हमपेशा लोगों के प्रति इतने निर्मम मीडिया जमात के भरोसे जनता जनादेश तैयार करने की कवायद करेगी तो ठगी ही जायेगी।
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पलाश विश्वास
ठगी जाने के लिए है जनता,दस्तूर तो यही है
अब उस मीडिया पर क्या भरोसा कीजै,जो अपने ही संगी साथियों की कूकूरगति से विचलित हुए बिना सत्ता गलियारे में या कारपोरेट बेडरूम में चांदी काटने के जरिये ही इहलोक परलोक साधते हैं और बहुत बुलंद पत्रकारिता में नामचीन जिंदगी जीते हुए मीडिया के अंदर महल की नरकयंत्रणा पर खामोशी बरतकर हगीज कैरियर बटोरते हुए सिधार जाते हैं।
तमाम फैसले सही टाइमिंग पर हो जाते हैं।चाहे लागू हो या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि आधार को जरुरी सेवाओं से नत्थी न किया जाये। भारत सरकार बाकायदा संसद में कहती है कि आधार अनिवार्य नहीं ऐच्छिक हैं। लेकिन दुनिया जहां के मीडिया कर्मी गैस एकाधिकार कंपनी के हितों के मद्देनजर अगल बजट में गधे के सिर से सींग की तरह खत्म हो जाने वाली सब्सिडी के नकदीकरण का हवाला देते हुए जन गण में आतंक का माहौल रचने में एढ़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं कि आधार नंबर न हुआ तो सत्यानाश हो जाएगा।तेल कंपनियां संसद और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हुए फतवा जारी कर रही हैं कि आधार नंबर के बिना नहीं मिलेगी रसोई गैस।उधर गैस की कीमत दोगुणी कर दी गयी है खास कंपनी के हित में। रोजाना गैस की कीमत में इजाफा हो रहा है।एक खास कंपनी के फायदे के लिए सारे मीडियाकर्मी उसके कारिंदे बतौर काम कर रहे हैं।बाउंसर जैसा बर्ताव कर रहे हैं।बिना संसदीय इजाजत के आईठी कंपनी और गैस एकाधिकार कंपनी के फायदे के लिए लाखों करोड़ के न्यारे वारे पर खामोश मीडिया अब नंदन निलेकणि के प्रधानमंत्रित्व का दावा मजबूत करने के अभियान में जुट गये हैं।
गांव कस्बे के संवाददाता हुए तो भी उसके समीकरण धाकड़ हैं।संवाददाताओं को पत्रकारिता के नाम सारी सुविधाएं।डेस्क पर जो बंधुआ मजदूर संप्रदाय हैं,वे किसी प्रेस क्लब के मेंबर भी नहीं हो सकते और न प्रेस को मिलने वाली रियायतें सुविधाओं का उन्हें लाभ है। संपादक समाचार संपादक के घरों में सेवाएं पहुंच जाती है। अबाध यौनाचार का तो भंडाफोड़ हो ही गया है।
मीडिया के भीतर ही इतना ज्यादा रंगभेद है और वर्णवर्चस्व है कि मलाईदार तबके को गाड़ी बाड़ी मुफ्त विदेश यात्रा पांच सितारा जीवन राजनेताओं के मुकाबले ज्यादा स्तायित्व वाला मिला हुआ है।
य़े ही वे लोग हैं जिनकी वजह से न वेतनमान लागू हो पा रहा है और न कार्यस्थितियां सुधर रही हैं।मजीठिया के वे मोहताज नहीं हैं।पत्रकार संगठनों के भी वे ही भाग्यविधाता हैं।
हर मुकदमे का सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक सटीक टाइमिंग के मुताबिक पैसला आ जाता है।काफी ब्रेक में ही फैसला तैयार हो ता जा रहा है।लेकिन पूरी एक पीढ़ी रिटायर होती जा रही है और मजीठिया पर अनंत सुनवाई जारी है।
हमपेशा लोगों के प्रति इतने निर्मम मीडिया जमात के भरोसे जनता जनादेश तैयार करने की कवायद करेगी तो ठगी ही जायेगी।
[LARGE][LINK=/article-comment/16533-majithia-wage-board-7-january.html]मजीठिया मामले में 7 जनवरी को होगी अगली सुनवाई[/LINK] [/LARGE]
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Details Category: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK] Created on Saturday, 14 December 2013 00:44 Written by B4M_Bureau सुप्रीम कोर्ट में चल रहे पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड मामले की अगली सुनवाई के लिए 7 जनवरी की तिथि तय की गई है. 12 दिसम्बर को मामले की सुनवाई करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अगली तिथि की घोषणा की. 12 दिसम्बर को कोर्ट ने कर्मचारियों का पक्ष सुना. कर्मचारियों की तरफ से अधिवक्ता कोलिन गोन्साल्विस ने पक्ष रखा. अभी कर्मचारियों का पक्ष पूरा नहीं हो पाया है और अगली तिथि को भी गोन्साल्विस कर्मचारियों की तरफ से आगे की बहस करेंगे. इसके पहले कोर्ट में प्रबंधन की तरफ से बहस पूरी हो चुकी है. गौरतलब है कि सरकार ने मीडिया कर्मियों के वेतन और अन्य सुविधाओं में वृद्धि के साथ अन्य उनकी शिकायतों पर सुनवाई के लिए 2009 में मजीठिया वेज बोर्ड का गठन किया था जिसके खिलाफ प्रबंधन कोर्ट चला गया था. सरकार कोर्ट के समक्ष मजीठिया की सिफारिशों को लागू करने के पक्ष में हलफनामा दे चुकी है.
पत्रकार संघ का प्रधानमंत्री से वेज बोर्ड लागू करवाने का आग्रह
2013.12.13
(भारतीय पत्रकार संघ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर आग्रह किया है कि अखबारों के लिए डी ए वी पी द्वारा विज्ञापन दर में बढ़ोतरी कर दी गयी है लेकिन पत्रकारों के लिए वेज बोर्ड लागू नहीं हो पाया है ....कृपया इसे लागू करवाया जाए । ...........प्रधानमंत्री को लिखे पत्र को यहाँ दिया जा रहा है --संपादक )
The Indian Journalists Union, the premier organization of the working journalists in the country, has urged upon the Government to link its proposed hike in the interim rates for DAVP advertisements to the implementation of the Wage Board by the newspaper employers.
In a letter to the Prime Minister, Dr Manmohan Singh, the IJU President S N Sinha and Secretary General D Amar, stated they were pleased to learn that the Government has decided to increase the interim rates for DAVP advertisements by 19 per cent in view of the general price rise in the country. This will greatly help small and medium newspapers, in particular, whose employees, including journalists, are not being paid even their due wages under the Wage Board awards notified in Gazette notification vide S.O. no. 2532 (E) dated 11th November, 2011. Since this increase is only an "interim" one, it is likely to be revised further in due course.
The IJU noted that in increasing these rates, the Government obviously takes into consideration the possible impact of the inflationary pressures on the wage and salary bills of the newspapers, but they do not pay even the statutorily-fixed wages to their employees. It would be in the fitness of things, therefore, for the Government to ensure that this increase in rates is shared by the employers with the journalist and non-journalist employees as well, it stressed.
Accordingly, it drew the attention of the Prime Minister to what Meghalaya was doing in the matter. The IJU's Meghalaya State union has informed that Chief Minister Mukul Sangma is favourably inclined towards adopting an even-handed approach in the matter and linking the payment of these enhanced rates of payment for advertisements to the implementation of Wage Board awards by the newspapers.
The IJU requested the Prime Minister to kindly appreciate the gravity of the situation from the point of view of the employees of these establishments, too, and make the payment of these higher advertisement rates conditional upon the implementation of the Wage Board awards. This, said the IJU, will go a long way in promoting the implementation of the Wage Board awards in the newspaper industry, which, indeed, is a responsibility of the Union Government.(Press Note ,datead 11-12-2013)
शीघ्र लागू होगी मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें ...
सुप्रीम कोर्ट में चल रहे पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड मामले की अगली सुनवाई के लिए 7 जनवरी की तिथि तय की गई है. 12 दिसम्बर को मामले की सुनवाई करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अगली तिथि की घोषणा की. Read more ...
सरकार मजीठिया वेज बोर्ड के पक्ष में पर प्रबंधन कर ...
bhadas4media.com/article-comment/15831-2013-11-15-17-24-22.html
15-11-2013 - पत्रकारों और समाचार कर्मचारियों के वेतन रिवीजन के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्डकी सिफारिशों को लागू कराने के लिए सरकार तो इसके पक्ष में है लेकिन मीडिया मालिकों का समूह इसे लागू करने का विरोध कर रहा है. जबकि सरकार ने पहले ...
Print - Jansatta Express
पत्रकारों व गैर पत्रकारों के लिए मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है। कल पत्रकार संगठनों ने अपनी बातें ... जा रहा है कि 2014 में ही फैसला आएगा। आपको बता दें कि अखबार मालिक इस बोर्ड की सिफारिशों को मानने से इंकार कर रहे .
पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम ...
samachar4media.com/Supreme-Court-Final-Hearing-on-Majithia-Wage-...
23-10-2013 - समाचार4मीडिया ब्यूरो सुप्रीम कोर्ट 24 अक्टूबर, 2013 को पत्रकारों और गैर-पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की अंतिम सुनवाई करेगा। अभी तक हुई कार्यवाही कुछ .यूं है... 1 अक्टूबर 2013 को केस नंबर W.P.(C)No.246 of 2011 में ...
संपादकों की नजर में क्या है मजीठिया वेज बोर्ड ...
www.samachar4media.com/.../journalists-and-majithiya-wage-board-226...
09-04-2013 - समाचार4मीडिया.कॉम ब्यूरो. मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने के मुद्दे पर पूरे देश के पत्रकार एक जुट हो रहे हैं औऱ देशवव्यापी प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं। पत्रकार संगठनों का कहना है सरकार अखबार मालिकों का पक्ष लेते हुए जानबूझ कर ...
मजीठिया वेज बोर्ड - समाचार4मीडिया
www.samachar4media.com/supreme-court-final-hearing-on-majithia-wa...
26-09-2013 - समाचार4मीडिया.कॉम ब्यूरो सुप्रीम कोर्ट ने अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों और गैर-पत्रकार के हितों से जुड़े मजीठिया वेज बोर्ड की फाइनल सुनवाई के लिए मंगलवार को 1 अक्टूबर 2013 का दिन तय किया है। उल्लेखनीय है कि अखबार ...
10 दिसंबर को होगी मजीठिया वेज बोर्ड की अंतिम ...
www.samachar4media.com/final-hearing-majithia-wage-board-journalist...
02-12-2013 - समाचार4मीडिया.कॉम ब्यूरो. सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों और गैर-पत्रकारों के लिए गठितमजीठिया वेज बोर्ड की अंतिम सुनवाई की तारीख को आगे बढ़ाते हुए 10 दिसंबर 2013 कर दिया है। सूत्रों के अनुसार कोर्ट ने पिछले महीने (27 नवंबर को) ...
Bhadas4media - पत्रिका की घपलेबाजी : मजीठिया वेज ...
पत्रिका की घपलेबाजी : मजीठिया वेज बोर्ड से बचने के लिए पकड़ी प्लेसमेंट एजेंसी की राह http://www.bhadas4media.com/print/8648-2013-02-14-09-52-18.html.
के लिए मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम सुनवाई...- Yadtek
www.yadtek.com/supreme-court-final-hearing-on-majithia-wage-board-f...
Majithia Wage Board के लिए खोजे गए अंग्रेज़ी दस्तावेज़ का अनुदित परिणाम
मजीठिया वेज बोर्ड ताजा खबर, पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए मजीठिया वेतन बोर्ड, मजीठिया वेज बोर्ड, सुप्रीम पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम सुनवाई...
पत्रकारों के लिए मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम सुनवाई...
www.infosamay.com/supreme-court-final-hearing-on-majithia-wage-boa...
Majithia Wage Board के लिए खोजे गए अंग्रेज़ी दस्तावेज़ का अनुदित परिणाम
पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए 2013 में बोर्ड ताजा खबर वेतन, पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए मजीठिया वेतन बोर्ड, 2013 में मजीठिया वेज बोर्ड की स्थिति,...
खोज परिणाम
मजीठिया''वेज बोर्ड''का शर्मनाक तर्कों से विरोध-रघु ...
www.cgnews.in/2010-10-18-11-52.../2125-2011-06-28-18-29-03.html
इसके विपरीत प्रिन्ट मीडिया के मालिकों ने '' मजीठिया वेज बोर्ड'' के खिलाफ अभियान शुरू किया है।इसी संदर्भ में इण्डिया टुडे समूह के सी.ई.ओ.श्री आशीष बग्गा ने '' प्रिन्ट मीडिया को कैसें मारे'' शीर्षक से इण्डिया टुडे में मेहमान के पन्ने पर ...
मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम सुनवाई अब अगले महीने ...
troubledgalaxydetroyeddreams.blogspot.com/2013/.../blog-post_6544.ht...
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
मजीठिया वेज बोर्ड की रिपोर्ट-2 | मेरा ब्लॉग
jansatt.wordpress.com/2011/.../मजीठिया-वेज-बोर्ड-की-रिपो-...
01-01-2011 - 35 फीसदी वैरिएबल पे देने की सलाह न्यायमूर्ति जी आर मजीठिया के नेतृत्व वाले वेतन बोर्ड ने पत्रकारों औऱ गैर पत्रकारों को 35 प्रतिशत वैरिएबल पे देने की सिफारिश की है। समाचार पत्र उद्योग के इतिहास में किसी वेतन बोर्ड ने इस तरह की ...
मजीठिया वेज बोर्ड की खबर सिर्फ हिन्दू ... - Media Manch
( Date : 11-07-2013). The Supreme Court on Tuesday posted for final hearing on August 6 a batch of petitions newspaper managements had filed to challenge the Justice Majithia Wage Board's recommendations for journalists and non-journalists. A new Bench of Justices C.K. Prasad and Ranjana Desai took the decision ...
मजीठिया वेज बोर्ड की सुनवाई में टाइम्स ऑफ ...
www.khabarwala.com/media-news/print/1483-2013-02-13-05-47-05
13-02-2013 - Joomla! Logo. Khabarwala.com. This site is down for maintenance. Please check back again soon.मरम्मत कार्य पूरा हो चुका है खबरवाला का प्रकाशन शीघ्र होने जा रहा है। Username. Password. Remember Me.
मीडिया का मुंह बंद रखने की कवायद - - Navbharat Times
03-06-2011 - भारतीय समाचार पत्र उद्योग देश का वह एकमात्र उद्योग है, जिसमें वैधानिक रूप से वेज बोर्ड का प्रावधान है। ... इसीलिए नवीनतम, न्यायमूर्ति मजीठिया वेज बोर्ड की 80 से 100 प्रतिशत वेतन बढ़ोत्तरी की सिफारिशों के साथ जनवरी सन् 2008 से ...
अख़बार और मारकंडे काटजू - Daily Hindi News Portal ...
मजीठिया वेज बोर्ड मामला सुप्रीम कोर्ट में करीब एक साल से जिस तरह से लटका हुआ है और आगे भी उसके लटके रहने की आशंका है उससे सुप्रीम कोर्ट और कई बड़े वकीलों को लेकर तरह तरह की अटकले लगाई जा रही है .अख़बार मालिकों का पक्ष देश के जाने माने ...
Refugee Migrant Solidarity: मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम ...
refugeemigrantsolidarity.blogspot.com/2013/08/blog-post_8902.html
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
OPPOSE LPG Mafia: मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम सुनवाई ...
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम सुनवाई अब ... - resistgenocide
resistgenocide-bangasanskriti.blogspot.com/2013/.../blog-post_3965.htm...
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
palashscape: मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम सुनवाई अब ...
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
Aboriginal Humanity: मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम सुनवाई ...
aboriginalhumanity.blogspot.com/2013/08/blog-post_7978.html
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
United Black Untouchables worldwide: मजीठिया वेज बोर्ड पर ...
unitedblackuntouchablesworldwide.blogspot.com/.../blog-post_2024.ht...
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
कब और कैसे लागू होगा मजीठिया वेतनमान? ~ बेरक्या ...
मित्रों,सभी पत्रकार व गैर पत्रकार समाचार-पत्र कर्मियों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को आए एक साल होने को .... कोयलाकर्मियों और शिक्षक-कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मियों को भी अपने वेज बोर्ड के बारे में जागरूक होना चाहिए.
visfot.com - पत्रकारों के वेतन में 65 फीसदी बढ़ोत्तरी ...
visfot.com/.../3401-पत्रकारों-के-वेतन-में-65-फीसदी-बढ़ो...
01-01-2011 - पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड ने अखबारी और एजेंसी कर्मियों के लिए 65 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है तथा साथ में मूल वेतन का 40 प्रतिशत तक आवास भत्ता और 20 प्रतिशत तक परिवहन भत्ता देने का ...
मजीठिया न देने का जागरण प्रबंधन का प्रबंध ...
22-11-2011 - अलग अलग लोगों ने सरसरी निगाह से कागज में अंकित अक्षरों को देखा और जोड़ा तो पता चला कि यह मजीठिया न देने का जागरण ... ज्ञात हो कि जागरण प्रबंधन काफी पहले से मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ अभियान चला रहा है.
