके बीच ध्यानचंद का होना महसूस कर सकते थे। हमें खास नैनीताल से सैयद अली के रुप में तब एक ओलंपियन भी मिल गया था।हाकी के अलावा नैनीताल फ्लैट्स पर फुटबाल की अलग ही रौनक थी। 15 अगस्त को जूनियर फुटबालका फाइनल होता था और शहर के सारे वाशिंद, तमाम पर्यटक भुने हुए भुट्टे और मुंगफली का आनंद लेकर बिना टिकट फुटबाल का लुत्फ उठाते थे। फिर सीनियर फुटबाल में भी कड़ी प्रतिद्वंद्विता होती थी। तब फ्लैट्स परफुटबाल और हाकी मैचों के दौरान जो भीड़ होती थी वह वहां अक्सर होने वाली फिल्मों की शूटिंग देखनेवालों से हमेशा ज्यादा होती थी। डीएसबी की हाकी, फुटबाल और क्रिकेट टीमें तीनों मजबूत थी। तीनों टीमों में खेलते थे हमारे अंग्रेजी विभाग के प्रवक्ता कैप्टेन एलएम साह। लेकिन नैनीताल में ट्यूरिस्ट सीजन में भी क्रिकेट के लिए वह दिवानगी कभी नहीं दिखी, जो फुटबाल के लिए थी।


आधुनिक युग में पहली बार ओलंपिक में हॉकी २९ अक्तूबर, १९०८ में लंदन में खेली गई। इसमें छह टीमें थीं। १९२४ में ओलपिंक में अंतर्राष्ट्रीय कारणों से यह खेल शामिल नहीं हो सका। ओलंपिक से हॉकी के बाहर हो जाने के बाद जनवरी, १९२४ में अंतर्राष्ट्रीय हॉकी संघ (इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन) की स्थापना हुई। हॉकी का खेल एशिया मेंभारत में सबसे पहले खेला गया। पहले दो |एशियाई खेलों में भारत को खेलने का अवसर नहीं मिल सका, किन्तु तीसरे एशियाई खेलों में भारत को पहली बार ये अवसर हाथ लगा। हॉकी में भारत का प्रदर्शन काफ़ी अच्छा रहा है। भारत ने हॉकी में अब तक ओलंपिक में आठ स्वर्ण, एक और दो कांस्य पदक जीते हैं। स्वतंत्र भारत ने इसे अपना राष्ट्रीय खेल भी घोषित किया है। इसके बाद भारत ने हॉकी में अगला स्वर्ण पदक १९६४ और अंतिम स्वर्ण पदक १९८० में जीता। १९२८ में एम्सटर्डम में हुए ओलंपिक में भारत ने नीदरलैंड को ३-० से हराकर पहला स्वर्ण पदक जीता था। १९३६ के खेलों में जर्मनी को ८-१ से मात देकर विश्व में अपनी खेल क्षमता सिद्ध की। १९२८, १९३२और १९३६ के तीनों मुकाबलों में भारतीय टीम का नेतृत्व हॉकी के जादूगर नाम से प्रसिद्ध मेजर ध्यानचंद ने किया। १९३२ के ओलपिंक में हुए ३७ मैचों में भारत द्वारा किए गए ३३० गोल में ध्यानचंद ने अकेले १३३ गोल किए थे।


हम जब मैदानों में उतरे, तो सीधे पहुंचे कोयलांचल धनबाद में। यह हमारे पत्रकार मित्र जो उनदिनों जेएनयू में रिसर्च स्कालर थे, उनकी मेहरबानी थी। वे पत्रकार बनने को तैयार न थे। इसलिए मुझे उन्होंने पत्रकारिता में घुसेड़ दिया। विडंबना तो यह है कि उर्मिलेश भी आखिरकार इस जंजाल में फंस गये। उर्मिलेश का सुजाव मैं हरगिज नहीं मानता। मैं इलाहाबाद और दिल्ली इसलिए भटक रहा था कि एमफिल पीएचडी पूरी करके डीएसबी या अल्मोड़ा कालेज में फिट हो जाऊं। तब हमारे इतिहासज्ञ मित्र और प्रोफेसर शेखर पाठक हमारे आदर्श थे। मास्टरी और उसके साथ समाजिक सरोकार से जुड़ा लेखन यही हमारी महात्वाकांक्षा थी। लेकिन हरिदासपुर गांव में जहां प्राइमरी शिक्षा हुई हमारी, और बसंतीपुर के बाद वह मेरा दूसरा घर था, हमारे परम मित्र टेक्का यानी नित्यानंद मंडल को एक जात्रा समारोह में पिट दिया गया। मैं मंच के पास ही बैठा था और फौरन गुस्से में गया। कलकतिया जात्रा पार्टी थी। भारी भीड़ थी। मैं फौरन मंच पर कूद गया और घोषणा कर दी कि अब कोई जात्रा न होगी। भगदड़ मच गयी। तमाम युवा छात्र थे तराई के वहां। वे मेरे साथ थे। गुस्सा थोड़ा शांत हुआ तो मैंने ही दुबारा कार्यक्रम शुरु कराया। सभापति सरपंच सब हाथ जोड़ते रह गये। मैंने किसी की नहीं सुनी। िइस हासे के बाद दोनों गांवों की सुलह बैठक हुई पिताजी की अध्यक्षता में और उसमें उन्होंने सार्वजनिक तौर पर मेरी भर्त्सना यह कहकर कर  दी, तुम्हें तो झगड़ा रोकना था और तुम ही हंगामा कर बैठे। भगदड़ में अनहोनी हो जाती तो


