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Wednesday, July 24, 2013

गैस की कीमत का खेल

गैस की कीमत का खेल

Wednesday, 24 July 2013 10:40

अरविंद कुमार सेन  
जनसत्ता 24 जुलाई, 2013: कृष्णा-गोदावरी (केजी) बेसिन से निकाली जा रही गैस के दामों में इजाफे के फैसले का विरोध होने के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है। हर बार की तरह इस दफा भी सरकार की ओर से इस फैसले के बाद माहौल सूंघने के दरम्यान दो-चार बयान दिए गए, ऐसा लगा कि इस जन-विरोधी फैसले को टाला जा सकता है। मगर आखिर में प्राकृतिक गैस की बढ़ी हुई कीमत को जायज करार दे दिया गया है। विचित्र है कि यूपीए सरकार को घेरने का कोई मौका न छोड़ने वाली भाजपा केजी बेसिन में खुली लूट के इस फरमान पर सोची-समझी चुप्पी साधे हुए है। 
सरकार की रजामंदी से केजी बेसिन में चल रही लूट की थाह लेने से पहले थोड़ा इसके अतीत पर नजर डालते हैं। प्राकृतिक संसाधन देश की संपदा माने जाते हैं और संरक्षक होने के नाते सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह इन संसाधनों का विकास करे। केजी बेसिन में मौजूद प्राकृतिक गैस पर भी यह बात लागू होती है। मगर यहां तीन बड़ी सरकारी गैस कंपनियों (ओएनजीसी, गेल और ओआइएल) को प्राकृतिक गैस संसाधन विकसित करने में सहयोग करने के बजाय सरकार ने एक नई नीति की घोषणा की। नई नीति नेल्प (न्यू एक्सप्लोरेशन लाइसेंसिंग पॉलिसी) के तहत प्राकृतिक गैस संसाधनों को खोजने और विकसित करने का अधिकार निजी कंपनियों को दिया गया। 
नेल्प के अनुसार सरकार के पास गैस संसाधनों को खोजने और विकसित करने के लिए जरूरी तकनीक और पैसा नहीं है। वर्ष 1999 में भारत के सबसे बड़े गैस भंडार वाले इलाके केजी बेसिन में गैस खोजने और विकसित करने का अधिकार नेल्प के जरिए रिलायंस इंडस्ट्रीज को दिया गया। वर्ष 2005 आते-आते यह साफ हो चुका था कि केजी बेसिन में प्राकृतिक गैस के अठारह से ज्यादा इलाके हैं और एक गैस क्षेत्र को विकसित करने का ठेका लेने वाली रिलायंस के लिए यह शहद के समंदर में कूदने जैसा था।
नेल्प नीति में साफतौर पर कहा गया था कि देश के प्राकृतिक गैस संसाधनों पर किसी कंपनी का एकाधिकार नहीं होने दिया जाएगा और इसे रोकने के लिए सरकार अलग-अलग गैस इलाकों को विकसित करने के लिए अलग-अलग कंपनियों को ठेका देगी। पर व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं हुआ। केजी बेसिन में एक के बाद एक प्राकृतिक गैस के भंडार मिलते गए और रिलायंस का एकाधिकार बढ़ता गया। रिलायंस के कब्जे वाले केजी बेसिन के जिस डीसिक्स इलाके में अधिकतम 40 एमएमएससीएमडी (पेट्रोलियम के बरक्स प्राकृतिक गैस को मापने की इकाई) गैस का अंदाजा लगया गया था, वहां 80 एमएमएससीएमडी गैस का उत्पादन होने लगा। 
