खुर्शीद अनवर की मौत के बहाने,हस्तक्षेप पर हमारी प्रतिक्रियाः मुद्दों पर लौटे तमाम मित्र,तो बेहतर!
पलाश विश्वास
यह प्रतिक्रिया हमने पंडित जगदीश्वर चतुर्वेदी के हस्तक्षेप पर लगे आलेख की प्रतिक्रिया में वहीं टिप्पणी बाक्स पर कंपोज की थी।जो शायद लंबाई की वजह से पोस्ट नहीं हो पायी।हमने अपने ब्लागों पर पंडितजी का आलेख बिना पूछे जारी कर दिया है और अब फिर संवाद में लौटने के लिए आलेख बतौर इस प्रतिक्रिया को भी जारी कर रहे हैं हम।
फिलवक्त हमारे लिए असली मुद्दा हैः
कारपोरेट कायाकल्प और सत्ता वर्ग की संसदीय गोलबंदी की आड़ में मनोमोहन की विदाई के बाद युगल ईश्वरों नंदन निलेकणि और अरविंद केजरीवाल के अवतरण का प्रसंग।इस पर सुनियोजित कारपोरेट अभियान और उनसे जुड़ा अर्थव्यवस्था का हर प्रसंग।
हम इसी मुद्दे पर संवाद चाहते हैं।
जाहिर है कि दिवंगत सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक खुर्शीद अनवर को कटघरे में खड़ा करने से हमें अब कुछ हासिल नहीं होता और उनको उनके खिलाफ लगे आरोपों से बरी करने का काम भी शायद हमारा नहीं होना चाहिए।हिंदी समाज का गृहयुद्ध यह संकेत करता है कि कारपोरेट चाकचौबंद तिलिस्म ने हमें कितना कूप मंडूक बना दिया है और कितने आत्मघाती हो गये हैं हम।
फिरभी जैसे हम लगातार सोशल मीडिया को संवाद का माध्यम बनाने के मौजूदा विकल्प पर काम कर रहे हैं और प्रिंट पर चूंकि एकदम लिख नहीं रहे हैं,सोशल मीडिया पर पंडित जी के उच्च विचारों से असहमति के बावजूद उनके ताजा आलेख पर समुचित विवेचना की दरकार महसूस करते हैं।जो सोशल मीडिया को असली मुद्दों पर फोकस करने में शायद सहायक हो।
पंडित जगदीश्वर चतुर्वेदी से हमारा जब भी आमना सामना हुआ है,अक्सर हम लोग असहमत ज्यादा थे,सहमत बहुत कम।अब पंडित जी से हमारी मुलाकाते लंबे समय से हो नहीं रही है क्योंक अपने उपनगरीय जीवन की सीमा से बाहर महानगरीय परिधि में हमारी आवाजाही सिरे से बंद है।
पंडितजी मीडिया विशेषज्ञ हैं और मीडिया पर उनकी पाठ्य पुस्तकें काफी प्रचलित हैं।हालांकि वे सीधे तौर पर मीडिया से जुड़े नहीं हैं।
ऐसे ही कोलकाता के कृष्णबिहारी मिश्र जी भी मीडिया में न होते हुए पत्रकारिता पर खूब लिखते रहे हैं।आदरणीय प्रभाष जोशी ने मौखिक लिखित तौर पर उनके लिखे का खूब जवाब भी दिया है।
जाहिर सी बात है कि हम प्रभाष जी की श्रेणी में नहीं हैं और इसलिए इस विषय से हमेशा कन्नी काटते रहे हैं।
हम अकादमिक भी नहीं है और न अकादमिक मुद्दों पर बात करने में समर्थ हैं,इसलिए पंडित जी के लिखे पर आज तक मैंने कभी कोई टिप्पणी नहीं की है।
आज पहली बार कर रहा हूं।
क्योंकि सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में जो सुझाव उन्होंने दिये हैं,मेरे ख्याल से उन पर अमल होना जरुरी है।
