सवाल है कि मनुष्यता और प्रकृति के हित में देश और समाज को बदलने के लिए हम अंततः विमर्श और लोकतांत्रिक संवाद की रचना कर पाते हैं या नहीं। हमारे नजरिये से किसी भी कालजयी रचना से ज्यादा महत्वपूर्ण यही है।
पलाश विश्वास
फेसबुकिया मित्र परमेश्वर दास को लगता है कि मेरे सिलिसिलेवार लेखन में उपन्यास और आत्मकथा के तत्व हैं।यकीन मानिये,हम जानबूझकर ऐसा लिख ही नहीं रहे हैं।मेरा लेखन विशुद्ध संवाद प्रयास है और कुछ भी नहीं।
फिर जब मैंने निवेदन किया किया कि कहीं छपने का जुगाड़ नहीं है मेरा और छपवाने में मेरी कोई दिलचस्पी है तो उन्होंने सवाल दाग दिया कि तमाम लोग छपते रहते हैं यहां तक कि दलित लेखक भी,तो हमारे छपने में क्या दिक्कत है।
मौजूं सवाल है। मैंने अपने फेसबुक वाल पर उनको जवाब दे दिया है कि रचनाधर्मिता मेरा कर्म नहीं है और मैं साहित्य भी रच नहीं रहा हूं।बल्कि अपने लोगों के मुद्दों पर विमर्श और संवाद का माहौल बनाना ही मेरे लेखन का मकसद है। हम मुद्दों पर संवाद करने के प्रयत्न में हैं और निजी बातचीत आगे न हो तो बेहतर।
अब इसवक्त मैं फेसबुक पर नहीं हूं और मुझे नहीं मालूम कि परमेश्वर जी और बाकी मित्रों की क्या प्रतिक्रिया है।
ऐसे में एक वाकया बहुत याद आ रहा है कि `दैनिक आवाज 'के धनबाद और जमशेदपुर संस्करणों में उस अखबार के बंद हो जाने तक लगातीर करीब तीन सालों तक मेरे उपन्यास `अमेरिका से सावधान' का धारावाहिक प्रकाशन हुआ।तब `आवाज' के साहित्य संपादक श्यामबिहारी श्यामल थे। उन्होंने यह करतब कर दिखाया। इसके अलावा लगभग सभी लघु पत्रिकाओं में इस उपन्यास के अंश छपे। 1993 से लेकर 2001 तक यह सिलसिला जारी रहा।शायद आखिरी टुकड़ा `समकालीन तीसरी दुनिया' ने प्रकाशित किया। शलभ श्रीराम सिंह `वसुधा', `समझ' और `कथाबिंब' में शुरुआती टुकड़े देखकर इस उपन्यास को तुरंत छाप देने की बात कर रहे। तो `समकालीन तीसरी दुनिया' में प्रकाशन के बाद कई बड़े प्रकाशक भी लंबे अरसे तक पांडुलिपि भेज देनो को कहते रहे। संदर्श के सुधीर विद्यार्थी ने संदर्श में बाकायदा बहस ही चलायी।लेकिन पांडुलिपि आखिरकार तैयार कर ही नहीं सका क्योंकि हालात इतने बदल गये कि पूरे उपन्यास को नये सिरे से सलुकने की जरुरत है जो यकीनन मैं कर नहीं सकता था।इस बारे में देश भर में मुझे मित्रों और पाठकों के सवालों का अक्सर जवाब देना होता है। नैनीताल मे ंतो हमारे मित्रों ने इस उपन्यास के प्रकाशन के विज्ञापन भी छाप दिये हैं। जाहिर है कि हर रचनाकर्म प्रकाशन के लिए नहीं होता। संवाद सूत्र बनता है या नहीं,कम से कम हमारे लिए यह सबसे बड़ा प्रतिमान है।
दरअसल जबसे लेखन शुरु किया है रोजाना यथासंभव लिखता हूं। छपता नहीं हूं। छपने के मकसद से लिख भी नहीं रहा होता हूं। वरना छपने क लिए जरुरी शर्तों का ख्याल भी अवश्य रखता।
