12/03/2013
नेपाली क्रान्ति: विजय उन्माद से पराजय के कोहराम तक
नरेश ज्ञवाली |
नरेश ज्ञवाली पत्रकार हैं और नेपाली राजनीति पर लगातार लिखते रहे हैं। नेपाल में संविधान सभा के चुनाव संपन्न होने के बाद की स्थिति पर लिखा उनका यह आलेख समकालीन तीसरी दुनिया के दिसंबर 2013 अंक में आवरण कथा के रूप में प्रकाशित है। इसे पढ़ने के दौरान जो भी प्रूफ/संपादन की गलतियां दिखाई दें, अनुरोध है कि पाठक उन्हें नज़रंदाज़ कर दें क्योंकि नेपाली फॉन्ट से हिंदी में कनवर्ट करने की यह गड़बड़ी है। इसके अलावा, कोशिश है कि समूचा लेख जस का तस हम आपके सामने रखें और इसी वजह से कई शब्द इसमें नेपाली रंगत लिए हुए मौजूद हैं। हम यहां इसे साभार छाप रहे हैं, अलबत्ता वहां छपे लेख से इसमें वर्तनी/संपादन संबंधी कुछ फर्क हो सकता है।
मातम है
सन्नाटा है
यहां सब खामोश हैं
लेकिन वे लोग क्यों
गम्भीर नहीं हैं
शायद सत्ता की ललक
अभी भी बाकी है
यहां तो अभी भी एक प्यास बाकी है
यह किस ओर का रास्ता है?
क्रान्ति अथवा विघटन!
इतिहास को साक्षी मानकर जनता के सामने परिवर्तन की मशाल जलाने वाले, नेपाल में खुद उसी मशाल से जलने के कगार पर खडे हैं फिर भी सत्ता की ललक उनके कानों में सुरीली झंकार बनकर गूंज रही है। शायद हो भी सकता कि संसदीय राजनीति से वे नेपाली जनता को मुक्त भी करा सकते। राजनीतिक-वैचारिक विचलन को बार–बार रोकने तथा उसको सही ढंग से निर्देशित करने के अवसर को लचकता के साथ प्रयोग करने के नेपाली मॉडल के कारण नेपाली क्रान्ति आज विजय उन्माद से पराजय के कोहराम तक का रास्ता तय कर चुकी है ।
क्रान्ति की राह से शायद ऐसे बहुत ही कम राष्ट्र गुजरे होंगे जहां क्रान्तिकारियों ने सत्ता पर अपनी पकड स्थापित कर ली लेकिन सत्ता के गलियारों में घूम रहे पुरानी राज्य व्यवस्था के पालितों को अपने ही लाल योद्धा देख कर अथवा कहें कि लचकता का अनुपम उदाहरण पेश कर उन्हीं के शिकार हो गए हों। नेपाल आज उन्हीं पुराने राज्य व्यवस्था के गलियारी शैतानों के चालाकीपूर्ण परिणाम अथवा कलाबाजियों में फंसा हुआ छटपटा रहा है, तो दूसरी ओर क्रान्ति योद्धाओं को 'लड़ाकू' का दर्जा देने के परिणामस्वरूप वे आज खाडी के मुल्को में मजदूरी करने को अभिशप्त हैं।
१९ नवम्बर (मंसिर ४) को सम्पन्न चुनावी परिणाम ने क्रान्ति के नेतृत्वकर्ताओं को एक बार बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है कि क्या वे सही रास्ते होकर क्रान्ति की दिशा में जा रहे हैं अथवा वह रास्ता विघटन का है? जब क्रान्ति के नेतृत्वकर्ता की बात आती है तो लोग बडे ही एकतरफा हो जाते हैं। कोई कहता है कि इसका नेतृत्वकर्ता पुष्पकमल दाहाल 'प्रचण्ड' है तो कोई कहता है इसका नेतृत्वकर्ता मोहन वैद्य 'किरण'हैं। सवाल यहां नेतृत्वकर्ता भर का नहीं है, जैसा लोग सोचते हैं। सवाल तो उससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम नेपाली जनता के सामने, अपने संकल्प के सामने, अपने अतीत के सामने, अपनी विचारधारा के सामने तथा हजारों शहीदों के प्रति ईमानदार हैं? हम अभी भी संकल्पकृत हैं? हम अभी भी जनता की मुक्ति के लिए मर मिटने को तैयार हैं? अथवा जो रास्ता हम तय कर रहे है वह पूरी तरह ईमानदारी भरा और समर्पण योग्य है?