मामला वहीं खत्म हो गया। पर अगली सुबह मैं दिल्ली पहुंच गया। जेएनयू। वहीं से धनबाद चला गया। तब आजकल की बांग्ला पत्रकारिता में खेल को नया आयाम मिला रहा था। मैं सीधे ईस्ट बंगाल, मोहन बागान और मोहमेडन में निष्णात हो गया।हाकी हमेशा के लिए पीछे छूट गयी। जबकि इस बीच मास्को ओलंपिक में हमने गोल्ड भी जीत लिया। तब तक 1983 में कपिल देव की चमत्कारी पारी की बदौलत हमने क्रिकेट का विश्वकप जीत लिया। दूरदर्शन सर्वव्यापी प्रभाव समेतहमारे जीवन में दाखिल हो गया। हाकी मृत थी और चारों तरफ क्रिकेट की जय जयकार।


1984 में हमारीयूपी में वापसी हुई मेरठ में। वहां शानदार स्टेडियम है। जहां हाकी के मैच भी होते थे। मोहम्मद शाहिद , धनराज पिल्लै  और जफर इकबाल जैसे खिलाड़ी खेलते थे। 1990 तक हाकी से वह संक्षिप्त संबंध बना रहा।


फिर 1991 में कोलकाता आये तो कभी हाकी का मैच टीवी के परदे के अलावा चाक्षुस देखने को नहीं मिला। बेटन कप के शहर में हाकी का कोई नाम लेवा नही ं है।


अब कोलकाता क्या, पूरे देश में आईपीएल की तर्ज पर हाकी लीग शुरु हो जाने के बाद भी हाकी सेकिसी को कोई उम्मीद नहीं है।


अगर हाकी के जादूगर ध्यानचंद का सम्मान करके हम हाकी का वह सुनहरा युग वापस ला सकें तो इस सिफारिश का कोई माने निकलेगा। सचिन को तो देर सवेर बारत रत्न मिलना ही है। अभी वे खेल के मैदान से संसद तक अपना जलवा बिखेर ही रहे हैं। थोड़ा ध्यानचंद के सौजन्य से बाजार के इस दमघोंटू माहौल में थोड़ा सा आक्सीजन मिल जाये, तो क्रिकेट दीवानों को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए।


भारत में यह खेल सबसे पहले कलकत्ता में खेला गया। भारत टीम का सर्वप्रथम वहीं संगठन हुआ। 26 मई को सन 1928 में भारतीय हाकी टीम प्रथम बार ओलिम्पिक खेलों में सम्मिलित हुई और विजय प्राप्त की। 1932 में लॉस एंजेलिस ओलम्पिक में जब भारतीयों ने मेज़बान टीम को 24-1 से हराया। तब से अब तक की सर्वाधिक अंतर से जीत का कीर्तिमान भी स्थापित हो गया। 24 में से 9 गोल दी भाइयों ने किए, रूपसिंह ने 11 गोल दागे और ध्यानचंद ने शेष गोल किए।


