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Monday, July 15, 2013

भारतीय लोक गणराज्य की कारपोरेट सत्ता ने देश के आदिवासियों के खिलाफ खुला युद्ध छेड़ रखा है। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सबसे पहले इस युद्ध को बंद करना अनिवार्य है वरना यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना होगी।

भारतीय लोक गणराज्य की कारपोरेट सत्ता ने देश के आदिवासियों के खिलाफ खुला युद्ध छेड़ रखा है। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सबसे पहले इस युद्ध को बंद करना अनिवार्य है वरना यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना होगी।


जेल परिंदों और दागियों के बचाव में जैसे लामबंद है राजनीति तो कारपोरेट चंदों पर दुकान चलाने वालों की औकात क्या है कारपोरेट हितों के विरुद्ध अदालती इस निर्देश के खिलाफ उनकी जंग शुरु न हो? समूचे भारतीय रक्षा तंत्र को ही जनसंहार संस्कृति में निष्णात कर दिया गया है!


सुप्रीम कोर्ट का फैसला है,जमीन जिसकी खनिज भी उसका। लेकिन इस फैसले के लागू होने की कोई उम्मीद नहीं है।


पलाश विश्वास


सुप्रीम कोर्ट का फैसला है,जमीन जिसकी खनिज भी उसका। लेकिन इस फैसले के लागू होने की कोई उम्मीद नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि खनिज संपदा का स्वामित्व सरकार के पास नहीं बल्कि यह भू-स्वामी में निहित होना चाहिए। न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया कि भूमि के नीचे के संसाधनों पर भू स्वामी किसी प्रकार के अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं क्योंकि खान और खनिज (विकास एवं नियमन) कानून 1957 की धारा 425 के तहत वैध लाइसेंस या पट्टे के बगैर देश में किसी भी प्रकार की खनन गतिविधि प्रतिबंधित है।


सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कारपोरेट मीडिया में फिर मातम मनाया जा रहा है कि विकास का रथ थम जायेगा। इस दुष्प्रचार के विरुद्ध वैकल्पिक मीडिया के साथ साथ तमाम नेट उपभोक्ता आंदोलित न हो तो वे येन केन प्रकारेण संविधान और संसद की तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश और फैसले के उल्लंघन का भी कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे क्योंकि देश में संविधान अभीतक लागू हुआ नही है और न इसके लिए राष्ट्रव्यापी जनांदोलन हुआ है, न देश में कानून का राज है और न संसद और विधानसभाओं में जो लोग बैठे हैं, वे जनता के सच्चे प्रतिनिधि हैं।


उच्चतम न्यायालय के एक महत्त्वपूर्ण फैसले से भूस्वामियों को बड़ी राहत मिल सकती है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि किसी जमीन के नीचे दबी खनिज संपदा जमीन के मालिक की मिल्कियत है और उस पर सरकार का अधिकार नहीं होना चाहिए। न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा है कि देश में फिलहाल ऐसा कोई कानून नहीं है, जो कहता हो कि मिट्टी में दबी सामग्री या खनिज संपदा पर सरकार का मालिकाना हक है। केरल के कुछ भूस्वामियों की याचिका पर अदालत ने यह बात की। हालांकि इससे पहले केरल उच्च न्यायालय ने इस मसले पर राज्य सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया था। उस फैसले को वहां के कुछ भूस्वामियों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी।न्यायालय ने कहा कि यह कानून किसी भी तरह से यह नही कहता है कि खनिज संपदा में शासन का मालिकाना हक होगा और न ही इसमें किसी खदान के स्वामी को उसके मालिकाना हक से वंचित करने का प्रावधान है। शुल्क या कर की उगाही करने संबंधित सरकार के दावे के संदर्भ में न्यायाधीशों ने कहा कि यह शासकीय अधिकार है, मालिकाना हक नहीं है। लेकिन, न्यायालय ने सरकार को भू स्वामी द्वारा रॉयल्टी के भुगतान की देनदारी के मसले पर विचार करने से इंकार कर दिया क्योंकि इसका फैसला बड़ी पीठ करेगी।