आज कई आम नेपाली जो माओवादियों से आमूल परिवर्तन की अपेक्षा लगाए बैठे थे, उनके परिवार का एक सदस्य खाडी मुल्कों में, अफ्रीकी मुल्को में तथा मलेशिया, कोरिया में अपने खून को पसीने में तब्दील कर अपने परिवार को जिन्दा रखने की जद्दोजेहद में जुटने को अभिशप्त है। आज वे कई योद्धा जो क्रान्ति की चाह में अपनी जान हथेली पर लेकर सामन्त तथा दलालों को दहाड़–दहाड़ कर ललकारते थे आज वे गाँव के उन्हीं सामन्त तथा शहरिया दलाल पूंजीपति के आगे हाथ पसारने को बाध्य हैं क्योंकि उनके पास क्रान्ति की नेतृत्वकर्ता पार्टी का दिया हुआ ऐसा उपहार है जिसे हम डिप्रेशन, लाचारी और अपंगता कहते हैं।
मुझे कई लोग सुदूर गाँवों से फोन कर के पूछते हैं कि क्या पार्टी संघर्ष में जाएगी? क्रान्ति करेगी? और कहते हैं सरकार में अथवा संसद में जाना तो हमारे लिए घातक होगा, नहीं? मैं उन लोगों से क्या कहूं कि हां, आप सही हैं? क्योंकि मैंने कई बार ऐसा महसूस किया है कि पार्टी के किसी निर्णय में जनता ने पूर्ण समर्थन जताया और पार्टी ने अपना रुख मोड़ दिया। ऐसी कई घटनाओं की फेहरिस्त बाजार में बिखरी पड़ी है जब पार्टी ने निर्णय किया और जनता ने साथ दिया लेकिन बाद में पार्टी उसे छोड़ कर दूसरे रास्तों में समझौतों पर उतर गई। जनता, कार्यकर्ता देखते रह गए, तभी क्रान्ति का दूसरा नारा फिर लहराते हुए सामने आ पहुंचा।
मैं फिर जोर देकर कहना चाहूंगा कि मैं यहां किसी एक पार्टी की बात नहीँ कर रहा। यह सवाल सिर्फ एक पार्टी के हक़ में नहीं है। यह परिवर्तन को गले लगाने को बेताब जनता की चाह को पूरा करने की दिशा में पार्टी द्वारा की जाने वाली सामूहिक प्रतिबद्धता का सवाल है जिससे किरण और प्रचण्ड दोनों ही अछूते नहीं रह सकते। अंधेरे का अंत कर कोई एक नेता सवेरा ला दे, ऐसी सम्भावना भी अत्यन्त न्यून दिखाई देती है। जनता के लिए सवेरे का अर्थ है उनके ही जीवन में क्रान्ति की मशाल ज्वालामुखी हो उठे और उनका जीवन अठारहवीं सदी का जीवन न हो कर 21वीं सदी का जीवन हो, जिसके लिए वे हरदम तैयार हैं। ऐसा लगता है कि नेपाली जनता का दसरा नाम ही आन्दोलन और संघर्ष है।
शान्ति प्रक्रिया होते हुए पार्टी ने पहले संविधान सभा में भाग लिया और जनता ने माओवादियों से इतनी आस लगाई अथवा कहें उनको आशाएं बाँटी गईं जो पार्टी पूरी नहीं कर सकी। संविधान सभा होते हुए पार्टी ने सरकार का नेतृत्व भी दो बार किया लेकिन इस बीच पार्टी में आर्थिक,सांस्कृतिक, राजनैतिक, वैचारिक बिचलन हावी हो गया और नेताओं तथा पार्टी के मध्यम स्तर के शहरी कार्यकर्ताओं में आर्थिक रूप से आमूल परिवर्तन नज़र आने लगा। ऐसा भी नहीं कि पार्टी की विलासिता को किसी ने भी इंगित नहीं किया, लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही आर्थिक स्तर पर बार–बार आलोचित होने के बावजूद अपने को बदलने में असमर्थ प्रतीत होने लगा।
मुझे अभी भी याद है जब पार्टी में नेताओं की विलासिता को कम करने के लिए पूरी केन्द्रीय समिति को निर्देशित किया गया तथा सभी पोलित ब्यूरो तक के लोगो को मोटरसाइकिल पर चलने को कहा गया, तो विलासिता का आरोप झेल रहे पार्टी अध्यक्ष प्रचण्ड से मैंने पत्रकार सम्मेलन में पूछा कि क्या वे चिलिमें जल विद्युत आयोजना की गाड़ी जो उन्होंने प्रधानमन्त्री होते समय ली थी वह सरकार को वापस कर खुद अपने से इस अभियान की शुरुआत करने को तैयार हैं? तब प्रचण्ड ने मुस्कुराते हुए कहा, ''आप निश्चिन्त रहिए, मैं यह गाड़ी नहीं छोड़ूंगा।'' मैं सन्न रह गया था।
