अरबों रुपये का कोकिंग कोल झरिया और रानीगंज में जलकर खाक, आयात के लिए जलपोत तक के इंतजाम को हरी झंडी!
लोग अब इतिहास भूल गये हैं और रानीगंज झरिया कोयलांचल की तबाही पर कोई रोने वाला भी नहीं है।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
लोग अब इतिहास भूल गये हैं और रानीगंज झरिया कोयलांचल की तबाही पर कोई रोने वाला भी नहीं है।
इस्पात और बिजली उद्योगों के संकट को कोयला उद्योग पर मढा जा रहा है। कोयला उद्योग न हुआ जैसे कि कोई गरीप की जोरु है!अरबों रुपये का कोकिंग कोल झरिया और रानीगंज में जलकर खाक हो रहा है, न भूमिगत आग बुझाने की पहल हो रही है और न कोयला निकालने का कोई जुगाड़ हो रहा है। सारी योजनाएं कागजी हैं और भारत सरकार कोकिंग कोल के आयात के लिए जलपोत तक के इंतजाम को हरी झंडी दे रही है।सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) और राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (आरआईएनएल) को कोकिंग कोल आयात करने के लिए सीधे जलपोत किराए पर लेने की अनुमति दे दी है।हुप्रतीक्षित झरिया एक्शन प्लान को २००९ में ही इन्फ्रास्ट्रक्चर कैबिनेट कमेटी की मंजूरी मिल गई ।राज्य सरकार ने भी सहमति दे दी। झरिया और रानीगंज कोलफील्ड में छिपे बहुमूल्य कोकिंग कोल के भंडार को निकालने, यहां पर बसे लाखों लोगों के पुनर्वास, भूगर्भ खदानों में लगी आग को बुझाने तथा इस क्षेत्र के विकास के लिए यह योजना अति महत्वपूर्ण है।इस योजना के तहत भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) और ईस्टर्न कोलफील्ड्स (ईसीएल) क्षेत्र में बसे लोगों का पुनर्वास, बुनियादी सुविधाओं का विकास और खदानों में लगी आग को बुझाने के लिए अनुमानित 9657.61 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। इसमें से 7028.40 करोड़ रुपए झरिया कोलफील्ड और 2629.21 करोड़ रुपए रानीगंज कोलफील्ड क्षेत्र के विकास पर खर्च किए जाएंगे। लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति पूरे चार साल बीत जाने के बावजूद हुई नहीं है और कोकिंग कोल के आयात का अभियान युद्धस्तर पर चल गया है।
ट्रेड यूनियनें इस हलचल से बेखबर हैं औरर एक दफा फिर आंदोलन की राह पर हैं। ईसीएल के ठेका कर्मियों के लिए वेतन समझौता लागू करने की मांग को लेकर संयुक्त संग्राम कमेटी की ओर से जोरदार आंदोलन की तैयारी की जा रही है। 20 मई को ईसीएल मुख्यालय पर भी संगठनों की ओर से विरोध प्रदर्शन किया जाएगा।इंटक नेता सुनील कर्मकार ने कहा कि कोल इंडिया प्रबंधन और मान्यता प्राप्त मजदूर संगठनों के बीच कोयला उद्योग में कार्यरत ठेका कर्मियों के वेतन को लेकर समझौता हुआ था। कोल इंडिया प्रबंधन ने सभी इकाईयों में पत्र देकर मजदूरी तय करने को कहा था, लेकिन चार माह बाद भी ईसीएल प्रबंधन ने नये वेतनमान को लागू नहीं किया है। इसी मांग को लेकर मजदूर संगठनों ने एकजुटता के साथ ईसीएल मुख्यालय पर प्रदर्शन का निर्णय लिया है।
जबकि कोयला ब्लाकों के आबंटन के अलावा कोयला आमदनी का यह इंतजाम कोई कम बड़ा घोटाला नहीं है। पर चीखते चिल्लाते लोग खामोश हैं।इन कंपनियों को अब इसके लिए केंद्रीय जहाजरानी और सड़क परिवहन मंत्रालय के संगठन ट्रांसचार्ट के पास जाने की आवश्यकता नहीं होगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में कल हुई केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में यह निर्णय लिया गया।बैठक के बाद जारी विज्ञप्ति में कहा गया है, 'इस फैसले से घरेलू स्तर पर कोकिंग कोल की कमी को दूर करने में मदद मिलेगी। सेल और आरआईएनएल वर्तमान में सालाना 1.40 से 1.50 करोड़ टन कोयले का आयात करते हैं।'
भाजपा कोयला घोटाले पर प्रधानमंत्री मनमोहन के इस्तीफे के लिए अब देशभर में आंदोलन चलाने की तैयारी में है। इसके लिए वह समूचे देश में आगामी 27 मई से 2 जून तक जेल भरो आंदोलन चला प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग करेगी।बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव अनंत कुमार ने शनिवार को आरोप लगाया कि कोयला घोटाले (कोलगेट) की जांच कर रही जांच एजेंसी, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) मुख्य आरोपी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बचा रही है। राजधानी लखनऊ स्थित पार्टी मुख्यालय में एक संवाददाता सम्मेलन में अनंत कुमार ने कहा कि सीबीआई रेल रिश्वत कांड की तरह कोलगेट की जांच में तेजी क्यों नहीं दिखा रही है? उन्होंने कहा कि पिछले एक साल से कोलगेट के कई मामले उजागर हो रहे हैं, लेकिन सीबीआई ने अब तक इसमें किसी मंत्री से पूछताछ नहीं की।
बाकी घोटालों का क्या? प्रधानमंत्री जो कोलइंडिया और कोययला उद्योग को चूना लगाने के लिए एक के बाद एक कदम उठा रहे हैं, उसका क्या?
