अदालतों से बंधती उम्मीदें
देशभर के 1460 सांसदों और विधायकों ने स्वीकार किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं. आपराधिक मामलों के आरोपी 162 सांसदों में से तकरीबन 76 तो ऐसे हैं जिन पर चोरी, हत्या बलात्कार और अपहरण जैसे संगीन आरोप लगे हैं...
अरविंद जयतिलक
अकसर राजनीतिक दल सार्वजनिक मंच से मुनादी पीटते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है. वे इसके खिलाफ कड़े कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की हामी भरते हैं, लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं.
दरअसल वे मान बैठे हैं कि दागियों के चुनाव जीतने की गारंटी है. जो जितना बड़ा दागी उसकी उतनी ही अधिक स्वीकार्यता की थ्योरी ने भारतीय लोकतंत्र को मजाक बनाकर रख दिया है. भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे अधिक शर्मनाक क्या हो सकता है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाला हर तीसरा सदस्य दागी है. उस पर भ्रष्टाचार, चोरी, हत्या, लूट और बलात्कार जैसे संगीन आरोप हैं.
हमारे देश में ऐसे राजनीतिज्ञों की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक रह गयी है, जिनपर अवैध तरीके से धन कमाने के आरोप नहीं हैं. पंचायत स्तर से लेकर केंद्र सरकार और विधायिक के स्तर तक लगभग प्रत्येक राजनीतिज्ञ के पास उसके ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति है. स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 वर्षों में भारत ने आर्थिक विकास के मामले में जितनी भी उपलब्धियां हासिल की हैं, वे इससे भी अधिक ऊंची हो सकती थी, बशर्ते इस देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी और दागियों को राजनीति में आने का मौका नहीं मिला होता.
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस मसले पर एक अरसे से बहस हो रही है, लेकिन अभी तक राजनीतिक दलों ने ऐसा कोई प्रभावी कानून नहीं बनाया जिससे भ्रष्टाचार से निपटा जा सके या दागियों को संसद और विधानसभाओं में पहुंचने से रोका जा सके. एक अरसे से देश में लोकपाल और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग उठ रही है. पिछले दिनों समाजसेवी अन्ना के नेतृत्व में देश सड़क पर भी उतरा, लेकिन नतीजा सिफर रहा.
राजनीतिक दलों ने लोकपाल की मांग को पलीता लगा दिया है और जनता की आवाज को कुचल दिया है. मतलब साफ है कि उनकी दिलचस्पी राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म करने या दागियों को संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से रोकने की नहीं है. एक अरसे से चुनाव आयोग भी चुनाव सुधार के लिए राजनीतिक दलों को तैयार करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हैं. किस्म-किस्म का बहाना गढ़ रहे हैं. उनके रुख को देखते हुए अब उनसे किसी तरह की सकारात्मक पहल की उम्मीद नहीं रह गयी है.
लेकिन सर्वोच्च अदालत की बढ़ती सक्रियता ने उम्मीद जरुर पैदा की है. उसने एक ऐतिहासिक फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को निरस्त कर दिया है, जिसकी आड़ में निचली अदालतों से दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को उच्च न्यायालय में याचिका लंबित होने के आधार पर अयोग्यता से संरक्षण मिल जाता था. अब इस फैसले के बाद दागी सियासतदान संसद और विधानसभाओं में बैठकर कानून नहीं बना पाएंगे. इस फैसले से आम आदमी और जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच भेदभाव करने वाला प्रावधान खत्म हो गया है.
न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि संसद को ऐसा कानून बनाने का अधिकार नहीं है. फैसले के मुताबिक अब निचली अदालत से कोई भी सांसद या विधायक आपराधिक मामलों में दोषी करार दिया जाता है तो उसकी सदस्यता निलंबित होगी. अगर कहीं किसी मामले में उसे दो साल से ज्यादा की सजा हुई, तो उसकी सदस्यता रद्द होगी. अदालत ने साफ कर दिया है कि जिस दिन सजा सुनायी जाएगी, उसी दिन से उन्हें अयोग्य मान लिया जाएगा.
इस फैसले के मुताबिक उन सांसदों और विधायकों की सदस्यता खत्म नहीं होगी जिनकी अपीलें अदालत में लंबित हैं, लेकिन जेल में बंद वे लोग जरुर चुनाव लड़ने से वंचित होंगे जो मतदान के लिए अयोग्य हैं. सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला जनमानस की भावना के अनुरूप है, इससे राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ गयी है.