जब मैं लिख रहा था तो इसके पचासवें अध्याय पूरे हो जाने पर कोलकाता में मेरे सहकर्मियों खासकर कृपा शंकर चौबे,अरविंद चतुर्वेद और अनिल त्रिवेदी ने एक गोष्ठी करायी।
उस गोष्ठी में डा. मैनेजर पांडेय ने कहा था कि साम्राज्यवाद के फ्रतिरोध के लिए आंतरिक साम्राज्यवाद का प्रतिरोध सबसे जरुरी है।
त्रिलोचन शास्त्री,बाबा नागार्जुन,शलभ श्रीरम सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा से लेकर देशभर के कवियों नें इस इंटरएक्टिव उपन्यास का भारी स्वागत किया। लेकिन तमाम कथाकर कहते रहे कि यह उपन्यास बहुत लाउड है।लेकिन किसी भी कवि न ऐसा नहीं कहा।ऐसा कैसे संभव हुआ, मेरे लिए आज भी अनबूझ पहेली है।जबकि भाषा व सौंदर्यबोध को लेकर आम तौर पर कवि लग ही ज्यादा सवेदनशील होते हैं।
उपन्यास न मानने वाले लोगों को जवाब देते हुए हमारे सहकर्मी कवि अरविंद चतुर्वेद ने कहा था कि कथ्य, कथा, भाषिक कौशल और शैली के अलावा सूचना भी उपन्यास और कथा साहित्य का अनिवार्य अंग है।
इससे काफी पहले आदरणीया महाश्वेता दी से हमारी पहली मुलाकात का वाकया है। बिहार कोयला मजदूर संघ ने प्रेम चंद जयंती का आयोजन किया था।बड़ी संख्या में ,हजारो ंकी तादाद में कोयला मजदूर, झारखंड आंदोलन के तमाम लोग और वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक बुद्धिजीवी और छात्र युवा इस अवसर पर हाजिर थे। तब आवाज में आदिवासी जीवन और संघर्ष पर लिखे गये उपन्यासों पर मेरा लिखा धारावाहिक भी छप रहा था।
इस संगोष्ठी में कवि मित्र मदन कश्यप को प्रेमचंद की भाषा शैली पर बोलना था। लेकिन ऐन मौके पर उन्हें धनबाद से बाहर जाना पड़ा। मित्रों ने मंच पर हमें खड़ा कर दिया।
महाश्वेता दी जब बोलने लगीं तो उन्होंने मेरे वक्तव्य का जिक्र करते हुए साफ साफ कहा कि भाषा,शैली, भाषिक कौशल ये सारे बेकार हैं, अगर जनसरोकारों को संबोधित न किया जाय।उन्होंने कहा कि रचनाधर्मिता कोई निजी साधना वगैरह नहीं है, यह एक सामाजिक उत्पादन का मामला है जो सीधे तौर पर सामाजिक यथार्थ से जुड़ा है। प्रेमचंद इसलिए प्रासंगिक नहीं है कि उनकी भाषा शैली अनूठी या विशिष्ट है।दरअसल यह रचना की धार बढ़ाने में मददगार तो हैं लेकिन असम मामला तो सामाजिक सरोकार का है,जिसके लिए प्रेमचंद अब भी अप्रतिद्वंध्वी हैं।
इस भारतीय उपमहादेश में मैं दो कथाकारों को प्रेमचंद के बाद सर्वश्रेष्ठ मानता हूं।उर्दू के सआदत हसन मंटो और बांग्लादेशी साहित्यकार अख्तरुज्जमान इलियस।
मंटो विभाजन के संक्रमणकाल को `ठंडा गोश्त' और `टोबा टेक सिंह' के मार्फत जिस तरह पेश करते हैं, वैसा पंजाबी, हिंदी और बंगाली साहित्यकार कर नही ंपाये।
