रुपये का तो भगवान ही मालिक
जो निवेशक अभी तक भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर हसरत भरी नजरों से देख रहे थे, अब उनकी प्राथमिकता में अमेरिका है. पिछले दिनों अमेरिकी निवेशकों ने कहा भी कि वे भारतीय बाजार में उतरने को सहज महसूस नहीं कर रहे हैं...
अरविंद जयतिलक
देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक अरसे से भरोसा दे रहे हैं कि सरकार अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए वह हरसंभव उपाय कर रही है, जो जरुरी है. वित्तमंत्री पी चिदंबरम भी बैंकरों और उद्योगपतियों को आश्वासन दे रहे हैं कि सरकार अटकी पड़ी सैकड़ों परियोजनाओं को चालू कर अर्थव्यवस्था को गति देगी, लेकिन इन दोनों अर्थशास्त्रियों का भरोसा और आश्वासन रसातल में समाती अर्थव्यवस्था को थामने में मददगार साबित नहीं हो रहा है.
रुपए का दम निकलता जा रहा है और वह एक डॉलर के मुकाबले इकसठ रुपए पर आ गया है. देखा जाए तो उसकी कीमत में सात फीसद की गिरावट आयी है. अब जब अमेरिकी केंद्रीय बैंक के एलान के बाद विदेशी निवेशकों द्वारा कर्ज बाजार से निवेश निकालने की होड़ मची है, ऐसे में रुपया किस घाट लगेगा भगवान ही मालिक है.
वित्तमंत्री उम्मीद जता रहे हैं कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा मौद्रिक राहत पैकेज वापस लेने में देरी से वैश्विक बाजार में डॉलर की आवक बढ़ेगी और रुपया मजबूत होगा, लेकिन यह दूर की कौड़ी है. सच्चाई यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधार पर है और उसमें निवेशकों की रुचि बढ़ती जा रही है.
उनकी प्राथमिकता अब अधिकाधिक निवेश कर सुरक्षित रिटर्न हासिल करना है. यानी जो निवेशक अभी तक भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर हसरत भरी नजरों से देख रहे थे, अब उनकी प्राथमिकता में अमेरिका है. पिछले दिनों अमेरिकी निवेशकों ने कहा भी कि वे भारतीय बाजार में उतरने को सहज महसूस नहीं कर रहे हैं.
दरअसल उनका इशारा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकार की नीतिगत अक्षमता की ओर था. हालांकि सरकार ने विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए कई तरह की रियायतों की घोषणा की है. जैसे सरकारी श्रेणी की प्रतिभूतियों में निवेश की सीमा 5 अरब डॉलर से बढ़ाकर 25 अरब डॉलर और कॉरपोरेट बांड में निवेश की सीमा 51 अरब डॉलर की है. टेलीकॉम में सौ फीसद निवेश का रास्ता साफ कर दिया है, लेकिन विदेशी निवेशकों में उत्साह न के बराबर है.
निवेश की कमी और डूबते रुपए की चिंता से निढाल पड़ी सरकार के समक्ष चालू खाते का घाटा और अनियंत्रित विदेशी कर्ज खतरनाक स्तर पर जा पहुंचा है. चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 4.8 फीसद के रिकार्ड स्तर पर आ गया है. आशंका बढ़ गयी है कि पूरे वित्त वर्ष में घाटा पांच फीसद से उपर भी जा सकता है. इसकी मुख्य वजह कच्चे तेल और सोने के आयात में लगातार हो रही वृद्धि है.
रिजर्व बैंक के मुताबिक पिछले वित्त वर्ष के कुल आयात बिल में कच्चे तेल और सोने चांदी की सबसे ज्यादा 45 फीसद हिस्सेदारी रही. इस दौरान 53.8 अरब डॉलर का सोना-चांदी और 169.4 अरब डॉलर का कच्चा तेल आयात किया गया. संभवतः इसी के कारण चालू खाते का घाटा 87.8 अरब डॉलर तक पहुंच गया.
दूसरी ओर भारत पर विदेशी कर्ज 390 अरब डॉलर हो गया है, जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना में तकरीबन 13 फीसद अधिक है. सवाल लाजिमी है कि देश बढ़ते चालू खाते का घाटा और विदेशी कर्ज से कैसे मुक्त होगा? आयात-निर्यात का संतुलन कैसे स्थापित होगा? इसके लिए सरकार के पास निर्यात को बढ़ावा देने और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के अलावा कोई ठोस विकल्प नहीं है, लेकिन यह दोनों सरकार के लिए आसान नहीं है.
