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Wednesday, May 15, 2013

सफेदपोशों की शह पर चलती है रेल, अवाम अवाक रहती है!

सफेदपोशों की शह पर चलती है रेल, अवाम अवाक रहती है!


♦ उमेश पंत

ब्रोकर को पैसा खिला टीटी को दे घूस
लॉगिन करके क्‍यूं यहां रहा अंगूठा चूस
रहा अंगूठा चूस कबीरा क्‍या कर लेगा?
साइट चलेगी तब तो तुझको टिकट मिलेगा

मुंबई में हू और खफा हूं। खफा हूं कि देश की आर्थिक राजधानी में बैठा देश के नैतिक दिवालियेपन का शिकार हो रहा हूं। देश के राजनीतिक खोखलेपन का हिस्सा बन रहा हूं। 22 अप्रैल को मुंबई आया था। तब देखा था कि कितनी मुश्किल से ट्रेन की वेटिंग क्लियर हुई थी। और ये भी कि जिस कोच में था, उसमें एक लंबी दूरी तक दो बर्थ खाली पड़ी रही थी। चार तारीख की वापसी की टिकट थी, जिसकी अंतहीन वेटिंग क्लियर नहीं हो पायी। तबसे अब तक लगातार भारतीय रेलवे की उस नक्कारा वेबसाइट से टिकट कराने की कोशिश कर रहा हूं, जिसपर भ्रष्टाचार की न जाने कितनी परतें चढ़ी हुई हैं। सुबह पौने 10 बजते ही किसी तरह भरोसा बटोर कर लौगइन करता हूं, और ग्यारह बजे तक जब उस मरियल रफ्तार से चल रही वेबसाइट से एक टिकट तक हासिल नहीं होता, तो वो भरोसा टुकड़ा टुकड़ा हो जाता है।

आईआरसीटीसी नाम की ये वेबसाइट उस बड़ी जालसाजी का ऑनलाइन प्रमाण है, जिसके चलते देश के हर हिस्से के न जाने कितने लोग यात्राओं से खौफ खाने लगे हैं। देश के लोगों को घर बैठे ट्रेन के टिकट मुहैय्या कराने का ढोंग रचती इस वेबसाइट को देखकर अब कोफ्त होने लगी है। कोफ्त होने लगी है उस व्यवस्था से, जहां एक आम आदमी के लिए इस अनचाही कोफ्त को बेमतलब अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाने सिवाय कोई चारा नहीं है। दलालों के इस देश में मलालों का एक सिलसिला है, जो कभी नहीं थमता। इस बात का मलाल कि जो काम एक क्लिक पे हो जाना चाहिए, आदमी जब आम तरीके से करता है, तो वो काम घंटों में नहीं होता। इस बात का मलाल कि दलाल उस काम को मिनटों में निपटा लेते हैं। आम आदमी के हिस्से के टिकट बटोर लेते हैं और फिर आम आदमी को वही टिकट दो गुने, तीन गुने जितनी मरजी उतने गुने दामों में देते हैं। आम आदमी की मजबूरी है कि अगर उसकी यात्रा जरूरी है तो उसे दलालों की मुंहमांगी कीमतों के सामने झुकना होगा। इस वेबसाइट के जरिये देश का रेल मंत्रालय सरेआम अपने जमीर की नीलामी कर रहा है और एक यात्री अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को अपनी यात्राओं में पानी की तरह बहाने के लिए मजबूर है। यातायात माफियाओं की शरणगाह है ये वेबसाइट, जानते सब हैं, कर कोई कुछ भी नहीं सकता।

यहां मुंबई में बैठे लखनऊ की वापसी ऐसी लग रही है, जैसे दूसरे देश में हों आप और आपके वीजा की मियाद पूरी हो गयी हो। सरकार दूसरे देश की हो, अफसरशाही दूसरे देश की हो, जिन्हें आपकी जरूरतों और सुविधाओं से दूर दूर तक कोई सरोकार ही न हो। सुना है कि रेल की दलाली के इस खेल में बटोरी जाने वाली सारी काली कमाई मंत्री को जाती है और मंत्री उसका बड़ा हिस्सा पार्टी फंड में डाल देता है। मतलब ये कि राजनीतिक दलों के ये जो आलीशान महल बन रहे हैं, चुनावों में आपके प्रत्याशी ये जो पैसे बहा रहे हैं, ये मुख्यमंत्री जो स्वयंभू बनकर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से किराये का सम्मान पाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं, ये मुझ जैसे आम आदमी की जेब से जा रहे उस अतिरिक्त पैसे से हो रहा है। दलाल तो बस मोहरे हैं, असली दलाल ये सफेदपोश लोग हैं, जिनके कुर्ते की सफेदी के पीछे के दाग कभी चारे, तो कभी कोयले की शक्ल में आये दिन नुमायां होते रहते हैं।

यात्रा की प्रत्याशा में इंटरनेट के सामने बैठे देश के करोड़ों लोगों के दिलों में नही झांक सकते। आप कभी फेसबुक जैसी वेबसाइट पर आईआरसीटीसी के पेज देखिए। एक भी कमेंट ऐसा नहीं है, जिसमें ये गुस्सा कूट-कूट कर न भरा हो। आपको स्टेशन पर लगने वाली लंबी लाइनों से बचाने के लिए ये जो ढोंग किया था सरकार ने, उसके चलते अब स्टेशनों के टिकट काउंटरों का हाल और बुरा हो गया है।