वेज बोर्ड सिफ़ारिशात पर मर्कज़ ( केंद्र) अपनी ...
www.siasat.com/.../वेज-बोर्ड-सिफ़ारिशात-पर-मर्कज़-केंद्र...
26-05-2012 - वज़ीर लेबर मल्लिकार्जुन खरगे ने आज एक अहम ब्यान देते हुए कहा कि सहाफ़ीयों और ग़ैर सहाफ़ीयों के लिए मर्कज़ ( केंद्र) ने मजीठिया वेज बोर्ड सिफ़ारिशात को मंज़ूर करते हुए अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया है और अब ये रियास्ती हुकूमतों ...
Tehelka Hindi - मीडिया मजूरी
www.tehelkahindi.com/आवरण-कथा/1366.html
31-08-2012 - कहने को वेज बोर्ड और लेबर लॉ जैसी कानूनी प्रक्रियाएं हैं पर कोई मीडिया संस्थान इन्हें मानता ही नहीं. मजीठिया बोर्ड की हालिया सिफारिशों की हवा टाइम्स ऑफ इंडिया और एचटी जैसे बड़े मीडिया संस्थानों ने पत्रकारों के जरिए ...
Mulnivasi Bahujan Bharat: वेज बोर्ड लागू करने की ...
mulnivasibharat.blogspot.com/2013/06/special-cell-soon-to-monitor.html
15-06-2013 - कई प्रदेशों में वेज बोर्ड का कुछ अता-पता नहीं है लेकिन तमिलनाडु सरकार ने बड़ी पहल करते हुए मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने को लेकर एक स्पेशल सेल बनाने का फैसला लिया है. सेल का काम यह देखना होगा कि वेज बोर्ड को ठीक से किस किस ने ...
सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को हो सकती है मजीठिया ...
सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को हो सकती है मजीठिया वेज बोर्ड की सुनवाई. Indian(Date : 20-03-2013). 71098. सुप्रीम कोर्ट में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिए न्यायमूर्ति मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ दायर याचिका पर इस ...
मजीठिया पर चल रही है सुप्रीम कोर्ट ... - Jansatta Express
6 दिन पहले - पत्रकारों व गैर पत्रकारों के लिए मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है। कल पत्रकार संगठनों ने अपनी बातें रखीं। सुनवाई अभी चल रही है। अभी आपको थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा। वैसे अभी फैसला आने में कुछ समय लग सकता ...
लखनऊ में भी मजीठिया वेतन बोर्ड लागू करने को लेकर ...
19-03-2012 - मजीठिया वेतन बोर्ड लागू करने की मांग को लेकर कनफेडेरेशन आफ न्यूज पेपर्स एंड न्यूज एजेंसी एम्पलाइज आर्गनाइजेशन ... सौंपा गया ,जिसमें मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियां लागू करवाने के लिये सरकार पर दबाव बनाने की मांग की गयी।
इन्टरनेशनल फैडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स का ... - Lens Eye
www.lenseye.co/2013/07/12/इन्टरनेशनल-फैडरेशन-ऑफ-जर/
12-07-2013 - उल्लेखनीय है कि पेड न्यूज पर बनी पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी में नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स की ओर से संजय राठी ने पत्रकारों का पक्ष काफी प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया था। इसके अलावा चंडीगढ़ में मजीठिया वेज बोर्ड ...
पत्रकारों के वेतन के खिलाफ
raviwar.com/columnist/c225_majithia-wage-board-raghu-thakur.shtml
06-08-2011 - पत्रकारों की वेतन सुविधाओं के संबंध में भारत सरकार द्वारा गठित 'मजीठिया वेज बोर्ड' की अनुशंसाओं को रोकने के लिये एक पत्रकार घराने की ओर से भारत के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई है. आश्चर्यजनक रूप से भारत के ...
रांची कार्यकारिणी बैठक की कार्यवाही रिपोर्ट
एनयूजे महासचिव श्री रासविहारी उज्जैन कार्यकारिणी की रिपोर्ट बैठक में पेश की। रिपोर्ट को सर्वसम्मति से पारित किया गया। महासचिव ने मजीठिया वेज बोर्ड के बारे में वरिष्ठ पत्रकार श्री राजेन्द्ग प्रभु, डा.एन के त्रिखा और श्री महेश्वर दयाल ...
4 Step Media: मजीठिया बनी प्रेस मालिकों के गले में ...
14-11-2011 - हालांकि मजीठिया वेज बोर्ड ने दिसंबर 2010 में ही अपनी पहली रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। इस रिपोर्ट के अनुसार अखबारी और एजेंसी कर्मियों (जिसमें पत्रकारों और गैर पत्रकारों) के लिए 65 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की गई है ...
मजीठिया वेजबोर्ड पर अब 10 दिसंबर से ... - Jansatta Express
पत्रकारों औऱ गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है। अखबारी प्रबंधन और सरकार के वकीलों ने अपनी जिरह पूरी कर ली है अब सिर्फ पत्रकार संगठनों के वकील अपनी दलीलें पेश करेंगे। उनकी सुनवाई 10 दिसंबर से ...
Supreme Court wont pre-empt Cabinet from deciding | पत्रकारों ...
hindi.oneindia.in › हिन्दी › समाचार › देश
12-10-2011 - उच्चतम न्यायालय ने आज एक बार फिर केन्द्रीय मंत्रिमंडल को पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों पर कोई भी फैसला लेने से रोकने से इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही विभिन्न मीडिया ...
मालिक तो खूब ही कमात है, पत्रकार भाई खाली हाथ है ...
mohallalive.com/2010/07/31/journalists-plight-and-wage-board/
31-07-2010 - श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेज बोर्ड की दिल्ली में मंगलवार को हुई बैठक में जनसत्ता के पत्रकार अंबरीश कुमार ने देश भर के पत्रकारों की ....मजीठिया वेतन बोर्ड श्रम एवं रोजगार मंत्रालय.
कॉफी हाउस: पत्रकारों के ख़िलाफ़ मालिकों का ...
07-07-2011 - अख़बार कर्मियों की तनख़्वाह निर्धारित करने के लिए बने छठे वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों को मालिक लॉबी किसी हालत ... अख़बार मालिकों की संस्था इंडियन न्यूज़ पेपर्स सोसायटी (आइएनएस) जस्टिस मजीठिया कमेटी की रिपोर्ट का मखौल ...
Sagar Local Hindi News: पत्रकारों को वेज बोर्ड का फायदा
19-12-2012 - सागर। अरसे से सम्मानजनक वेतन की बाट जोह रहे पत्रकारों के लिए एक अच्छी खबर है। सरकार ने पत्रकारों का शोषण रोकने के लिए मजीठिया आयोग को लागू करने की मंशा जताई है। अगर इस अमल हो जाता है तो पत्रकारों के वेतन में खासा इजाफा हो ...
BiharWatch: पटना में मजीठिया लागु करो को लेकर डाक ...
28-12-2011 - पटना में मजीठिया लागु करो को लेकर डाक बंगला चौराहा और टाइम्स ऑफ़ इंडिया दफ्तर के सामने रोषपूर्ण प्रदर्शन. लाल रत्नाकर पटना : आज मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंषाओं को लागू करने के लिए देशव्यापी अभियान के तहत सूबे-बिहार की ...
Boru Bahaddar: मीडिया पर असली हमला तो पत्रकारों का ...
23-06-2011 - यकीन मानिये, वेज बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा : सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट देने वाले जस्टिसमजीठिया आयोग की वेज बोर्ड रिपोर्ट के बारे में ...
mediamail
mediamail.in/visitor/NewsDescription.aspx?News=20131024866283
24-10-2013 - सुप्रीम कोर्ट 24 अक्टूबर, 2013 को पत्रकारों और गैर-पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की अंतिम सुनवाई कर रहा है। अभी तक हुई कार्यवाही इस तरह रही है- 1 अक्टूबर 2013 को केस नंबर W.P.(C)No.246 of 2011 में याचिकाकर्ता की ओर से ...
पत्रकारों के वेज बोर्ड लागू होने पर केंद्र सरकार का ...
25-10-2011 - भोपाल। इण्डियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट मप्र इकाई ने केंद्र सरकार को पत्रकारों के जस्टिस मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने पर आभार व्यक्त किया है। आज भोपाल में आईएफडल्युजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामगोपाल ...
AKSHUN BHARAT: पत्रकारों के वेतन में म्भ् फीसदी ...
01-01-2011 - नई दिल्ली। पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड ने अखबारी और एजेंसी कर्मियों के लिए 65 प्रतिशत तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है तथा साथ में मूल वेतन का 40 प्रतिशत तक आवास भत्ता और 20 प्रतिशत तक परिवहन ...
Analysis : वेजबोर्ड की खबर हिंदी अखबारों से गायब
hindi.mediastudiesgroup.org.in/analysis/news/news_analysisdetail.aspx?...
21-09-2012 - सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने के मामले में मीडिया घरानों के मालिकों की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि जब तक अंतिम फैसला नहीं हो जाता पत्रकारों और गैर-पत्रकार कर्मचारियों के लिए अंतरिम ...
NBS News | पत्रकारों ने की वेज बोर्ड की सिफारिशों ...
विभिन्न मीडिया संगठनों और यूनियनों के तकरीबन 150 पत्रकार और गैर पत्रकारों ने मंगलवार को यहां एक विरोध प्रदर्शन किया और न्यायमूर्ति मजीठिया के वेज बोर्ड की सिफारिशों की तत्काल अधिसूचना की मांग की. यह विरोध प्रदर्शन जिला कलेक्ट्रेट ...
सच की ताकत: यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के ...
26-06-2011 - जस्टिस मजीठिया आयोग ने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट दी है. सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को वेज बोर्ड के बारे में कुछ मालूम नहीं होता, इसका लाभ मिलना तो दूर. इसके बावजूद अखबार प्रबंधंकों ...
इंदुशेखर अमर उजाला, लखनऊ के नए आरई - NetworkedBlogs
05-06-2012 - बनारस के सभी बड़े अखबारों को मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने की न तो कोई जल्दी है और ना ही कोई जरूरत है. सबने अपने अपने कारण डिप्टी लेबर कमिश्नर को बता दिए हैं. इसके बाद डीएलसी ने अंतिम सुनवाई के लिए 18 जून की तिथि निर्धारित की ...
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वेज बोर्ड सिफ़ारिश : फैसले के लिए कैबिनेट ... - News Aaj
नई दिल्ली 11 अक्टूबर न्यूज़ आज : उच्चतम न्यायालय ने आज एक बार फ़िर केन्द्रीय मंत्रिमंडल को पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों पर कोई भी फ़ैसला लेने से रोकने से इनकार कर दिया | शीर्ष अदालत ने इसके साथ ...
वेतन बोर्ड की सिफारिशों को लेकर ... - होम
www.livehindustan.com/news/location/.../article1-story-0-0-177918.html
28-06-2011 - वेतन पुनरीक्षण के लिए न्यायमूर्ति मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों को अधिसूचित किये जाने में हो रहे विलम्ब के ... धरने में शामिल मीडिया कर्मी अपने हाथों में मंहगाई की मार है वेज बोर्ड दरकार है, हमारी मांगे पूरी हों, चाहे जो ...
मिड डे ने अपना दिल्ली और बंगलुरू एडिशन बंद किया
www.darbarilal.com/new/2011/.../मिड-डे-ने-अपना-दिल्ली-और-...
06-12-2011 - गौरतलब है कि अभी कुछ दिन पहले ही जागरण ग्रुप ने मुंबई मिड डे में कार्यरत पत्रकारों से मजीठिया वेज बोर्ड से संबंधित कागज पर हस्ताक्षर करवाया था । पांच दिसम्बर को दिल्ली और बंगलुरू में प्रकाशित मिड डे का अंक इसका आखिरी अंक था ...
Free Market World On Fire: मजीठिया वेज बोर्ड पर अंतिम ...
freemarketworldonfire.blogspot.com/2013/08/blog-post_3831.html
07-08-2013 - सुप्रीम कोर्ट में आज मजीठिया वेज बोर्ड पर आखिरी सुनवाई होनी थी. पर मामले की सुनवाई कर रही कोर्ट की नई बेंच ने इसे दस सितंबर के लिए टाल दिया. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ कई अखबार मालिकों ने याचिकाएं दायर कर ...
Cabinet can decide on Majithia wageboard award pending case:SC ...
www.jagran.com/.../national-cabinet-can-decide-on-majithia-wageboard-...
21-09-2011 - इससे पूर्व, मई में सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को चुनौती देने वाली याचिका पर सरकार को नोटिस जारी किया था। उस समय अदालत ने कोई आदेश निर्देश नहीं दिया था। सबसे पहले आनंद बाजार पत्रिका प्राइवेट लिमिटेड ...
Displaying items by tag: vikram rao - Instant खबर
एफ.डब्लू.जे) का पुनः अध्यक्ष चुना गया है। यह घोषणा आज केन्द्रीय चुनाव अधिकारी हिमांशु चटर्जी ने की। कई पुस्तकों के लेखक, स्तम्भकार विक्रमराव 'मणिसाना' एवं 'मजीठिया' वेज बोर्ड में पत्रकारों के प्रतिनिधि रह चुके हैं। ... खबर की श्रेणी देश.
Basantipur Times: वेज बोर्ड लागू करने की निगरानी के ...
basantipurtimes.blogspot.com/2013/06/special-cell-soon-to-monitor.html
15-06-2013 - कई प्रदेशों में वेज बोर्ड का कुछ अता-पता नहीं है लेकिन तमिलनाडु सरकार ने बड़ी पहल करते हुए मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने को लेकर एक स्पेशल सेल बनाने का फैसला लिया है. सेल का काम यह देखना होगा कि वेज बोर्ड को ठीक से किस किस ने ...
वेज बोर्ड सिफ़ारिशः फैसले के लिए कैबिनेट ...
11-10-2011 - ... अंतर्राष्ट्रीय ऑफबीट अभिमत रि-व्यू खेल अन्य खेल क्रिकेट मनोरंजन ग्लैमर चुटकुले टीवी/अन्य बॉलीवूड हॉलीवूड कारोबार न्यूज पार्टनर Home वेज बोर्ड सिफ़ारिशः फैसले के लिए.... मजीठिया वेतन आयोग मामले की सुनवाई 21 से.
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03-12-2013 - पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड मामले की अंतिम सुनवाई दस दिसम्बर सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड मामले की अंतिम सुनवाई के लिए दस दिसम्बर ...
मजीठिया वेतन बोर्ड की मांग पर पत्रकारों का प्रदर्शन
29-12-2011 - मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों को लागू कराने के लिए प्रबंध तंत्र और सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य से लखनऊ, जयपुर समेत कई जगहों पर धरना प्रदर्शन किया गया। ... इसके लिए पत्रकारों को एकजुट होकर वेज बोर्ड के लिए लड़ना होगा।
Kamayani Bali Mahabal
» #India – UNI Editor among 3 jailed for caste slur - Kractivism
» #India – Editor among 3 jailed for caste slur - Kractivism
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Aaj Tak
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रन फॉर यूनिटीः 15 दिसंबर को पूरा देश दौड़ेगा
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15 दिसंबर को पूरा देश दौड़ेगा। इस महामैराथन को रन फॉर यूनिटी का नाम दिया गया है। असल में ये मैराथन एक खास मकसद से आयोजित की गई है। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाना चाहते हैं। और इसके लिए उन्हें लोहा चाहिए, ऐसा लोहा जिसे देश के मेहनतकश किसान इस्तेमाल करते हैं।
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The Economic Times
10 stunning images of space released by NASA http://ow.ly/rHpRi
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Navbharat Times Online
'संजय दत्त को जेल में परोसी जा रही है रम और बियर'
मुंबई ब्लास्ट केस में सजा काट रहे संजय दत्त को छुट्टी देने में ही दरियादिली नहीं दिखाई जा रही है, जेल में शराब भी परोसी जा रही है? पढ़ें खबर:
Navbharat Times Online
बिना शर्त समर्थन की बात पर केजरीवाल ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को चिट्ठी भेजी है। केजरीवाल ने पूछा है कि क्या वे उन्हें इन 17 मुद्दों पर भी सपोर्ट करेंगे।
जानें, क्या हैं वे मुद्दे:
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24 Ghanta
সমস্যা আধারকার্ডে, মিলছে না ভর্তুকি, বন্দরের নব্যতা কমে যাওয়ায় অপ্রতুল গ্যাস সিলিন্ডার, বাড়ছে দাম, সমস্যায় ক্রেতারা
http://zeenews.india.com/bengali/zila/price-hike-of-gas-cylinder_18537.html
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Economic and Political Weekly
"For the Congress, the writing on the wall is clear. The erosion of its base in the urban pockets of Delhi and its inability to dislodge the BJP even where it had been in power for a decade, as in MP and Chhattisgarh, cannot be explained entirely in terms of local factors. There is definitely an anti-Congress sentiment gaining ground across the country. Even the traditional supporters of the Congress Party, in particular among the poor, are seeking alternatives, as the strong showing by AAP in Delhi suggests." - EPW's editorial on the disaffection towards the Congress in the recently concluded assembly elections.
http://www.epw.in/editorial/warning-bells.html-0
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Dear All
COUNCIL FOR SOCIAL DEVELOPMENT
invites you to its
SOCIAL DEVELOPMENT FORUM
CSD's fortnightly forum on social development praxis
Topic Understanding Nepal Election Results
Speaker Sri Anand Swarup Verma
Senior journalist, Editor, Teesri Duniya
Chair Prof. Manoranjan Mohanty
Visiting Professor, CSD
Date 16th December 2013, Monday
Time 3.30 PM
Venue Durgabai Deshmukh Memorial Hall, CSD, 53 Lodhi Estate,
Regards
Purtika
--
Purtika Kalra
Research Associate
Council for Social Development
53- Lodi Estate
New Delhi - 110003
India
Phone: 91-11-24611700, 24615383 (Office)
Website: www.csdindia.org
Emails: purtika@csdindia.org
Press Invitation
Independent People's Tribunal on the functioning of the National Human Rights Commission
Dates: December 14th, 15th & 16th, 2013
Venue: Jawaharlal Nehru University,
School of Social Sciences-1 Auditorium
Time: 9AM – 6PM
As an independent body with the mandate to monitor and encourage India's compliance with human rights norms, the National Human Rights Commission is in a unique position to safeguard the guaranteed protections offered to all people under international and national law. Indeed, under its enabling legislation, the NHRC has the responsibility to promote, "rights relating to life, liberty, equality and dignity of the individual guaranteed by the Constitution or embodied in the International Covenants and enforceable by courts in India". However, despite laudable goals, it is not clear that the NHRC has been effective in meeting its mandate. As reported by civil society organisations, in most of the cases, the commission does not inform the petitioners about the outcome of its investigations into the respective complaints. Even the petitioners are not notified on whether their cases have been dismissed. There are serious flaws in the complaint handling mechanism, information dissemination and so on and these issues have been highlighted by AiNNI and other civil society groups.
