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Friday, July 19, 2013

फर्जी मुठभेड़ तो राजनीतिक संस्कृति हो गयी है

फर्जी मुठभेड़ तो राजनीतिक संस्कृति हो गयी है


क्योंकि राजनेताओं को सजा दिलाने का कोई इतिहास नहीं है इसलिये देश में न्याय नहीं हो सकता !

राजनेताओं को सजा देने वाली व्यवस्था क्या लोकतान्त्रिक नहीं होती?

पलाश विश्वास

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

कहने को भारत लोक गणराज्य है। यानि सिद्धान्ततः हमारे देश की सत्ता इस देश के नागरिकों में निहित है। सत्ता शिखर पर बैठे लोग तो जनप्रतिनिधि या जनसेवक हैं जिन्हें संविधान की शपथ लेकर लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत काम करना होता है। लेकिन असल में भारतीय नागरिक के कोई अधिकार हैं ही नहीं। न ही उनके कोई प्रतिनिधि हैं। सत्ता के शिखरों पर बैठे लोग संविधान की हत्या जब-तब करते रहते हैं।लोकतन्त्र का कोई वजूद है ही नहीं। लोकतान्त्रिक तमाम प्रतिष्ठान ध्वस्त है। हम खुले बाजार के उपभोक्ता हैं, नागरिक नहीं। हमारी सम्प्रभुता हमारी क्रयशक्ति सापेक्ष है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि देश में आजादी के बाद से अब तक किसी शीर्ष राजनेता को अपराध प्रमाणित होने के बावजूद कभी सजा नहीं हुयी है, न हो सकती है। हमारे यहाँ मानवता के विरुद्ध तमाम अपराधों के लिये अभियुक्तों को सजा हो ही नहीं सकती। तमाम घोटालों का पर्दाफाश अखबारी सुर्खियाँ बनाने के लिये है या चुनावी मुद्दे तय करने के मकसद से है। किसी घोटाले में आज तक किसी शीर्ष नेता को सजा नहीं हुयी। आपातकाल में जिस तरह नागरिक और मानवाधिकारों का हनन हुआ, वह अभूतपूर्व है। लेकिन बाद में हम सब भूल गये। उस दौर के तमाम राजनेताओं को हमने पलक पाँवड़े पर बिठा लिया। आपातकालबाबरी विध्वँस, सिखों के नरसंहारभोपाल गैस त्रासदी, गुजरात नरसंहार से लेकर मरीचझांपी नरसंहार और मुजफ्फरनगर काण्ड के अपराधी  हमारे राष्ट्रनेता हैं।

 

इस देश में न्याय इसलिये नहीं हो सकता, क्योंकि राजनेताओं को सजा दिलाने का कोई इतिहास नहीं है। इसके विपरीत हमारे पड़ोस में बांग्लादेश के एक विशेष न्यायाधिकरण ने वर्ष 1971 में हुये मुक्ति संग्राम के दौरान मानवता के खिलाफ अपराधों को अंजाम देने के जुर्म में कट्टरपन्थी पार्टी जमात-ए-इस्लामी के एक शीर्ष नेता को मौत की सजा सुनायी। जमात के 65 वर्षीय महासचिव अली अहसन मोहम्मद मुजाहिद को अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (2) ने मौत की सजा सुनायी। इस फैसले से दो दिन पहले ही जमात- ए- इस्लामी के 91 वर्षीय प्रमुख गुलाम आजम को एक न्यायाधिकरण ने 90 साल की सजा सुनाई। यह सजा उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान ज्यादतियों का प्रमुख षड्यंत्रकारी होने के आरोप में सुनायी गटी।


