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Sunday, July 7, 2013

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में-जोश मलीहाबादी

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में-जोश 

मलीहाबादी

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में 
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है 

जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं 
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है 

मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की 
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत[1] है 

कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दाआ[2] हो जा 
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा[3] हो जा 

उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई 
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना[4] हो जा 

[1] समर्पण 
[2] किसी के लक्ष्‍य की तरु ध्‍यान न दे
[3] खुदा का भक्‍त 
[4] मौत के गहरे समुनदर में डूब

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