पिछली बार पापा मम्मी मुंबई आये थे, तो उन्हें अचानक वापस जाना पड़ा। उस बार मुंबई के भांडुप स्टेशन का हाल देखने का मौका मिला। किसी ने कहा कि रात के बारह बजे से सुबह दस बजे मिलने वाले तत्काल टिकटों की लाइन लगनी शुरू हो जाती है। यकीन नहीं हुआ था तब। रात के दो बजे स्टेशन पहुंचा, तो यकीन आया। देखा कि वहां एक आदमी है जो लिस्ट बना रहा है। बहुत सारे लोग हैं, जो काउंटर के आगे बने उस अहाते में कंबल बिछाये लेटे हुए हैं। लिस्ट में मेरा नंबर 20 था। रात वहीं कटी थी। ये अनुभव लेना चाहता था मैं। मेरी मजबूरी नहीं थी। पर वहां ज्यादातर लोग ऐसे थे, जिनके लिए ये यात्रा एक मजबूरी थी। किसी की परीक्षा थी, किसी का बेटा बीमार था, एक बूढ़े अंकल के बेटे की मौत हो गयी थी, उन्हें उसके दाह संस्कार के लिए जाना था। हर दो घंटे में अटेंडेंस ली जा रही थी। रेल विभाग इस पूरी प्रणाली में यात्रियों के साथ कहीं नहीं था। सुबह काउंटर खुला और उस लिस्ट में जिसका जो नंबर था, उस हिसाब से लोगों ने टिकट खरीदी। आंखरी नंबर वाले कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें रातभर मच्छरों के सिरहाने लेटने का कोई फायदा नहीं हुआ। उन्हें अगली रात फिर इस अहाते में मच्छारों के सिरहाने जगराता करना था। बस इसलिए कि एक टिकट मिल जाए। मुफ्त में नहीं, खैरात में नहीं, टिकट की पूरी कीमत चुकाकर।

IRCTC

अबकी मंत्री जी भ्रष्टाचार के आरोप में हैं, तो कोई कोटा भी काम नहीं कर रहा। ऐसे में सुना है कि दलालों ने भी हाथ खड़े कर दिये हैं। सुधरा कुछ नहीं है। दस बजते ही वेबसाइट को दलाली का सांप सूंघ जाता है। ये हालात कैसे सुधरेंगे, इसके लिए हम जैसे आम आदमी आखिर क्या कर सकते हैं, इस राजनीतिक दीमकों की वजह से पनपी नागरिकों के असहायों की सी हालत का अंत आंखिर कैसे होगा, ये आठ दिन यही सोचते गुजर गये हैं। पर इसका व्यावहारिक हल दूर दूर तक नजर नहीं आता।

खैर रेल की इस रेलमपेल से इतर इन आठ दिनों में मुंबई को किसी बीच के स्टेशन में एक अनिश्चित समय के लिए ठहरे हुए किसी यात्री की नजर से देखा है। मुंबई का असल फील अब अंधेरी के यारी रोड में कॉस्टा कॉफी से ब्रू वर्ड कैफे के बीच मौजूद उस सड़क के इर्द-गिर्द वाले इलाके में ही आता है। वर्सोवा के समुद्री तट के किनारे बसे उस इलाके में कई जाने-पहचाने चेहरे जो नजर आते हैं। कुछ चेहरे जिन्हें कभी टीवी पे तो कभी फिल्मों में देखा होगा, कुछ चेहरे जिनके साथ पढ़ाई की है, कुछ चेहरे जिनके साथ काम के सिलसिले में जुड़े हैं। मुंबई में रिहाइश के इस अरसे में अब तक प्रोफेशनल होना नहीं सीखा है। अपने पेशे की सबसे अच्छी बात यही है कि इसमें भावनाओं की अब भी कद्र है। मुगालते पालना यूं भी लेखकों का शगल होता है और अगर ये मुगालता है भी तो इसके साथ जीने में कोई गुरेज नही है। ये शहर मुंबई कम से कम मुगालते पालने की मोहलत तो देता है।

वर्सोवा के किनारे बनी छोटी-छोटी पथरीली चट्टानों पर खड़े होकर, शाम के लाल होते सूरज की तलहटी में लहराते उस असीम समंदर को देखते हुए यही लगता है कि जैसे वो समंदर हमारी आंखों में बह रहा एक सपना हो। जिसमें बार बार उम्मीदों की लहर उठती हो। बार बार संभावनाओं की हवा इन लहरों से टकरा कर पूरी मासूमियत के साथ हौले-हौले चेहरे पर पड़ती हो। इस समुद्री सपने में गोता लगाने के लिए तैरना सीखना जरूरी है। अच्छी बात यही है कि ये समंदर तैरना सीखने की चाह मुफ्त में बांटता है और मुंबई इस सपनों के समंदर को बहुत पास से जी भर कर देख पाने की आजादी देता है।

Umesh Pant(उमेश पंत। सजग चेतना के पत्रकार, सिनेकर्मी। सिनेमा और समाज के खास कोनों पर नजर रहती है। मोहल्‍ला लाइव, नयी सोच और पिक्‍चर हॉल नाम के ब्‍लॉग पर लगातार लिखते हैं। फिलहाल यूपी से ग्रामीण पाठकों के लिए निकलने वाले अखबार गांव कनेक्‍शन से जुड़े हैं और लखनऊ में रहते हैं। उनसे mshpant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

http://mohallalive.com/2013/05/14/umesh-pant-react-on-railway-website-irctc/

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