1936 के बर्लिन ओलम्पिक में इन भाइयों के नेतृत्व में भारतीय दल ने पुनः स्वर्ण 'पदक जीता' जब उन्होंने जर्मनी को हराया। बर्लिन ओलम्पिक में ध्यानचंद असमय बाहर हो गये और द्वितीय विश्व युद्ध ने भी इस विश्व स्पर्द्धा को बाधित कर दिया। आठ वर्ष के बाद ओलम्पिक की पुनः वापसी पर भारत की विश्व हॉकी चैंपियन की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। एक असाधारण कार्य, जो विश्व में कोई भी अब तक दुहरा नहीं पाया है। अन्य टीमों के उभरने के संकेत सर्वप्रथम मेलबोर्न में दिखाई दिए, जब भारत को पहली बार स्वर्ण पदक के लिए संधर्ष करना पड़ा। पहले की तरह, टीम ने अपनी ओर एक भी गोल नहीं होने दिया और 38 गोल दागे, मगर बलबीर सिंह के नेतृत्व में खिलाड़ीयों को सेमीफ़ाइनल में जर्मनी के ख़िलाफ़ और फ़ाइनल में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ संघर्ष करना पड़ा। सेमीफ़ाइनल में कप्तान के गोल ने निर्णय किया, जबकि वरिष्ठ रक्षक आर.एस. जेंटल के बनाए गोल ने भारत की अपराजेयता को बनाए रखा। 1956 के मेलबोर्न ओलम्पिक के फ़ाइनल में भारत और पाकिस्तान को 1960 में रोम ओलम्पिक में पाकिस्तान ने फ़ाइनल में 1-0 से स्वर्ण जीतकर भारत की बाज़ी पलट दी। भारत ने पाकिस्तान को 1964 के टोकियो ओलम्पिक में हराया। 1968 के मेक्सिको ओलम्पिक में पहली बार भारत फ़ाइनल में नहीं पहुँचा और केवल कांस्य पदक जीत पाया। मगर मेक्सिको के बाद, पाकिस्तान व भारत का आधिपत्य टूटने लगा। 1972 के म्यूनिख़ ओलम्पिक में दोनों में से कोई भी टीम स्वर्ण पदक जीतने में सफल नहीं रही और क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान तक ही पहुँच सकी। मुख्य रूप से भारत में, हॉकी के पारंपरिक केंद्रों के अलावा अन्य स्थानों पर लोगों की रुचि में तेज़ी से गिरावट आई और इस पतन को रोकने के प्रयास भी कम ही किए गए। इसके बाद भारत ने केवल एक बार 1980 के संक्षिप्त मॉस्को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीता। टीम का अस्थिर प्रदर्शन जारी रहा। इसके बाद 1998 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक की प्राप्ति भारतीय हॉकी का एकमात्र बढ़िया प्रदर्शन था। ऐसे बहुत कम मौक़े रहे, जब कौशल ने शारीरिक सौष्ठव को हराया, अन्यथा यह बारंबार बहुत कम अंतर से हार और गोल चूक जाने का मामला रहा है। यद्यपि भारत अब विश्व हॉकी में एक शक्ति के रूप में नहीं गिना जाता, पर हाल के वर्षों में यहाँ ऐसे कई खिलाड़ी हुए हैं, जिनके कौशल की बराबरी विश्व में कुछ ही खिलाड़ी कर पाते हैं। अजितपाल सिंह, वी. भास्करन, गोविंदा, अशोक कुमार, मुहम्मस शाहिद, जफ़र इक़बाल, परगट सिंह, मुकेश कुमार और धनराज पिल्लै जैसे खिलाड़ीयों ने अपनी आक्रामक शैली की धाक जमाई है।


भारत में हॉकी के गौरव को पुनर्जीवित करने के गंभीर प्रयास हुए हैं। भारत में तीन हॉकी अकादमियां कार्यरत हैं- नई दिल्ली में एयर इंडिया अकादमी, रांची (झारखंड) में विशेष क्षेत्र खेल अकादमी ऐर राउरकेला, (उड़ीसा) में स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (सेल) अकादमी। इन अकादमियों में प्रशिक्षार्थी हॉकी को प्रशिक्षण के अलावा औपचारिक शिक्षा भी जारी रखते हैं और मासिक वृत्ति भी पाते हैं। प्रत्येक अकादमी ने योग्य खिलाड़ी तैयार किए हैं, जिनसे आने वाले वर्षों में इस खेल में योगदान की आशा है। क्रिकेट के प्रति दीवानगी के बावजूद विद्यालयों और महाविद्यालयों में हॉकी के पुनरुत्थान से नई पीढ़ी में इस खेल के प्रति रुचि जागृत हुई है। प्रतिवर्ष राजधानी में होने वाली नेहरू कप हॉकी प्रतियोगिता जैसी प्रतिस्पर्द्धाओं में उड़ीसा, बिहार और पंजाब के विद्यालयों, जैसे सेंट इग्नेशियस विद्यालय, राउरकेला; बिरसा मुंडा विद्यालय, गुमला और लायलपुर खालसा विद्यालय, जालंधर द्वारा उच्च स्तरीय हॉकी का प्रदर्शन देखा गया है।


