आज भी मातृभाषा दिवस है पर देश को कछाड़ के भाषा शहीदों को श्रद्धांजलि देने का अवकाश कहां?
पलाश विश्वास
बिन निज भाषा-ज्ञान के मिटत न हिय को सूल॥
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने न जाने कब लिखा था। अब भारतेन्दु को पाठ्यक्रम के अलावा कितने लोग पढ़ते होंगे? उनको पढ़कर मोक्षलाभ होने की कोई संभावना तो नही है!
दरअसल देश को यह सच मालूम ही नहीं है कि आज के दिन असम के बराक उपत्यका में स्वतंत्र भातर में मातृभाषा के अधिकार के लिए एक नहीं, दो नहीं, बल्कि ग्यारह स्त्री पुरुष और बच्चों ने अपनी शहादत दी है।१९ मई को असम के बराक उपत्यका के सिलचर रेलवेस्टेशन पर असम के बंगाली अधिवासियों के मातृभाषा के अधिकार के लिए सत्याग्रह कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां बरसायीं और ग्यारह सत्याग्रही शहीद हो गये।इससे पहले १० मई को असम विधानसभा में असमिया भाषा को राजभाषा की मान्यता दी गयी। इसी संदर्भ में असम में रहने वाले बंगालियों को भी मातृभाषा के अधिकार दिये जाने की मांग पर सत्याग्रह चल रहा था। कछार में उसदिन मातृभाषा के लिए जो शहीद हो गये, उनमें सोलह साल की छात्रा कमला भट्टाचार्य,१९ वर्षीय छात्र शचींद्र पाल, काठमिस्त्री चंडीचरण और वीरेंद्र सूत्रधर,चाय की दुकान में कर्मचारी कुमुद दास,बेसरकारी नौरकी में लगे सत्ये्र देव, व्यवसायी सुकोमल पुरकायस्थ, सुनील सरकार और तरणी देवनाथ, रेल करमचारी कनाईलाल नियोगी और रिश्तेदार के यहां घूमने आये हितेश विश्वास शामिल थे।
यह राष्ट्रीय गौरव जितना है , उतना ही राष्ट्रीय लज्जा का विषय है क्योंकि आज भी इस स्वतंत्र भारतवर्ष में मातृभाषा का अधिकार बहुसंख्य जनता को नहीं मिला है।अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी को मनाया जाता है। 17 नवंबर, 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले।यूनेस्को द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन 1952 से मनाया जाता रहा है। बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है। 2008 को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्व को फिर महत्त्व दिया था।
अब हमें इसकी खबर भी नहीं होती कि मातृभाषा की ठोस जमीन पर बांग्लादेश में मुक्तियुद्ध की चेतना से प्रेरित शहबाग पीढ़ी किस तरह से वहां मुख्य विपक्षी दल खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बीएनपी, हिफाजते इस्लाम और पाकिस्तान समर्थक इस्लामी धर्मोन्मादी तत्वों के राष्ट्रव्यापी तांडव का मुकाबला करते हुए मातृभाषा का झंडा उठाये हुए लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ रहे हैं! किस तरह बांग्लादेश में अब भी रह गये एक करोड़ से ज्यादा अल्पसंख्यक हिंदुओं पर धर्मोन्माद का कहर बरपा है!सीमावर्ती असम , त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, बंगाल और बिहार की राज्य सरकारों और भारत सरकार को होश नहीं है। जबकि वहां हालात दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे हैं। आये दिन जमायत और हिफाजत समर्थक ढाका समेत पूरे बांग्लादेश को तहस नहस कर रहे हैं।कल ही नये तांडव के लिए इस्लामी कानून लागू करने के लिए बेगम खालिदा जिया ने हसीना सरकार को ४८ घंटे का अल्टीमेटम दिया है।इस पर तुर्रा यह कि बंगाल की ब्राहम्णवादी वर्चस्व के साये में कम से कम बारह संगठन जमायत और हिपाजत के पक्ष में गोलबंद हो गये हैं और वे खुलेाआम मांग कर रहे हैं कि भारत सरकार हसीना की आवामी सरकार से राजनयिक व्यापारिक संबंध तोड़ लें। कोई भी राजनीतिक दल बंगाल में मजबूत अल्पसंख्यक वोट बैंक खोने के डर से बांग्लादेश की लोकतांत्रिक ताकतों के पक्ष में एक शब्द नहीं बोल रहा है। अब हालत तो यह है कि ये संगठन अगर भारत में इस्लामी कायदा लागू करने की मांग भी करें तो भी वोट समीकरण साधने के लिए राजनीति हिंदू राष्ट्र के एजंडे के भीतर ही उसका समर्थन करने को राजनीतिक दल मजबूर है। यह इसलिए संभव है कि बांग्ला संस्कृति और भाषा का स्वयंभू दावेदार बंगाल ने अपनी ओर से एतरफा तौर पर बांग्ला व्याकरण और वर्तनी में सुधार तो किया है, लेकिन मातृभाषा के लिए एक बूंद खून नहीं बहाया है। बाकी भारत के लिए भी यही निर्मम सत्य है, भाषा आधारित राज्य के लिए उग्र आंदोलन के इतिहास में मातृभाषा प्रेम के बजाययहां राजनीतिक जोड़ तोड़ ही हावी रही है।