मैंने सोचा भी नहीं था कि प्रचण्ड का जवाब मुझे दहला देने वाला होगा। उस दिन से लेकर आज तक कई बैठकें हुईं, कई ऐसे नारे दिए गए जो पार्टी को सुदृण करें लेकिन दुर्भाग्य से वैसा कभी व्यवहार में नहीं देखा गया। देखा गया तो वह जो और भी दिल दहला देने वाला था और पार्टी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष उसके साक्षी बने। लम्बे समय से कैन्टोनमेंट में रह रहे 19 हजार 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' के मुख्य सात सहित 21 सहायक शिविरों में रात के 12 से लेकर 3 बजे तक शिविर नियन्त्रण में लेने के लिए नेपाली सेना को भेजा गया। उस समय प्रधानमन्त्री की भूमिका में अपनी ही पार्टी के उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टराई थे। एक अध्याय का निर्मम अंत हो गया और देश में मौन छा गया।
पार्टी की शान्तिपूर्ण भूमिका की विभिन्न चरणों में समीक्षा की गई लेकिन सभी समीक्षाएं सब्जेक्टिव हो कर की गईं जहां उनको ऑब्जेक्टिव होना था। शान्तिपूर्ण राजनीति में प्रवेश के समय से संविधान सभा के विजय के समय तक जश्न था। गली–गली में माओवादी कार्यकर्ताओं में विजय की मुस्कान थी, कम से कम हार की मानसिकता तो कहीँ नहीं थी। देश के जिस कोने में आप जाइए, माओवादी की भूमिका के विषय में खुलकर चर्चा की जाती थी। ऐसा नहीं है कि आज उन सब चीजों पर पाबंदियां हैं। आज भी देश में माओवादी एजेण्डे को लेकर ही बहस होती है, सिर्फ उस चाह में और आज की चिन्ता में भिन्नता मिलेगी आपको।
आज आपको एक ही चिन्ता देखने को मिलेगी, लेकिन आप निश्चिन्त रहिए कि वह चिन्ता माओवादियों के कम सीटों पर सिकुड़ जाने की वजह से नहीं उपजी है। वह चिन्ता है कम्युनिस्ट आन्दोलन की, मूवमेंट की, उनकी क्रान्तिकारिता की, जुझारूपन की, बल प्रयोग के सिद्धान्त को व्यवहार में लागू न कर पाने की। क्या वास्तव में नेपाल में माओवादी आन्दोलन पर दक्षिणपन्थ हावी हो गया है? अथवा यह उग्र वामपंथ की दिशा में क्रियाशील है? सवाल इतना ही नहीं, सवाल यह भी है कि हम जनता को कैसी व्यवस्था मुहैया कराने वाले हैं, क्योंकि माओवादी आन्दोलन का अंत संसद की सीटों में तो नहीं हो सकता।
आज जब माओवादी आन्दोलन संसद के सीटों में तौला जाने लगा है तो समस्या और भी गहरी हो जाती है क्योंकि सरकार का नेतृत्व वे खुद कर रहे है और बैसाखी दक्षिणपंथियों की है। दूसरी तरफ सरकार में शामिल भी हैं लेकिन नेतृत्व और कोई कर रहा है। नेपाल में 60 साल से जारी कम्युनिस्ट मूवमेंट और माओवादी जनयुद्ध के जरिए पैदा हुई चेतना कोई आम बात नहीं, लेकिन स्थिति यह है कि आज उसके द्वारा आर्जित शक्ति माओवादी के पास नहीं के बराबर है। सबसे दुःखद पक्ष का निर्मम उजागर इस बार प्रचण्ड, किरण और बाबूराम के चेहरों में देखने को मिलता था कि वास्तव में हमने गलतियां की हैं।
प्रचण्ड संसदीय खेल का अभ्यास करते हुए ज्यादा सीटों के चक्कर में यह भुल गए कि जब राज्यसत्ता विदेशशियों के इशारों पर पलटवार करेगी तो उसको रोकने के लिए उनके पास क्या होना चाहिए और वे अभी किस चीज को सबसे ज्यादा मिस कर रहे हैं। इस संविधान सभा के चुनाव ने प्रचण्ड को स्पष्ट कर दिया कि वे जिसको सबसे ज्यादा निष्पक्ष और अपने पक्ष का मानते थे उसने तो भारत के पक्ष में निर्णय कर दिया। वह और कोई नहीं, मन्त्रीपरिषद के अध्यक्ष खिलराज रेग्मी और नेपाली सेना के प्रधान सेनापति गौरव शमशेर राणा थे। जिस सेना ने जनमुक्ति सेना के खिलाडी सहभागी होने वाले कई खेल त्याग दिए उस सेना की किसी भी कोण से पुनरसंरचना किए बगैर 'शाही नेपाली सेना' से 'नेपाली सेना' कह लोकतांत्रिक् बताकर भरोसा करना सबसे बड़ी भूल थी, जिसे निर्वाचन के समय परिचालन किया गया।