जो दावा देश का आदिवासी समाज ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के वक्त से कर रहा है,और जिसके खातिर तब से लेकर अब तक आदिवासी जनविद्रोह का सिलसिला जारी है और अब भारत के आदिवासी संविधान बचाओ आंदोलन भी शुरु कर चुके हैं, उस दावे की पुष्टि भारत के संविधान निर्माताओं ने पांचवी और चठी अनुसूचियों के मार्फत पहले ही कर दी, लिकिन इसका खुला उल्लंघन करते हुए भारतीय लोक गणराज्य की कारपोरेट सत्ता ने देश के आदिवासियों के खिलाफ खुला युद्ध छेड़ रखाहै। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सबसे पहले इस युद्ध को बंद करना अनिवार्य है वरना यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना होगी।पर जिन्होंने लगातार संविधान और लोकतंत्र की हत्या के जरिये इस देश में कारपोरेट राज कायम किया है ,वे ऐसे आदेशों की धज्जियां उड़ाकर रहेंगे ही।आदिवासी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ तो रुक जायेगा खनन और सबसे ज्यादा प्रभावित होगी कोल इंडिया!कोलइंडिया की खानें महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीशा, बिहार, झारखंड,उत्तरप्रदेश और असम के आदिवासी इलाकों में हैं जहां सर्वत्र माओवादी तत्वों के साथ माफिया नेटवर्क भी प्रबल है। माओवाद के दमन के नाम पर बंगाल में शालबनी में निर्दोष आदिवासियों की गिरफ्तारी के बाद 2009 में बंगाल के तमाम आदिवासी इलाकों में माओवाद कितना व्यापक पैमाने पर फैला, इसका ज्वलंत उदाहरण सामने है। आदिवासी समस्याओं को नजरअंदाज करके न कानून व्यवस्था बहाल हो सकती है और न ही इन हालात में आदिवासी इलाकों में खनन और दूसरी परियोजनाएं संभव हैं।


उच्चतम न्यायालय का यह आदेश सिर्फ आदिवासियों के लिए नहीं, बल्कि बहिस्कृत,क्यरयशक्ति वंचित निनानब्वे फीसद जनगण के हक हकूक के हक में है।य़ह फैसला दीर्घ काल से वंचितों और विस्थापितों की जल, जंगल, जमीन, आजीविका, नागरिकता,नागरिक और मानव अधिकारों की लड़ाई को वैधता देता है। इस लड़ाई को अब क्षेत्रीय और जातीय अस्मिता से परे लोकतांत्रिक राष्ट्रीयआंदोलन में बदलने का अनिवार्य कार्यभर है और जिसका कोई विक्लप है ही नहीं। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता, भूमि सुधार, खाद्यसुरक्षा, वनाधिकार और प्रयावरण आंदोलन के अलग अलग द्वीप क्या इस महादेश के सामाजिक आर्थिक यथार्त के परिप्रेक्ष्य में इस कार्यभार के मद्देनजर एकताबद्ध होंगे, इस सवाल के जवाब में ही निहित है सार्वभौम लोकगणराज्य भारत वर्ष और उसके संविधान और उसके लोकतंत्र का भविष्य।


प्रकृति से अनवरत छेड़छाड़ का क्या नतीजा होता है,अब तक निरंतर रक्तस्नात हिमालय को ही इस दर्द का अहसास था। प्रकृति के रोष को हिमालयी जलप्रलय हिमालयी सुनामी के मध्य अभिव्यक्त हेते देखने और देशभर में इसका वास्तव स्पर्श पाने के बाद भी अगर हमारी नींद इस खुले बाजार के शोर में चाक चौबंद है,तो अदालत चाहे कुछ भी क्रांतिकारी फैसला दें, जनसमुदायों और भूगोल के अलगाव के जरिये उसे कारपोरेट हित में बदल डालने की जनविरोधी सत्ता की दक्षता प्रश्नातीत है। फिर इस अंध रात्रि की किसी सुबह की प्रतीक्षा अनर्थक है। खनिज के लिए मद्यबारत ने जितने जख्म सहे हैं,उतने ही जख्म हिमालय के सीने में भी दर्ज हैं। पांचवी  और छठींअनुसूचियां जिन इलाकों में लागू किया जाना है, उनके प्रावधान गौर करें कि सिर्फ आदिवासियों के  लिए ही नहीं बल्कि वहां के तमाम वाशिंदों के जल जंगल जमीन आजीविका के हक हकूक की गारंटी है। इसलिए यह लड़ाई सिर्फ आदिवासियों की है,समझकर हम आत्मघाती विकासगाथा में बायोमेट्रिक नागरिकता और खुले बाजार के उपभोक्ता बाहैसियत जस्न ही मना सकते हैं। वे तो मारे जाने के लिए चांदमारी चयनित हैं, पर इस चांदमारी के दायरे से बाहर नहीं है हम भी। उनके विरुद्ध जो युद्ध है,वह लड़ा जा रहा है हमारे विरुद्ध भी।