असम के बराक उपत्यका में मातृभाषा के अधिकार दिये जाने की मांग एक लोकतांत्रिक व संवैधानिक मांग थी , पर उग्रतम क्षेत्रीय अस्मिता ने इससे गोलियों की बरसात के जरिये ही निपटाना चाहा। उसी उग्रतम क्षेत्रीयता का उन्माद धर्मोन्माद में तब्दील करके आज भी समूचे पूर्वोत्तर और सारे भारत को लहूलुहान कर रहा है। जहां अल्पसंक्योकों को मातऋभाषा का अधिकार देने की कोई गुंजाइस नहीं है। उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्प्रयदेश, महाराष्ट्र, राजधानी नई दिल्ली जैसे अनेक राज्यों में आज भी बांग्लाभाषियों को मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार नहीं है, जिसके लिए वे निरंतर लड़ रहे हैं। असम और कर्नाटक में उन्होंने यह हक लड़कर हासिल किया तो बिहार, झारखंड और उड़ीसा में सामयिक व्यवधान के बावजूद यह अधिकार शुरु से मिला हुआ है। उतत्राखंड और महाराष्ट्र में पहले बंगालियों को मातृभाषा का अधिकार था जो अब निलंबित है।
दरअसल साठ के दशक में नैनीताल में मातऋभाषा के अधिकार के लिए शरणार्थी उपनिवेश दिनेशपुर में जबर्दस्त आंदोलन भी हुआ। दिनेशपुर हाई स्कूल में १९७० में में आंदोलन के दौरान मैं कक्षा आठ का छात्र था और आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। इस स्कूल में कक्षा आठ तक बांग्ला में पढ़ाई तो होती थी पर प्रश्नपत्र देवनागरी लिपपि में दिये जा रहे थे। हम बांग्ला लिपि में प्रश्न पत्र की मांग कर रहे थे। स्कूल जिला परिषद की ओर से संचालित था और जिला परिषद के अध्यक्ष थे श्यामलाल वर्मा, जो पिताजी पुलिन बाबू के अभिन्न मित्र थे। हमने हड़ताल कर दी और जुलूस का नेतृत्व भी मैं ही कर रहा था। पिताजी स्कूल के मुख्य प्रबंधकों में थे। उन्होंने सरेआम मेरे गाल पर इस अपराध के लिए तमाचा जड़ दिया। वे हड़ताल के खिलाफ थे। मातृभाषा के नहीं।संघर्ष लंबा चला तो पिताजी ने मुझे त्याज्यपुत्र घोषित कर दिया। बाद में हमारे साथ के तीन सीनियर छात्रों को विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। उस डांवांडोल में मेरी मित्र रसगुल्ला फेल हो गयी। मेरा मन विद्रोही हो गया। मैं आठवीं की बोर्ड परीक्षा पास तो हो गया , लेकिन अगले साल नौवीं की परीक्षा जानबूझकर फेल करने की मैंने कोशिश भी की ताकि पढ़ाई छोड़कर मैं पिताजी को सजा दिला सकूं। पर मैं फेल भी न हो सका। मेरे तेवर को देखते हुए पिताजी ने मुझे करी ब ३६ मील दूर जंगल से घिरे शक्तिफारम भेज दिया ताकि नक्सलियों से मेरा संपर्क टूट जाये। उसका जो हुआ सो हुआ रसगुल्ला हमसे हमेशा के लिए बिछुड़ गयी। जिसका आज तक अता पता नहीं है। उससे फिर कभी मुलाकात नहीं हुई। किशोरवय का वह दुःख मातृभाषा प्रसंग सो ओतप्रोत जुड़ा हुआ है। आज रसगुल्ला जीवित है कि मृत, मुझे यह भी नहीं मालूम।इसे लेकर पिताजी से मेरे मतभेद आजीवन बने रहे। पर हम भी कछाड़ के बलिदान के बारे में तब अनजान थे बाकी देशवासियों की तरह।
आज भी सरकारी कामकाज की भाषा विदेशी है। महज उपभोक्ताओं को ललचाने के लिए हिंग्लिश बांग्लिश महाइंग्लिश जैसा काकटेल चालू है। आज भी अछ्छी नौकरी और ऊंचे पदों के लिए, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिए अनिवार्य है अंग्रेजी का ज्ञान। आज भी भारतीय भाषाएं और बोलियां अस्पृश्य हैं बहुसंख्य बहुजनों की तरह। समाज और राष्ट्र में एकदम हाशिये पर।भारतीय संविधान निर्माताओं की आकांक्षा थी कि स्वतंत्रता के बाद भारत का शासन अपनी भाषाओं में चले ताकि आम जनता शासन से जुड़ी रहे और समाज में एक सामंजस्य स्थापित हो और सबकी प्रगति हो सके।
सच मानें तो हमें मातृभाषा दिवस मनाने का कोई अधिकार नहीं है। बांग्लादेश में लाखों अनाम शहीदों की शहादत से न केवल स्वतंत्र बांग्लादेश का जन्म हुआ बल्कि विश्ववासियों के लिए राष्ट्रीयता की पहचान बतौर धर्म और क्षेत्रीय अस्मिता के मुकाबले सबकों एक सूत्र में पिरोने वाली धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मातृभाषा को प्रतिष्ठा मिली।
यह साबित हुआ कि उग्रतम धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद या क्षेत्रीय अस्मिता नहीं, बल्कि मातृभाषा के लिए शहीद हो जाने की दीवानगी में ही लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बीज हैं, जो इस लोक गणराज्य भारत में संवैधानिक शपथवाक्य तक ही सीमित एक उदात्त उद्गार मात्र है और कुल मिलाकर हम एक बेहद संकुचित धर्मोन्मादी नस्लवादी जमात के अलावा कुछ नहीं बन पाये! बेशकीमती आजादी का बोझ सात दशकों तक ढोते रहने के बावजूद। इसलिए, क्योंकि अपनी मां और मातृभाषा के लिए हममें वह शहादती जुनून अनुपस्थित है!
