बच्चों की लाशों पर राजनीति
संजय शर्मा
यह बीते पखवाड़े की सबसे दर्दनाक खबर थी। बिहार में नन्हे-मुन्ने बच्चे बड़ी आशा के साथ स्कूल गये थे। उन्हें नही पता था कि उनको स्वस्थ बनाये रखने के लिये दिये जाने वाला भोजन ही उनका मृत्यु का कारण बनेगा। बाईस बच्चों की मौत के बाद बेशर्म राजनेता इस पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ऐसी घटना देश भर में कहीं न घटे, इसके भी कोई व्यापक प्रबन्ध नहीं किये गये हैं। बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिये बनायी गयी सबसे महत्वाकाँक्षी योजना भी दम तोड़ती नजर आ रही है।
मिड-डे-मील नाम से शुरू हुयी इस योजना का मकसद बहुत बेहतर था। सरकार की मंशा थी कि जो बच्चे स्कूल जाते हैं उन्हें दोपहर में ही स्कूल में खाना दिया जाये। इससे बच्चों का मन विद्यालय में लगेगा और उन्हें पौष्टिक भोजन भी मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय तक ने इस योजना को लागू करने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये। न्यायालय के दखल के बाद योजना तय समय पर शुरू तो हो गयी मगर शुरुआती दौर में ही इस योजना में जिस तरह की मनमानी शुरू हुयी उसने योजना के भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया।
योजना की जिम्मेदारी का काम स्कूल के प्रधानाध्यापक को सौंपा गया। ग्राम प्रधान की भी इसमें सक्रिय भूमिका रखी गयी। इस योजना में दिये जाने वाले पैसे के उचित रख-रखाव के लिये ग्राम प्रधान तथा विद्यालय के प्रधानाध्यापक के संयुक्त हस्ताक्षरों वाले खाते खोले गये। इसका सीधा मकसद यह था कि इस योजना में जो भी पैसा खर्च हो ग्राम प्रधान और प्रधानाध्यापक उसके लिये सामूहिक रूप से जिम्मेदार हों।
इसके अलावा यह भी तय किया गया कि खाने के प्रयोग में लाया जाने वाला गेहूँ और चावल की गाँव के कोटेदार आपूर्ति करेंगे तथा घी और मसाले जैसी चीजें ग्राम प्रधान और प्रधानाध्यापक के संयुक्त हस्ताक्षर से पैसा निकाल कर मँगवा ली जायेंगी। व्यवस्था योजना को पूरी तरह पारदर्शी और बेहतर बनाने की थी। मगर जब तक लोगों की मानसिकता में ही बदलाव ना हो तो कितनी भी पारदर्शी व्यवस्था क्यों न हो अंततः तार-तार हो ही जाती है। मिड-डे-मील योजना का भी यही हश्र हुआ।
ग्राम प्रधानों और प्रधानाध्यापकों ने साथ मिलकर इस महत्वाकाँक्षी योजना को भी पलीता लगाना शुरू कर दिया। पचास फीसदी से भी अधिक स्थानों पर इन लोगों की जुगलबंदी की खबरें आम हो गयी और इन नाकारा लोगों ने बच्चों को दिये जाने वाले खाने में भी कमीशनखोरी शुरू कर दी। बच्चों के खाने का पैसा प्रधानाध्यापक और प्रधान के पास जाने लगा परिणामस्वरूप स्कूलों से खाना गायब होने लगा।
गाँव के कोटेदारों की हालत किसी से छिपी नहीं है। गाँव वाले तरसते रहते हैं और राशन कब आकर कब खत्म हो जाता है यह किसी को पता नहीं होता। अधिकाँश ग्राम सभाओं में कोटेदार ग्राम प्रधान का ही कोई न कोई सगा सम्बंधी ही होता है। लिहाजा पैसों के इस बँटवारे में कोई खास समस्या भी नहीं आती और बेईमानी का यह धंधा बिना किसी रूकावट चलता रहता है।
स्कूलों में खाना सही तरीके से बँट रहा है या नहीं इसके जिम्मेदारी शिक्षा विभाग के अफसरों के अलावा उपजिलाधिकारी की भी होती है। मगर जब पूरे कुएं में ही भाँग घुली हुयी हो तो व्यवस्था में सुधार की आशा कैसे की जाये। गाँव का कोटेदार सबसे रसूख वाला आदमी होता है। वह कमीशन के पैसे सप्लाई इंस्पेक्टर को देता है। सप्लाई इंस्पेक्टर उसके तीन हिस्से करता है। एक इलाके के माननीय विधायक जी के पास पहुँचता है, दूसरा जिले के पूर्ति अधिकारी के पास पहुँचता है और तीसरा वह स्वयं रखता है।
जिला पूर्ति अधिकारी पूरे जिले से इसी सिस्टम से आयी रकम को इकट्ठा करता है और उसके तीन हिस्से करता है पहला वह जिले के अपर जिलाधिकारी खाद्य एवं आपूर्ति को पहुँचाता है, दूसरा लिफाफा जिलाधिकारी के यहाँ पहुँचता है और तीसरा हिस्सा जिला पूर्ति अधिकारी स्वयं रखता है। कुछ जगह और कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं मगर अधिकाँश जगहों पर यही सिलसिला चलता आ रहा है। इसी का नतीजा है कि नन्हें-मुन्ने बच्चों के निवालों पर भी कुछ भ्रष्ट लोग डाका डाल रहे हैं।
अगर इस तरह के भ्रष्टाचार को समय रहते रोक दिया जाता तो यह सम्भव नहीं था किमिड-डे-मील के खाने में कुछ गड़बड़ होती और हो सकता है इसी सख्ती के चलते कुछ मासूमों की जान भी बच जाती।
इतने बड़े हादसे के बावजूद भी मात्र प्रधानाध्यापिका को निलम्बित करके मामले को राजनीतिक रूप देने की नापाक कोशिशें तेज हो गयी हैं। हर हालत में इस घटना की उच्च स्तरीय जाँच करवायी जानी चाहिये और यदि इसमें कोई साजिश सामने आती है तो फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामले की सुनवाई करके दोषियों को कड़े से कड़ा दण्ड दिया जाना चाहिये।
मासूम बच्चे किसी के भी हो सकते हैं। यदि आज इस तरह के भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगायी गयी तो यह हादसा कभी हमारी आने वाली पीढिय़ों के साथ भी गुजर सकता है। भ्रष्टाचार इस देश के लिये नासूर बन गया है। जितनी भी महत्वाकाँक्षी योजनायें तैयार कर ली जायें मगर भ्रष्टाचार के चलते यह योजनायें दम तोड़ देती हैं। परिणाम स्वरूप कभी भी लोगों को उनका हक नहीं मिल पाता।
मिड-डे-मील योजना के सफल और सुचारू संचालन के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि इसकी बड़े स्तर पर मॉनीटरिंग शुरू करायी जाये। अभी भी ग्रामीण स्तर पर कुछ अभिभावक अपने बच्चों को सिर्फ इसलिये स्कूल भेजते हैं कि वहाँ शायद उन्हें एक वक्त का खाना मिल जायेगा। स्कूल के अध्यापक भी इस बात को समझाने की ज्यादा कोशिश करते नजर नहीं आते कि खाने के बराबर जरूरी पढ़ाई भी है। अगर व्यवस्थाओं में सुधार नहीं हुआ तो अन्ततः इसके और घातक नतीजे सामने आयेंगे।
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