हस्तक्षेप पर उनका लेख उपलब्ध है और अब मेरे ब्लागों पर भी।
वैसे पंडित जी कहेंगे कि कापीराइट का उल्लंघन हुआ है तो वह आलेख मुझे हटाने की नौबत भी आ सकती है।
ऐसा आदरणीय कंवल भारती के एक आलेख को लगाने के बाद करना पड़ा।उन्होंने मित्रमंडली में मुझे ब्लाक भी कर दिया और सख्त हिदायत दी है कि उनका लिखा कुछ भी लगाने से पहले इजाजत जरुर लें।इस हादसे से गुजरने के बावजूद महत्वपूर्ण चीजों को साझा करने में हम बाज नहीं आते।
इसी प्रसंग में गिरदा कहा करते थे जो लिख दिया,वह तो जनता की संपत्ति है।इस पर तेरा मेरा हक क्या,गिरदा का तर्क हुआ करता था।वे भी तब बागी कवि लीलाधर जगूड़ी को कोट करने से बचने की हिदायत देते थे। जगूड़ी कब किस बात पर सहमत हो और किस पर नारा,ठिकाना न था,इसीलिए।
लेकिन कुछ लोग अब भी हैं जैसे हिमांशु कुमार जी,जिनका लिखा मैं तुरंत इस्तेमाल कर लेता हूं।बाकी जिन्हें ऐतराज है,वे लोग कंवल जी की तरह पहले से चेतावनी दें दे तो हमें संवाद में मदद मिलेगी।रियाज की अनूदित सामग्री भी मैं बेहिचक लगा लेता हूं।समकालीन तीसरी दुनिया,समयांतर और नैनीताल समाचार पर तो हमारा पुश्तैनी हक है।खेद यह है कि ईपीडब्लू को इतनी सरलता से साझा नहीं किया जा सकता।अब ईटी के तथ्य साझा करने में भी तकनीकी समस्या है।
बहरहाल पंडित जगदीश्वर जी का यह आलेख इस दृष्टि से भी प्रासंगिक है कि खिरशीद मामले में एफआईआर दर्ज होने के बाद कानूनी प्रक्रिया शुरु हो चुकी है और अभियुक्त इस दुनिया में नहीं है। फिर यह बाबरी विध्वंस,गुजरात नरंसाहर और सिखों के संहार जैसा मामलो तो है नहीं,जहां न्यायिक प्रक्रिया पर सत्ता वर्चस्व हावी है और उस पर नियमत संवाद जरुरी हो।
पीड़िता पूर्वोत्तर के अस्पृश्य भूगोल से हैं ,इस तथ्य को जेहन में रखते हुए भी खासकर अनवर के अप्रत्याशित आत्महननन के बाद इस नितांत निजी विवाद के मामले को सोशल मीडिया ट्रायल बतौर जारी रखना सरासर अनैतिक है और जरुरी मुद्दों को किनारे करने का घनघोर अपराध भी है। इस लिए मैं पहली बार पंडितजी के लिखे पर इतनी लंबी प्रतिक्रिया दे रहा हूं।
राजेंद्र यादव के बारे में जब तमाम आरोप आ रहे थे,तब भी हमें कष्ट हुआ था।लेकिन तब भी इसे हमने कोई मुद्दा न मानकर पक्ष विपक्ष में खड़े होने से बचने की ही कोशिश की।
आपको ख्याल होगा कि तरुण तेजपाल प्रकरण में भी हमने कोई टीका टिप्पणी नहीं की।क्योंकि तेजपाल के मीडिया ट्रायल से हम लोग जुरुरी मुद्दों का स्पेस खो रहे थे।
आपने ख्याल किया होगा कि हमने तहलका को अभी खारिज भी नहीं किया है।
तरुण तेजपाल कानूनी तौर पर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं।कानून के राज में कानून को अपना काम करने देना चाहिए।लेकिन हम तहलका के यउठाय़े मुद्दों को पहले की तरह अब भी साझा कर रहे हैं।