हम जांबी संस्कृति में निष्णात अतीतजीवी एक सौ बीस करोड़ भारतीय खुद जांबी में तब्दील हैं और हम एक दूसरे को काटने और उन तक वाइरस संक्रमित करने में ही जीवन यापन करके सूअर बाड़े की आस्था में नरक जी रहे हैं और हमें अपनी सड़ती गलती पिघलती देह की सड़ांध, अपने बिखराव, टूटन का कोई अहसास ही नहीं है। हम कंबंधों में तब्दील हैं और आइने में सौंदर्य प्रसाधन या योगाभ्यास के मार्फत धार्मिक कर्मकांडो के बाजारु आयोजन में अपनी प्रतिद्वंदतामूलक ईर्षापरायण खूबसूरती निखारने की कवायद में रोज मर मर कर जी रहे हैं , जबकि बाजार में तब्दील है राष्ट्र और हमारे राष्ट्रनेता देश बेच खा रहे हैं। हम जैविक क्षुधानिर्भर लोग हैं , जिनकी सांस्कृतिक पहचान धार्मिक आस्था और कर्मकांड, नरसंहार, अस्पृश्यता, खूनी संघर्ष, बहिस्कार और नस्ली भेदभाव के अलावा कुछ भी नहीं है।
इक्कीस फरवरी को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की मान्यता दी है। पर उस दिन और सरकार प्रायोजित हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में उछल कूद मचाने के अलावा हमारा मातृभाषा प्रेम सालभर में यदा कदा ही अभिव्यक्त हो पाता है। मातृभाषा से जुड़े वजूद का अहसास हमें होता ही नहीं है।
अभी पिछले दिनों कर्नाटक में पुनर्वासित बंगाली शरणार्थियों ने वहां मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार मिल जाने पर मातृभाषा विजय दिवस मनाया। यह खबर भी कहीं आयी नहीं। बंगाल में भी नहीं। भारत विभाजन के बाद देश भर में छिडक गये शरणार्थी और प्रवासी बंगालियों के लिए बंगाल के इतिहास से बहिष्कृत होने के बाद भूगोल का स्पर्श से वंचित होने के बाद मातृभाषा के जरिये अपना अस्तित्व और पहचान बनाये रखने की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुई कर्नाटक में , जहां इस उत्सव में देश भर से उन राज्यों के तमाम प्रतिनिधि हाजिर हुए, जहां उन्हें मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार नहीं है।
संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयोग होनेवाली किसी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 क संविधान में अंतःस्थापित हुआ और यह निर्दिष्ट हुआ कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास किया जाए।संविधान के अनुच्छेद 347 के अंतर्गत किये गए एक प्रावधान के अनुसार "किसी राज्य के जन समुदाय के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा उस राज्य की राजभाषा होगी।"संविधान के भाग-17 के अध्याय-3 में अनुच्छेद तथा उच्च न्यायालयों में सब कार्यवाहियों में तथा अधिनियमों, विधेयकों और आदेशों, नियमों और विनियमों आदि में प्रयुक्त होने वाली भाषा के संबंध में यह प्रावधान है कि जब तक संसद या राज्यों के विधान मंडल अन्यथा उपबंध न करें, तब तक उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की सभी कार्यवाहियों में तथा केंद्र और राज्यों के अधिनियमों, विधेयकों, अध्यादेशों, नियमों तथा विनियमों आदि के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में ही होंगे।अनुच्छेद 348 के खंड (2) के अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से किसी राज्य का राज्यपाल उस राज्य के सरकारी काम काज में प्रयुक्त होने वाली अन्य भाषा के प्रयोग को अथवा हिंदी का प्रयोग उस राज्य में स्थित उच्च न्यायालय की कार्यवाही के लिए प्राधिकृत कर सकता है, लेकिन उच्च न्यायालय द्वारा दिये जाने वाले निर्णयों, डिक्रियों व आदेशों के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग किया जाता है, तो उसके साथ-साथ अंग्रेजी का अनुवाद भी दिया जायेगा।संविधान के भाग-17 के अध्याय 4 के अनुच्छेद 350 के अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि संघ तथा राज्य के किसी पदाधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयुक्त होने वाली किसी भाषा में प्रत्यावेदन देने का प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार होगा।बाद में इस अनुच्छेद में 7वें संविधान अधिनियम, 1956 की धारा-21 के द्वारा खंड (क) जोड़कर प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देने के लिए प्रावधान किया गया कि प्रत्येक राज्य और राज्य के अंदर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी का यह प्रयास होगा कि भाषागत अल्प संख्यक वर्गों के बालकों के लिए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देने के लिए पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था की जाए तथा इस संबंध में किसी राज्य को ऐसी सुविधाएँ सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक निदेश राष्ट्रपति दे सकेगा।