हालांकि वे अभी इस फैसले विरोध नहीं कर रहे हैं, मगर जब दागियों के विकेट गिरने शुरू होंगे, तो लामबंद होने की कोशिश जरूर कर सकते हैं. ठीक वैसे ही जैसे सूचना अधिकार कानून की परिधि में आने से बचने के लिए वे लामबंद होकर अध्यादेश लाने की तैयारी कर रहे हैं. उनका यह प्रयास आत्मघाती होगा. इससे जनता में संदेश जाएगा कि वे भ्रष्टाचार को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा कहीं दागी सदस्यों के बचाव में मुखर होते हैं, तो उनकी छवि और धूमिल होगी.
यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि चुनाव लड़ने से पहले चुनाव आयोग के समक्ष दाखिल अपने हलफनामे में कुल 1460 सांसदों और विधायकों ने स्वीकार किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं. उल्लेखनीय यह भी कि आपराधिक मामले के आरोपी 162 सांसदों में तकरीबन 76 ऐसे हैं जिनपर चोरी, हत्या बलात्कार और अपहरण जैसे संगीन आरोप हैं.
राज्यवार विश्लेषण करें, तो इन आरोपी सांसदों में से एक तिहाई सांसद उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य से निर्वाचित होकर आए हैं. उत्तर प्रदेश के 31 और महाराष्ट्र के 23 सांसदों के खिलाफ अदालतों में गंभीर मामले लंबित हैं. कुछ इसी तरह के गंभीर आरोप बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश से चुनकर आए सांसदों पर भी है.
एक आंकड़े के मुताबिक 2004 के चुनाव में 128 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे, जिनकी संख्या 2009 में बढ़कर 162 हो गयी. एसोसिएशन फॅार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वाॅच (एनइडब्लू) ने 4807 वर्तमान सांसदों और विधायकों की ओर से दाखिल किए गए हलफनामों के विश्लेषण से यह उद्घाटित किया है 688 यानी 14 फीसद सांसदों ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा की है.
इसी तरह 4032 मौजूदा विधायकों में से 1258 यानी 31 फीसद ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं. एडीआर विश्लेषण से यह भी उद्घाटित हुआ है कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर निर्वाचित 82 फीसद सांसदों और विधायकों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए.
इसी तरह लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली राजद के 64, समाजवादी पार्टी के 42, भाजपा के 32 और कांग्रेस के 21 फीसद सांसदों और विधायकों ने अपने खिलाफ आापराधिक मामले कबूले हैं. आज कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है. सभी दागियों को चुनाव लड़ाने और गले लगाने को तैयार हैं, लेकिन तय है कि सर्वोच्च अदालत अपनी आंख बंद किए नहीं रह सकता.
गौरतलब है कि पिछले दिनों पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह की याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति पी सतशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने डेढ़ सौ सांसदों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मुकदमों को 'बेहद परेशान करने वाला' करार दिया. साथ ही केंद्र और सभी राज्यों को नोटिस भी थमाया. लेकिन विडंबना है कि राजनीतिक दलों द्वारा न्यायालय की भावना का सम्मान करने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया.
चंद रोज पहले चुनाव सुधार की दिशा में कदम उठाते हुए उसने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्त उपहार की लोकलुभावन घोषणाओं पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करे. भले ही यह लोकलुभावन घोषणाएं जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आती होे, लेकिन इससे निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव की प्रक्रिया प्रभावित होती है.
अदालत का मानना है कि संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराने और विभिन्न उम्मीदवारों के बीच बराबरी का मौका स्थापित करने के लिए चुनाव आयोग को आदर्श चुनाव संहिता जैसे दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए. आयोग को यह भी निर्देश दिया गया है कि वह राजनीतिक दलों को नियमित करने के लिए अलग से कानून बनाए.
अदालत के इस फैसले से राजनीतिक दलों को सांप सूंघ गया है. वे इस फैसले की मुखालफत की हिम्मत तो नहीं दिखा रहे हैं, लेकिन यह जाहिर करने से भी नहीं चूक रहे हैं कि चुनावी घोषणापत्रों में लोकलुभावन घोषणाएं करना उनका लोकतांत्रिक अधिकार है. सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई को भी सरकार के चंगुल से मुक्त करने की बात कही है.
कैग की कार्यप्रणाली पर सरकार के नुमाइंदों द्वारा उठाए गए गैरवाजिब सवालों को लेकर उन्हें लताड़ लगायी. जनहित के मसले पर भी वह अनेकों बार सरकार की कान उमेठ चुकी है. न्यायालय की यह सक्रियता लोकतंत्र को मजबूत करने की उम्मीद पैदा करती है.
अरविंद जयतिलक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.
No comments:
Post a Comment