Aware of the potential of the National Human Rights Commission in promoting and protecting human rights, several human rights organisations and civil society movements held a day meeting in Mumbai and came to a consensual decision to hold an Independent People's Tribunal on the functioning of the National Human Rights Commission on 14th, 15th and 16thof December 2013 at New Delhi, It was decided that a sample of complaints that were filed at the NHRC and also the suo-motu cases taken up by the NHRC along with some experts' testimonies to be deposed before a jury panel of retired judges and eminent civil society members.
The IPT will focus on the manner in which the NHRC has dealt with any allegation of a human rights violation by state actors. The objective of the IPT is to assess the NHRC's effectiveness in monitoring and protecting human rights in India, and to identify both strengths and weaknesses in the NHRC's approach to its work. We hope to take a deep and thoughtful look at the particular challenges faced by the NHRC, so we may provide recommendations and thereby help create a more accountable, streamlined and transparent institution, capable of handling issues and complaints of gross violation of rights that are placed on it. After the IPT, we shall take the recommendations made by the jury panel and incorporate them into our lobbying, advocacy and litigation efforts towards a stronger and more effective National Human Rights Commission.
The jury panel will hear cases on issues such as dalits, tribals, women, children, extrajudicial killings, custodial torture, environment, human rights defenders, housing and eviction, disability, health etc. vis-à-vis the response of the NHRC. The IPT would be a space for discussion on all these issues with specific focus on the NHRC's role in dealing with these issues and safeguarding the rights of the people. Because this is a people's tribunal, most of the speakers will be individuals who are either victims or the family members of victims of human rights abuses. They will be sharing their experiences of bringing their cases before the commission. To help provide context for their experiences, an expert will first provide the audience and jury panel with a more comprehensive understanding of the successes and failures of the NHRC with respect to the particular human rights violation at issue.
The IPT offers an avenue to constructively engage in enhancing the protection of human rights by strengthening the work of the NHRC. Similar efforts have been made in 18 states whereby the State Human Rights Commissions were evaluated and based on the findings, two volumes of social audit reports were published. State High Courts and the Supreme Court have been moved with regard to the strengthening of the N/SHRC's and functioning.
After the IPT, the jury members will make their observations and recommendations with regard to the functioning of the NHRC. You are cordially invited to join us for the proceedings. For Further details please contact on 8860110520, 9818569021, 9811681419.
Please find the schedule and the list of jury panel attached.
In solidarity
Harsh Dobhal and Mathew Jacob on behalf of the IPT Secretariat
The members of the Independent People's Tribunal (IPT) Secretariat include Harsh Dobhal and Mathew Jacob (Human Rights Law Network), Henri Tiphagne (All India Network of NGOs and Individuals working with National Human Rights Institutions), Babloo Loitongbam (Human Rights Alert), Himanshu Kumar (Vanvasi Chetna Ashram), Rohit Prajapati (Paryavaran Suraksha Samiti), Mathews Philip (South India Cell for Human Rights Education and Monitoring), Kirity Roy (Banglar Manabadhikar Suraksha Mancha), Lenin Raghuvanshi ( People's Vigilance Committee on Human Rights ), Ossie Fernandes (Human Rights Advocacy and Research Foundation) and Asian NGO Network on National Human Rights Institutions (ANNI). The IPT on the functioning of the National Human Rights Commission (NHRC) will be held on December 14,15 & 16, 2013 in New Delhi. For more details please write to us on iptsecretariat.nhrc@gmail.com, hrc@hrln.org or call us at +91-11-24374501.
Peoples Media Advocacy & Resource Centre- PMARC has been initiated with the support from group of senior journalists, social activists, academics and intellectuals from Dalit and civil society to advocate and facilitate Dalits issues in the mainstream media. To create proper & adequate space with the Dalit perspective in the mainstream media national/ International on Dalit issues is primary objective of the PMARC.
You are receiving this message because you are a member of the communityDalits Media Watch.
THE SPECIAL ECONOMIC ZONES ACT – No. 28 of 2005
23rd June 2005
४,४५,००० कोटी रुपयांची अपेक्षित गुंतवणूक असणाऱ्या आणि ४,५०,००० चौरस किलोमीटर इतका आपल्या मायभूमीचा प्रचंड भूभाग व्यापणाऱ्या या प्रकल्पाची साधी चर्चाही लोकसभेत, संबंधित राज्यांच्या विधानसभेत वा संबंधित स्थानिक स्वराज्य संस्थांमध्ये, ग्रामपंचायतींमध्ये होवू देण्यात आलेली नाही. यामध्ये -
१. १५०० कि.मी. ते ३००० कि. मी. म्हणजे ४.५ लाख चौ. किलोमीटर भूभाग व्यापला जाणार आहे.
२. जगात कोठेही एवढा प्रचंड प्रकल्प नाही.
३. भारताचा २४ टक्के भूभाग व्यापला जाणार आहे.
४. प्रकल्प क्षेत्रातील सर्व मतदारसंघ रद्द होणार तेथील कारभार दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रीयल कॉरीडॉर डेव्हलपमेंट कॉर्पोरेशन ली, हि स्वतंत्र खाजगी कंपनी पाहणार आणि हीच कंपनी सर्व बाबतीत निर्णय घेणार आहे.
५. महाराष्ट्रातील क्षेत्रे : नाशिक, सिन्नर, इगतपुरी, धुळे, औरंगाबाद, दिघी बंदर.
६. गुंतवणूक करणाऱ्या कंपन्यांना १० वर्षे पूर्ण करमाफी, कामगार कायद्यातून सूट आणि सवलती.
७. स्थानिक, विस्थापित, बाधित लोकांच्या मंजुरीची अट नाही. त्यांच्या पुर्नवसनाचे नावही नाही.
८. महाराष्ट्रात १६६ सेझ येणार आहेत.
९. महाराष्ट्राचा जवळ जवळ १८ टक्के भूभाग व्यापला जाणार आहे.
---------- संदर्भ : २१ जुलै २०१३, "आपलं महानगर" रविवार विशेष
अमरावती, नागपूर, मुंबई, पुणे, सोलापूर, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग या ठिकाणी इंडस्ट्रीयल कॉरीडॉर होणार आहेत. त्यात महाराष्ट्र नंबर १ कायम राखणार असे उद्योगमंत्री व मुख्यमंत्री यांनी निश्चित केले आहे.
"महाराष्ट्र औद्योगिक धोरण -२०१३ जाहीर करण्यात आलेले आहे. त्यात गुंतवणूक आकर्षित करून रोजगार निर्मिती करून राज्याला औद्योगिकदृष्ट्या क्रमांक एकचे राज्य बनविण्याचा आमचा प्रयत्न राहील असे उद्योगमंत्री नारायण राणे म्हणाले, औद्योगिक क्षेत्रात महाराष्ट्राची प्रगती करून औद्योगिक प्रगतीत देशातील इतर राज्यांना महाराष्ट्राचा आदर्श घालून देऊ, असे मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण म्हणाले. राज्याचे हे औद्योगिक धोरण १ एप्रिल २०१३ ते ३१ मार्च २०१८ पर्यंत अंमलात राहणार आहे."
• एकूण महाराष्ट्राचा ५० टक्के भूभाग व्यापला जाणार आहे.
--- संदर्भ : ४ जानेवारी २०१३, "पुण्यनगरी"
THE SPECIAL ECONOMIC ZONES (विशेष आर्थिक क्षेत्र) हा कायदा २३ जून २००५ ला संसदीय पटलावर आला. त्यावेळी मुरासोली मारन हे वाणिज्यमंत्री होते. हा कायदा १० फेबु, २००६ ला लागू झाला. त्यावेळी कमलनाथ वाणिज्यमंत्री होते. (छिंदवाडा – मध्यप्रदेश)
• कायद्याचा पहिला भाग –
या कायद्यानुसार भारतातील बनिया उद्योगपतींना ५००० हेक्टर ते ३५००० हेक्टर एवढी जमीन विकत घेण्याचा अधिकार आहे. आणि शेतकऱ्यांना मात्र १८ एकर बागायत व ५२ एकर जिरायत एवढी जमीन विकत घेण्याचा अधिकार आहे.
१ हेक्टर = २.४० एकर म्हणजे अडीच एकर.
५००० हेक्टर x अडीच एकर = १२,५०० एकर.
३५००० हेक्टर x अडीच एकर = ८७,५०० एकर.
याचा अर्थ भारतातील बनिया उद्योगपतींना कमीत कमी १२,५०० एकर ते जास्तीत जास्त ८७,५०० एकर एवढी जमीन विकत घेण्याचा अधिकार वरील कायद्याने दिला आहे. विशेष म्हणजे मूलनिवासी शेतकऱ्यांच्या जमिनी जबरदस्तीने विकत घेण्याचा अधिकार आहे. आणि नाही दिली तर गोळ्या घालण्याचाही अधिकार आहे. पुरावा --- ओरिसा मधील कलिंगनगर येथील बनिया उद्योगपतींना जमीन देत नाही म्हणून पटनायक सरकारने १३ आदिवासींची गोळ्या घालून हत्या केली. या आदिवासींकडे प्रतिकार करण्यासाठी साधे लाकूड (काठी) सुद्धा नव्हते. अशा नि:शस्त्र आदिवासींवर पटनायक सरकारने गोळीबार केला व १३ आदिवासींची हत्या केली. ज्या पोलीस अधिकाऱ्याने हे कृत्य केले. त्याला सोनिया गांधीने वाचविले. पश्चीम बंगाल मधील सिंगूर आणि नंदीग्राममध्ये हेच झाले. विशेष म्हणजे तेथे कम्युनिष्टांचे सरकार आहे. ब्राह्मण कान्ग्रेसचा असो, बीजेपीचा असो, सेनेचा असो कि कम्युनिष्टांचा असो, तो केवळ ब्राह्मणच असतो. हे कम्युनिष्टांनी सिंगूर व नंदिग्राम येथे दाखवून दिले. हे कम्युनिष्ट एवढे बदमाश आहेत कि, संसदेच्या बाहेर खाजगीकरणाला, SEZ ला विरोध करतात आणि संसदेत मात्र चूप बसतात, मूकसंमती देतात.
मूलनिवासी बहुजनांनो महाराष्ट्रात देखील हीच परिस्थिती ठाणे, कोकण, रायगड, सिन्नर या ठिकाणी चालू आहे. जर आपण सर्वांनी मिळून राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन निर्माण नाही केले तर आपल्याच जमिनीवर आपल्याला भाड्याने राहावे लागेल, व्हिजा काढावा लागेल. म्हणून परिस्थितीचे गांभीर्य लक्षात घ्या आणि पूर्ण ताकदीने आंदोलन यशस्वी बनवा...!