हमने आशाराम बापू और नारायण साईं के मामलों को भी कोई मुद्दा नहीं माना है।
हमें तो उन इलाकों पर फोकस करना चाहिए,जहां न भारत का संविधान लागू है,न कानून का राज है और न लोकतंत्र है और पूरी जनता जहां युद्धबंदी है।हम लगातार वही कर रहे हैं।
हमारे लिए मुद्दा तो मध्यभारत है,पूर्वोत्तर है,कश्मीर है,हिमालयी क्षेत्र हैं,प्रत्येक आदिवासी इलाका गरीब बस्तियां हैं,जहां कानून का राज है ही नहीं।महानगरों,उपनगरों की वंचित बस्तियां भी प्राथमिकता पर हैं।
इसीलिए हम सोनी सोरी और इरोम शर्मिला और अरुंधति राय को ज्यादा तरजीह देते रहे हैं।
मधु किश्वर जी को हम तबसे जानते हैं,जब वे वीरभारत तलवार के साथ पहली बार धनबाद में देखी गयी थीं।
वीरभारत और मनमोहन पाठक शालपत्र निकालते थे झारखंड आंदोलन के सिलसिले में।
धनबाद में ही मानुषी की खबर लगी थी।
मानुषी का प्रकाशन होने के बाद हम उसका समर्थन ही करते रहे हैं।लेकिन मानुषी ने सड़क पर उतरकर कोई आंदोलन कभी किया हो या नहीं,मैं दिल्ली में नहीं हूं और नहीं जानता।
वीर भारत तलवार की बड़ी भूमिका झारखंड आंदोलन को तेवर देने की रही है।वे जेएनयू चले गये और उसके बाद अब वे क्या कर रहे हैं,हमें नहीं मालूम है।
इसके बजाय नैनीताल से प्रकाशित उत्तरा की टीम में शामिल हर स्त्री उमा भट्ट,गीता गैरोला,शीला रजवार,अनिल बिष्ट,बसंती पाठक, कमला पंत और पहाड़ की तमाम स्त्रियां लगातार जनसंघर्षों में शामिल हैं।
मणिपुर की औरतों,डूब में छटफटाती औरतों, दंडकारण्य की औरतों,महतोष मोड़ और मरीचझांपी में ,रामपुर तिराहा मुजप्फरनगर के बलात्कारकांडों की पीड़िताओं को भोगा हुआ यथार्थ,नियमागिरि की औरतों,देशभर के खनन क्षेत्रों की औरतों,कश्मीर और हिमालयी औरतों का स्त्री विमर्श निश्चय ही वह नहीं है,जो एनजीओ संचालित स्त्री विमर्श राजधानी केंद्रित है।
उनके मुद्दे भिन्न हैं और सामुदायिक वजूद के संघर्ष से ही जुड़े हैं। जो हमारे लिए निहायत जरुरी मुद्दे हैं।
सोनी सोरी का मुद्दा या इरोम का मुद्दा या गुवाहाटी या मणिपुर या कश्मीर या दंडकारण्य में कहीं भी स्त्री अस्मिता का सवाल राजधानियों और अकादमियों के स्त्री विमर्श से भिन्न है।
इसलिए मानुषी या मधु किश्वर की गतिविधियों की हमने कभी कोई खबर ही नहीं ली।
सनद रहे कि कोलकाता में दिवंगत लेखिका प्रभा खेतान का नारीवाद पर बहुत अच्छा लिखा उपलब्ध हैं। हमारी विश्वविख्यात नारी वादी लेखिका तसलिमा नसरीन से बात होती रही है। नारी अस्मिता की सबसे मजबूत प्रवक्ता महाश्वेता दी को हम लगभग 35 साल से जानते हैं।हम लोग आशापूर्णा देवी के रचनासंसार से जुड़े लोग हैं।
इस्मत चुगताई, कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग जैसी लेखिकाओं के भी हम लोग पाठक रहे हैं।