जाहिर है, केजी बेसिन में प्राकृतिक गैस के विशाल भंडार होने की बात पुख्ता हो चुकी थी और नेल्प नीति के मुताबिक सरकार को अंतरराष्ट्रीय बोली की मार्फत कम कीमतों पर गैस का उत्पादन करने वाली कई कंपनियों को लाइसेंस देने चाहिए थे। ऐसा कुछ नहीं हुआ और कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में इसका खुलासा किया है। नतीजतन, आज रिलायंस केजी बेसिन के जितने इलाके में प्राकृतिक गैस के उत्पादन पर कब्जा किए बैठी है, उस इलाके की महज पांच फीसद जगह पर ही इस कंपनी को प्राकृतिक गैस के उत्पादन का अधिकार नेल्प बोली के जरिए दिया गया था।
केजी बेसिन हाथ में आने के बाद रिलायंस ने अगला धावा प्राकृतिक गैस की कीमतों पर बोला। केजी बेसिन में प्राकृतिक गैस का उत्पादन रफ्तार पकड़ने के बाद रिलायंस ने सरकारी बिजली कंपनी एनटीपीसी (नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन) के साथ गैस आपूर्ति का समझौता किया। वर्ष 2004 में हुए इस करार के मुताबिक रिलायंस सत्रह सालों तक एनटीपीसी को 2.34 डॉलर प्रति यूनिट की दर से एनटीपीसी को प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करने पर सहमत हुई। 
दुनिया के किसी भी देश में उस वक्त प्राकृतिक गैस रिलायंस की प्रस्तावित कीमत के हिसाब से नहीं बिक रही थी। इसलिए इस करार पर काफी सवाल उठे। मगर सरकार और रिलायंस की तरफ से कहा गया कि समझौता सत्रह साल की लागत को ध्यान में रख कर किया गया है, लिहाजा लंबे वक्त में सरकारी कंपनी एनटीपीसी फायदे में रहेगी। इस बीच केंद्र में सरकार बदल गई, ऐसी सरकार आ गई जिसने रिलांयस पर मेहरबानी दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्ष 2005 में रिलायंस ने गैस उत्पादन की बढ़ती लागतों का हवाला देते हुए सरकार के सामने केजी बेसिन में उत्पादित प्राकृतिक गैस की कीमत में इजाफा करने का प्रस्ताव रखा। साथ ही, रिलायंस ने एनटीपीसी को करार में तय की गई कीमत पर प्राकृतिक गैस देने से मना कर दिया।
वर्ष 2007 में प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले उच्चाधिकार-प्राप्त मंत्रियों के समूह (इजीओएम) ने रिलायंस की दरख्वास्त पर केजी बेसिन से उत्पादित गैस की कीमत 4.2 डॉलर प्रति यूनिट तय कर दी। रिलायंस की मनमानी गैस कीमतों के खिलाफ अदालत में मुकदमा लड़ रही एनटीपीसी की दयनीय दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है, जबकि इस कंपनी की मालिक सरकार ने खुद ही रिलायंस के लिए करार की दुगुनी गैस कीमतों पर मुहर लगा दी। 
याद रहे, 2008 तक सरकारी कंपनी ओएनजीसी महज 1.83 डॉलर प्रति यूनिट के हिसाब से प्राकृतिक गैस बेच रही रही थी। लेकिन रिलायंस को पहले दुगुनी और बाद में चार गुनी कीमतों पर गैस बेचने का अधिकार दे दिया गया। रिलायंस यह गैस अपने निजी खेत से खोद कर नहीं बल्कि इस देश की संपत्ति कृष्णा-गोदावरी घाटी से खोद कर बेच रही थी। 