भारत में अनुसूचितों के हक हकूक और सर्वहारा केअधिनायकत्व व वर्गसंघर्ष के पैरोकार वामपंथी अदालती अति सक्रियता के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर हैं। तमाम जनविरोधी कानून और आर्थिक सुधारों पर उनकी भी मुहर लगी है। तो आप किससे क्या उम्मीद कर सकते हैं?


गांधीवादी तो प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हैं और उन्हींकी बदौलत यह अश्वमेध आयोजन। हमारे गांधीवादी मित्र संघियों के खिलाफ तोप दागकर अपना पाप स्खलन नहीं कर सकते। आजादी के बाद सत्ताहस्तांतरण से लाभान्वित गांधीवादी ही सबसे ज्यादा हुए, उन्होंने ही वैचारिक शुद्धता के नारे लगाते हुए सामाजिक विषमता और अन्याय के सारे दरवाजे खोल दिये।दमन और उत्पीड़न का इतिहास उन्हींका है। सामंती साम्राज्यवादी व्यवस्थी उन्होंने ही तैयार की है और भारत को खुले बाजार में तब्दील करने का श्रेय भी गांधी के ही अनुयायियों को है।शंगी तो बहती गंगा में हाथ धोने लगे हैं। हिंदुत्व के पुनरुत्थान में सबसे बड़डा हाथ संघियों का नहीं, गांधीवादियों का है।संघपरिवार की चुनावी जीत के बाद कोई नीतियों की निरंतरता,अबाध पूंजी प्रवाह,कालेधन का साम्राज्य, अस्पृश्यता और नस्कली ,भौगोलिक भेदभाव और बहिष्कार पर आधारित अर्थव्यवस्था बदल नहीं जायेगी।


वामपंथी,गांधीवादी और संघपरिवार तीनों वैचारिक समूह आदिवासियों के घनघोर हितैषी होने के दावेदार हैं। बाकी विचारधाराएं तो क्षेत्रीय और जातीय अस्मिताओं और समीकरणों में तब्दील हैं।


अब हम लोकतंत्र और संविधान की बहाली की उम्मीद किससे करें?


क्या कारपोरेट नीति निर्देशकों का वर्चस्व रातोंरात खत्म होगा?


क्या देश बेचने दुनिया घूमने वाले वित्तप्रबंधकों की यात्राओं का अनंत सिलसिला रुकेगा?


क्या विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के शिकंजे से मुक्त होगा देश?


क्या पूंजीनिवेशकों की आस्था पर हावी होगी जनआस्था और प्रासंगिक होंगे जनादेश?


क्या अमेरिकी हितों और डालर वर्चस्व से मुक्त होगी अर्थ व्यवस्था?


इन सभी और ऐसे ही तमाम अप्रिय प्रश्नों का जवाब है, नही!,कभी नहीं!


जेल परिंदों और दागियों के बचाव में जैसे लामबंद है राजनीति तो कारपोरेट चंदों पर दुकान चलाने वालों की औकात क्या है कारपोरेट हितों के विरुद्ध अदालती इस निर्देश के खिलाफ उनकी जंग शुरु न हो, समूचे भारतीय रक्षा तंत्र को ही जनसंहार संस्कृति में निष्णात कर दिया गया है।