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Economic and Political Weekly
Economic Notes: Bank and External Borrowings of the Corporate Sector
http://www.epw.in/economic-notes/bank-and-external-borrowings-corporate-sector.html
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ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे सामाजिक - आर्थिक एवं ढांचागत परिर्वतनों की उपेक्षा कर दी जाती है
मीडियामोरचा
देवेन्द्र कुमार / के.के माधव के नेतृत्व में 1980 में पुर्नगठित द्वितीय प्रेस कमिशन ने 1982 में अपनी अनुशंसा प्रस्तुत करते हुए देश के तात्कालीन प्रजातांत्रिक -सामाजिक हालात के मद्देनजर प्रेस की भूमिका एवं कार्यप्रणाली को पुनर्परिभाषित करते हुए यह अनुशंसा की थी कि चंकि प्रेस में शहरी पक्षधरता मौजूद है, यह सिर्फ राजनीतिक उठापटक में रुचि लेता है, जिसका केन्द्र बिन्दु देश और राज्य की राजधानियां होती है पर दूसरे स्थानों खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे सामाजिक - आर्थिक एवं ढांचागत परिर्वतनों की उपेक्षा कर दी जाती है। इसलिए एक रुरल न्यूज सर्विस का गठन किया जाय जो धरातल पर हो रहे , हलचल की खबर ले सके।
तब से आज तक तीन दशक गुजर गया पर हालात में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया । भले ही आज खबरीया चैनलों में टी आर पी के लिए गला - काट प्रतियोगिता हो, एक सांई और एक बापू को पकड़ महीनों तक दर्शको एक ही बासी कहानी नई - नई चासनी, छौंक और कलेवर के साथ परोसा जाय, कभी साढ़ को तीसरी मंजिल पर दिखा , उ तक पंहुचने के लिए किस सीढ़ी का प्रयोग हुआ, इसकी व्यापक छान - बिन की जाय या कभी बेमतलब की खुदाई का लाईव प्रसारण किया जाय, पर ग्रामीण समाज की खबरों को आज भी उपेक्षा की ही दृष्टि से ही देख जाता है । शहरी -अभिजात्य मीडियाकर्मियों को उसमें कोई न्यूजवर्दी नजर नहीं आती । उनका चरित्र व जीवनशैली ग्रामीण समाज की सामाजिक बुनावट एवं उसकी सोशल केमेस्ट्री को समक्षने में बाधक रहा है। ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना एवं आर्थिक- सामाजिक बुनावट में रिपोर्ट करने के लाईक कुछ भी नजर ही नहीं ता।
शहरों में कार्यरत मीडियाकर्मियों की दृष्टि उच्चमध्यम वर्ग पर ही टिकी है। यही वर्ग उसका उपभोक्ता है। उच्च मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति ही मीडिया का प्राणवायु है। कोई भी देसी -विदेषी कंपनीयां अपना विज्ञापन देने के पूर्व इस बात की पूरी जांच परख करता है कि जिस अखबार में वह विज्ञापन देने जा रहा है उसके पाठक वर्ग का सामाजिक - आर्थिक हालात कैसा है । उसकी जीवन पद्धति कैसी है। कहीं वह सादा जीवन उच्च विचार एवं आत्म संतोष में विश्वास करने वाला परंपरागत ग्रामीण परिवेश का पाठक तो नहीं है। यदि अखवार का सरकुलेशन सीमित है पर पाठक वर्ग उच्च मध्यम वर्ग से आता है तो भी उसे विज्ञापन प्रदान करना लाभ का ही धंधा ही होगा, वनिस्पत की ग्रामीण पृष्ठभूमि के अधिक सरकुलेशन अखबार से । क्योंकि ग्रामीण समाज की क्रय क्षमता बेहद कमजोर है, न ही इनके अन्दर शहरी सौन्दर्यबोद्ध है और न ही अपने रुप को निहारते रहने की अभिजातीय हीन भावना है ।
इस परिस्थिति में द्वितीय प्रेस कमिशन का सुक्षाव कभी भी अमल में आने की संभावना ही नजर नहीं आती। कोई भी अखवार अपने को ग्रामीण समाज की ओर उन्मुख करना नहीं चाहता। सिर्फ कभी कभी हत्या - नरसंहार की खबरें और ईन्दरा आवास ,मनरेगा, वृद्धा पेन्षन आदि में घपलों की खबरों जिनका प्रयोग अखबारों में फिलर के रुप में किया जाता है। यही कारण है कि लालू यादव के देशी वाक्य - विन्यास को मजाक के रुप में सही, अभिजात्य मीडिया में हाथों हाथ लिया जाता है पर इसी लालू यादव के शासन काल में ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना में जो परिर्वतन आया है, हजारों बरसों से उपेक्षित जातियों ने जो करवट ली है ,उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। कारण स्पष्ट है कि लालू को उपहास उड़ातें हुए भी बेचा जा सकता है पर इस धरातल पर हुए सामाजिक - संरचनागत परिर्वतन को वे कब और कहां बेचेगें ।
ग्रामीण समाज की क्रयशक्ति तो निम्न है ही , उनकी सामाजिक और आर्थिक बुनावट एवं जीवनशैली भी कुछ इस प्रकार की है कि ग्रामीण समाज का मलाईदार तबका जो वहां बाबू साहब और धन्ना सेठ माना जाता है, उसकी आर्थिक स्थिति एक हद तक मजबूत होने के बाबजूद जीवनशैली अत्याधिक सादगी और सरलता पर ही आधारित ही है। हाल के दिनों में ग्रामीण समाज में आई सादगी और सरलता के तमाम क्षरण के बाबजूद अभी भी वे पूंजी का निवेश जमीन खरीदने में ही करना श्रेयस्कर मानते हैं। चरम उपभोक्तावाद की प्रवृति अभी भी वहां नहीं पनपी है। सामाजिक -आर्थिक संरचना में आये तमाम परिर्वतन के बाबजूद भारतीय संस्कृति के आदर्श के रुप में प्रस्तुत किया जाता रहा, आत्मसंतोष अभी भी ग्रामीण समाज में ही मौजूद है ।
बड़े- बडे शहरों में केन्द्रित मीडियाकर्मी में से कई ग्रामीण समाज के मलाई तबके से ही आते हैं। स्वाभावत्ः वे ग्रामीण समाज के अंतर्सबंधों से पूरी तरह परिचित है पर आधुनिक शिक्षा एवं परिधान धारन करने के बाबजूद इनका संस्कार पूरी तरह पंरपरागत है। ये हमेशा द्वंद्ध का शिकार रहते हैं। समता- समानता , लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करते हुए भी, उसके पक्ष में बहस करते हुए भी इनके अत:करण में एक डर बना रहता है कि यदि वास्तव में इनके सपने का ही हिन्दुस्तान निर्मित हो गया तो उस एकाधिकार का क्या होगा जो ग्रामीण समाज के सामाजिक संरचना में इनके पूर्वजों के द्वारा बड़े ही जतन व तिकड़म से तैयार की गई है । ये खूद अपने द्वारा ही कल्पित तस्वीर को वास्तविकता में बदलने की आशंका से सिहर उठते हैं ।
इस परिस्थिति में द्वितीय प्रेस कमिशन की अनुशंसा का क्रियान्वयन में बाधा तो साफ नजर आती है पर इसके क्रियान्वयन की आवश्यक्ता और भी बढ़ जाती है। आखिर सूचना के इस साम्राज्यवाद में, मीडिया एक्सपलोजन के इस दौर में मौजूदा प्रेस के समानान्तर पे्रस का गठन कैसे किया जाय? क्योंकि बगैर इसके ग्रामीण समाज का अन्तर्संघर्ष सामने नहीं आयेगा । ग्रामीण समाज की तटस्थ, स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ तस्वीर सामने नहीं आ पायेगी। ग्रामीण समाज में चल रहे विभिन्न आन्दोलन, संघर्ष एवं द्वंद्ध का प्रकटीकरण नहीं हो पायेगा । सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में मीडिया का चरित्र मूल रुप से अभिजातीय ही है। एक समय अपने को सामाजिक परिर्वतन का औजार मानने वाला, उसके हक हुकूक की वकालत करने वाला मीडिया अपने को उत्पाद के रुप में बदले जाने पर कहीं से भी दुखी नजर नहीं आता। क्योंकि इससे इनके सुविधा में विस्तार होने की संभावना है, फटेहाली और बदहाली के लिए बदनाम मीडियाकर्मियों के जीवन का रंग चटक होने की संभावना है। इसलिए मीडिया में सूचना साम्रज्यवाद के विस्तार से इनके लिए दुखी होने का कोई कारण नजर नहीं हैं ।
कुछ वर्ष पूर्व बिहार वामसेफ के राज्य कन्वेनर उमेश रजक, अखिल भारतीय जनप्रतिरोध मंच से जुड़े राहुल और बोधगया भू आन्दोलन और छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के गणेश कौशल आजाद से बात हो रही थी। यद्धपि तीनों अलग अलग संगठनों से जुड़े थें, तीनों की वैचारिक प्रतिबद्धता भी अलग -अलग ही थी, पर एक बात साफ थी कि तीनों ही जमीन से जुड़े थें और तीनों ही धाराओं से इस बात को रेखांकित किया जा रहा था कि मौजूदा मीडिया या यों कहें तो कि कथित मुख्यधारा की मीडिया कि प्रतिबद्धता शासक समूहो के प्रति समर्पित है, यह सिर्फ शासक समूहों के आपसी अन्र्तद्वन्द्धों के कारण भले ही कुछ सनसनीखेज मामले को सामने लाता है पर वंचित समूहों के अघिकार और सता में भागीदारी के सवाल पर इनका नजरीया मूल मुद्दे को ही भटकाने वाला होता है। पर बड़ा सवाल यह है कि इसका समाधान क्या हो । बरसों से वामसेफ की और से दैनिक अखबारों के प्रकाशन की बातें चल रही है पर यह जमीनी शक्ल लेता नहीं दिखता । आखिर कार हमें उस रास्ते की तलाश तो करनी ही होगी जिससे कि मुख्यधारा की मीडिया के समानान्तर दूसरी व्यवस्था खड़ी की जा सके। जो ग्रामीण समाज में चल रहे जनतांत्रिक एवं वर्गीय संघर्ष को निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ रुप से कवरेज कर सके। और आज के अभिजातीय प्रेस के द्वारा वर्दीलेस मान कर छोड़ दिये जा रहे उन तमाम घटनाओं को भी सामने ला सके जो ग्रामीण समाज के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है । इस परिस्थिति में समानान्तर प्रेस खड़ा करने की जिम्मेवारी एक गंभीर सवाल बन कर सामने आता है। पर इसकी कोई स्पष्ट रुपरेखा बनती नजर नहीं आती । खास कर एक समाचारपत्र के प्रकाशन के लिए जितनी बड़ी रकम एवं साधन -संसाधन की जरुरत होती है, वह सबसे बड़ा संकट है । चाहे जैसे हो जिला स्तर तक प्रेस को खड़ा करना होगा, गंवई और गंवार माने जाने वाली बोलियों में इसका प्रकाशन करना होगा। क्योंकि धरातल की खुशबू महानगरों से प्रकाशित हो रहे समाचारपत्रों से नहीं आयेगा। और न ही इसका समाधान इन पत्रों के द्वारा स्थानीय संस्करण निकालने से होगा। क्योंकि इनका अभिजातीय चरित्र इनके स्थानीय संस्करणों में भी देखने को मिल रहा है
एक बात और जब हम समानान्तर मीडिया की बात करते है तो मजबूरी वश हमारा आशय सिर्फ प्रिंट मीडिया से ही होता है, क्योंकि वंचित समूहों और ग्रामीण समाज में आन लाईन मीडिया की पंहुच की बात करनी ही बेमानी है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
सम्पर्क - दत्ता विल्ला रोड ,मोराबादी ,रांची , झारखंड
मो . 09934155772
बेआवाज पत्रकार
2013.12.07
समाज की आवाज बने इस वर्ग की अपनी आवाज ही कहीं खो गई है
मीडियामोरचा
____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार
मनोहर गौर/ संवेदनाओं से रीत रहे इस समाज में अभी भी अखबारों और पूरे मीडिया जगत से समाज की यह अपेक्षा बची है कि वह कम से कम उनके दुख, तकलीफों, शोषण और अन्याय-अत्याचार को आवाज दे सकता है. कुछ हद तक यह काम हो भी रहा है, मगर समाज की आवाज बनने का दंभ भरने वाले पत्रकार और संवाद-जगत के मसीहा बने फिरते लोग ही सर्वाधिक अन्याय-अत्याचार और शोषण का शिकार बने हुए हैं. समाज की आवाज बने इस वर्ग की अपनी आवाज ही कहीं खो गई है.
यही कारण है कि पत्रकारों और गैरपत्रकारों की मेहनत पर बरस रहे धन पर बड़े पत्र-समूह इतरा रहे हैं और उसके लिए वे पत्रकारों और गैरपत्रकारों को न सिर्फ बुरी तरह निचोड़ रहे हैं, बल्कि उनके हितों में आड़े आने वाले अथवा अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले पत्रकारों-गैरपत्रकारों की आवाज कुचलने से भी बाज नहीं आ रहे. फिर चाहे मामला नेटवर्क 18 जैसे समूह का हो या फिर नागपुर-महाराष्ट्र के सबसे बड़े अखबार समूह लोकमत का हो. लोकमत ने पिछले महीने 10 पत्रकार सहित अपने 61 कर्मचारियों को झूठे, फर्जी और आधारहीन आरोप लगाकर नौकरी से हटा दिया. इसके लिए कानून की धज्जियां उड़ाने से भी परहेज नहीं किया गया. मजे की बात यह कि अखबार समूह में हिंदी, मराठी और अंग्रेजी के तमाम पत्रकार, जो स्वयं को क्रांतिकारी विचारधारा का पोषक कहते नहीं थकते, भी निकाले गए कर्मचारियों के प्रति सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं व्यक्त कर सके. नेटवर्क 18 से सवा तीन सौ कर्मचारियों के हटाए जाने के बाद कम से कम पूरे देश में विरोध की एक लहर चल पड़ी थी. समाचार पूरे देश में फैल गया था. समूह के मालिक मुकेश अंबानी की लानत-मलानत भी की गई थी, मगर लोकमत पत्र-समूह के हटाए गए पत्रकारों-गैरपत्रकारों के संबंध में गिनी-चुनी साइटों के अलावा किसी ने खबर देना भी मुनासिब नहीं समझा, जबकि इस अखबार समूह के मालिक भी कांग्रेस के प्रभावी सांसद हैं. मीडियामोरचा जैसी कुछेक साइट पर खबर आई, मगर उस पर कोई टिप्पणी देखने को नहीं मिली. यानी अखबार समूह के पत्रकार सहित 61 कर्मचारियों को सड़क पर लाने की अवैध कार्रवाई भी हमारी बिरादरी को विद्वेलित नहीं कर पाई. ऐसे में हम समाज को शोषण से मुक्त कराने और अन्याय-अत्याचार के खिलाफ लड़ने की बात कैसे कर सकते हैं. कैसे समाज को यह भरोसा दिला सकते हैं कि वह उसकी आवाज बनेगा या वह समाज के पीड़ित वर्ग की आवाज है.
वैसे भी आज पत्रकार केवल नौकरी करने में लगे हैं. समय खराब है और इसका आभास सड़क पर आने के बाद ही बहुत अच्छी तरह से होता है. देश भर में पत्रकार सबसे खराब हालत में हैं और इस साइट पर हम कई बार ऐसी खबरें देखते भी हैं, मगर हमारे बीच एकजुटता का अभाव, नौकरी जाने का भय हमें शोषण, अन्याय-अत्याचार के खिलाफ खड़े होने और उसका विरोध करने से रोकता है. लेकिन यह तो समस्या का हल नहीं है. कहीं न कहीं तो हमें शोषण, अन्याय-अत्याचार के खिलाफ खड़े होना होगा. केवल स्यापा करने से कुछ नहीं होगा. अखबारों में भले ही हमारे खिलाफ होने वाले शोषण, अन्याय-अत्याचार की खबरें न छपें. सोशल मीडिया में इससे कोई परहेज नहीं है और हमें इसे ही हथियार बनाना होगा.
मनोहर गौर
वरिष्ठ पत्रकार, नागपुर
दलित-आदिवासी और मीडिया
2013.12.03
देवेन्द्र कुमार / मानव समाज के प्रारम्भिक काल से ही मीडिया किसी न किसी शक्ल में मौजूद रहा है। एक अर्थों में कहा जाय तो आदि काल से आधुनिक काल तक मानव समाज का जो विकास रहा है। वह इसी मीडिया पर की गई सवारी का प्रतिफल है। मीडिया का विकास मानव समाज के विकास के समानान्तर चलता रहता है। देश, काल और समाज में आये संरचनागत आर्थिक बदलाव के अनुरूप मीडिया के रूप - स्वरूप में भी हमेशा बदलाव होता रहता है। पर यदि आदि काल से आघुनिक काल तक मीडिया की विकास यात्रा का अध्ययन किया जाय तब एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मीडिया के मूल चरित्र में कभी कोई बदलाव नहीं आया। मीडिया हमेशा-हमेशा सामाजिक अभिजनों का टूल्स बना रहा। इसका इस्तेमाल सामाजिक अभिजनो के आघिपत्य को कायम रखने और उसकी किलेबन्दी को मजबूत करने कि लिए किया जाता रहा है।
मीडिया विमर्श के केन्द्र में आम आदमी कभी रहा ही नहीं। आम आदमी हमेशा परिघि पर रहा। यही कारण है कि हमारा इतिहास राजा - महाराजाओ का इतिहास है, उनके जीवन की गतिविघियाँ हैं। जिस वर्ग के हाथों में मीडिया की ताकत रही उसने अपने और अपने वर्ग - चरित्र की कालिमा को मीडिया की ताकत से छुपाया और अपने विरोधियों की जायज मांगो को भी अनैतिक, अमर्यादित , अधार्मिक और असामाजिक करार दिया । अब चूंकि सामाजिक अभिजनों के हाथों में मीडिया की ताकत रही है इसलिए उसने हमेशा यहाँ के मूलवासियों के नायकों के चरित्र को एक सुनियोजित - सुविचारित तरीके से कंलकित किया, चरित्र हनन की कोशिश की, उस पर तोहमत लगायें, उनके उज्जवल चरित्र को भी संदेहास्पद एवं दागदार बनाया। क्योंकि कल का इतिहास आज की मीडिया के द्वारा ही लिखा जा रहा होता है, इसलिए कल की पीढ़ी आज की किसी घटना या व्यक्तित्व को किसी रूप में देखेगी वह आज की मीडिया की निरपेक्षता और वस्तुनिष्ठता पर निर्भर करता है पर जैसा कि स्पष्ट है मीडिया हमेशा सामाजिक अभिजनो का एक टूल्स रहा है । इसलिए इससे निरपेक्ष्ता और वस्तुनिष्ठता की आशा करना बेमानी है। यह हमेशा सामाजिक रूप से सशक्त समूह के साथ होता है उसकी चाकरी करता है उसके हितों व स्वार्थो का हिफाजत करता है इसीलिए समाज के वंचित, शोषित, उत्पीड़ित समूह का नायक हमेशा खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद् और अन्य सभी धर्मग्रन्थ तात्कालिक समाज का मीडिया ही है और इनके लेखन पर सामाजिक अभिजनों की सोच हावी रही है । इनके उपदेश्यों से समाजिक अभिजनों का हित, सोच और स्वार्थ मुखरित होता है। यह समाजिक अभिजनों के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इन ग्रन्थों में चित्रित खलनायकों का वास्तविक चरित्र का अध्ययन करते समय यह बात हमेशा हमारे दिमाग में रहनी चाहिए कि जिस मीडिया के द्वारा इन कथित खलनायकों के संबंध में सूचना दी जा रही है । वह एकहरी है, एक पक्षीय है अपने जल, जंगल, जमीन, और जमीर की लड़ाई लड़ते नायकों को बहुत ही सुनियोजित तरीके से खलनायक की छवि प्रदान कर दी गई है और यह काम आज भी जारी है। आज भी दलित - आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों के नायकों की छवि दुश्प्रचारित की जा रही है, उन्हें खलनायक के बतौर प्रस्तुत किया जा रहा है।
