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Thursday, May 23, 2013

पाकिस्तान में जिस लोकतऩ्त्र की उम्मीद दुनिया कर रही है वह अभी मुमकिन नहीं

पाकिस्तान में जिस लोकतऩ्त्र की उम्मीद दुनिया कर रही है वह अभी मुमकिन नहीं


पाकिस्तान में लोकतन्त्र का आगा़ज

सुन्दर लोहिया

       हाल ही में सम्पन्न पाकिस्तान के आम चुनाव उस मुल्क के राजनीतिक परिदृश्य के अलावा पूरे उपमहाद्वीप के सन्दर्भ में कई नज़रिये से महत्वपूर्ण हैं। इस चुनाव को परिवर्तनकारी मानने के लिये सबसे बड़ा कारण है तालिबानी धमकियों के बावजूद बड़ी संख्या में जनता द्वारा मतदान इस बात का प्रमाण है कि जनता की ताकत आतंकवादियों के मुकाबले ज़्यादा होती है। जनता की एकता के आगे बड़े से बड़ा तानाशाह भी आखिर में घुटने टेकने पर विवश हो जाता है। इस नज़रिये से यह चुनाव आतंकवाद से कारगर ढँग से लड़ने का एक ही तरीका बता रहा है कि आतंकवादियों की धमकियों की परवाह न करते हुये लोकतन्त्र को सशक्त करने के मकसद से चुनाव में भाग लेकर हम उन्हें पराजित कर सकते हैं। फिलहाल यह कहना मुश्किल कि चुनाव के बाद पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम हो जायेगी। चुनाव के तत्काल बाद नवाज़ शरीफ ने तहरीक-ए-इन्साफ के नेता भूतपूर्व पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कप्तान इमरान खाँ के साथ मिल कर मुल्क के हालात बदलने की जो पेशकश की है अभी तक उसका परिणाम तो सामने नहीं आया लेकिन इमरान खाँ को उसके अमेरिका विरोधी वक्तव्यों के लिये चुनाव में मदद करने की बात सब की जुबान पर है। इस शंका का कारण यह भी है कि इमरान की पार्टी को आंतकवादियों के प्रभाव क्षेत्र में ही कामयाबी मिल सकी है और नवाज़ शरीफ की पार्टी पंजाब में बहुमत प्राप्त कर सकी है और जरदारी का जो भी प्रभाव बचा हुआ है उसका लाभ केवल सिंध प्रान्त में सिमट कर रह गया है। यह सारा राजनीतिक माहौल सिद्ध करता है कि जनता क्षेत्रीय आधार पर विभाजित है इसलिये कोई एक नेता पूरे पाकिस्तान पर निर्विरोध काम कर सके मुश्किल जान पड़ता है।

तीनों नेता लोकतन्त्र की बात तो करते हैं मगर तालिबान का लोकतन्त्र जैसी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में विश्वास नहीं है इसे इस संगठन के नेता बार बार कह चुके हैं। हाल ही में तालिबान की तरफ से नवाज़ शरीफ को पैगा़म दिया गया है कि उनका संगठन सरकार को समर्थन दे सकता है अगर सरकार उनकी शर्तें मान ले। उनकी शर्तें क्या है यह तो खुलासा अभी तक हुआ नहीं है मगर इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है क्योंकि उनका एजेण्डा साफ तौर पर शरीयत के कानून पर आधारित सरकार का गठन और अमेरिका के साथ दुश्मनी दो मुख्य बिन्दु हैं जिन के खि़लाफ वे किसी प्रकार का समझौता करने के मूड में नहीं लगते। ऐसी स्थिति में उनके साथ किसी प्रकार का कारगर तालमेल बैठ सके इसकी सम्भावनायें कम हैं। अमेरिका के साथ किसी तरह का फसाद सेना को भी पसन्द नहीं आयेगा क्योंकि हथियारों की कमी का जोखिम उठा पाने की हिम्मत उसमें नहीं है। इसलिये नवाज़ शरीफ के खिलाफ सेना उस तरह नहीं आ सकती जैसे मुशर्रफ के जनरल बनाने के बाद हो गयी थी। फिर भी लोकतन्त्र के नाम पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप सेना को पसन्द नहीं आ रहा है।