२०१० राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने रजत पदक हासिल किया |



ध्यानचंद सिंह

http://hi.wikipedia.org/s/8g1

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

Dhyan Chand

मेजर ध्यानचंद सिंह (२९ अगस्त, १९०५ - ३ दिसंबर, १९७९) भारतीय फील्ड हॉकी के भूतपूर्व खिलाडी एवं कप्तान थे एवं उन्हें भारत एवं विश्व हॉकी के क्षेत्र में सबसे बेहतरीन खिलाडियों में शुमार किया जाता है। वे तीन बारओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं जिनमें १९२८ का एम्सटर्डम ओलोम्पिक, १९३२ का लॉस एंजेल्स ओलोम्पिक एवं १९३६ का बर्लिन ओलम्पिक शामिल है। उनकी जन्म तिथि को भारत में "राष्ट्रीय खेल दिवस" के तौर पर मनाया जाता है | [1]

जीवन परिचय[संपादित करें]

ध्यानचंद, मेजर जन्म 29 अगस्त, सन्‌ 1905 ई. को इलाहाबाद में हुआ था। उनके बाल्य-जीवन में खिलाड़ीपन के कोई विशेष लक्षण दिखाई नहीं देते थे। इसलिए कहा जा सकता है कि हॉकी के खेल की प्रतिभा जन्मजात नहीं थी, बल्कि उन्होंने सतत साधना, अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के सहारे यह प्रतिष्ठा अर्जित की थी। साधारण शिक्षा प्राप्त करने के बाद 16 वर्ष की अवस्था में 1922 ई. में दिल्ली में प्रथम ब्राह्मण रेजीमेंट में सेना में एक साधारण सिपाही की हैसियत से भरती हो गए। जब 'फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट' में भरती हुए उस समय तक उनके मन में हॉकी के प्रति कोई विशेष दिलचस्पी या रूचि नहीं थी। ध्यानचंद को हॉकी खेलने के लिए प्रेरित करने का श्रेय रेजीमेंट के एक सूबेदार मेजर तिवारी को है। मेजर तिवारी स्वंय भी प्रेमी और खिलाड़ी थे। उनकी देख-रेख में ध्यानचंद हॉकी खेलने लगे देखते ही देखते वह दुनिया के एक महान खिलाड़ी बन गए। [2] सन्‌ 1927 ई. में लांस नायक बना दिए गए। सन्‌ 1923 ई. में लॉस ऐंजल्स जाने पर नायक नियुक्त हुए। सन्‌ 1937 ई. में जब भारतीय हाकी दल के कप्तान थे तो उन्हें सूबेदार बना दिया गया। जब द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हुआ तो सन्‌ 1943 ई. में 'लेफ्टिनेंट' नियुक्त हुए और भारत के स्वतंत्र होने पर सन्‌ 1948 ई. में कप्तान बना दिए गए। केवल हॉकी के खेल के कारण ही सेना में उनकी पदोन्नति होती गई। 1938 में उन्हें 'वायसराय का कमीशन' मिला और वे सूबेदार बन गए। उसके बाद एक के बाद एक दूसरे सूबेदार, लेफ्टीनेंट और कैप्टन बनते चले गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया।

खिलाडी जीवन[संपादित करें]

ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि वह जादुई स्टिक से खेल रहे हैं। यहाँ तक हॉलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई। ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी के जितने किस्से हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। उनकी हॉकी की कलाकारी देखकर हॉकी के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुधबुध खोकर उनकी कलाकारी को देखने में मशगूल हो जाते थे। उनकी कलाकारी से मोहित होकर ही जर्मनी के रुडोल्फ हिटलर सरीखे जिद्दी सम्राट ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी। लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही सबसे बड़ा गौरव समझा। वियना में ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए एक मूर्ति लगाई और दिखाया कि ध्यानचंद कितने जबर्दस्त खिलाड़ी थे। [3]