मीडिया की ताकत आज भी सामाजिक अभिजनों के हाथ में है और मीडिया की इसी ताकत के कारण सामाजिक अभिजनों की यह सुनियोजित - सुविचारित कोशिश रहती है कि दलित आदिवासी समुह के युवक - युवतियों की भागीदारी मीडिया के क्षेत्र में नहीं हो सके, मीडिया में उसके भागीदारी को हत्तोतसाहित किया जाए । कम से कम प्रिंट मीडिया की स्थिति यह है कि शायद ही किसी अखबार ने किसी दलित - आदिवासी युवक - युवती को अपने यहां स्टाफर के बतौर रखा हो जबकि उनकी रचनाएँ हर अखबार से प्रकाशित होती है। उसकी गुणवता पर कोई उंगली नही उठा सकता, एक पत्रकार के लिए आवश्यक नैसर्गिक प्रतिभा की उनमें कोई कमी नही है, उधमशीलता एवं जोखिम लेने की प्रवृति भी इनमें प्रचुरता में विद्यमान है, अगर पत्रकारिता को एक मिशन माना जाए तब भी इसे एक मिशन के बतौर अपनाने वाले दलित-आदिवासी पत्रकारों की कमी नही है, योग्यता के किसी भी मापदंड के ख्याल से ये कमतर नही है। फिर भी इनकी उपेक्षा की जाती है और यह सिर्फ उपेक्षा का मामला नही है यह तो एक साजिश का परिणाम है।
दलित-आदिवासी पत्रकारों की अखबार के दफतरों से गैर मौजूदगी महज होई इतेफाक नहीं है, एक दीर्घकालीन राजनीति व रणनीति का हिस्सा है और में सभी तरह के अखबार शामिल है। चाहे उनकी विचारधारा, उपरी व घोषित पक्षधरता कुछ भी हो। अपने को समाजवादी विचारधारा से प्रभावित मानने वाले अखबार हो या दक्षिणपंथ विचारधारा के झंडावदार। समाजवाद और दक्षिणपंथ दोनों ही सामाजिक अभिजनों के ही दो चेहरे है,। एक समाजवादी विचारधारा के नाम पर अपनी खपत बढ़ाना चाहता है तो दूसरा दक्षिणपंथी विचारधारा के नाम पर अपनी मार्केटिंग चाहता है। इनका समाजवाद की दक्षिणपंथी विचारधारा से कम संकीर्ण नही है और दोनों विचारधाराओं की मार्केटिंग एक ही सामाजिक समूहों के द्वारा किया जाता है। हर तरफ उन्ही का वर्चस्व है और इनकी एक समान रणनीति है ।
दलित-पिछड़ा व आदिवासी समुदाय को पत्राकारिता के क्षेत्र में प्रवेश कर कठोर अंकुश लगाना और इसका एक तरीका है अखबारों से इन्हें दूर रखना, इन्हे नियमित नहीं करना, नही तो क्या कारण है कि सवर्ण जातियों के सामान्य युवक -युवतियों को भी अखबारों मे सहजता से रख लिया जाता है पर ज्योंही एक दलित-आदिवासी इसकी कोशिश करता है, उसकी योग्यता पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर उसे अनाप-शनाप सवालों में उलझाया जाता है, उसके मेरीट को एक साजिश के तहत डीवल्युवेट कर उसमें हीनता की ग्रंथी पैदा करने की कोशिश की जाती है, और यह सब कुछ किया जाता है ,स्वतंत्र प्रतियोगिता के नाम पर। दलित-आदिवासी युवकों को बौद्धिक-आतंक कायम कर दबाने की कोशिश की जाती है, द्रोर्णाचार्य के समय से चली आ रही दलित-आदिवासी छात्रों को अपंग बनाने की प्रथा आज भी जारी है। हां, तरीके बदले है, रणनीतियाँ बदली है, पर दलित-आदिवासी छात्रों को नाकामयाब बनाने का कार्य योजना विराम नहीं लगा है।
कारण स्पष्ट है मीडिया भी इस समाज का एक हिस्सा है। जैसी समाज की संरचना होगी वैसी ही मीडिया की संरचना। चूंकि समाज में दलित-आदिवासी आज हाशिए पर है तो मीडिया में इनका हाशिए पर होना अस्वाभाविक नही है। मीडिया की ताकत उन्ही सामाजिक अभिजनों के पास है, जिसने दलित-आदिवासी व पिछड़ों को हाशिये पर ढकेला है। रही बात कभी-कभार दलितों के संबंध में लिखने की तो उसका कारण बाजार का दबाव है क्योंकि दलित-आदिवासी समुदाय में एक बड़ा हिस्सा आज पढ़-लिख रहा है, उनकी क्रय क्षमता बढ़ी है, अब उपभोक्ता वस्तुओं का वहाँ उपभोग भी होने लगा है, दलित-आदिवासी समुदाय में अखबारों की बिक्री दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और इसलिए दलित-आदिवासी के संबंध में कभी-कभार कुछ फीचर-आलेख व रिर्पोट लिखवा कर बाजार की इस संभावना को टटोला जाता है पर इसके साथ ही दलित-आदिवासी समुदाय का रीयल इश्यू सामने नही आ पाये इसकी रणनीतियां भी बनाई जाती है । यही कारण है कि दलित-आदिवासी समुदाय के जो युवक-युवतियाँ आज स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे है जिनके रिपोर्ट-आलेख मुख्यधारा के पत्रों में छपते रहते है उनसे भी मानवीय स्टोरी लिखने की फरमाईस की जाती है, उसे राजनीतिक सामाजिक आलेखों के लेखन से हतोत्साहित किया जाता है। क्योंकि बढ़िया से बढ़िया ह्यूमन स्टोरी भी शासकीय नीति पर बदलाव के लिए दबाव नही बना सकता।
इस प्रकार आदिवसी-दलित समुदाय का जो युवक-युवकियाँ स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे हैं उनकी भी स्वतंत्रता सीमित है, वहा अपने बुनियादी इश्यू को नही उठा सकता, क्योंकि वह जानता है वह प्रकाशित नहीं होगा, उसे वह लिखना है जो अखबार चाहता है, उस तरह की रिर्पोटिंग करनी है जिस तरह की रिर्पोट की जरूरत अखबर को है। और अखबार को जरूरत वैसी रिपोर्टिग की है जिससे सामाजिक अभिजनों की असुरक्षा खत्म हो, उसकी किले-बन्दी मजबूत हो, अखबार को जरूरत उस तरह की रिपोर्ट की भी है जिससे दलित-आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों के रीयल-इश्यू को डायर्वट किया जा सके और यदि यही काम एक दलित-आदिवासी रिपोर्टर करे तो इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता बढ़ जाती हैं। पर दलित-आदिवसी की समस्याओं पर कभी-कभार कुछ हल्के-फुल्के लिखवाने के लिए जिसका प्रयोग फिलर के रूप में किया जा सके स्थाई पत्रकार की आवश्यकता नहीं होती, उसे स्टाफ के बतौर रखने की जरूरत नही होती। इसलिए दलित-आदिवसी पत्रकारों को नियमित करने की जरूरत ही महसूर नहीं होती और इसके खतरे भी है,क्योंकि ज्योंही दलित-आदिवसी पत्रकार को रखा जायेगा वह मीडिया की आंतरिक रणनीति को समझने लगेगो। धीरे-धीरे वह दलित-आदिवासियों की मूल समस्याओं को सामने लाने की कोशिश करेगा।
विस्थापन को अवैध बतायेगा जल-जंगल-जमीन पर आदिवासी समाज की मालिकाना स्थिति को सामने लाने की कोशिश करेगा जन हक स्थापित करने की दिशा में चल रहे विभिन्न जनान्दोलनों को लीड खबर बनायेगा, आदिवासी क्षेत्रों में खनिज संपदा पर आदिवासियों का हक बतलाएगा, आदिवासी समाज को जबरन मुख्य धारा में शामिल करवाने के बजाय वह आदिवासी समुदाय की सामुदायिक जीवन पद्धति व आत्म-निर्भरता को प्रोत्साहित करेगा। आदिवासी समुदाय की जीवन पद्धति, रीति-रिवाज, परंपरा, सभ्यता एवं संस्कृति पर विजातीय संस्कृति के दबाव को सामने लायेगा और आदिवासी समाज में मौजूद प्रतिरोध की संस्कृति को सही परिपे्रक्ष्य में स्थान दिलायेगा और तब मीडिया भी उसके लिए प्रतिरोध करने का एक कारगार हथियार बन जायेगा और यदि यह हुआ तो सामाजिक अभिजनों का जो आधिपत्य व आतंक है उसमें दरार पड़ना प्रारंभ्ज्ञ हो जायेगा, इनका बौद्धिक प्रपंच बेनकाब हो जाएगा।
आज आदिवासी-दलित सामाजिक अभिजनों की अंतिम ताकत है जिसपर दलित-आदिवासी राजनीतिक-सामाजिक कार्यकत्ताओं ने समुचित ध्यान नहीं दिया, उसकी ताकत को नही समझज्ञ, उसका तोड़ विकसित करने की कोशिश नही की ओर इसी कारण उन्हें आत तक पूरी कामयाबी नहीं मिल सकी पर अब दलित-आदिवासी युवक-युवतियों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने प्रवेश की मंशा जाहिर कर इस कमी को पूरा करने की कोशिश नहीं की है। वह एक फूलटाइम के रूप में पत्रकारिता को अपनाने की इच्छा जाहिर कर रहे है।
अखबारों में नौकरियों की खोज कर रहे हैं पर मुख्य धारा की मीडिया पर काबिज सामाजिक अभिजन इस कोशिश को नाकयाब बनाने के लिए हर तिकड़म का सहारा ले रहे है, क्योंकि मीडिया की ताकत को दलित-आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों ने भले ही नहीं पहचाना हो, सामाजिक अभिजन मीडिया की इस ताकत से परिचित है और मीडिया की सभी ताकत के बुते उनका पूरा का पूरा साम्र्राज्य खड़ा है। भला कौन बेवकूफ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा पर इसका अभिप्राय यह भी नही है कि दलित-आदिवासी पत्रकारिता पर अब पूर्णविराम लग जाएगा। हाँ ! उन्हें मीडिया के नये रूप-स्वरूप की खोज करनी पड़ेगी। इस मुख्यधारा की मीडिया के समानान्तर एक नयी और दुरूस्त मीडिया की संरचना कायम करनी होगी। आदि काल से आधुनिक काल तक दलित-आदिवासी समुदाय ने हमेशा मुख्य धारा मीडिया के समानान्तर एक जन-मीडिया को बनाये रखा है। हमें इस जन-मीडिया की ताकत को पहचानना होगा और इसे और भी परिष्कृत कर मुख्य धारा की मीडिया को चुनौती देनी होगी पर इसके साथ ही मुख्य धारा की मीडिया में स्थान बनाने के लिए सामुहिक पहलकदमी को भी तेज करना होगा। हर मौके एवं अवसर का उपयोग करना होगा। यह लड़ाई इतनी आसान नही है और इसमें सफलता एक-दो दिनों मे नही मिल सकती हमें एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा । --------
लेखक -वरिष्ठ पत्रकार है
संपर्क -देवेन्द्र कुमार, दता विल्ला रोड मोराबादी,रांची, झारखंड।
मो- 9934155772
Navbharat Times Online
सूत्रों के मुताबिक नरेंद्र मोदी ने पूर्व क्रिकेटर सौरभ गांगुली को बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने और सत्ता में आने पर खेल मंत्री बनाने का ऑफर दिया है।
पूरी खबर पढ़ें:
#NarendraModi #NaMo #Modi
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Tehelka
The desert wears a saffron hue
After Delhi, the Congress' complete washout in Rajasthan has jolted the party's future plans and brought cheer to the BJP | http://bit.ly/1dsFfSQ
Economic and Political Weekly
Editorial: Food Security Uncertainties after Bali
http://www.epw.in/editorial/food-security-uncertainties-after-bali.html-0
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Urmilesh Urmil
मीडिया मंथन(RSTV) में इस बार हमने 'पांच राज्यों के चुनाव का् मीडिया कवरेज' विषय पर चर्चा की। देखिए शनिवार, शाम सात बजे RSTV पर।
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CNBC Awaaz - India's No.1 Business Channel
2014 चुनाव तक नहीं मिलेगी महंगाई से राहत
http://hindi.moneycontrol.com/mccode/news/article.php?id=92192
आखिर कौन है इस बढ़ती महंगाई का जिम्मेदार और कैसे इससे निजात पाई जा सकती है ये सीएनबीसी आवाज़ की खास पेशकश महंगाई चुनाव तक छुटकारा नहीं में जानने की कोशिश की गई है।
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Panini Anand
Our target is 272+. We are trying our best to achieve it. But even if we don't get 272 seats, we are going to emerge as the single largest party and many regional parties will join us, pre or post poll. There is possibility of pre-poll alliances as well. Some parties are already talking to us. We will talk about it at the appropriate time. We know that some will join us post-poll. What you see from outside —that no one will come, or no one will ally—let me tell you that this is not the reality. The truth is otherwise.
'Everyone Contributed, I Don't Want To Discount Any Factor' | Panini Anand
BJP President says some regional parties are in talks with the BJP for pre-poll alliances
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Jayantibhai Manani shared his photo.
2014 के चुनाव के पूर्व, मोदी के प्रचार प्रचार के लिए में 2500 करोड़ की सरदारपटेल की प्रतिमा आदिवासी क्षेत्र केवड़िया कोलोनी में ही स्थापित करने का आइडिया गुजरात सरकार को देनेवाला, आदिवासीयो का कोई घोर शत्रु ही हो सकता है.
क्योकि 70 गाँवो को खाली करवा के, 70 हजार आदिवासिओ को खदेड़ना बेईमानी ही है. प्रतिमा सरदार पटेल की जन्मभूमि करमसद में स्थापित क्यों नहीं कियी जा रही है?
"नर्मदा जिल्ला में स्टेचू ऑफ़ यूनिटी बनाने के लिए गुजरात सरकार आदिवासीओ लोगो पर अत्याचार कर रही हे ! आदिवासी विस्तारो में छोटे छोटे डेम और बंध बनाकर आदिवासी लोगो को विस्थापित किये जा रहे हे!
स्टेचू ऑफ़ यूनिटी ( सरदार पटेल कि मूर्ति ) बनाने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और एक नया पराक्रम करने जा रहे हे सरदार पटेल कि मूर्ति पानी के बिच रहे इसलिए गरुडेस्वार वियर नमक ३०० करोड़ का और एक नया बंध का निर्माण हो रहा हे ! जिस से आदिवासी के और ७० गावो को नुकशान होगा !
नर्मदा जिल्ला पूरा भाजपा सरकार के कंट्रोल में हे ! तालुका पंचायत, जिल्ला पंचायत , विधायक और संसद भी भाजपा का हे और सभी आदिवासी हे ! गावो के आदिवासी ओ को यहाँ के भाजपा के नेता ओ का साथ नही मिलता.
स्टेचू ऑफ़ यूनिटी को पर्य़ावरण विभाग कि मंजूरी नहीं दी हे फिर भी ये बनेगा पता हे क्यु क्यु कि यहाँ के नेता सो रहे हे और ना ही कांग्रेस पार्टी के आदिवासी नेता इन का विरोध करते हे सब मिल कर बाटकर जो खाते हे!
गुजरात सरकार आदिवासी ओ के संविधानिक हक़ नही दे रही और गुजरात में पेसा कानून, अनुसूची ५ & ६ का पालन नही हो रहा ! पुरे नर्मदा के आदिवासी विस्तार में साधू -साधवी ओ ने आदिवासी ओ कि जमीन हड़प रहे हे पर यहाँ के आदिवासी नेता सो रहे हे !
ना ही यहाँ का प्रशासन आम आदिवासी ओ कि बात सुनते ! गावो के नादान आदिवासी लोग आदिवासी नेताओ को वोट देती हे पर उन्हें क्या पता था कि उनका वो वोट उनकी जमीने छीन लेगा !" @Jago Adivasi Abhiyan
- अगर सरदार पटेल जिन्दा होते तो 70 आदिवासी गाँवो को खदेड़कर 2500 करोड़ की प्रतिमा बनाने का कडा विरोध करते.. और इस बजेट को बच्चो के कुपोषण हटाने के लिए इस्तेमाल करवाते... गुजरात में प्रति 100 बच्चो में से 45 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है. जिस में 100 आदिवासी बच्चो में से 88 बच्चे, 100 एससी बच्चो में से 75 बच्चे और 100 ओबीसी बच्चो में से 46 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है.. प्रोजेक्ट की हकीकत यह कि सरदार पटेल की आकृति वाली एक साठ मंजिला इमारत बनाई जा रही है, जिसकी ऊंचाई 182 मीटर होगी. अमेरिका की टर्नर कन्सट्रक्शन और माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोसिएट्स भवन निर्माण की कंपनियां हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया में भवन निर्माण का जाल खड़ा कर रखा है. इन कंपनियों में जहां टर्नर कंस्ट्रक्शन मुख्य निर्माण कंपनी है वही मीनहार्ट्ज तथा माइकल ग्रेव्स एण्ड एसोसिएट्स डिजाइन और आर्किटेक्ट फर्म हैं. मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में गठित सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने परियोजना के बारे में अपनी वेबसाइट पर जो आधिकारिक जानकारी मुहैया कराई है, उसके अनुसार यह मूर्ति तकनीकी तौर पर यह एक 182 मीटर (597 फुट) ऊंची ईमारत होगी, जिसमें अंदर पहुंचकर कोई भी व्यक्ति विस्तृत सरदार सरोवर का नजारा देख सकता है. इस इमारत की शक्ल एक इंसान जैसी होगी, जो सरदार वल्लभ भाई पटेल होंगे. जाहिर है मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक सरदार पटेल की प्रतिमा के बहाने सरदार सरोवर के आसपास एक पर्यटन केन्द्र विकसित कर रही है. व्यापार और कारोबार को राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में पेश करके मोदी गुजरात में पर्यटन कॉरीडोर विकसित करने की आधारशिला रख रहे हैं. टेण्डर में घोषित 2 हजार, 60 करोड़ की इस मूल परियोजना के प्रचार के लिए 3 करोड़ का अलग से टेण्डर निकाला गया है, जिसका इस्तेमाल परियोजना के पूरा होने से पहले इस मनोरंजन पार्क को दुनियाभर में डिजिटल मीडिया के जरिए प्रचारित करना है. अगर यह परियोजना मनोरंजक पार्क के रूप में प्रचारित की जाती, तो शायद देश और दुनिया के लिए सरदार पटेल का यह विशाल लौह भवन इतना चर्चा का विषय नहीं बन पाता. बहरहाल, उन्होंने जैसे चाहा, वैसे आने वाले इतिहास की व्याख्या कर दी और दुनिया उस 'सरदार के सपनों का सौदागर' को मोदीनामा मान जोर-शोर से प्रचार कर रही है. http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4502-moorti-ke-bahane-aadivasiyon-ka-daman-by-amrendra-yadav-for-janjwar
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Jayantibhai Manani shared Vijay Chauhan's photo.
मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी में बहुत समानताए है.
1. मनमोहनसिंह ओबीसी की जाति आधारित जनगणना के विरोधी और नरेंद्र मोदी भी ओबीसी की जाति आधारित जनगणना के विरोधी रहे है.
2. मनमोहनसिंह नहेरुपरिवार से नियंत्रित रोबोट है और नरेंद्र मोदी संघ परिवार से नियंत्रित रोबोट है.
3. सामाजिक न्याय के लिए ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों के संवैधानिक आरक्षण और संवैधानिक अधिकारों के दोनों विरोधी है.
4. कोर्पोरेट घरानों और उद्योगपतियो के विकास के लिए दोनों की स्पर्धा चल रही है.
5. दोनों देश के संविधान के राजयनीति के मार्गदर्शक सिध्धांतो के विरुध्ध शासन करते रहे है.
6. मनमोहनसिंह के शासन में देश के प्रति 100 बच्चो में से 41 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार है और नरेंद्र मोदी के शासन मे गुजरात के प्रति 100 बच्चो में से 45 बच्चे कुपोषण-भुखमरी के शिकार बने हुवे है.
दूसरी समानता के बारे में आप क्या कहेंगे?
बीसवी सदी का अंतिम तबक्का तथा इक्कीसवी सदी का प्रारंभिक तबक्का भारत के ब्राह्मण समुदाय व गैरब्राह्मण समुदाय के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है.. इसऐतिहासिक समयकाल मे मनमोहनसिंह जी तथा नरेन्द्रभाई मोदी जैसे गैरब्राह्मण व्यक्तियों की भूमिका ने करोडो बहुसंख्यक भारतीयों के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है.. संक्षिप्त मे कहा जाए तो मनमोहनसिंह जी ने और नरेन्द्रभाई मोदी ने खास समुदाय के नियंत्रण मे रहकर उनके ही हितों मे कार्य किये है, और वर्तमान ई.स.2013 मे भी कर रहे है.. यह दोनों महाशयो की सिर्फ कार्यपद्धति मे ही तफावत लग रहा है..!! मनमोहनसिंह जी मौन रहकर याने के कम बोलकर कार्य करते रहते है, और नरेन्द्रभाई मोदी ज्यादातर बोलकर कार्य कर रहे है..!! ब्राह्मण और गैरब्राह्मण समुदाय के जागृत व जानकार लोग अपनी अपनी दृष्टि से आनेवाले भविष्य मे इस दो महाशयो को याद करते रहेंगे..
Like · · Share · Yesterday at 10:48am ·
Avinash Das
भारतीय राजनीति के मौजूदा दिल्ली चैप्टर में हम बहुत कुछ ऐसा देख रहे हैं, जो कभी सुनने को भी हीं मिला था। एक बहुत मामूली और चुनाव लड़ कर आयी पार्टी संसदीय राजनीति के सीमाएं और व्यावहारिकताएं एक एक करके बेपर्दा कर रही है। Aam Aadmi Party को दोनों बड़े राष्ट्रीय दल (बीजेपी और कांग्रेस) जिस तरह घेरना चाहते थे, वह घिरने के बजाय ऐसे पलटवार कर रही है जैसे लगता है कि राजनीति के नियम ये लोग बदल कर रहेंगे। यहां हम वे सारे पत्र और शर्तों की स्कैन कॉपी अटैच कर रहे हैं।
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H L Dusadh Dusadh
मित्रों कुछ देर पहले टीवी पर देखा कि भाजपा द्वारा दिल्ली में सरकार बनाने की असमर्थता के बाद कांग्रेस ने आप को बिना समर्थन सरकार बनाने की सुचना राज्यपाल को दे दी है.किन्तु आपके लोग फिर भी सरकार बनाने से भाग रहे हैं.इसका मतलब यह है कि जब उन्हें पूर्ण बहुमत मिलेगा तभी वे सरकार बनायेंगे.हम जानते हैं आपमें से ढेरों लोग आपके अनुयायी बन चुके है.क्या आपको आप वालों से यह सवाल नहीं करना चाहिए की जब विगत कुछ सरकारे बिना बहुमत के दूसरों को सहारे ५ साल सफलतापूर्वक काम रही हैं,तब कांग्रेस के निशर्त समर्थन के बाद वे क्यों भाग रहे हैं?क्या वे बिना आपका पूर्ण समर्थन पाए सरकार नहीं बना सकते?अर्थात जिस तरह भाजपा केंद्र में बहुमत पाए बिना राम मंदिर नहीं बना सकती उसी तरह आप वाले बिना बहुमत के अपना एजेंडा लागु नही कर सकते.मित्रों सच्ची बात तो यह है की आप्वालों का लक्ष एक भ्रम की स्थिति बनाकर सत्ता पर एक्धिकार कायम पाना है.एकाधिकार कायम करने पूर्व यदि सत्ता में आएंगे तो उनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी अर्थात भ्रष्टाचार के खात्मे सहित आपको सस्ते दर पर बिजली -पानी मुहैया नहीं करा पाएंगे .इसलिए सत्ता से दूर भाग रहे हैं ताकि अगले एम्पी इलेक्सन तक वे आपको भरमाये रख सके.मित्रों चेत जाओ.आप ठगों और राष्ट्रविरोधी लोगो का बाप है.अभी भी मौका है चेत जाओ.
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[LARGE][LINK=/article-comment/16536-2013-12-14-06-16-25.html]राडिया टेप कांड में सीबीआई ने की बरखा दत्त से पूछताछ[/LINK] [/LARGE]
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Details Category: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK] Created on Saturday, 14 December 2013 11:46 Written by B4M_Bureau सीबीआई ने कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया की टेप की गई बातचीत की जांच के सिलसिले में हाल ही वरिष्ठ पत्रकार बरखादत्त से पूछताछ की. सूत्रों ने बताया कि रिकार्ड का गई बातचीत में बरखादत्त की भी आवाज पाई गई है जिसके लिए एजेंसी ने उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया था. बरखा दत्त एनडीटीवी की ग्रुप एडिटर हैं. सूत्रों का कहना है कि रिकार्ड बातचीत में किसी वित्तीय लेनदेन की चर्चा है. सीबीआई ने कहा है कि उन्हें केवल कुछ जानकारियों की पुष्टि के लिए बुलाया गया था. एजेंसी ने यह भी कहा कि पत्रकार का नाम किसी प्रारम्भिक जांच में नहीं है. जांच एजेंसी ने बताया कि कुछ अन्य लोगों के भी नाम हैं और उन्हें भी जांच के लिए बुलाया जा सकता है. जस्टिस जीएस सिंघवी की अध्यक्षता वाली सु्प्रीम कोर्ट की पीठ ने ऐसे तेईस मामलों की पहचान की है, जिसे शीर्ष अदालत द्वारा नियुक्त दल ने अधिकारियों, राजनेताओं, व्यापारिक घरानों के दिग्गजों की लाबिस्ट नीरा राडिया के साथ टेप की गई बातचीत की जांच के बाद तैयार किया था.
[LARGE][LINK=/state/delhi/16539-18.html]केजरीवाल ने समर्थन लेने के लिए रखी ये 18 शर्तें (पढ़ें चिठ्ठी)[/LINK] [/LARGE]
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Details Parent Category: [LINK=/state.html]State[/LINK] Category: [LINK=/state/delhi.html]दिल्ली[/LINK] Created on Saturday, 14 December 2013 13:29 Written by B4M_Bureau कांग्रेस द्वारा केजरीवाल को बिना शर्त समर्थन देने के प्रस्ताव का जवाब देते हुए केजरीवाल ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों के सामने समर्थन लेने के लिए 18 शर्तें रखीं हैं और कहा है कि अगर इन 18 शर्तों पर कांग्रेस या भाजपा सहमत हैं तो आम आदमी पार्टी सरकार बनाने को तैयार है. अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को चिठ्ठी लिखकर अपनी शर्तें उनके सामने रखी हैं. नीचे केजरीवाल द्वारा लिखी गई चिठ्ठी दी जा रही है. आप भी पढ़िए और जानिए कि क्या हैं केजरीवाल की शर्तें- [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-1_121413113431.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-2_121413113431.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-3.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-4_121413113503.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-5_121413113503.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-6_121413113503.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-7_121413113503.jpg[/IMG] [IMG]http://bhadas4media.com/images/13aug/letter-to-sonia-gandhi-8_121413113503.jpg[/IMG] Loading...
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जब जनता आती है और ठगी जाती है…
-क़मर वहीद नक़वी||
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है! देश के पहले गणतंत्र दिवस के मौक़े पर रामधारी सिंह 'दिनकर' ने यह कविता लिखी थी. उसके चौबीस साल बाद उनकी यह पंक्ति जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन का नारा बन कर गली-गली गूँजी थी. अब दिल्ली में 'आप' के चमत्कार के बाद ऐसा लगता है कि जनता एक बार फिर अपना सिंहासन पाने के लिए फिर मचल उठी है! लेकिन सब एक ही सवाल पूछ रहे हैं. क्या हर बार की तरह एक बार फिर लुटी-पिटी और ठगी हुई जनता को सत्ता के दरवाज़े से दुरदुरा कर भगा दिया जायेगा? पिछले दो सालों से देश की जनता में बड़ी बेचैनी दिख रही है. अन्ना के जनलोकपाल आन्दोलन से जनता उठ खड़ी हुई थी. भ्रष्टाचार ख़त्म हो, जनता का राज हो. न भ्रष्टाचार ख़त्म हुआ, न जनता का राज आया, न लोकपाल बना. अन्ना ज़रूर दिल्ली से अपना बोरिया-बिस्तर लेकर अपने गाँव रालेगण सिद्धि पहुँच गये और अब वहीं अनशन कर रहे हैं. हाँ, उस आन्दोलन से टूट कर आम आदमी पार्टी ज़रूर बन गयी, जो दिल्ली के बाद अब लोकसभा चुनाव के लिए ताल ठोक रही है. लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि 'आप' यानी कि आम आदमी पार्टी क्या सचमुच राजनीति में कोई बदलाव ला पायेगी, क्या वाक़ई सत्ता में आम आदमी को हिस्सेदारी मिल पायेगी, क्या पार्टी के पास कोई ठोस राजनीतिक दृष्टि है, क्या उसके पास देश की समस्याओं का कोई ठीकठाक हल है या फिर महज़ नारों के गुब्बारे ही हैं, जिनसे भीड़ को कुछ देर बहलाया ही जा सकता है, बस.
1974 के दिन याद आ रहे हैं. हालात तब भी कमोबेश आज जैसे ही थे. महँगाई थी, भ्रष्टाचार था, सत्ता निरंकुश थी, जनता त्रस्त थी, कहने को लोकतंत्र था, लेकिन लोक पूरी तरह ग़ायब हो चुका था, सिर्फ़ तंत्र ही तंत्र बचा था, जो देश को किधर हाँक रहा था, किसी को पता नहीं था. ऐसे में गुजरात से छात्रों का 'नवनिर्माण आन्दोलन' शुरू हुआ और देखते ही देखते वह बिहार पहुँचा और 'सम्पूर्ण क्रान्ति' का नारा बुलन्द हो गया. जेपी यानी जयप्रकाश नारायण के पीछे सारा देश खड़ा हो गया. वह लोकनायक कहलाये जाने लगे. और आख़िर जनता की ताक़त ने इमर्जेन्सी के तमाम दमन को बर्दाश्त करते हुए भी इन्दिरा गाँधी के शासन का ख़ात्मा कर दिया.
जनता जीत गयी थी. दिल्ली की सरकार बदल गयी थी. लेकिन सम्पूर्ण क्रान्ति के सपने की गठरी के साथ जनता और जेपी दोनों किनारे लगाये जा चुके थे. राजनीति ने उन्हें ठग लिया था, ठीक वैसे ही जैसे आज़ादी के बाद गाँधी ठगे हुए हाथ मलते रह गये थे! हालाँकि आज़ादी मिलने के कुछ सालों तक लोगों को यह भरम ज़रूर बना रहा कि जनता का राज आ चुका है. वरना 26 जनवरी 1950 को देश का पहला गणतंत्र मनाने के लिए 'दिनकर' यह न लिखते कि 'सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है!'
1947 में जनता आयी थी, उसने अँगरेज़ों से सिंहासन ख़ाली करा लिया और लकदक खादी कुरते वाले वहाँ विराजमान हो गये. राजकाज चलने लगा, लोकतंत्र आ गया था, इसलिए नेता राजा हो गये, जनता वैसे ही 'परजा' बनी रही और गाँधी 'महात्मा' बना कर अपने आश्रम में सिमटा दिये गये! गोडसे की गोली के काफ़ी पहले ही तंत्र गाँधी को मार चुका था!
फिर 1988 में एक बार फिर भ्रष्टाचार के मुद्दे ने देश को मथा. बोफ़ोर्स तोपों का मामला गूँजा. वी. पी. सिंह के पीछे जनता फिर खड़ी हुई. नारा गूँजा, 'राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है!' एक बार फिर लगा कि भ्रष्टाचार हारेगा, ग़रीब जीतेगा, व्यवस्था में बुनियादी बदलाव होंगे. लेकिन मंडल-कमंडल की राजनीति में देश ऐसा बँटा कि सब बंटाधार हो गया!
और अब 'आप' की डुगडुगी बज रही है. जनता ने फिर उम्मीदें रोपनी शुरू की हैं. बहुत-से लोगों को लगता है कि परम्परागत राजनीति के ढर्रों को अगर कभी कोई ध्वस्त कर सकता है, वह 'आप' जैसा संगठन ही हो सकता है, जिसके लोग 'पेशेवर' राजनेता नहीं़, बल्कि सचमुच हमारे अड़ोस-पड़ोस के आम आदमी हैं. ऐसा मानना और समझना ग़लत नहीं. लेकिन 'आप' को इतिहास से सीखना चाहिए. अरविन्द केजरीवाल न गाँधी हैं, न जेपी और न ही वीपी. गाँधी और जेपी तो ख़ैर बहुत बड़ी चीज़ थे और उनकी दृष्टि, दर्शन और राजनीतिक-सामाजिक सूझ-बूझ के मामले में कोई दूर-दूर तक कहीं नहीं ठहरता. फिर भी इतिहास गवाह है कि ये दोनों सत्ता के राजनीतिक कुचक्र के हाथों बुरी तरह ठगे गये. वीपी ख़ुद राजनीति के खिलाड़ी थे, लेकिन वह अपनी ही राजनीति के भँवर में ऐसे फँसे कि ख़ुद ही डूब गये! कुछ और भी उदाहरण हैं. जैसे अन्ना हज़ारे, जिनके साथ जुटी भीड़ देख कर तंत्र का दम फूल गया, लेकिन आख़िर उन्हें भी उसने अपने मकड़जाल में उलझा कर समेट दिया! केजरीवाल ने अभी तक सपने तो ख़ूब बेचे, लेकिन वे पूरे कैसे होंगे, यह वह साफ़ नहीं करते. उन्हें चाहिए कि वह देश को विस्तार से बतायें कि उनके पास क्या कार्ययोजना है, आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक-वैश्विक मोर्चे पर उनकी नीतियाँ क्या होंगी और वे नीतियाँ मौजूदा व्यवस्था के मुक़ाबले कैसे बेहतर होंगी, वे तंत्र को कैसे दुरुस्त करेंगे? वरना जनता एक बार फिर ठगी जायेगी और उनमें व दूसरे राजनीतिक दलों में क्या अन्तर रह जायेगा जो हर पाँचवे साल जनता को ठगते हैं?
(लोकमत समाचार)
Read more: http://mediadarbar.com/24564/when-the-public-comes-and-goes-swindle/#ixzz2nR1o6RHE
अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के दबाव में सरकारों ने सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बरबाद करने का एजेंडा लागू किया
भोपाल। शिक्षाविद डॉ. अनिल सद्गोपाल ने कहा है कि सन 1991 में वैश्वीकरण की घोषणा के बाद से अंतर्राष्ट्रीय पूंजी और उसकी विभिन्न एजेंसियों (यथा, विश्व बैंक, आइ.एम.एफ, डी.एफ.आइ.डी. व अन्य) के दबाव में केंद्र व राज्य सरकारों ने सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल व बरबाद करने का एजेंडा लागू किया। इसके तहत डी.पी.ई.पी व सर्व शिक्षा अभियान जैसी स्कीमों के जरिए सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता गिराई गई जिससे गरीब तबके के लोग भी अपने बच्चों को वहां पढ़ाने से कतराने लगें। इस तरह सरकारी स्कूल व्यवस्था की विश्वसनीयता मिट्टी में मिलाई गई ताकि निजी स्कूलों के अबाध मुनाफे का बाजार खोला जा सके।
डॉ. सद्गोपाल आज एक प्रेस वार्ता में संवाददाताओं से बात कर रहे थे। शिक्षा में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका के मुद्दे पर इस प्रेस-वार्ता का आयोजन शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल द्वारा किया गया था। मंच की तरफ से इसे शिक्षाविद डॉ. अनिल सद्गोपाल (सदस्य, अध्यक्ष-मंडल, अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच), शैलेंद्र शैली (सीपीआई), आशीष स्ट्रगल(ए.आइ.एस.एफ.), विजय कुमार (आर.वाइ.एफ.आइ.) ने संबोधित किया।
वक्ताओं ने कहा कि शिक्षा अधिकार कानून, 2009 दरअसल सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। ये कानून बच्चों को अच्छी व मुफ्त शिक्षा का अधिकार नहीं देता बल्कि कारपोरेट घरानो और उनके गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को महंगी शिक्षा के माध्यम से मनमाने ढंग से मुनाफा कमाने का अधिकार देता है। यह एक विडंबना है कि जिस अंतरराष्ट्रीय पूंजी के दबाव में सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल और बरबाद किया गया उसी पूंजी की विभिन्न एजेंसियों द्वारा पोषित एनजीओ मध्य प्रदेश में भी अपने पांव पसार रहे हैं और कथित तौर पर सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की जनता स्वाभाविक तौर पर यह पूछेगी कि आखिर यह खेल क्या है और इन एनजीओ का असल मकसद क्या है?