इलियस के उपन्यास `ख्वाबनामा' और `चिलेकोठार सेपाई' अद्भुत हैं। लेकिन अपने बांग्ला कवि कथाकार नवारुण भट्टाचार्य के अंतरंग मित्र जो असमय दिवंगत हो गये,अपनी कहानियों में बांग्लादेश के तमाम जनपदों को बहते हुए पानी,बाढ़,चिड़ियों की चहक,आम लोगों के रोजनामचा के साथ उन्हीं की भाषा और मुहावरों के साथ जैसे पेश किया है, वैसा जनपद साहित्य कम से कम हमने नहीं देखा।
इन्हीं इलियस की आलोचना पर एक किताब है,नाम याद नहीं आ रहा है.जिसमें साहित्य की एकमात्र कसौटी उन्होंने सामाजिक यथार्थ को बता दिया।फिल्मों पर भी उनके अद्बुत निबंध हैं और वहां भी उनकी एकमात्र कसौटी है।
उन्होंने बंकिम और शरत को सामाजिक यथार्थ से कोसों दूर बता दिया।
उन्होंने बांग्ला साहित्य का प्रस्थानबिंदू माणिक बंद्योपध्याय के लेखन को बताया।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय के ब्यौरेवार किस्सों को उन्होंने सामंतवाद के अवसान की व्यथा से जोड़कर विश्लेषित किया।
इन सबसे पहले छात्र जीवन में नैनीताल में मैं और कपिलेश भोज अपने गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के निर्दशन में हिंदी साहित्य के साथ साथ विश्व की सभी भाषाओं में लिखे साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया। तब हम लोगों ने समांतर और पुरानी फिल्मों के साथ हालीवूड की फिल्में भी खूब देखी। नैनीताल समाचार में और युगमंच में इन तमाम चीजों पर निर्मम आलोचना होती रही है।
गिरदा तो शिल्प की कोई औकात ही नहीं मानते थे लेकिन नैनीताल समाचार के साथियों को मालूम है कि कितना प्रबल और अद्भुत रहा है गिरदा का सौंदर्यबोध।
हर शब्द के बारे में वे लंबी बहसों में तमाम लोगों को परेशान कर देते थे।
उनसे मेरी बहस सबसे ज्यादा होती थी।
सुरावीर गिरदा के तर्कों पर शेखरदाज्यू बहुत जल्द हथियार डाल देते थे तो उमा भाभी हंसकर हमारे हाथों में गुड़ की डली और चाय का गिलास थमा देती थीं।
राजीवदाज्यू बहस में शरीक होते थे,लेकिन वे हमारी वजह से संस्करण लेट होने से नाराज भी खूब होते थे।
सबसे ज्यादा झल्लाता था हरुआ दाढ़ी,जो सीधे गाली गलौज पर उतर आता था।
सखा दाज्य़ू भी कभी कभार इन मैराथन बहसो का हिस्सा बन जाते थे।
नैनीताल आने वाले मित्रों पंकज बिष्ट, आनंद स्वरुप वर्मा, वीरेन डंगवाल, विपिन त्रिपाठी, प्रदीप टमटा, शमशेर सिंह बिष्ट के अलावा हमारे डीएसबी के ही जहूर आलम ,राजीव कुमार और खासकर निर्मल जोशी,फिर गिरदा के संगीतनाटक अकादमी के लोग भी थे जो इन बहसों को हवा देते थे।
इसके साथ ही नाटकों के प्रयोग अलग हो रहे थे,जिसमें तमाम दिग्गज रंग कर्मी सामाजिक यथार्थ के अलग मायने बता रहे थे।
कोलकाता में `भाषाबंधन' के संपादन के सिलसिले में महाश्वेता दी की वर्तनी सजगता का राज मालूम हुआ तो यह भी देखा शब्द खर्च करने में नवारुण भट्टाचारय कितने कंजूस हैं।क्या मजाल कि एक मात्रा या एक शब्द फालतू खर्च हो जाये!