जब ये ब्राह्मण रेजीमेंट में थे उस समय मेजर बले तिवारी से, जो हाकी के शौकीन थे, हाकी का प्रथम पाठ सीखा। सन्‌ 1922 ई. से सन्‌ 1926 ई. तक सेना की ही प्रतियोगिताओं में हाकी खेला करते थे। दिल्ली में हुई वार्षिक प्रतियोगिता में जब इन्हें सराहा गया तो इनका हौसला बढ़ा। 13 मई, सन्‌ 1926 ई. को न्यूजीलैंड में पहला मैच खेला था। न्यूजीलैंड में 21 मैच खेले जिनमें 3 टेस्ट मैच भी थे। इन 21 मैचों में से 18 जीते, 2 मैच अनिर्णीत रहे और और एक में हारे। पूरे मैचों में इन्होंने 192 गोल बनाए। उनपर कुल 24 गोल ही हुए। 27 मई, सन्‌ 1932 ई. को श्रीलंका में दो मैच खेले। ए मैच में 21-0 तथा दूसरे में 10-0 से विजयी रहे। सन्‌ 1935 ई. में भारतीय हाकी दल केन्यूजीलैंड के दौरे पर इनके दल ने 49 मैच खेले। जिसमें 48 मैच जीते और एक वर्षा होने के कारण स्थगित हो गया। अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उन्होंने 400 से अधिक गोल किए। अप्रैल, 1949 ई. को प्रथम कोटि की हाकी से संन्यास ले लिया।

ओलंपिक खेल[संपादित करें]

एम्सटर्डम (1928)[संपादित करें]

1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने भाग लिया। एम्स्टर्डम में खेलने से पहले भारतीय टीम ने इंगलैंड में 11 मैच खेले और वहाँ ध्यानचंद को विशेष सफलता प्राप्त हुई। एम्स्टर्डम में भारतीय टीम पहले सभी मुकाबले जीत गई। 17 मई, सन्‌ 1928 ई. को आस्ट्रिया को 6-0, 18 मई को बेल्जियम को 9-0, 20 मई कोडेनमार्क को 5-0, 22 मई को स्विट्जरलैंड को 6-0 तथा 26 मई को फाइनल मैच में हालैंड को 3-0 से हराकर विश्व भर में हॉकी के चैंपियन घोषित किए गए और 29 मई को उन्हें पदक प्रदान किया गया। फाइनल में दो गोल ध्यानचंद ने किए। [4]

लास एंजिल्स (1932)[संपादित करें]

1932 में लास एंजिल्स में हुई ओलम्पिक प्रतियोगिताओं में भी ध्यानचंद को टीम में शामिल कर लिया गया। उस समय सेंटर फॉरवर्ड के रूप में काफ़ी सफलता और शोहरत प्राप्त कर चुके थे। तब सेना में वह 'लैंस-नायक' के बाद नायक हो गये थे। इस दौरे के दौरान भारत ने काफ़ी मैच खेले। इस सारी यात्रा में ध्यानचंद ने 262 में से 101 गोल स्वयं किए। निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया था। तब एक अमेरिका समाचार पत्र ने लिखा था कि भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया तूफान थी। उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया। [5]

बर्लिन (1936)[संपादित करें]

1936 के बर्लिन ओलपिक खेलों में ध्यानचंद को भारतीय टीम का कप्तान चुना गया। इस पर उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा- "मुझे ज़रा भी आशा नहीं थी कि मैं कप्तान चुना जाऊँगा" खैर, उन्होंने अपने इस दायित्व को बड़ी ईमानदारी के साथ निभाया। अपने जीवन का अविस्मरणिय संस्मरण सुनाते हुए वह कहते हैं कि 17 जुलाई के दिन जर्मन टीम के साथ हमारे अभ्यास के लिए एक प्रदर्शनी मैच का आयोजन हुआ। यह मैच बर्लिन में खेला गया। हम इसमें चार के बदले एक गोल से हार गए। इस हार से मुझे जो धक्का लगा उसे मैं अपने जीते-जी नहीं भुला सकता। जर्मनी की टीम की प्रगति देखकर हम सब आश्चर्यचकित रह गए और हमारे कुछ साथियों को तो भोजन भी अच्छा नहीं लगा। बहुत-से साथियों को तो रात नींद नहीं आई। 5 अगस्त के दिन भारत का हंगरी के साथ ओलम्पिक का पहला मुकाबला हुआ, जिसमें भारतीय टीम ने हंगरी को चार गोलों से हरा दिया। दूसरे मैच में, जो कि 7 अगस्त को खेला गया, भारतीय टीम ने जापान को 9-0 से हराया और उसके बाद 12 अगस्त को फ्रांस को 10 गोलों से हराया। 15 अगस्त के दिन भारत और जर्मन की टीमों के बीच फाइनल मुकाबला था। यद्यपि यह मुकाबला 14 अगस्त को खेला जाने वाला था पर उस दिन इतनी बारिश हुई कि मैदान में पानी भर गया और खेल को एक दिन के लिए स्थगित कर दिया गया। अभ्यास के दौरान जर्मनी की टीम ने भारत को हराया था, यह बात सभी के मन में बुरी तरह घर कर गई थी। फिर गीले मैदान और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण हमारे खिलाड़ी और भी निराश हो गए थे। तभी भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता को एक युक्ति सूझी। वह खिलाड़ियों को ड्रेसिंग रूम में ले गए और सहसा उन्होंने तिरंगा झण्डा हमारे सामने रखा और कहा कि इसकी लाज अब तुम्हारे हाथ है। सभी खिलाड़ियों ने श्रद्धापूर्वक तिरंगे को सलाम किया और वीर सैनिक की तरह मैदान में उतर पड़े। भारतीय खिलाड़ी जमकर खेले और जर्मन की टीम को 8-1 से हरा दिया। उस दिन सचमुच तिरंगे की लाज रह गई। उस समय कौन जानता था कि 15 अगस्त को ही भारत का स्वतन्त्रता दिवस बनेगा। [6]