मंच से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के नाम पर ये एनजीओ 'शिक्षा अधिकार कानून, 2009' के प्रावधानों को 'अच्छी तरह लागू करने' की वकालत करते हैं। जबकि इस कानून की असलियत यह है कि इसके जरिए,जिस भेदभावपूर्ण, गैर-बराबर और बहुपरती शिक्षा व्यवस्था के कारण देश के बहुसंख्यक गरीबों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों व हाशिए पर धकेले गए अन्य समुदायों के बच्चे शिक्षा से वंचित किए गए हैं, उसी व्यवस्था को न सिर्फ जारी रखा गया है, बल्कि कानूनी जामा भी पहनाया है;सरकारी स्कूलों के लिए घटिया मानदंड रख कर उन्हे हमेशा दोयम दर्जे का बनाए रखने का इंतजाम किया गया है;वंचित तबकों के बच्चों के लिए निजी स्कूलों में '25 फिसदी कोटे' के बहाने सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंपने रास्ता खोला गया है जबकि यह धन सरकारी स्कूलों के बेहतरीकरण के लिए इस्तेमाल होना था;सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से तमाम गैर-शैक्षणिक काम करवाने को पूरी तरह वैधानिक कर दिया गया है जबकि निजी स्कूलों के शिक्षक इस बाध्यता से मुक्त रखे गए हैं;बच्चों से कला, संगीत, खेलकूद और कंप्यूटर सीखने के अधिकार को छीन कर 'राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005' का भी उल्लंघन किया गया है, जबकि ये सारी सुविधाएं देश के संपन्न तबके के बच्चों को अभिजातीय व महंगे स्कूलों में पैसे देकर मिलती हैं;बिना पूर्णकालिक हेडमास्टर और पर्याप्त शिक्षकों के भी सरकारी स्कूल चलाने की छूट सरकार को मिल गई है; निजी स्कूलों को अभिभावकों से बेरोकटोक पैसा वसूल कर मुनाफा कमाने की पूरी छूट मिल गई है। यही नही इस मुनाफे को पूरी तरह 'टैक्स-फ्री' रखा गया है। (स्कूल शिक्षकों के वेतन पर तो आयकर है लेकिन स्कूल के मालिकों के मुनाफों पर नही!);
वक्ताओं ने कहा कि सरकारी स्कूलों को लगातार बदहाल कर उनकी तालाबंदी/विलयन/नीलामी/आउटसोर्सिंग आदि के माध्यम से निजी हाथों में सौंपने के दरवाजे वैधानिक तौर पर खोल दिए गए हैं। पूरे देश के अलग-अलग प्रदेशों में यह धड़ल्ले से हो रहा है। फिर भी ये एनजीओ शिक्षा अधिकार कानून, 2009 के प्रावधानों को 'अच्छी तरह लागू करने' की वकालत करते हैं! क्या इसलिए कि इनके अपने बच्चे इन बदहाल होते सरकारी स्कूलों में नही पढ़ते? या फिर क्या इसलिए कि ये एनजीओ उसी अंतरराष्ट्रीय पूंजी द्वारा पोषित हैं जिसने पिछले 25 साल में सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल और बरबाद करवाया और शिक्षा को आज मुनाफाखोरी का बाजार बना दिया है? उन्होंने कहा कि सच्चाई यह है कि ये एनजीओ शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए नहीं, बल्कि इसके उलट ऐसी जमीनी लड़ाइयों को भ्रामक तर्कों में उलझाकर और फौरी राहत के नाम पर कुछ समझौते कराकर जनता को उसके अधिकार से वंचित रखने के लिए और इस तरह मुनाफाखोरी की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए काम कर रहे हैं। और इसी काम के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी इन्हे अपने मुनाफे की लूट का एक हिस्सा देकर खुद ही खड़ा करती है। दरअसल ये एनजीओ जिस कानून को 'अच्छी तरह लागू करने' की वकालत कर रहे हैं उस कानून के शिक्षा-विरोधी नवउदारवादी स्वरूप के कारण शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल पिछले चार सालों से विरोध कर रहा है और भोपाल के लोग इस दौरान दो बार इस कानून की प्रतियां विरोध-स्वरूप जला चुके हैं और इस कानून की जगह पूरी तौर पर मुफ्त और सरकार द्वारा वित्त-पोषित 'समान स्कूल व्यवस्था' स्थापित करने वाले कानून की मांग करते रहे हैं।
About The Author
लोकेश मालतीप्रकाश स्वतंत्र पत्रकार हैं, शिक्षा अधिकार मंच से जुड़े हुए हैं।
देश में 13.4 फीसदी जेल में 21 फीसदी मुसलमान, सब बदला बस नहीं बदली मुसलमानों की हालत
देश और राज्यों में सरकारें बदलती रही, मुसलमानों की बेहतरी के लिये समितियाँ और आयोग बनते रहे। उनकी सिफारिशों पर मुनासिब बहस भी होती हैं मगर नहीं बदली तो देश में मुसलमानों की हालत और इल्जाम यह कि मुसलमान वोट बैंक है….
संजय स्वदेश
पेड़ काट कर डाल को सींचने से वृक्ष के जीवन की आशा व्यर्थ है। देश में मुस्लिम आबादी के साथ कुछ ऐसी ही कहानी है। सियासी दाँव पर लगे मुस्लिम समाज की बहुसंख्यक लोग शिक्षा और रोजगार में पिछड़ गये हैं। नकारात्मक माहौल में पल बढ़ कर आपराधिक मामलों में भी पिस रहे हैं। इसलिये कहा जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी का जो प्रतिशत देश में है, उससे ज्यादा प्रतिशत जेल में है। कई बार शक के आधार पर पुलिस कार्रवाई और अन्याय के प्रणाली के शिकार मुसलमानों की बड़ी संख्या जेल जाती है। ज्यादा दिन नहीं हुये जब केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इस बात को लेकर एक सार्वजनिक बयान दिया कि इस तरह शक के आधार पर मुस्लिम समाज के बेगुनाह लोगों की गिरफ्तारी नहीं की जाये। ऐसे पीड़ितों की अन्याय के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई बुलन्दी से नहीं उठती है। सिस्टम और परिस्थितियों के कारण उनके मन में द्वेष के बीज अंकुरित हो जाते हैं। सियासी गलियारों में मुसलमानों के हित की वकालत बड़ी चालाकी और लुभावनी तरीके से की जाती है। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ कार्य हुये होते तो आज हालात यह नहीं होते। जुबानी जमा खर्च का लाभ बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी तक नहीं पहुँच पाया है। सियासी लाभ के लिये इन पक्ष में दिये जाने वाले बयान सर्व धर्म समभाव की भावना का पोषण भी नहीं करते हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, मुस्लिम समाज में शिक्षा, न्याय व अन्य आँकड़े दीगर हकीकत बताते हैं। यह आँकड़े ही कहते हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ही मुस्लिमों की उपस्थिति का प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों से कमतर है।
आजादी के साथ ही मुसलमानों की बेहतरी के लिये चिन्ता जाहिर की गयी और यह चिन्ता आज भी जाहिर की जा रही है, पर कौम की बड़ी आबादी हमारी सामाजिक और न्याय प्रणाली से आहत है। इसकी मूल वजह मुसलमानों के शिक्षा के प्रतिशत में कमी को कहना गलत नहीं होगा। देश में मुसलमानों के अलावा अन्य कई जातियाँ अल्प संख्या वर्ग शामिल हैं, जिनकी साक्षरता दर पर संतोष नहीं जताया जा सकता है किन्तु उनकी माली हालत मुस्लिमों की तुलना में ज्यादा तेज गति से सुधर रही है। सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के बाद भी उन्हें थोड़ा बहुत लाभ मिल जा रहा है।
मुस्लिम जमात के बच्चों की बुनियादी तालीम मदरसों से शुरू होती है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा निगरानी समिति की स्थायी समिति भी मदरसों की बदहाली पर चिन्ता जाहिर कर चुकी है। मदरसों के आधुनिकीकरण के तैयार मॉडल में शिक्षकों को बेहतर वेतन और कंप्यूटरीकरण के लिये वित्तीय वर्ष 2012-2013 में 9905 मदरसों के लिये 182.49 करोड़ की मंजूरी दी गयी है। जिसे अमलीजामा पहनाना शेष है। इसलिये फिलहाल इस राहत को दूर के ढोल सुहावने से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता है।
बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, असम, पश्चिम बंगाल और पंजाब में देश भर के मुसलमानों की आबादी करीब 45 प्रतिशत है। इन राज्यों के साक्षरता प्रतिशत में पश्चिम बंगाल और दिल्ली को छोड़कर अन्य राज्यों में मुसलमानों की साक्षरता प्रतिशत असंतोष कारक है। देश के 374 जिलों में से 67 जिले अल्पसंख्यक बहुल हैं।
सन् 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के उल्लेखनीय पक्ष में मुसलमानों को कई योजना में लाभ नहीं मिलने की बात बतायी थीं। स्वामीनाथन एस अंकलेसरैया की अध्यक्षता वाली रिपोर्ट में भी मुसलमानों की तरक्की को लेकर चर्चा की गयी। मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि को लेकर हुयी बहस में मुसलमानों का मूल्याँकन कमतर किया जा रहा था किन्तु सच्चर कमेटी और स्वामीनाथन रिपोर्ट के दूसरे पक्ष ने मुसलमान के विकास की गति को असंगत बताया।
शिक्षा के इतर आपराधिक मामलों के आँकड़ों पर भी गौर करें तो पायेंगे कि हिंसा में मुसलमानों का दखल ज्यादा है। अपराध का वास्ता न्यायालय और पुलिस से पड़ता ही है। पुलिस कार्रवाई की ज्यादती से न्यायालयों के तथ्य में झोल-झाल स्वाभाविक है और इससे अन्याय सम्भव है। केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के अधीन संस्था राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एमसीआरबी) और देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार सेकुलर और कम्युनल सरकारों का रवैया मुसलमानों के प्रति एक समान रहा है। पश्चिम बंगाल में लम्बे समय तक वामपंथी शासन रहा है। पश्चिम बंगाल के जेलों में बन्द कैदी आधे मुसलमान हैं। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में थोड़ी राहत मिली है। वहाँ हर तीसरा और चौथा कैदी मुसलमान है। जम्मू-कश्मीर, पांडुचेरी, सिक्किम के अलावा देश के अन्य जेलों में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत ज्यादा है। जनगणना रिपोर्ट 2001 के अनुसार मुसलमानों आबादी देश में 13.4 फीसदी थी और दिसम्बर 11 के एनसीआरबी के आँकड़े के अनुसार जेल में मुसलमान 21 फीसदी हैं।
जेल यात्रा के चलते कई मुसलमान परिवार तबाह हो गये। आर्थिक, मानसिक और सामाजिक यातनाओं को झेलने वाले परिवारों की कहानी बड़ी मार्मिक है। किसी भी वारदात के बाद संदेह में बड़ी संख्या में मुसलमानों की गिरफ्तारी हुयी। ढेरों मामले हैं जिसमें बेगुनाह मुस्लमान वर्षों जेल में पिसते रहे। मामला झूठ साबित होने पर रिहा हुये। ऐसे हालात की स्थिति वैसे ही हैं जैसे गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है देश की अधिकतर आतंकी वारदातों में जो आरोपी पकड़े जाते हैं, वे ज्यादातर मामलो में मुस्लिम निकले हैं। फिर भी व्यक्ति आतंकी की सजा पूरे कौम को नहीं दी जा सकती है। ऐसे पीड़ितों पर सियासत के दिग्गजों ने अधिकतर सहानुभूति के बोल के ही मरहम लगाया है।
परिवार को राहत दिलाए जाने की वकालत अनेक राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने की है।
पिछले दिनों मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि मुसलमान यदि आज पुलिसिया जुल्म के सामने बेबस नजर आता है तो यह कांग्रेस की भी कमजोरी है। वहीं यह भी सच है कि इस मामले में भाजपा की छवि को भी पाक साफ नहीं कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में माकपा नेता ज्योति बसु का मुख्य मंत्रित्व काल के 30 साल के लिये विख्यात है। मुसलमान अन्याय के मामले में पश्चिम बंगाल का ग्राम देश में सर्वाधिक ऊंचा है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुखतार अब्बास नकवी ने कहा कि राज्यों इस समस्या को मानवीय आधार पर सुलझाना चाहिए।
वहीं मुसलमानों पर पक्षपात पूर्ण कार्रवाई पर पीयूसीएल का आरोप है। सरकारें बदली दल बदला पर मुसलमानों की इस समस्याओं का निराकरण नहीं हुआ। क्योंकि सियासत में मुसलमान कौम को मोहरे के रूप इस्तमाल किया जा रहा है। गुजरात कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकार हिदायत देनी पड़ी थी। राज्य में पोटा और टाडा के तहत 280 लोगों को गिरफ्तार किया, जिसमें 279 मुसलमान थे। इसमें से मात्र डेढ़ प्रतिशत को सजा हुयी। पोटा के तहत 1031 लोगों को गिरफ्तारी हुयी जिसमें मात्र 13 को सजा हुयी। आज तक जारी पुलिसिया कार्रवाई पर अकुंश नहीं लगाया गया है। देश के अमूमन राज्यों में मुसलमानों की यही दशा है। जाहिर से इस समाज में शिक्षा की लौ जैसे ही तेज होगी, समाज की सोच प्रगतिशील होगी। आने वाली पीढ़ी में हिंसा और अपराध की राह को छोड़ अपने घर परिवार और भविष्य को सुखमय बनाने में व्यस्त होगी। इसी से समाज भी मजबूत होगा। देश भी मजबूत होगा।
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संजय स्वदेश, लेखक समाचार विस्फोट के संपादक हैं।
आईबी ही चलाती है इंडियन मुजाहिदीन, सरकार श्वेतपत्र लाये- रिहाई मंच
राजेन्द्र कुमार पर आरोप पत्र दाखिल न करके सीबीआई ने साबित किया कि वह गृह मंत्रालय की गुलाम है- रिहाई मंच
धरने के 44 वें दिन क्रमिक उपवास पर अरुण वर्मा बैठे लखनऊ, 4 जुलाई। मौलाना खालिद मुजाहिद के हत्यारे पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी, निमेष आयोग की रिपोर्ट पर तत्काल अमल करने और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को छोड़ने की माँग के साथ चल रहा रिहाई मंच का अनिश्चितकालीन धरना आज 44 वें दिन भी जारी रहा। आज उपवास पर अरुण वर्मा बैठे।
कचहरी धमाकों के आरोप में फँसाये गये तारिक कासमी के चचा हाफिज फैयाज आजमी ने कहा कि मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने कहा था कि वो मानसून सत्र में आरडी निमेष कमीशन की रिपोर्ट को एक्शन रिपोर्ट के साथ लायेंगे पर अब तक जिस तरीके से मानसून सत्र ही नहीं बुलाया गया उसकी वजह से मेरे बेगुनाह बेटे की रिहाई सम्भव नहीं हो पा रही है। ऐसे में मैं सरकार से माँग करता हूँ कि जल्द से जल्द मानूसन सत्र बुलाकर आरडी निमेष कमीशन की रिपोर्ट पर सरकार एक्शन ले।