भारतीय संविधान के मुताबिक संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों को लागू किये बिना पूना समझौते के आधार पर अनुसूचित क्षेत्रों में संसद, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों का निर्वाचन अवैध हैं। सत्ता वर्ग द्वारा मनोनीत जनप्रतिनिधि बहुजन समाज के प्रतिनिधि हैं ही नहीं। पुनः, ऐसे विधायकों और सांसदों के मतदान से संविधान संशोधन या कानूनों में संशोधन, नीति निर्धारण भी पूर्णतः अवैध है। वित्तीय कानून बदलकर जो जनविरोधी नीतियों के तहत आर्थिक सुधार लागू किये जा रहे हैं, वे संविधान की धारा ३९ बी और सी, जिसके तहत संपत्ति और संसाधनों पर जनता के हक हकूक तय हैं, संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों, नागरिक और मानवाधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। बहुजन समाज के झंडेबरदारों को इस अन्याय के खिलाफ अब मुखर होना ही चाहिए। पांचवीं और छठी अनुसूचियों के तहत आनेवाले इलाकों में आदिवासी ही नहीं, गैर आदिवासियं को भी संवादानिक रक्षाकवच मिला हुआ है। वहां भूमि और संसाधनों, जिसमें जल, जंगल, पर्यावरण, खनिज इत्यादि प्राकृतिक संपदाओं के स्वामित्व का हस्तांतरणसंभव नहीं है। राष्ट्रहित के विपरीत अबाध पूंजी प्रवाह के बहाने कालेधन की व्यवस्था, देशी और विदेशी पूंजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले भूमि, संसाधन और प्राकृतिक संपदा का हस्तांतरण न सिर्फ असंवैधानिक है, यह सरासर राष्ट्रद्रोह है। इसी नजर से देखें तो कोयला ब्लाकों का ब्ंटवारा सिर्फ घोयाला नहीं है, यह राष्ट्रद्रोह का मामला है। इसी तरह विकास परियोजनाओं के बहाने, परमाणु संयंत्रों और बड़े बांधों, सेज, इंडस्ट्रीयल कारीडोर, इंफ्रास्ट्रक्चर के बहाने अनसूचितों का विस्थापन देशद्रोह का मामला है।संविधान के मौलिक अधिकारों को स्थगित करके नस्ली भेदभाव के तहत आदिवासी इलाकों, हिमालय और पूर्वोत्तर में दमनात्मक उत्पीड़नमूलक सैन्य कानून और व्यवस्था लागू करना जितना असंवैधानिक है, उतना ही असंवैधानिक है नागरिकता कानून में संशोधन के जरिये शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों को देशनिकाला, नागरिक संप्रभुता और गोपनीयता का उल्लंघन करते हुए बायोमेट्रिक आधार कार्ड योजना, जिसके बहाने नागरिकों को आवश्यक सेवाओं, वेतन और मजदूरी के भुगतान पर भी रोक लगायी जा रही है।पर्यावरण संरक्षण प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के स्वामित्व और उनके जनप्रबंधन को स्थापित करता है। पर पर्यावरण कानून की धज्जियां उड़ाकर विकास परियोजनाओं के जरिये विदेशी निवेशकों की आस्था अर्जित करके कालाधन की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की परंपरा बन गयी है। इसीतरह समुद्रतट सुरक्षा कानून अतरराष्ट्रीय कानून है, जिसके तहत बायोसाइकिल में परिवर्तन या समुद्रतटवर्ती इलाकों के लैंडस्कैप से छेड़छाड़ गैरकानूनी है। इसीतरह वनाधिकार कानून लागू ही नहीं हो रहा है। खनन अधिनियमम और भूमि अधिग्रहण कानून में कारपोरेट हित मे संशोधन देशद्रोह ही तो है। सार्वजनिक बुनियादी सेवाओं का कारपोरेटीकरण, निजीकरण, विनिवेश और ग्वलोबीकरण न सिर्प धारा ३९ बी और सी काउल्लंगन है, बल्कि यह राष्ट्रहित के साथ विश्वास घात है। विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार ससंस्थान के मुक्त बाजारी दिशानिर्देशों के मुताबिक अनिर्कवाचित असंवैधानिक तत्वों द्वारा उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन भी नस्ली वंश वर्चस्व के हितों के मुताबिक देशद्रोह है, इस पूरे कारोबार में जितने घोटाले हुए, वे सरासर राष्ट्रद्रोह के मामले हैं।