लूट का यह सिलसिला थमने के बजाय बढ़ता ही गया, क्योंकि बकौल मशहूर अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन, मुनाफे की एक दिक्कत यह है कि इससे मुनाफे की हवस में और ज्यादा आग लग जाती है। मुकेश अंबानी ने थोड़े वक्त बाद बढ़ती लागत का हवाला देकर फिर से सरकार पर घेरा कसा और केजी बेसिन की प्राकृतिक गैस के लिए चौदह डॉलर प्रति यूनिट की मांग की।
योजना आयोग के उपाध्यक्ष और कॉरपोरेट दुनिया के दुलारे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने रिलायंस की इस मांग पर मुहर लगाने में देर नहीं लगाई, लेकिन इस मर्तबा एस जयपाल रेड््डी के रूप में छोटा-सा रोड़ा सामने था। मंत्रिमंडल का पुनर्गठन हुआ और रिलायंस की मांग का विरोध करने की जुर्रत करने वाले रेड््डी की पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय से विदाई हो गई। सरकार पर दबाव बनाने के लिए रिलायंस ने केजी बेसिन में गैस का उत्पादन 80 एमएमएससीएमडी रोजाना से घटा कर महज 16 एमएमएससीएमडी कर दिया और इसके लिए तकनीकी खामियों का हवाला दिया। 
सवाल उठता है कि जब केजी बेसिन में रिलायंस इतनी बड़ी तकनीकी खामियों का सामना कर रही थी तो ब्रिटेन की बीपी कंपनी ने केजी बेसिन के गैस इलाकों में 7.2 अरब डॉलर की भारी-भरकम रकम क्यों झोंक दी? अगर रिलायंस तकनीकी खामी  दस साल से भी ज्यादा समय में दूर नहीं कर पाई तो इसने केजी बेसिन की बोली में हिस्सा क्यों लिया था? आखिर सरकारी कंपनियों को किनारे लगा कर रिलायंस को केजी बेसिन का ठेका देने का मकसद ही यह था कि कंपनी अपने वित्तीय संसाधनों से बेहतर तकनीक खरीद कर गैस का उत्पादन करेगी। 
तय मात्रा में गैस का उत्पादन करने में नाकाम होने पर सरकार ने केजी बेसिन को रिलांयस से लेकर किसी दूसरी कंपनी को क्यों नहीं दिया? रिलायंस पर मेहरबान यूपीए सरकार ने निष्पक्ष होने का दिखावा करने के लिए गैस कीमतों पर रंगराजन समिति का गठन किया।
कॉरपोरेट दबदबे की हद देखिए, रंगराजन समिति ने सरकार से कहा कि केजी बेसिन में गैस की कीमत मौजूदा स्तर से दुगुनी करते हुए 8.8 डॉलर प्रति यूनिट कर दी जाए। तर्क यह कि जापान में गैस की कीमत यही है। 
रंगराजन समिति ने जापान की कीमतों को ही आधार बनाया है। मगर प्राकृतिक गैस के लिहाज से दुनिया के सबसे महंगे देश जापान के फार्मूले को ही क्यों आधार बनाया गया? अमेरिका या दूसरे सस्ती गैस कीमतों वाले बाजारों से भारत की तुलना क्यों नहीं की गई? जापान में प्राकृतिक गैस समुद्री खनन से हासिल होती है जबकि भारत में नदी घाटियों से। ऐसे में जापानी कीमतों से तुलना का पूरा फार्मूला ही असंगत हो जाता है। 
बहरहाल, तमाम विरोध के बावजूद यूपीए सरकार ने रिलायंस को 8.4 डॉलर प्रति यूनिट के हिसाब से गैस के दाम वसूलने की मंजूरी दे दी है। यह पूरी दुनिया में प्राकृतिक गैस की सबसे ऊंची कीमत है। याद रहे, इस बार सरकार ने रिलायंस की ओर से घरेलू कंपनियों से वसूल किया जाने वाला गैस का भुगतान डॉलर से जोड़ दिया है। मतलब एनटीपीसी अगर रिलायंस से गैस खरीदती है तो उसे डॉलर में भुगतान करना होगा। डॉलर के मुकाबले रुपए के कमजोर होने पर भी, रुपए में कारोबार करने वाली एनटीपीसी को डॉलर में भुगतान करते हुए ज्यादा रकम चुकानी होगी। इस तरह रिलायंस की लूट में और इजाफा होगा। 
प्राकृतिक गैस की बढ़ी हुई कीमत का खमियाजा देश के हर नागरिक को भुगतना होगा। एनटीपीसी जैसी बिजली कंपनियां गैस का इस्तेमाल करके बिजली पैदा करती हैं, लिहाजा कच्चे माल यानी गैस की कीमत बढ़ने से बिजली के दाम बढ़ जाएंगे। बिजली हरेक कंपनी की लागत का अहम हिस्सा है, इसलिए कंपनियां इस बढ़ी हुई लागत को अपने उत्पादों की कीमतें बढ़ा कर उपभोक्ताओं पर लाद देंगी। देश की अर्थव्यवस्था के एक ढहते क्षेत्र कृषि में काम आने वाले उर्वरकों की कीमतें बढ़ जाएंगी, क्योंकि उर्वरक-निर्माण में काम आने वाला प्रमुख कच्चा माल गैस है। 
पहले अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी देश को लूट रही थी, अब कुछ बड़ी कंपनियां देश के संसाधन लूट रही हैं। गुरुदास दासगुप्त ने प्राकृतिक गैस की कीमत में वृद्धि की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। विरोध में कुछ और भी छिटपुट आवाजें उठीं। लेकिन कुल मिला कर राजनीतिक वर्ग ने खामोश रहना ही ठीक समझा है। क्या इसका कारण उन्हें मिलने वाला भारी-भरकम चंदा है? 
देश की तकदीर बदल डालने का दम भरने वाले भाजपा के नरेंद्र मोदी को मुकेश अंबानी ने देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा जाहिर की है। इसलिए यूपीए सरकार पर हमला बोलने का कोई मौका न चूकने वाले मोदी प्राकृतिक गैस की कीमत के मुद््दे पर मौन धारण किए हुए हैं। महंगाई पर रस्मी चिंता और विरोध जताना हो तो कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहती, मगर महंगाई बढ़ाने वाले एक बड़े फैसले का विरोध ये पार्टियां क्यों नहीं कर रही हैं?

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