हिटलर व ब्रैडमैन[संपादित करें]

ध्यानचंद ने अपनी करिश्माई हॉकी से जर्मन तानाशाह हिटलर ही नहीं बल्कि महान क्रिकेटर डॉन ब्रैडमैन को भी अपना क़ायल बना दिया था। यह भी संयोग है कि खेल जगत की इन दोनों महान हस्तियों का जन्म दो दिन के अंदर पर पड़ता है। दुनिया ने 27 अगस्त को ब्रैडमैन की जन्मशती मनाई तो 29 अगस्त को वह ध्यानचंद को नमन करने के लिए तैयार है, जिसे भारत में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। ब्रैडमैन हाकी के जादूगर से उम्र में तीन साल छोटे थे। अपने-अपने फन में माहिर ये दोनों खेल हस्तियाँ केवल एक बार एक-दूसरे से मिले थे। वह 1935 की बात है जब भारतीय टीम आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दौरे पर गई थी। तब भारतीय टीम एक मैच के लिए एडिलेड में था और ब्रैडमैन भी वहाँ मैच खेलने के लिए आए थे। ब्रैडमैन और ध्यानचंद दोनों तब एक-दूसरे से मिले थे। ब्रैडमैन ने तब हॉकी के जादूगर का खेल देखने के बाद कहा था कि वे इस तरह से गोल करते हैं, जैसे क्रिकेट में रन बनते हैं। यही नहीं ब्रैडमैन को बाद में जब पता चला कि ध्यानचंद ने इस दौरे में 48 मैच में कुल 201 गोल दागे तो उनकी टिप्पणी थी, यह किसी हॉकी खिलाड़ी ने बनाए या बल्लेबाज ने। ध्यानचंद ने इसके एक साल बाद बर्लिन ओलिम्पिक में हिटलर को भी अपनी हॉकी का क़ायल बना दिया था। उस समय सिर्फ हिटलर ही नहीं, जर्मनी के हॉकी प्रेमियों के दिलोदिमाग पर भी एक ही नाम छाया था और वह था ध्यानचंद। [7]

सम्मानित[संपादित करें]

उन्हें १९५६ में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। ध्यान चंद को खेल के क्षेत्र में १९५६ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उनका जन्म 29 अगस्त, 1905 इलाहाबाद, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत में हुआ था। उनके जन्मदिन को भारत का राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया है। इसी दिन खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ ने ध्यानचंद को शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया था। फिलहाल ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग भी की जा रही है | [8]


[छुपाएँ]

वा १९५६ में पद्म भूषण धारक Flag of पद्म भूषण




कला:रुक्मिणी देवी अरुंडेल  • खेल:कोट्टारी कन्कैया नायडु  • ध्यान चंद  • चिकित्सा:मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी  • प्रशासन:कुँवर सैन  • मालुर श्रीनिवास तिरुमलै अयंगार  • विज्ञान:तिरुवडि साम्बशिव वेंकटरमण  • उपक्रम:नवाब ज़ैन यार जंग  • पुष्पावती जनार्दनराय मेहता  • शिक्षा:भाई वीर सिंह  • कस्तूरी श्रीनिवासन  • राजशेखर बोस  • महादेवी वर्मा  •





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