इससे पहले वेदांता समूह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भारतीय आदिवासी समाज के संविधान बचाओ आंदोलन का औचित्य साबित हुआ है। गौरतलब है कि  13 अक्टूबर 2012 से वेदान्त की  लाँजीगढ़-स्थित रिफाइनरी बंद पड़ी है, यह आंदोलन के दबाव में ही हो पाया है। नियमगिरी का जुझारू जन-आंदोलन अब निर्णायक स्थिति में पहुँच गया है।इसे अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बाकी देसका समर्थन चाहिए।कालाहाण्डी जिले का लाँजीगढ़ ब्लाक भारतीय संविधान के तहत विशेष संरक्षण प्राप्त अनुसूचित क्षेत्रों में आता है। इसी स्थान पर वेदांता कंपनी ने अपना अलमुनाई प्लांट लगा रखा है और इसी क्षेत्र में स्थित नियामगिरि पहाड़ के बेशकीमती बाक्साइट पर उसकी ललचाई निगाहें लगी हुई हैं। स्थानीय ग्रामवासी, आदिवासी अपनी जमीन, जंगल, नदी, झरने  पहाड़ बचाने की लड़ाई लगातार लड़ते आ रहे हैं। संवैधीनिक प्रावधानों के मुताबिक अनुसूचित इलाके में सिर्प आदिवासी ही नही गैर आदिवासियों की जमीन का हस्तांतरण भी अवैध है।जाहिर है कि इसी बाधा को काटने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम लाया गया और प्रावधान किया गया कि सेज इलाके स्वायत्त होंगे और वहां भारतीय कानून लागू नहीं होगा। इसीतरह वनाधितकार कानून, समुद्रतट सुरक्षा कानून, पर्यावरण कानून और स्थानीय निकायों के हक हकूक की धज्जियां उड़ाकर औदोगीकरण की विकासगाथा रचित की गयी है। औपचारिक जन सुनवाई भी नहीं होती। चूंकि ज्यादातर आदिवासी गांव राजस्व गांव बतौर पंजीकृत नहीं है |


उस फैसले का क्या हश्र हुआ?


वेदांत मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से प्राकृतिक संसाधनों पर आम जनता के संवैधानिक हक हकूक के दावे को न्यायिक मान्यता मिल गयी है। सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा के रायगढ़ और कालाहांडी जिलों में ग्राम सभाओं से मंजूरी मिलने तक नियामगिरि   पहाड़ियों में वेदांत समूह की बाक्साइट खनन परियोजना पर रोक लगा दी है । न्यायमूर्ति आफताब आलम, न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की खंडपीठ ने इन दो जिलों की ग्राम सभाओं को भी इलाके में रहने वाले आदिवासियों सहित इस खनन परियोजना से जुड़े तमाम मसलों पर तीन महीने के भीतर फैसला करने का निर्देश दिया है। अदालत ने पर्यावरण व वन मंत्रालय को निर्देश दिया कि ग्राम सभाओं से रिपोर्ट मिलने के बाद ही दो महीने के भीतर इस मामले में कार्रवाई की जाए।मालूम हो कि लांजीगढ़ में ही नियमगिरी पहाडिय़ों पर बाक्साइट का पर्याप्त भंडार है। पर्यावरण कारणों से इस भंडार को वेदांत को नहीं दिया गया था। कालाहांडी जिला जागरुक मंच ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने लसे पहले ऐलान कर दिया था  कि वेदांत को नियमगिरी पहाड़ नहीं लेने देंगे। इस पहाड़ को वहां रहने वाले आदिवासी भगवानकी तरह पूजते हैं। यदि यह वेदांत को दिया गया तो इसक तीव्र विरोध होगा।खास बात तो यह है कि भारत में हिंदू साम्राज्यवाद व कारपोरेट राज के विरुद्ध  सरना धर्म कोड लागू करने की मांग पर एकजुट समूचा आदिवासी समाज जल जंगल जमीन और नागरिकता पर अपने संवैधानिक हक हकूक की बहाली के लिए संविधान बचाओ आंदोलन चला रहै हैं। जाहिर है कि वेदांता के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन में अब लांजीगढ़ वाले लोग अकेले नहीं है। इस लोकतांत्रिक लड़ाई को अगर बहुजन समाज और देशकी तमाम धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और देशभक्त ताकतों का समर्तन हासिल हो जाये, तो सुधारों के जनविरोधी अश्वमेध अभियान के बेलगाम घोड़ों को दो दशक के बाद पहली बार थामने का ्वसर पैदा होगा। हमें कतई यह अवसर चूकना नहीं चाहिए|