जाहिर हैं कि इन अभिज्ञताओं के मध्य हमारा लिखना सहज रहा नहीं कभी।
जब तक गिरदा थे, तब तक हमेशा डरता रहा कि उन्हें कैसे जवाब दें! बरेली में करीब साल भर वीरेनदा के मस्त अंदाज से भी मुठभेड़ होती रही।
मुझे दरअसल इस बात की परवाह नहीं रही कि आलोचकों संपादकों की राय क्या होगी या प्रकाशक मेरी कोई किताब छापेंगे या नहीं।
हम हमेशा परवाह करते रहे कि नैनीताल और पूरे पहाड़ में लोग हमारे लिखे पर क्या कहेंगे या फिर बसंतीपुर में मेरे गांव तक मेरा लिखा पहुंचता है या नहीं।वही मेरी पत्रकारिता और तमाम तरह के लेखन,वक्तव्य की अंतिम सीमा है,जिसका उल्लंघन मैं कर ही नहीं सकता।
गिरदा मुद्दों को टालने के सख्त खिलाफ थे।
हमारे दिलोदिमाग में उस सरफिरे दढ़ियल दारुकुट्टा का असर आज भी है।
वे लोगों को जरुरी सूचनाएं देने के लिए किसी भी माध्यम के प्रयोग में मास्टर थे।
भाषा और विधाओं के आरपार निकलने का मंत्र भी गिरदा की दिया हुआ है।
किसी का वजूद अगर गिरदा में समाहित हो तो वह बाकी लेखकों की तरह नहीं हो सकता। हरगिज नहीं।
हमने शरणार्थी समस्याओं से संबंधित पत्र आवेदन पत्र और ज्ञापनों से लेखन की शुरुआत की।जो लोगों की जरुरत ज्यादा थी और छपने के लिए कतई नहीं थी।
नैनीताल में हमने छपने के लिए लिखा तो आंदोलन की खबरें प्रसारित करने के लिए। आंदोलन के लिए।
हम तब दिनमान से लेकर कहीं भी छपते थे,लेकिन बुलेटिन लिखने,पर्चा लिखने में भी परहेज नहीं करते थे।
इसलिए बाकी लेखकों के साथ हमारी तुलना नहीं हो सकती।
हमारा मानस ही यही है कि है कि हम लोगों को संबोधित करने और जरुरी मुद्दों को फोकस में लाने के लिए ही अभ्यस्त हैं।
जैसे `अमेरिका से सावधान' ऐसा ही एक प्रयोग था,एक देश व्यापी साम्राज्यवादी अभियान का निजी प्रयास या साम्राज्यवाद पर एक अधूरा संवाद। तब से निरंतर नवउदारवादी मुक्त बाजार में हालात बदलते ही रहे हैं ।
हम प्रचलित भाषा,प्रचलित माध्यम और परंपरागत विधाओं में व्यकरण और वर्तनी के अनुशासन में, सौंदर्यबोध से लैस और भाषिक कौशल में चमत्कृत करने वाला लेखन कर ही नहीं सकते।
फिर नये हालात में हमारे जो मुद्दे हैं,साहित्य और पत्रकारिता पर काबिज लोगो ं का वह मुद्दा नहीं मसनल समलैंगिकता जबकिर देश के लिए आज का सबसे बड़ा मुद्दा है मीडिया की नजर से।हमारे नजरिये से यकीनन मुद्दा तो वह है लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है।
बाकी लोगों के मुकाबले हमारे मुद्दे दूसरे हैं,सरोकार दूसरे हैं,हमारी चिंताएं जल जंगल जमीन नगरिकता पर्यावरण मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों की सीमाओं से बाहर नहीं निकलतीं।
फिर मल्टी लिंगुअल मल्टी मीडिया फर्मैट में या फेस बुक वाल पर जो हम लिखते हैं,उसके संकलित होने या छपने में तकनीकी दिक्कतें भी बहुत हैं।
हम किसी को दोष नहीं देते।
यह हमारी जिनेटिक गड़बड़ी है कि हमें अपने लोगों के लिए अहम मुद्दों को छोड़कर कोई मुद्दा दिखता ही नहीं।
हमें चारों तरफ अपने लोगों का बहता हुआ खून नजर आता है,नजर आती हैं मारे जाने वालों की लाशें,खुदकशी करने वालों की अतृप्त आत्माएं।
दिगंतव्यापी वधस्थल से बाहर हमारी दृष्टि नहीं जाती तो मुक्त बाजार को स्वर्ण युग मानने वालों की कतार में हम शामिल हो ही कैसे सकते हैं?