सरकार निर्यात को बढ़ावा देने का लक्ष्य निर्धारित करती है, लेकिन उसे हासिल करने का उसके पास कोई रोडमैप नहीं होता है. निर्यात को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार ने अपने विदेश व्यापार नीति (2009-14) के वार्षिक अनुपूरक समीक्षा में सात सूत्री रणनीति की घोषणा की. 5 जून, 2012 को वाणिज्य और उद्योगमंत्री आनंद शर्मा ने चालू वित्त वर्ष में भारत के निर्यात को 20 फीसद वृद्धि के साथ 360 अरब डॉलर पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया, लेकिन 2011-12 में कुल 303.7 अरब डॉलर का निर्यात हुआ.
व्यापार नीति के अंतिम वर्ष यानी 2013-14 तक वार्षिक निर्यात का लक्ष्य 500 अरब डॉलर रखा गया है, लेकिन इसे हासिल करना आसान नहीं है. वजह अमेरिका और यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था में चौपट होने के कारण देश से होने वाले निर्यात में भारी गिरावट आयी है. पिछले साल निर्यात क्षेत्र नकारात्मक वृद्धि दर के करीब पहुंच गया था. देखा जाए तो अक्टूबर 2008 से ही भारत के निर्यात में संकुचन का दौर जारी है. विनिर्माण क्षेत्र हांफ रहा है. महंगाई की वजह से लोगों के उपभोग में जबर्दस्त कमी आयी है.
इंफ्रास्ट्रक्टर से जुड़े उत्पादों की मांग घटी है. होटल, परिवहन और संचार का धंधा धीमा पड़ा है. दोपहिया और चौपहिया वाहनों की बिक्री कम हुई है. आंकड़े बताते हैं कि देश में कारों की बिक्री में 12.36 फीसद की कमी आयी है. कार बाजार में गिरावट का यह सिलसिला पिछले सात माह से जारी है. आशंका प्रबल है कि विनिर्माता रोजगार में कटौती कर सकते हैं.
निर्यात में कमी की दूसरी प्रमुख वजह पड़ोसी देशों से मिल रही कड़ी चुनौती भी है. उदाहरण के तौर पर आज चीन दुनिया में सालाना विनिर्मित कुल माल का 10 से 12 फीसद अकेले उत्पादन कर रहा है. इससे भारतीय बाजार प्रभावित हो रहा है. निर्यात की जाने वाली वस्तुएं मसलन कॉफी, चाय, चीनी, चावल मांस, अभ्रक, लौह अयस्क, सूती धागे, सिले-सिलाए वस्त्र, रत्न, आभूषण इत्यादि के क्षेत्र में भी भारत को अपने पड़ोसियों से कड़ी चुनौती मिल रही है.
इससे पार पाने के लिए भारत को विनिर्माण क्षेत्र मजबूत करना होगा, किंतु दुर्भाग्य है कि इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाया नहीं जा रहा है. उदाहरण के तौर पर पिछले आधे दशक से दिल्ली-मुंबई और मुंबई-बंगलुरु औद्योगिक गलियारा बनाने का शिगूफा हवा में है. वहीं भूमि अधिग्रहण कानून ठंडे बस्ते में है. पर्यावरण संबंधी मंजूरी को लेकर 10 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाएं धूल फांक रही हैं, लेकिन इसे लेकर सरकार तनिक भी चिंतित नहीं है.
पिछले दिनों उसने चालू खाते का घाटा कम करने के लिए छोटे निर्यातकों को रियायतें देने का संकेत दिया, लेकिन इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया. सरकार इससे अच्छी तरह अवगत है कि कच्चे तेल का आयात विदेशी मुद्रा भण्डार को सोख रहा है, लेकिन वह देश को तेल उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए कोई सकारात्मक पहल नहीं कर रही है. पिछले दिनों पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री वीरप्पा मोइली यह कहते सुने गए कि तेल आयात करने वाली लाॅबी पेट्रोलियम मंत्रियों को धमकी देती है. उन्होंने यह भी कहा कि तेल आयात करने वाली लाॅबी नहीं चाहती है कि भारत में कच्चे तेल और गैस का उत्पादन बढ़े, लेकिन सवाल यह है कि सरकार उनके दबाव में क्यों है?
कहना गलत नहीं होगा कि आज अगर देश को कच्चे तेल के लिए अरबों डॉलर फूंकना पड़ रहा है और जो चालू खाते का घाटा का एक अहम कारण भी है, उसके लिए सरकार की असफल अर्थनीति ही जिम्मेदार है. यह तथ्य है कि भारत जरुरत का लगभग 80 फीसद तेल आयात करता है, लेकिन जब देश में तेल व गैस के पर्याप्त भंडार मौजूद हैं तो उसका उपयोग क्यों नहीं हो रहा है. देखना दिलचस्प होगा कि आर्थिक अनिश्चितता के इस माहौल में यूपीए सरकार रुपए की चमक वापस लाने, निवेशकों का विश्वास जीतने और महंगाई कम करने के लिए क्या पहल करती है.
अरविंद जयतिलक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.
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