उत्तराखंड में दलित खुद कर रहे हैं पंडिताई
नई दिल्ली/हरीश लखेड़ा | अंतिम अपडेट 22 जुलाई 2013 10:55 AM IST पर
जंगलों को बचाने के लिए 'चिपको' जैसे जन आंदोलनों के जनक रहे उत्तराखंड में अब एक और नया आंदोलन सुगबुगाहट ले रहा है।
यहां बड़ी संख्या में ऐसे दलित युवक हैं, जो अब अपनी बिरादरी के शादी-ब्याह में 'पंडित' की भूमिका निभा रहे हैं। उन्हें अब पूजा-पाठ के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता नहीं रह गई है।
दलितों में यह जन चेतना लगातार बढ़ रही है। पौड़ी जिले के ब्लॉक किल्बौखाल क्षेत्र में दलित परिवारों के लगभग आधा दर्जन युवक अब 'पंडिताई' कर रहे हैं।
उन्होंने इसके लिए बाकायदा संस्कृत का अध्ययन किया है और पूजा करते समय वे धोती अथवा कुर्ता-पजामा पहनते हैं। लोहार समुदाय से जुड़े शीशपाल भी अब दलित समुदाय में पंडित जी के नाम से जाने जाते हैं।
बस फर्क यह है कि ब्राह्मण तो सनातन परंपरा से पूजा करते हैं, जबकि दलित समाज के ये युवक वैदिक रीति यानी आर्य समाजी पद्धति से पूजा करते हैं।
ये युवक ही अपने समुदाय के बच्चों के नामकरण से लेकर शादी-ब्याह, सत्यनारायण कथा से लेकर जीवन की अंतिम क्रिया तक के सभी पूजा पाठ कर रहे हैं।
शीशपाल ने अमर उजाला से कहा कि जब ब्राह्मण हमारे घरों में आकर आचमन तक नहीं लेते हैं, हमारे घरों में खाना भी नहीं खाते हैं, तो ऐसे में उन्हें बुलाने का कोई लाभ नहीं है।
किल्बौखाल क्षेत्र में दिवंगत आशाराम ने पुरानी रूढ़िवादी परंपरा को तोड़कर खुद पूजा करने की शुरुआत की थी। शीशपाल भी उन्हीं के शिष्य हैं। उनके अलावा अमित, सोनू, श्रीचंद जैसे कई दलित युवक हैं, जो पंडिताई का काम कर रहे हैं। अब यही उनका रोजगार है।
दूसरी ओर उत्तराखंड मूल के ब्राह्मण व दिल्ली के प्रसिद्ध आचार्य गोविंद बल्लभ जोशी इसे गलत परंपरा मानते हैं। उन्होंने कहा कि खान-पान को आधार बनाकर किसी समुदाय का बहिष्कार करना उचित नहीं है।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में तो दलित समुदाय ही ब्राह्मणों व क्षत्रियों की विशेष पूजा 'जागै' करता रहा है। इसमें ढोल बजाकर ब्रह्मनाद करके देवताओं को जगाया जाता है। वहां ब्राह्मण, क्षत्रिय और दलित हर मामले में एक-दूसरे के पूरक हैं।
यहां बड़ी संख्या में ऐसे दलित युवक हैं, जो अब अपनी बिरादरी के शादी-ब्याह में 'पंडित' की भूमिका निभा रहे हैं। उन्हें अब पूजा-पाठ के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता नहीं रह गई है।
दलितों में यह जन चेतना लगातार बढ़ रही है। पौड़ी जिले के ब्लॉक किल्बौखाल क्षेत्र में दलित परिवारों के लगभग आधा दर्जन युवक अब 'पंडिताई' कर रहे हैं।
उन्होंने इसके लिए बाकायदा संस्कृत का अध्ययन किया है और पूजा करते समय वे धोती अथवा कुर्ता-पजामा पहनते हैं। लोहार समुदाय से जुड़े शीशपाल भी अब दलित समुदाय में पंडित जी के नाम से जाने जाते हैं।
बस फर्क यह है कि ब्राह्मण तो सनातन परंपरा से पूजा करते हैं, जबकि दलित समाज के ये युवक वैदिक रीति यानी आर्य समाजी पद्धति से पूजा करते हैं।
ये युवक ही अपने समुदाय के बच्चों के नामकरण से लेकर शादी-ब्याह, सत्यनारायण कथा से लेकर जीवन की अंतिम क्रिया तक के सभी पूजा पाठ कर रहे हैं।
शीशपाल ने अमर उजाला से कहा कि जब ब्राह्मण हमारे घरों में आकर आचमन तक नहीं लेते हैं, हमारे घरों में खाना भी नहीं खाते हैं, तो ऐसे में उन्हें बुलाने का कोई लाभ नहीं है।
किल्बौखाल क्षेत्र में दिवंगत आशाराम ने पुरानी रूढ़िवादी परंपरा को तोड़कर खुद पूजा करने की शुरुआत की थी। शीशपाल भी उन्हीं के शिष्य हैं। उनके अलावा अमित, सोनू, श्रीचंद जैसे कई दलित युवक हैं, जो पंडिताई का काम कर रहे हैं। अब यही उनका रोजगार है।
दूसरी ओर उत्तराखंड मूल के ब्राह्मण व दिल्ली के प्रसिद्ध आचार्य गोविंद बल्लभ जोशी इसे गलत परंपरा मानते हैं। उन्होंने कहा कि खान-पान को आधार बनाकर किसी समुदाय का बहिष्कार करना उचित नहीं है।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में तो दलित समुदाय ही ब्राह्मणों व क्षत्रियों की विशेष पूजा 'जागै' करता रहा है। इसमें ढोल बजाकर ब्रह्मनाद करके देवताओं को जगाया जाता है। वहां ब्राह्मण, क्षत्रिय और दलित हर मामले में एक-दूसरे के पूरक हैं।
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