Deven Mewari बारिश में पहाड़
बारिश में पहाड़
बारिश के मौसम में पहाड़ जाने की बात सुन कर कुछ मित्रों ने आशंकित होकर कहा कि पहाड़ और इस मौसम में? क्या पता कर लिया है कि वहां वर्षा कितनी हो रही है? और, यह भी कि क्या इस समय वहां जाना जरूरी है?
उन्हें बताया कि हां वहां जाना जरूरी है क्योंकि भाभी मां को इस धरती से विदा हुए साल भर पूरा हो रहा है और उनके बड़े बेटे मदन मोहन ने तभी तय कर लिया था कि मां की पहली पुण्यतिथि पर उनका पहला स्मृति दिवस अपने गांव में मनाएंगे- गांव कालाआगर, जिला-नैनीताल में।
वही गांव कालाआगर जहां लगभग 58 वर्ष पहले ददा चौदह वर्षीय भाभी मां को ब्याह कर लाए थे। वहीं गांव जहां उन्होंने विवाह के बाद वधू के रूप में एक नए अनजान घर में पहली बार कदम रखा था, जहां के पानी के स्रोत के पास उन नव विवाहित वर-वधू के मुकुट रखे गए थे, और जहां से वे तांबे के कलश में अपने इस नए घर के लिए पहली बार पानी भर कर लाई थीं। वहीं गांव, जहां से उस पार दूर उनके मायके के मंदिर के बांज-देवदार के पेड़ दिखाई देते थे। और वही गांव, जहां से ठीक सामने के पहाड़ पर उस ओखलकांडा गांव के माचिस की डिबिया जैसे सफेद चमकते मकान दिखाई देते थे जहां उनके पति पढ़ाते थे। मोहन का मन था, वहीं बिरादरों, इष्ट-मित्रों के बीच मां का पहला स्मृति दिवस मनाएंगे।
संभावना थी कि स्मृति दिवस की तिथि शायद जून में पड़ेगी लेकिन पता लगा तिथि 12 जुलाई है। इस वर्ष बारिश जून मध्य से ही शुरु हो गई और उत्तराखंड के कई इलाकों में घनघोर वर्षा ने भारी तबाही भी मचा दी। जुलाई के पहले सप्ताह में भारी बारिश की भविष्यवाणी की जाती रही। नैनीताल जिले में भी भारी वर्षा का अंदेशा था। पर जो भी हो, स्मृति दिवस गांव में ही मनाना था। गांव में जैंतुवा भया (भाई) से बात हो गई। राशन-पानी और साग-सब्जियां दो दिन पहले हल्द्वानी मंडी से खरीदने की व्यवस्था कर दी गई। जैंतुवा ने बता ही दिया था, "द ददा, अगाश (आकाश) का क्या पता? चौमास के दिन हैं, झुरमुर-झुरमुर बारिश तो होती ही रहती है, बाकी कौन जाने कब बरस जाएं बादल। यह तो अगाश ही जानता है। हां, लकड़ी-ईंधन के लिए आदमी जंगल गए हुए हैं और पानी की कोई फिकर नहीं, घर के पास तक आया हुआ है पानी।"
और, हम 10 जुलाई 2013 को अल-सुबह 5.30 बजे गांव को रवाना हो गए। दिल्ली-गुड़गांव से गाजियाबाद, मुरादाबाद, रामपुर, रुद्रपुर, हल्द्वानी, भीमताल, धारी, धनाचूली, ओखलकांडा, खनस्यूं, गरगड़ी होते हुए 380 किलोमीटर दूर अपने गांव कालाआगर पहुंचे। रास्ते भर आसमान में बादल तो थे लेकिन बीच-बीच में धूप-छांव का खेल चलता रहा। गौला नदी में साफ-सुकीला जल कल-कल, छल-छल बह रहा था। चारों ओर पहाड़ों-घाटियों में कोहरा छुपन-छुपाई खेल रहा था। कभी अचानक घिर उठता और फिर देखते ही देखते गायब हो जाता। रास्ते भर जगह-जगह पानी के सोते फूट चुके थे और ऊंचे पहाड़ों से झरनों में छल-छल उछलता-कूदता पानी नीचे गधेरों (नालों) की ओर भाग रहा था। ओखलकांडा और करायल के बीच चीड़ वन में ऐसे ही एक छल-छलाते झरने पर हमने अपनी गाड़ियों को स्नान कराया। रास्ते भर कहीं मोटर रोड पर ऊपर पहाड़ की गोद से छिटक कर छोटी-बड़ी चट्टानें आ गिरी थीं, कहीं मलबा गिरा था, लेकिन, गाड़ियों के निकलने लायक जगह मिलती रही। घर पहुंचे तो शाम के 7 बज चुके थे।
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