नेहरू के समय में एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था। इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून (1956) पास किया गया।आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ यह सबसे बड़ा बदलाव था। इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई।इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला।संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला।इसी वर्ष पॉंडिचेरी, कारिकल, माही और यनम से फ्रांसीसी सत्ता का अंत हुआ।
क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं! इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं हैं, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं।सन् 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो विलुप्त हो सकती हैं।
26 जनवरी 2010 के दिन अंडमान द्वीप समूह की 85 वर्षीया बोआ के निधन के साथ एक ग्रेट अंडमानी भाषा 'बो' भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थीं। इसके पूर्व नवंबर 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ 'खोरा' भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया।अनेक आदिम भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। अंडमान द्वीप की भाषाओं पर अनुसंधान करने वाली जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की प्राध्यापक अन्विता अब्बी का मानना है कि अंडमान के आदिवासी को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किए गए इसके दुष्प्रभाव से अंडमान द्वीप क्षेत्र में 10 भाषाएं प्रचलन में थीं, लेकिन धीरे-धीरे ये सिमट कर 'ग्रेट अंडमानी भाषा' बन गईं। यह चार भाषाओं के समूह के समन्वय से बनीं। भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम है उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया।
'नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजज' के अनुसार हरेक पखवाडे एक भाषा की मौत हो रही है। सन् 2100 तक भू-मण्डल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषाओं का लोप हो सकता है। इनमें से पूरी दुनिया में सात्ताईस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं में असम की 17 भाषाएं शामिल हैं। यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढी क़े सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं। इसके बावजूद 28 हजार लोग देवरी भाषी, मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब 19 हहजार लोग अभी भी हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं।
पालेश्वर शर्मा ने क्या खूब लिखा हैः
`छत्तीगसगढी मोर मातृभाषा आय । मोला अपन मातृभाषा उपर गर्व हे । मैं ये भाषा ल अपन महतारी के दूध संग पिये अउ पचाय हौं । मोर कान म जउन पहली सब्द परिस वो छत्तीहसगढी भाषा के रहिस । जब ले मोर महतारी जीयत रहिस हे तब ले मैं वोखर मुंह ले येही भाषा ल सुनेंव अउ गुनेंव । ये भाषा ल मोर पुरखा मन सैकडन बरिस ले बोलत आवत रहिन हें । मोला अपन पुरखा मन उपर गर्व हे, काबर के वोहू मन छत्तीसगढी भाषा ल गर्व के साथ बोलत रहिन हें ।
जउन भी अपन मातृभाषा म बोलथें वोखर उपर मोला गर्व होथे । जउन अपन मातृभाषा ल बोलब म लजाथे, संकोच करथे या हीन भावना के अनुभव करथे वोहर मातृद्रोही हे ओखर बर समाज म कोनो स्थान नई होना चाही । वोखर बहिष्कार होना चाही ।
महात्मा गांधी जी हर लिखे रहिस – 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूँगा, जिस तरह अपनी मॉं की छाती से । वही मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है ।' अपन मातृभाषा के प्रति हमर का दृष्टिकोण होना चाही, ये बात के शिक्षा हमला गांधी जी के कथन से सीखना चाही ।'
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