आधुनिक स्त्री के देहमुक्ति आंदोलन से हम वाकिफ हैं और इसी सिलसिले में शुरुआती दौर में नारीवादी लेखिका मधु किश्वर का हम नोटिस भी लेते रहे हैं।
दरअसल हम स्त्री शक्ति को सामाजिक बदलाव की सबसे बड़ी ताकत भी मानते रहे हैं क्योंकि नागरिक व मानवाधिकार से वंचित,न्याय और अर्थव्यवस्ता से वंचित स्त्री ही है।
जात पात,रंग,नस्ल ,देश काल परिस्थिति से स्त्री के अवस्थान को कोई फर्क पड़ता नहीं है।
आदिवासी की तरह मुख्यधारा में होते हुए,सत्ता वर्ग में होते हुए,नारी सशक्तीकरण की तहत जीवन के हर क्षेत्र में कामयाबी और बढ़त के बावजूद पुरुषतंत्र के आखेट का बुनियादी लक्ष्य स्त्री देह और स्त्री अस्मिता है।
इसलिए बदलाव के प्रस्थानबिंदू बतौर स्त्री विमर्श को अंबेडकरी आंदोलन के एजंडा या वामपंथ की प्रासंगिकता की तरह हमारे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता जरुर होनी चाहिए।
लेकिन यह स्त्री विमर्श न एनजीओ संचालित होना चाहिए और न राजधानी केंद्रित।
सत्ता संघर्ष और राजनीतिक समीकरण साधने के लिए भी अर्थव्यवस्था में जैसे स्त्री का उपभोक्ता सामग्री बतौर इस्तेमाल होता है,वैसा हूबहू होने लगा है,इसको हम नजरअंदाज करके आगे बढ़ ही नहीं सकते।
इसलिए हर मुद्दा उछालने से पहले तथ्यों की जांच परख की भी अनिवार्यता होनी चाहिए।
खासकर जो लोग सीधे तौर पर जनसरोकार से जुड़े हों या जनमोर्चा के खास सिपाहसालार हों,उनके लिए बेहद सतर्कता की जरुरत है।
वे लोग मधु किश्वर के झांसे में कैसे आ सकते हैं,मुझे निजी तौर पर इसका विस्मय घनघोर है।
खुरशीद प्रकरण को मैं कोलकाता में होने के कारण जानता नहीं रहा हूं या गैरजरुरी मानकर ध्यान ही नहीं दिया होगा।किसी किस्म के व्यक्ति आधारित विमर्श,अभियान या आंदोलन में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है।
लेकिन खुरशीद के निधन के बाद हमें इस मामले पर गौर करने को मजबूर होना पड़ा और जो मसाला उपलब्ध है,उसमें मधु किश्वर की भूमिका ही निर्णायक लग रही है।
तीस्ता के बाद अनवर खुरशीद तक उनका सफर संजोग नहीं है,इसे समझा जाना चाहिए।लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम दिवंगत अनवर को पूर्वोत्तर की उस स्त्री के आरोपों से बरी कर रहे हैं।
पहला खटका ही तब लगा था,जब मधु ने अचानक तीस्ता शीतलवाड़ पर नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया।
हम चकित रह गये।
तीस्ता ,रोहित प्रजापति, मल्लिका साराभाई या हर्ष मंदर के कामकाज और गुजरात नरसंहार के संदर्भ में मानवाधिकारों की लड़ाई के मद्देनजर हमें यह आरोप निहायत ही भद्दा और षड्यंत्रकारी लगा तो हमने राम पुनियानी जी सरीखे हमारे अग्रजों से बात की तो पता चला कि मानुषी की भूमिका बदल गयी है।
खुर्शीद अनवर को पढ़ता रहा हूं लेकिन उनसे बात कभी नहीं हुई।
मुझे हमारे मुद्दे उठाने में फुरसत ही इतनी कम मिलती है कि निजी मुद्दों और निजी जिंदगी के बारे में चल रही चर्चाओं पर नजर डालें।