दरअसल हम अपने मुद्दों पर कोई समझौते नहीं कर सकते।
जिस माध्यम में ये मुद्दे उठाये नही ंजा सकते ,उन्हें तोड़ना हमारा मकस है ।
ह म अपनी बात कहने के लिए विधा,व्याकरण, सौंदर्यशास्त्र,भाषा के बंधन नहीं मानते।
हम छपें या न छपें परमेश्वर जी, इससे फर्क नहीं पडता ।
सवाल है कि मनुष्यता और प्रकृति के हित में देश और समाज को बदलने के लिए हम अंततः विमर्श और लोकतांत्रिक संवाद की रचना कर पाते है या नहीं।
हमारे नजरिये से किसी भी कालजयी रचना से ज्यादा महत्वपूर्ण यही है।
हां,बहस अब खत्म नहीं है। आप चाहे तो लिख सकते हैं क्योंकि रचनाधर्म के सरोकार पर भी सार्थक संवाद सामाजिक यथार्थ से टकराने के लिए अनिवार्य है।
क्योंकि ज्योतिबा फूले और नारायम लोखंडे को जानने के बजाय तब हम मार्क्स लेनिन चेग्वारा माओ स्टालिन और चारु मजुमदार को पढ़ने के साथ साथ पेरियार और नारायणगुरु को न जानने के बावजूद
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Bishwanath Mahato, Sanjiv Ramteke and Parmeshwar Das like this.
Parmeshwar Das पलास दा यह उपन्यास कब प्रकाशित हो रहा है। बहुत बहुत शुभकामनांए।
Palash Biswas kis upnyas ki baat kar rahe hain.ab meri koi kitab kabhi prakashit nahi honi hai.Na lekh na kavita aur na kahani.main ab prakashan main yakeen karta nahi hun.
Parmeshwar Das गुस्ताखी माफ हो पर जो आपने इतने सारे सिलसिलेवार पोस्ट किए 'वो' सब मिलकर किसी उपन्यास या आत्मकथा का मेटेरीयल बनता है।
Palash Biswas परमानंद जी,परंपरागत माध्यम सारे बेदखल हो गये हैं।हम वहां से बहिस्कृत हैं।अंदाजा लगाइये कि बाइस साल से जिस अखबार में बिना अवकाश काम कर रहा हूं वहां मैं कभी छपा नहीं।जिस बंगाल में रहता हूं वहां हर माध्यम में मैं अछूत हूं।उपन्यास कभी अमेरिका से सावध...See More
Palash Biswas सारी,परमेश्वरजी।गलती से आपका नाम गलत टाइप हो गया।
Parmeshwar Das क्या भारत या हिदीं-हिन्दू माहोल के बाहर प्रकाशन संभव नही। और दलित लेखक भी तो छप रहें है (मुसकिल से ही सही) आपके खिलाफल मे कुछ खास वजह है क्या ?
जनज्वार डॉटकॉम
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत में सरकार ने अपनी ही जनता पर ऑपरेशन ग्रीनहण्ट के नाम से 2009 से युद्ध चला रखा है, जिससे हजारों मजदूर-किसान, आदिवासी मारे जा चुके हैं...http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-08-56/81-blog/4592-vartman-vyvstha-men-manvadhikar-for-janjwar
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Economic and Political Weekly
Revisiting Secularisation: Secularising the 'Secular': Monumentalisation of the Taj Mahal in Postcolonial India
http://www.epw.in/revisiting-secularisation/secularising-secular.html
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Afroz Alam SahilBeyondHeadlines
Many Muslims in India complain they face religious discrimination in the country's Hindu-dominated job market. Muslims who have secured jobs pretending to be Hindus are fiercely secretive about their place of work... http://beyondheadlines.in/2013/12/muslims-masquerade-as-hindus-for-india-jobs/
Muslims Masquerade as Hindus for India Jobs
24 Ghanta
http://zeenews.india.com/bengali/videos.html
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