इंडियन नेशनल लीग के राष्ट्रीय अध्यक्ष मोहम्मद सुलेमान और अवामी काउंसिल के महासचिव असद हयात ने कहा कि कुछ दिन पूर्व गृह मंत्रालय भारत सरकार द्वारा यह विवाद खड़ा किया गया कि सरकार को अधिकार है कि वह किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध तैयार किये गये आरोप पत्र का अध्ययन करे और यह देखे कि उस कृत्य को जिसे जाँच एजेंसी द्वारा अपराध बताया जा रहा है और जिसके लिये आरोप पत्र तैयार किया गया है, क्या वह कृत्य उस लोक सेवक द्वारा अपने पद पर रहते हुये पद से जुड़ी जिम्मेदारियों और कर्तव्य के अनुपालन में हुआ है। गृह मंत्रालय का यह विवाद व्यर्थ है और आईबी के अधिकारी राजेन्द्र कुमार व अन्य को बचाने का एक कुत्सित प्रयास है। सीबीआई द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि उसके पास इन अधिकारियों के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य हैं कि इन अधिकारियों द्वारा साजिश में शामिल होकर फर्जी मुठभेड़ करके इशरत सहित अन्य की हत्या की गयी। किसी भी व्यक्ति की हत्या करना और इसकी साजिश रचना किसी भी लोक सेवक की पद से जुड़ी जिम्मेदारी और कर्तव्य नहीं है। उसके विरुद्ध जो साक्ष्य हैं उन पर केवल न्यायालय द्वारा ही विचारण किया जा सकता है। यदि प्रशासनिक अधिकारी और सरकारें ऐसे साक्ष्यों का विचारण करके यह निर्णय देने लगें कि किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने के लिये पर्याप्त साक्ष्य है अथवा नहीं तो यह लोकतन्त्र के लिये घातक है और न्यायपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण भी है। सीबीआई को गृह मंत्रालय की अनदेखी करते हुये इन अधिकारियों के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल करना चाहिये था। न्यायालय स्वतः ही यह निर्णित कर देता कि पर्याप्त साक्ष्य हैं अथवा नहीं और हत्या तथा फर्जी मुठभेड़ के मामले में गृह मन्त्रालय से मंजूरी मिलना आवश्यक है अथवा नहीं। परन्तु ऐसा न करके सीबीआई द्वारा एक ओर जहाँ अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ा गया है वहीं उसने यह भी साबित किया है कि वह गृह मन्त्रालय की गुलाम है और यह लोकतन्त्र के लिये घातक है।
रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुएब ने कहा कि जिस तरह इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में दाखिल सीबीआई की चार्जशीट में यह बताया गया है कि इशरत समेत मारे गये लोगों के पास से बरामद हथियार खुद आईबी ने रखे थे उससे यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या जो आईबी ऐसे हथियार निर्दोषों को फँसाने के लिये दिखा सकती है वह उन हथियारों का इस्तेमाल करते हुये देश में आतंकी घटनाएं नहीं करा सकती। लिहाजा यह जरूरी हो जाता है कि देश की सुरक्षा के लिये तमाम आतंकी घटनाओं और उनसे जुड़ी गिरफ्तारियों में आईबी की भूमिका की जाँच तो हो ही आईबी को तत्काल प्रभाव से भंग करते हुये उसकी जगह किसी दूसरी एजेन्सी को जिसमें सेक्यूलर मानसिकता के अधिकारी हों, को गठित किया जाये।
रिहाई मंच के अध्यक्ष ने कहा कि इशरत जहां और सादिक जमाल मेहतर फर्जी मुठभेड़ काण्ड से यह साबित हो गया है कि सरकारें अपने सियासी फायदे के लिये आईबी जैसी एजेन्सियों का गलत इस्तेमाल करते हुये निर्दोषों की हत्यायें कराती हैं और इसीलिये सारी पार्टियाँ आईबी को बचाने में लग जाती हैं जैसा कि इशरत जहाँ केस में हो रहा है।
रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने कहा कि कई स्वतन्त्र जाँच संगठनों और मानवाधिकार संगठनोंकी तरफ से इण्डियन मुजाहिदीन के अस्तित्व पर लगातार सवाल उठाये जाते रहे हैं कि यह एक कागजी संगठन है जिसे आईबी ने निर्दोष मुसलमनों को फँसाने के लिये बनाया है।इशरत की हत्या समेत लियाकत शाह, तारिक-खालिद प्रकरणऔर इण्डियन मुजाहिदीन के कुछ रहस्यमयी कमाण्डरों का जिनकी तस्वीरें और हुलिया तो सरकारों के पास रहता है पर जो खुद तो कभी नहीं पकड़े जाते लेकिन उनके जानने वाले पकड़ लिये जाते हैं, से यह दावा और मजबूत हो जाता है कि आईबी ही इंडियन मुजाहिदीन नाम के फर्जी संगठन को संचालित करवा रही है और उसके नाम पर देश भर में विस्फोट करवाकर अपने राजनीतिक आकाओं को सियासी फायदा पहुँचा रही है। इसलिये हम माँग करते हैं कि केन्द्र सरकार आईएम पर श्वेतपत्र लाये।
इस दौरान सोशलिस्ट फ्रंट ऑफ इण्डिया के मोहम्मद आफाक ने दर्जनों कार्यकर्ताओं के साथ गृहमन्त्री सुशील कुमार शिंदे परइशरत जहाँ फर्जी मुठभेड़ काण्ड में आईबी अधिकारियों को बचाने का आरोप लगाते हुये विधान सभा के सामने शिंदे का पुतला फूंका।
भारतीय एकता पार्टी के सैयद मोईद अहमद, एहसानुल हक मलिक, हाजी फहीम सिद्दीकी, इंडियन नेशनल लीग के मो0 समी ने कहा कि खालिद की हत्या हो या इशरत जहाँ की हत्या इन सभी हत्याओं के पीछे आईबी की मुख्य भूमिका है। ऐसे में रिहाई मंच का विधान सभा लखनऊ के सामने चल रहा यह धरना आईबी के खिलाफ पूरे जन समुदाय में जो रोष है उसको अभिव्यक्त करने का मंच बन गया है। 10 जुलाई को इस अनिश्चितकालीन धरने के पचास दिन पूरे होने के साथ ही यह एक तारीखी धरना होगा जो कि देश की उस एजेन्सी पर सवाल खड़ा करता है जिस पर हुकूमत के डर की वजह से अब तक चुप्पी थी। यहाँ पर जिस तरह से खुलेआम आईबी का पुतला दहन हुआ उसने इस कातिल एजेन्सी का डर आम जनता से दूर कर दिया है। आजमगढ़ से आये रिहाई मंच के प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि दो साल पहले आजमगढ़ समेत यूपी के बेगुनाह लड़के जो आतंकवाद के नाम जिन्हें सरकारों ने अपना शिकार बनाया उन लड़कों के पक्ष में इशरत जहाँ की माँ शमीमा कौसर संजरपुर आजमगढ़ आयीऔर कई दिनों रहीं और जिस तरीके से उन्होंने कहा कि इंसाफ की हर जँग में वो शामिल रहेंगी, ऐसे में हम उस हौसले के साथ खड़े हैं और जब तक कि इशरत के असली गुनहगार नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को सजा नहीं होती हम इशरत के इंसाफ की लड़ाई चलाते रहेंगे।
रिहाई मंच के धरने का संचालन रिहाई मंच के नेता हरेराम मिश्र ने किया। धरने में पूर्व सांसद इलियास आजमी, सोशलिस्ट फ्रंट के मो0 आफाक, जैद अहमद फारुकी, रिजवान अहमद, पिछड़ा महासभा के एहसानुल हक मलिक, भारतीय एकता पार्टी के सैयद मोइद अहमद, वकारुल हसनैन, डा0 हारिस सिद्किी, डॉ0 अनीस, जुबैर जौनपुरी, शुऐब, मकसूदुल हक, आदिल सिद्दीकी, प्रबुद्ध गौतम, असदुल्ला, फैज, शमीम वारसी, शाहनवाज आलम शामिल रहे।
भारत की जॉबलेस ग्रोथ
सत्तर के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से छोटे किसानों एवं उद्योग-धंधों को क़र्ज़ मिलना शुरू हो गया था, मगर 90 के दशक तक बैंक विकास की बजाय भोग-विलास की वृद्धि के लिए कर्ज देने लगे. रिजर्व बैंक की वर्ष 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार कार, भवन निर्माण, शिक्षा, क्रेडिट कार्ड आदि अनेक मदों के लिए व्यक्तिगत क़र्ज़ जो 1990 में 6.5 प्रतिशत था, 2006 में बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया...
कन्हैया झा
पिछले दो दशकों के विकास को 'बिना रोज़गार का विकास' अथवा Jobless Growth कहा गया है. भारत जैसे युवा देश के लिए ऐसे विकास पथ पर आगे चलते रहना खतरे से खाली नहीं होगा.
वर्ष 1970 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से छोटे किसानों एवं उद्योग-धंधों को क़र्ज़ मिलना शुरू हो गया था, मगर 90 के दशक में बैंक क्षेत्र में उदारीकरण से क़र्ज़ विकास की बजाय भोग-विलास की वृद्धि के लिए दिया जाने लगा. रिजर्व बैंक की वर्ष 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार कार, भवन निर्माण, शिक्षा, क्रेडिट कार्ड आदि अनेक मदों के लिए व्यक्तिगत क़र्ज़ (Personal Loan) जो 1990 में 6.5 प्रतिशत था, 2006 में बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया.
इसके विपरीत उसी दौरान कृषि के लिए दिए जाने वाला क़र्ज़ 16 प्रतिशत से घटकर 11 प्रतिशत रह गया. साथ ही लघु उद्योग को दिए जाने वाला क़र्ज़ भी 11 प्रतिशत से घट कर 6 प्रतिशत रह गया. कृषि एवं लघु उद्योग, ये दोनों ही क्षेत्र सबसे ज्यादा रोज़गार प्रदान करते हैं. यही नहीं बड़े क़र्ज़ लेने वाले अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को छोटे क़र्ज़ लेने वालों के मुकाबले आधी दर पर क़र्ज़ मिलता रहा है. 2007 के अंत तक बैंकों का 80 प्रतिशत क़र्ज़ कम दरों पर जाता था अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को मिलता था.
नब्बे के दशक में इस क्षेत्र का अर्थ व्यवस्था में प्रमुख भाग रहा. इस क्षेत्र के विकास का आधार अंग्रेजी तथा आईटी एवं कम्प्यूटर विषयों की शिक्षा रही, जिनका 'शिक्षा लोन्स' तथा सरकार के समाज कल्याण विभाग के माध्यम से अप्रत्याशित विकास हुआ. कम दर पर उपलब्ध बैंक लोन से टेक्नीकल तथा प्रबन्धन क्षेत्र के निजी कॉलेजों की तो बाढ़ सी आ गयी.
इन सुविधाओं का फायदा मध्यवर्गीय नवयुवकों ने उठाया, जो शहरों में होने से पश्चिमी सभ्यता से भी परिचित थे. रोज़गार की दृष्टि से यह क्षेत्र बिलकुल भी कामयाब नहीं रहा. 2007 तक देश के कुल उत्पाद में इसका योगदान 4.5 प्रतिशत था, जिसमें से 80 प्रतिशत निर्यात का भाग है. उसी समय देश के कुल रोज़गार में इस क्षेत्र का भाग केवल 0.3 प्रतिशत था. फिर ग्रामीण क्षेत्र में जहां देश की तीन चौथाई जनता रहती है, वहाँ के नवयुवकों को तो इस विकास ने छुआ भी नहीं.
पिछले कुछ वर्षों में विदेशी बाज़ार पर निर्भर होने से इस क्षेत्र के विकास की गति रुक सी गयी है. ओबामा सरकार 'रोज़गार निर्यात' को बंद कर अपने ही देश के लिए सुरक्षित कर रहा है. इस कारण टेक्नीकल तथा प्रबन्धन विषयों को पढने वाले नवयुवकों में बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ रही है. फिर उपरोक्त विषयों के निजी क्षेत्र के कॉलेजों की स्थापना भी बेतरतीब ढंग से हुई है.
हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार मुख्यतः निजी क्षेत्र के कॉलेजों से पास 47 प्रतिशत विद्यार्थी खराब अंग्रेजी तथा कमज़ोर कौशल के कारण नियुक्ति नहीं पा सकते. अवश्य ही इस सबका असर उपरोक्त कॉलेजों में बैंक द्वारा दिए गए क़र्ज़ की अदायगी पर पड़ेगा.
इसी तरह टेलीकोम, मोबाइल आदि का विकास भी बेतरतीब हुआ. अस्सी के दशक में इन उपकरणों को देश में ही विकसित करने का प्रयास किया गया, लेकिन जल्दी ही इसे छोड़ दिया गया. पिछले दो दशकों में शत-प्रतिशत आयात कर इस क्षेत्र का विकास किया गया. केवल 2005 से 08 के बीच कैपिटल खाते से 1 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये का सामान आयात हुआ.
विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए आधारभूत विकास विश्व स्तर का होना चाहिए. इसके अंतर्गत कई लेन वाली चौड़ी सड़कें, माल, शहरों में कार यातायात के लिए फ्लाई ओवर, विशेष निर्यात जोंस आदि का निर्माण शामिल है. इन सब सुविधाओं के निर्माण तथा जमीन अधिग्रहण आदि के लिए पिछले कुछ वर्षों में बैंक द्वारा दिए गए क़र्ज़ में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है.
2004 के अंत में जहाँ यह राशि 90 हज़ार करोड़ रुपये थी, वहीं 2007 के अंत तक यह बढ़कर 2 लाख 25 हज़ार करोड़ रुपये हो गयी. सीमेंट, स्टील तथा टाइल्स के अलावा इस वृद्धि का असर किचन रैन्जस, एयर कंडीशनर्स आदि भोग की वस्तुओं के आयात एवं उत्पादन पर भी पड़ा. 2001 से 2007 के बीच कारों के उत्पादन में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई. इन सभी वस्तुओं की खरीद के लिए बैंकों ने व्यक्तिगत क़र्ज़ भी दिए.
जमीन बेच ऐसे विकास के लिए शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियों, छोटे उद्योगों तथा फेरी लगाने वालों के रोजगार की आहुति दी जाती रही है. साथ ही शहरों से लगे गाँवों के किसान भी मजबूरी में खेती छोड़ जमीन के मुआवज़े की राशि को भोग-विलास की वस्तुएं खरीदने में लगाते रहे हैं. एक राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार अर्थ व्यवस्था के तीनों क्षेत्रों में रोज़गार का योग पिछले 9 वर्षों से 43 करोड़ के आंकडे पर अटका हुआ है.
बैंकों की ऋण देने की क्षमता देश की बचत पर निर्भर करती है. 2007 में देश की 75 प्रतिशत जनता जो गाँवों में रहती है, बचत में उसका योगदान केवल 9 प्रतिशत था. उसी वर्ष मध्यवर्गीय शहरी जनता का बचत में योगदान 56 प्रतिशत था, लेकिन वह भी अब बचत की बजाय स्वयं क्रेडिट कार्ड्स पर निर्भर होती जा रही है. इसलिए बैंक भी उपरोक्त वर्णित विकास के लिए विदेशों से क़र्ज़ लेते रहे हैं.
अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण सरकार को बजट घाटा एक सीमा में रखना पड़ता है, इसलिए सरकार ने निजी क्षेत्र के सहयोग अर्थात पीपीपी से आधारभूत सुविधायें प्रदान कराने का निश्चय किया. इसके लिए सरकार प्रोजक्ट निवेश का 75 प्रतिशत बिन ब्याज के ऋण के रूप में देती है. इन्हीं सब आधारभूत सुविधाओं के लिए सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के लिए 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने का प्रावधान किया था, जिसके लिए सरकार ने भी विदेशों से क़र्ज़ लिया.
वर्ष 1998 से 2003 के बीच विदेश पूंजी का कुल आगमन जीडीपी का 2 प्रतिशत था, जो 2003 से 2008 के बीच 4.8 प्रतिशत हुआ और सत्र 2007-08 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया. इस प्रकार मध्य तथा उच्च वर्गीय जनता को भोग-विलास की सामग्री उत्पादन की बजाय आयात के कारण बढते हुए विदेशी क़र्ज़ से मिली, क्योंकि आयात जो 2002-03 में जीडीपी का 12 प्रतिशत था, 2012-13 में बढ़कर 27 प्रतिशत हो गया.
भूमि, संचार के लिए आवृति, कोयला, खनिज आदि देश की आधारभूत सम्पत्तियां हैं. आज विश्व में दूसरे देश की इन सम्पत्तियों पर अधिकार अथवा अनाधिकार बनाने की होड़ लगी हुई है. हाल के वर्षों में उजागर हुए घोटाले भी उपरोक्त सम्पत्तियों से ही सम्बन्धित हैं. इनमें प्रारम्भिक जांच के बाद यह पाया गया कि देश की संपत्ति को जान-बूझकर बहुत कम दामों पर बेच दिया गया था.
आज भारत अनेक उभरते हुए देशों के मुकाबले युवा राष्ट्र माना जाता है. अधिक आबादी भी अभिशाप की बजाय तीव्र विकास का साधन बन सकती है, मगर इसके लिए विकास का 'रोज़गार मॉडल' अपनाना होगा जिसका आधार छोटी जोत की खेती तथा छोटे उद्योग धंधों का विकास होगा. विश्वप्रसिद्ध लेखक शूमाखर की 1973 में प्रकाशित शुमाखर की थीसिस Small is Beautiful 'रोज़गार मॉडल' की विस्तृत रचना में काफी सहायक हो सकती है.कन्हैया झा शोध छात्र हैं.
http://www.janjwar.com/index.php
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TCS, ITC biggest wealth creators during 2008-2013: Study
TCS has emerged as the biggest wealth creator over the past five years, while Reliance Industries and RCom top the list of companies where investors lost the most in terms of market capitalisation, says a study.http://ow.ly/rLgRT
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