नेपाल के कम्युनिस्ट मूवमेंट का अंत करने की दिशा में भारतीय गुप्तचर संस्था 'रॉ' की भूमिका पर भी नेपाल में कुछ किया जाना था जिसको व्यवहार में लागू करने के लिए सेना अदृश्य प्रमुख शक्ति थी, सो वैसा ही हुआ। भारत का सत्ताधारी वर्ग नेपाल में एक ऐसी शक्ति की तलाश में था/है जो निष्पक्षता के आवरण में योजनाओं का कार्यान्वयन कर सके। वह रेग्मी से अच्छा कोई नहीं था। चुनाव के जरिए ही माओवादियों को साइज में लाया जाना था। सो उसने भारतीय माओवादियों को भी सबक सिखाने के लिहाज से नेपाल के माओवादियों को बुलेट से न हो कर बैलेट से ही करारा झापड़ दिया। भारत मामलों के जानकारों का मानना है कि भारत नेपाल में जल्द से जल्द संविधान चाहता है। यहां की प्राकृतिक सम्पदा को लेने के लिए भी नेपाल में भारत के पक्ष की सरकार का होना आवश्यक है जिससे उसे प्राकृतिक संसाधनों को लेने की दिशा में वैधानिक रास्ता खुला रहे। जाहिर है वह शक्ति माओवादी नहीं हो सकती, इसलिए भारतीय गुप्तचर संस्था नेपाल में माओवादियों को हराना चाहती थी। वैसे तो इसका दूसरा पहलू भी है कि यदि नेपाल के माओवादियों को साइज में लाया जा सकेगा तो भारत के माओवादी प्रभावित जिलों में नेपाल का उदाहरण देकर उसका अंत किया जा सकता है। यहां कहने की शायद जरूरत हो कि नेपाल के चुनावी परिणाम में पहले स्थान पर रही माओवादी पार्टी को तीसरा स्थान मिला है, तो वहीं राजतन्त्र के पक्ष में रही सबसे कमजोर शक्ति राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी के मतों में भी काफी इजाफा हुआ है। ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं कि भारत में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की घोषणा चाहते हैं और राप्रपा के अध्यक्ष कमल थापा भी संवैधानिक राजतन्त्र तथा हिन्दू राष्ट्र की मांग किया करते हैं।
वैसे तो पूरे नेपाल में यह भी चर्चा है कि माओवादी पार्टी को नियोजित रूप से हराया नहीं गया बल्कि जनता के बीच लोकप्रिय न होने के कारणों से खुद-ब-खुद वह हार का शिकार हुई है। लेकिन यदि माओवादी पार्टी की लोकप्रियता घटी है तो संसदवादी दलों (कांग्रेस/एमाले) की लोकप्रियता भी तो नहीं बढी है कि वे बहुमत ही ले आएं। चुनाव में हुई धांधली के विषय में अन्य कई दलों के शीर्ष नेताओं ने कहा है कि धांधली नेपाली सेना तथा सुरक्षा बलों के जरिए ही हुई है। इसमें मुख्य रूप से राप्रपा के प्रकाशचन्द्र लोहनी, मधेसी जनअधिकार फोरम के उपेन्द्र यादव, संघीय समाजवादी के अशोक राई, एकीकृत माओवादी के प्रचण्ड तथा नेकपा–माओवादी के किरण भी हैं।
माओवादी के अध्यक्ष प्रचण्ड चुनाव में सेना की मिलीभगत में धांधली होने के जहां आरोप लगाकर संविधान सभा में न जाने की बातें करते हैं, वहीं उनकी पार्टी के उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टराई सरकार में जाने के विषय में घुमावदार वक्तब्य निकाल कर संविधान सभा में सहभागी होने के विषय को उजागर करते हैं। लेकिन नेपाली राजनीति की बडी ही सरल कडी यह है कि जनता आन्दोलन के, मूवमेंट के पक्ष में है तो वहीं नेताओं का रुख सरकार में जाने का है। पार्टी के हाई कमिशन के नेता का मानना है कि यदि पार्टी संविधान सभा में तथा सरकार में नहीं जाएगी तो प्रतिक्रांति के किसी भी खेल को सिर्फ सडक से नहीं रोक पाएगी। इसलिए उनको संविधान सभा तथा सरकार में जाना चाहिए। लेकिन कार्यकर्ता कम्युनिस्ट मूवमेंट को बचाने के पक्ष में हैं। वह रास्ता जनता के आंगन और सड़क से अच्छा कुछ नहीं हो सकता।
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