राष्ट्र का यथार्थ लेकिन कुछ और ही बयान कर रहा है।


अब कारपोरेट हित के मुताबिक राजकाज चला रहे राष्ट्रद्रोही असंवैधानिक लोग आर्थिक सुधार, विकास गाथा , वित्तीय घाटा और निवेशकों की आस्था के बहाने लंबित परियोजनाओंको चालू करने की जो जुगत में है, उसके प्रतिरोध में भारतीय जन गण को एकताबद्ध हो ही जाना चाहिए।दरअसल, जब तक आवेदक कंपनी को ही अपनी परियोजना के पर्यावरणीय असर के बारे में रिपोर्ट देने को कहा जाता रहेगा, गलत आकलन का सिलसिला बंद नहीं हो सकता। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय को इसी बात के लिए फटकार लगाई थी कि उसने एक आवेदक कंपनी को ही पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करने की छूट क्यों दे दी। गुजरात के भावनगर में निरमा कंपनी के प्रस्तावित बिजली और सीमेंट संयंत्रों का वहां की पारिस्थितिकी पर क्या असर होगा, इसकी रिपोर्ट खुद कंपनी ने मंत्रालय की रजामंदी से तैयार की थी, जबकि यह काम मंत्रालय को या स्वतंत्र विशेषज्ञों की किसी समिति को करना चाहिए था। यह मामला ठीक वैसे है कि जैसे कोलगेट भ्रष्टाचार मामले में खुद प्रधानमंत्री फंसे हैंलेकिन सीबीआई ने रपट पीएमओ और कोल इंडिया के अफसरों को दिखाकर बनायी।सीबीआई के जल्द ही कोयला खदानों के आवंटन में कथित अनियमितता के संबंध में नया मामला दर्ज करने की संभावना है।लेकिन फिर वही पद्धति दोहरायी जानी है। भारत में  बायोमेट्रिक आधारकार्ड योजना कारपोरेट सिपाहसालार नंदन निलेकणि के मातहत गैरकानूनी ढंग से चालू है। कारपोरेट का एजंडा है आदिवासियों और शरणार्थियों की बेदखली के जरिये प्राकृतिक संसाधनो की अबाध लूट खसोट तो ऐसे में नागरिकता बताने और आधार पहचान बनाने का जिम्मा कारपोरेट हाथों में हो तो इनमूलनिवासियों को बेदखली से कैसे बचाया जा सकता है। जिन साठ करोड़ लोगों को आदार कार्ड नदे पाने की बात निलकणि कर रहे हैं, उनमें से निनाब्वे फीसद आदिवासी , शरणार्थी  और शहरी गंदी बस्तियों में रने वाले लोग है, जिनकी बेदखली बिल्डर प्रोमोटर माफिया कारपोरेट राज की स्रवोच्च प्राथमिकता है।


मालूम हो कि भूगर्भीय ऐश्वर्य सिर्फ हिमालय या मध्य भारत या सिर्फ आदिवासी इलाकों तक सीमाबद्ध नहीं है।तेल और ऊर्जा की खोज विकास के हर पायदान पर और ज्यादा तेजी से चलेगी। इसी के मद्देनजर तमाम कानून बदले जा रहे हैं। जनसमुदायों को पालतू बनाने की तमाम तरकीबें मस्तिष्क नियंत्रण प्रणाली के तहतआजमायी जा रही है।डिजिटल मनोरंजन और मिथ्या अभियान सर्वस्व मीडिया से लेकर कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व, सामाजिक योजनाओं का घटाटोप का यही शाश्वत वृतांत है।