सांप्रदायिक हिंसा और धर्मोन्माद वोट बैंक साधने का कला कौशल है। हिंसा और दंगा के जरिये वोटरों का ध्रुवीकरण होता है और उसी के मुताबिक मिले जनादेश से देश चलता है। इसलिये बाबरी विध्वँस, सिख नरसंहार, गुजरात नरसंहार जैसे जघन्य युद्ध अपराधों के सर्वजन विदित अपराधी राजनीति के शीर्ष पर हैं। भोपाल गैस त्रासदी के अपराधी कठघरे में खड़े ही नहीं किये गये। किसानों की आत्महत्या की जिम्मेवारी किसी पर नहीं होती। विकास के नाम बेदखली के जरिये आम जनता के विरुद्ध जो निर्मम अपराध होते हैं, उसके पीछे राजनीतिक मस्तिस्क होते हैं। अफसरों को तो भ्रष्टाचार और नागरिक व मानवाधिकार के लिये सजा मिल ही जाती है, लेकिन एक भी नजीर ऐसा नहीं है कि किसी राजनेता को कभी सजा हुयी हो।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के अभियान में जो प्रोमोटर, बिल्डर, कॉरपोरेट माफियागिरोहबन्द हैं, उनके रिमोट कंट्रोल भी राजनेताओं के पास हैं। अपराधकर्म के बाद भी कहीं कोई रपट दर्ज नहीं होती। बाहुबली सीधे जनप्रतिनिधि बनकर संसद और विधानसभाओं में बहुमत तय करते हैं और सरकारें चलाते हैं। राजनीति रंग बिरंगी अस्मिताओं के बहाने एकतरफा घृणा अभियान में तब्दील है।

बंगाल में मरीचझांपी नरसंहार 1979 में हुआ। उसके बाद 34 साल बीत चुके हैं। कही रपट दर्ज नहीं हुयी। उत्तराखंड की महिलाओं के साथ उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में जो बेशर्म सलूक हुआ, उसका फैसला अलग उत्तराखंड बनने के बाद भी नहीं हुआ। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के तहत कश्मीर और मणिपुर में दशकों से जो चल रहा है, तमाम आदिवासी इलाकों में जो हो रहा है, वह अपराध भारतीय न्याय प्रणाली और लोकतान्त्रिक व्यवस्था के दायरे से बाहर है।

फर्जी मुठभेड़ तो राजनीतिक संस्कृति हो गयी है। बंगाल ने सत्तर के दशक में तो पंजाब ने अस्सी के दशक में इसका व्यापक इस्तेमाल देखा। इशरत जहां का मामला कोई अनोखा मामला नहीं है। उत्तरप्रदेश में ऐसे सैकड़ों मामले हैं, जिसकी जनसुनवाई मानवाधिकार जननिगरानी समिति के तत्वावधान में जस्टिस सच्चर के नेतृत्व में हुयी और वह रपट भी आ चुकी है। पुलिस हिरासत और जेल में जो होता है, उसके लिये ताजा उदाहरण सोनी सोरी हैं। गुजरात, मुंबई, कश्मीर, मणिपुर से लेकर तमिलनाडु तक सर्वव्यापी राजनीतिक भूगोल है फर्जी मुठभेड़ों का, जिसकी सीधे तौर पर राजनीतिक वजहें हैं और राजनेताओं के इशारे पर ही इन काण्डों को अंजाम दिया जाता है।

ऐसे में चीन के किसी मंत्री को भ्रष्टाचार के अपराध में फाँसी की सजा सुनकर हम यही निष्कर्ष निकालते रहेंगे कि चीन में लोकतन्त्र नहीं है, वहाँ वैसा हो ही सकता है। दुनिया भर की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में राजनेता कटघरे में खड़े होते हैं और उन्हें मृत्युदण्ड तक की सजा होती है। हमारे हिसाब से तो वे देश लोकतान्त्रिक नहीं हैं।

अब बांग्लादेश में रजाकर वाहिनी के सरगना बनकर मुक्ति युद्ध के दौरान अमानवीय युद्ध अपराध करने वाले जमायते इस्लाम के शीर्ष नेता, जो विपक्षी गठबंधन के नेता भी रहे हैं, उनको अदालती सजा के बारे में हमारा आकलन इसके सिवाय क्या हो सकता है कि वह तो सत्ता संघर्ष है! यानी सत्ता प्रतिष्ठान के अंग बनने के बाद किसी को सजा देना ही लोकतन्त्र विरुद्ध है।


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