कल उदय प्रकाश जी के फेसबुक स्टेटस से पता चला कि कोई धर्मनिरपेक्ष हस्ती अबकी दफा आरोपों के घेरे में हैं।
हम उदय जी और दूसरे तमाम रचनाकारों से हमारे मुद्दों पर मुखर होने का लगातार आवेदन करते रहे हैं।इस तरफ उन्होंने अभी कोई पहल की है या नहीं मालूम नहीं।
हमने उदय प्रकाश जी के स्टेटस पर टिप्पणी की कि कवित्व छोड़कर खुलकर लिखें क्योंकि हम्माम में तो सारे नंगे नजर आयेंगे।
फिर मैं अपने विषयपर अपडेट करने लगा।
मेरा फोकस कारपोरेट राज के कायाकल्प पर है और लोकपाल विधेयक के सत्ता पक्ष की संसदीय गोलबंदी पर है।
फिर उन नये समीकरणों पर जिसके तहत अब मनमोहन के अवसान के बाद नंदन निलेकणि और अरविंद केजरीवाल को कारपोरेटराज नये ईश्वर के तौर पर प्रतिष्ठित करने लगा है।
लिखकर पोस्ट करने के बाद फेसबुक पर लौटा तो खुरशीद अनवर की खुदकशी की खबर मिली।
यह यकायक स्तंभित करने वाली दुर्घटना है।
अब जैसा कि लोग फेसबुक पर धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री अस्मिता का मामला इसे बना रहे हैं,हिंदी समाज जैसे इस मुद्दे को लेकर विभाजित है और तमाम प्रतिष्ठित आदरणीय स्त्रियां जिस कदर आक्रामक रुख अख्तियार किये हुए हैं और खुरशीद की मौत के बाद भी जो मीडिया ट्रायल चल रहा है,हम कारपोरेट कायकल्प पर विषय प्रस्तावना भी नहीं कर सकें।
हमारे लिए यह स्थिति निजी तौर पर बेहद निराशाजनक है।
हम सामाजिक मुद्दों पर,आर्थिक जनसंहार के विरुद्ध जनमत बनाने के लिए सोशल मीडिया का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।
ऐसा दुनियाभर में हो रहा है।
लेकिन दुर्भाग्य तो यह है कि उच्च तकनीकी दक्षता का इस्तेमाल भी हम निजी विवादों के निपटारे में कर रहे हैं और असली मुद्दों को संबोधित नहीं कर रहे हैं।
सारे लोग होली के मूड और मिजाज में सोशल मीडिया का अगंबीर प्रयोग कर रहे हैं इसकी भेदक और आत्मघाती विध्वंसक ताकत से अनजान।
यह दुधारी तलवार है,जिसे चलाने की तहजीब अभी हिंदी समाज को है ही नहीं,ऐसा कहूंगा तो बरसाना होली की हालत हो जायेगी।लेकिन सच यही है।
सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में अपने प्रिय पंडितजी का यह आलेख बतौर एजंडा मानकर हम चलें तो शायद हम इसका बेहतर इस्तेमाल कर सकें।
हम जानते हैं कि पंडित जी कीमती लेखक हैं और उनके साथ कापीराइट भी नत्थी है।लेकिन उनके इस आलेख को बेहद प्रासंगिक मानते हुए हस्तक्षेप के ठप्पे के साथ अपने ब्लागों में लगाकर आज मैंने दिनचर्या की शुरुआत की है।
अब मेरे लिए संवाद का विषय लेकिन वही कारपोरेट कायाकल्प है।
जो हमारे मित्र मुद्दों से भटक रहे हैं,उनसे विनम्र निवेदन हैं कि मुद्दों पर ही लौटें।
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