मध्य भारत और हिमालय की नियति बाकी देश के दरवाजों और खिड़कियों पर दस्तक देने लगी है। कार्निवाल और कैसिनो में तब्दील समाज लेकिन मूक और वधिर है। मसलन उत्तर प्रदेश में खोज के नतीजे के तौर पर आठ हजार करोड़ रुपये से अधिक के खनिज भंडार मिलने के संकेत मिले हैं। इनमें सोना जैसी कीमती धातु के अलावा सिलिमेनाइट, क्वार्ट्ज, पोटाश, चाइना क्ले और एस्बेस्टस शामिल है।सोमवार को मीडिया को यह जानकारी भूतत्व एवं खनिकर्म मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति ने दी। उन्होंने बताया कि सोनभद्र में 25 किलोग्राम सोने के भंडार मिला है जिसकी अनुमानित कीमत 7.5 करोड़ रुपये है। वहीं ललितपुर में एक ब्लॉक का पता चला है जिसमें 200 करोड़ रुपये मूल्य का सोने मिलने का अनुमान है। इस संबंध में अंतिम रिपोर्ट छह महीने में प्रस्तुत कर दी जाएगी। सोनभद्र में ही 9.8 मिलियन टन सिलिमेनाइट का भंडार मिला है जिसकी कीमत 4000 करोड़ रुपये आंकी गई है। इस संबंध में विभाग ने रिपोर्ट तैयार कर ली है। सिलिमेनाइट का इस्तेमाल रिफ्रैक्टरी ईंटों की भट्ठियों की लाइनिंग के लिए किया जाता है। चित्रकूट में ही 50 मिलियन टन पोटाश के भंडार होने का संकेत मिला है जिसका मूल्य 1500 करोड़ रुपये है। इसकी अंतिम रिपोर्ट छह महीने में प्रस्तुत की जाएगी। पोटाश का इस्तेमाल उर्वरक बनाने में किया जाता है।सोनभद्र में चाइना क्ले के 16.5 मिलियन टन भंडार का पता चला है जिसकी कीमत 214 करोड़ रुपये है। इसकी अंतिम रिपोर्ट दो महीने में प्रस्तुत कर दी जाएगी। झांसी, ललितपुर और महोबा में क्वार्ट्ज के कुल 67 मिलियन टन के भंडारों का पता चला है। झांसी के भंडार के बारे में अंतिम रिपोर्ट तैयार कर ली गई है जबकि बाकी दो के बारे में रिपोर्ट तीन से छह महीने में प्रस्तुत कर दी जाएगी। झांसी में ही एस्बेस्टस के भंडार मिलने के संकेत मिले हैं जिसकी अंतिम रिपोर्ट दस माह में प्रस्तुत कर दी जाएगी।




न्यायाधीशों ने कहा, 'हमें लगता है कि किसी भी कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो जमीन के नीचे दबी सारी खनिज संपदा पर राज्य सरकार का अधिकार है। इसके बजाय मिटटी के नीचे की सामग्री या खनिज संपदा का स्वामित्व आम तौर पर भूमि के स्वामित्व अधिकार की तर्ज पर होना चाहिए यानी भूस्वामी के पास ही होना चाहिए अगर किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत वह इससे वंचित नहीं हो गया है।' भूमिगत प्राकृतिक संसाधनों के उत्खनन पर नियंत्रण करने के विभिन्न कानूनों का जिक्र करते हुए न्यायालय ने कहा कि इन कानूनों में कहीं यह नहीं कहा गया है कि इन पर राज्य का मालिकाना हक है।


न्यायालय ने यह दलील सिरे से खारिज कर दी कि जमीन के नीचे के संसाधनों पर कोई भी भूस्वामी अपना मालिकाना अधिकार नहीं जता सकता है क्योंकि खान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1957 की धारा 425 के मुताबिक वैध परमिट, लाइसेंस या खनन पट्टï के बगैर देश में कोई भी खनन नहीं कर सकता है।


न्यायालय ने कहा कि उपरोक्त कानून किसी भी तरह से यह नहीं कहता कि खनिज संपदा पर राज्य का मालिकाना हक है। न ही कानून में ऐसा कोई प्रावधान है, जिसके तहत किसी भी खान स्वामी से उसका मालिकाना हक छीना जा सकता है। अदालत ने यह जरूर कहा कि सरकार संप्रभुता के अधिकार के तहत शुल्क या कर वसूल सकती है, लेकिन उसे मालिकाना हक नहीं बता सकती। मालिकाना हक दरअसल कई अधिकारों से मिलकर बना होता है। अगर किसी संपदा से होने वाले उत्पादन में किसी व्यक्ति की हिस्सेदारी भर है तो उस संपदा पर उस व्यक्ति का मालिकाना अधिकार कभी नहीं कहाजा सकता।


हालांकि न्यायालय ने सरकार को भूस्वामी द्वारा रॉयल्टी के भुगतान की देनदारी के मसले पर विचार करने से इनकार कर दिया क्योंकि इसका फैसला बड़ा पीठ करेगा। अदालत ने कहा, 'हम यह स्पष्टï करना चाहते हैं कि भूस्वामियों द्वारा सरकार को रॉयल्टी भुगतान की देनदारी के बारे में हम कोई निर्णय नहीं कर रहे हैं क्योंकि इस मसले को बड़े पीठ के पास भेजा गया है।'