मुशर्रफ को लेकर पाकिस्तान की न्यायपालिका ने जो आदेश दिये हैं उन्हें लेकर जनरल कियानी की टिप्पणी ध्यान देने काबिल है जिसमें उन्होंने फौज के जनरल के साथ बदसलूकी को बन्द करने का इशारा किया था। इसके बाद मुशर्रफ को उसके अपने घर में ही नज़रबन्द किया हुआ है जबकि चार्जशीट के मुताबिक उन्हें देशद्रोह जैसे अपराध के कारण मुकदमा चल रहा है। मतलब है कि सेना का दबदबा अभी भी कायम है ऐसे में जिस लोकतऩ्त्र की उम्मीद दुनिया कर रही है वह

सुन्दर लोहिया, लेखक स्वतन्त्र टिप्पणीकार हैं।

मुमकिन नहीं है। सेना फिलहाल तमाशबीन की भूमिका में है लेकिन पाकिस्तानी सेनाध्यक्षों की निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के प्रति निष्ठा संदिग्ध रही है लेकिन कियानी ने पिछले सप्ताह नवाज़ शरीफ के भाई शाहवाज़ शरीफ के घर पर दोपहर के भोजन के साथ लगभग तीन घण्टों की बैठक में पाकिस्तान के भविष्य का नक्शा भी तैयार हो सकता है ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है। यह वास्तव में आश्वस्त करने वाली घटना है कि पाकिस्तान का जनरल होने वाले प्रधानमन्त्री से इस तरह मिलने गया है। पाकिस्तानी तहरीक ए इन्साफपख्तूनिस्तान में नेशनल असेम्बली के लिये सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर चुन कर आयी हो लेकिन नवाज की पार्टी को अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर वहाँ की विधान सभा में सरकार बनाने की सम्भावना नज़र आती है। क्योंकि वह क्षेत्र तालिबान का गढ़ माना जाता है और तालिबान तथा फौज के रिश्ते भी सब को मालूम हैं अतः वहाँ अमन और तरक्की का माहौल बनाने में सरकार और फौज की साझा जिम्मेवारी का एहसास इस बातचीत के केन्द्र में ज़रूर रहा होगा।

जहाँ तक भारत के साथ रिश्ते सुधरने का सवाल है वह फिलहाल नवाज अपनी़ तमाम शराफत के बावजूद तात्कालिक परिणाम नहीं दिखा सकते। इतना ज़रूर है कि पाकिस्तान में जो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया शुरू हुयी है उसे मज़बूत बनाने के लिये भारत को सकारात्मक रुख अपनाते हुये देखते रहो और इन्तज़ार करो की नीति के बजाये वहाँ लोकतान्त्रिक संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ साथ व्यापार और सांस्कृतिक आदान प्रदान के साथ अवाम के साथ विश्वासपूर्ण रिश्ते कायम करने की कोशिश लगातार करते रहना होगा। अवाम के दिल में अविश्वास के कारण पैदा हुयी नफरत को भाईचारे में बदलने के लिये अपनी सीमा के भीतर नफरत और प्रतिशोध की राजनीति करने वालों के साथ सख्ती से निपटना पड़ेगा। एक प्रकार से पाकिस्तान के इन चुनावों ने हिन्दुस्तान की लोकसभा के आनेवाले चुनावों के लिये भी एजेण्डा तय कर दिया है। आर्थिक क्षेत्र में नवउदारवादी नीतियों के कारण महँगाई और बेराज़गारी के साथ भष्टाचार के लिये भी ज़मीन तैयार की है और राजनीतिक क्षेत्र में साम्प्रदायिकता के कारण काश्मीर समस्या शैतान के आँत की तरह फैलती जा रही है इन्हें रोकने के लिये सुरक्षा इंतज़ामों पर खर्च बढ़ता जा रहा है और विकास की गति धीमी पड़ रही है। इस संकट से उबरने में पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की सम्भावनाओं को जो पार्टियाँ महत्व देती हैं उन्हें सत्ता सौंपने का वक्त आ रहा है। यह परिदृश्य सीमा के उस पार है तो इस पार भी।

http://hastakshep.com/intervention-hastakshep/neighborhood-boundaries/2013/05/22/the-introduction-of-democracy-in-pakistan#.UZ4nkqKBlA0

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