केंद्रीय ग्रामीण उन्नयन मंत्री जयराम रमेश ने माओवाद प्रभावित आदिवासी इलाका सारंडा इलाके में अगले दस साल के लिए माइनिंग बंद करने कासुझाव दिया है तो केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री किशोरचंद्र देव ने खुलकर कहा है कि सलवा जुड़ुम में हुए आदिवासियों पर निरंकुश अत्याचारों की वजह से ही माओवाद का प्रचार प्रसार हुआ।अभी आदिवीसी माता सोनी सोरी जेल में हैं, उनके खिलाफ जारी फर्जी मुकदमों के फर्जी साबित हो जाने के बाद भी। जेल में उन पर जुल्म ढानेवाले पुलिस अफसर को राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया जा चुका है। जबकि अभी मानवाधिकार संगढनों की ओर से जारी रपट के मुताबिक सलवा जुड़ुम के दौरान आदिवासी महुलाओं पर कम से कम निनानब्वे बलात्कार के मामले हैं, जिनमें एक मामले में भी एफआईआर दर्ज नहीं की पुलिस ने। बल्ताक्र के खिलाफ हाल में संशोधित कानून में भी सेना और पुलिस को बलात्कार के मामलों में रक्षाकवच बदस्तूर जारी है। अभी सुकमा जंगल में कांग्रेसी नेताओं पर माओवादी हमले के बाद सरकार की ओर से आदिवासी इलाकों में माओवाद के खिलाफ सघन अभियान चलाये जाने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। तमाम राज्यों, जिनमें बंगाल भी शामिल है, के आदिवासी बहुल इलाकों में माओवादी गतिविधियों की सूचना देते हुए सुकमा जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति की आशंका जतायी गयी है।लेकिन आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास अभी सुरु ही नहीं हुआ है। ज्यादातर आदिवासी इलाकों में माओवाद दमन के नाम पर सैन्य अभियान जारी हैं, जिनमे बंगाल के आदिवासी बहुल तीन जिल मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ शामिल है। वहां लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली ही नहीं हुई है और न वहा भारतीय संविधान लागू है।


दो दो महत्वपूर्ण केंद्रीय मंत्रियों ने आदिवासी अंचलों की विस्फोटक हालात के बारे में सच को ही उजागर किया है। हाल में आदिवासियों के दुमका में हुए अखिल भारतीय सरनाधर्म सम्मेलन में भी शिकायत की गयी है कि कायदे कानून को ताक पर आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट मची हुई है। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक आजादी के सात दशक हो चलने के बावजूद आदिवासियों के जल जंगल जमीन और आजीविका के हक हकूक बहाल नहीं हुए हैं।लिहाजा उन्होंने संविधान बचाओ आंदोलन शुरु कर दिया है। वे सरनाधर्म कोड भी लागू करने की मांग कर रहे हैं।उनके संविधान बचाओ आंदोलन के तहत पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के लागू न होने तक आदिलवासी इलाकों में खनन रोक देने की घोषणा हुई है।


केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इच्छा जताई है कि मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार सारंडा में किया जाए और उनका नाम रखा जाए जयराम रमेश मुंडा। झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के घोर नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र सारंडा के दीघा व मनोहरपुर में तिरंगा फहराने के बाद केंद्रीय मंत्री ने यह इच्छा जताई।केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश औसतन हर तीन माह में सारंडा का दौरा करते हैं।केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश नक्सलियों की हिट लिस्ट में आ गए हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं पर हुए हमले के बाद रमेश की सुरक्षा को लेकर सीआइडी की ओर से दी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्रीय मंत्री की सुरक्षा में लापरवाही घातक हो सकती है। यात्रा के दौरान सुरक्षा बलों के साथ उनकी मोटरसाइकिल की सवारी को भी हर हाल में रोकने की हिदायत दी गई है। नक्सली हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से नेताओं की सुरक्षा के लिए राज्यों को जारी किए गए अलर्ट के 72 घंटे के अंदर सीआइडी ने अपनी रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय को दी है। लिहाजा वीवीआइपी लोगों की सुरक्षा के लिए संवेदनशील इलाकों में नए सिरे से गाइड लाइन दी जा रही है।



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