सार्वजनिक क्षेत्र की ये दोनों कंपनियां आयात के लिए ट्रांसचार्ट द्वारा अनुबंधित जहाजों के जरिये ही आयात करते रहे हैं। अब दोनों ही कंपनियों को इससे छूट दे दी गई है।विज्ञप्ति के अनुसार, 'इसके परिणामस्वरुप सेल और आरआईएनएल का विदेशों से कोयला तथा दूसरे कच्चे माल का आयात करते समय माल वाहक जहाजों और उनके संचालन सहित पूरी स्थिति पर बेहतर नियंत्रण होगा।'
सेल और आरआईएनएल लंबे समय से इसकी मांग करती रही हैं। उनका कहना था कि बेहतर कार्य क्षमता और लागत में बचत के लिए उन्हें जलपोतों को किराए पर लेने की छूट दी जानी चाहिए। दोनों कंपनियां कुल मिलाकर 1.40 से लेकर 1.50 करोड़ टन तक कोकिंग कोल का आयात करतीं हैं।सेल अपनी आयात क्षमता का विस्तार कर रहा है और इसे बढ़ाकर 2.34 करोड़ टन करने जा रही है जबकि आरआईएनएल इसे दोगुना कर 63 लाख टन तक बढ़ाएगी। वर्ष 2020 तक दोनों का कुल आयात बढ़कर छह करोड़ टन तक पहुंच जाएगा।
इसी बीच एनटीपीसी और कोल इंडिया के बीच ईंधन आपूर्ति समझौते (एफएसए) से जुड़े विवाद के निपटान के लिएबिजली मंत्रालय की तरफ से जारी कैबिनेट नोट के प्रस्ताव पर कोयला मंत्रालय आपत्ति जाहिर कर सकता है। कैबिनेट नोट पर विभिन्न मंत्रालयों से परामर्श के बाद इसे कैबिनेट कमेटी ऑन इंवेस्टमेंट (सीसीआई) के समक्ष पेश किया जाएगा।एफएसए के लिए पिछले साल अप्रैल में राष्ट्रपति की तरफ से निर्देश जारी किया गया था, लेकिन अब तक इस काम को पूरी तरह अंजाम नहीं दिया जा सका है।
कोयला मंत्रालय के मुताबिक कोयला प्राकृतिक संसाधन है और खुदाई के जरिए जो कोयला मिलता है उसी की आपूर्ति की जाती है।कोल इंडिया जानबूझकर खराब कोयले की आपूर्ति नहीं करती है। ऐसे में यह शर्त रखना कि 3100 से कम केसीएएल वाले कोयले की आपूर्ति 'एसीक्यू' के तहत मान्य नहीं होगी, ठीक नहीं है। कोयला मंत्रालय नोट के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं होगा। कोल इंडिया पहले भी इस बात को एनटीपीसी को बता चुकी है।
कैबिनेट नोट के मुताबिक, 3100 से कम केसीएएल वाले कोयले की आपूर्ति को वार्षिक अनुबंध मात्रा (एसीक्यू) के तहत होने वाली आपूर्ति से बाहर रखा जाएगा।नोट में कोयले की गुणवत्ता की जांच के लिए थर्ड पार्टी सैंपलिंग की व्यवस्था शुरू होने तक कोयले की बिलिंग के लिए नए तरीके का प्रावधान किया गया है। इसके मुताबिक खदान और पावर प्लांट दोनों ही जगहों पर कोयले की औसत ग्रॉस कैलोरिफिक वैल्यू (जीसीवी) के आधार पर कोल इंडिया बिलिंग करेगी।गौरतलब है कि थर्ड पार्टी सैंपलिंग की व्यवस्था की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और आगामी सितंबर तक यह लागू हो जाएगी। एफएसए मामले में एनटीपीसी कोयले की गुणवत्ता को लेकर अड़ी हुई है।
ने केंद्र सरकार और न राज्य सरकारें रानीगंज और झरिया कोयलांचल को खास तरजीह दे रही हैं जबकि इतिहास बताता है कि भारत में कोयला खनन का प्रारंभ विलियम जोन्स ने दामलिया (रानीगंज) के समीप सन् १८१५ में किया। उस समय ईषाएँ (shafts) खोदी गई और उनसे कोयला निकाला गया। जोंस ने बेल पिट रीति से भी कोयले की कुछ खुदाई कराई थी।१८५५-५६ ई. में रेलें तथा नदियों में यातायात के साधन उपलब्ध हुए। कोयले की कुछ खानों तक पटरी भी बिछा दी गई तथा कलकत्ता के समीप विद्यावती में ईस्ट इंडियन रेलवे पर कोयले का एक संग्रह केंद्र भी स्थापित किया गया। उस समय बंगाल में खनन कार्य सर्वाधिक वृद्धि पर था। फलत: सन् १८६० में रानीगंज कोयला क्षेत्र से भारत के कुल उत्पादन का ८८% कोयला निकला। सन् १९०० में रानीगंज क्षेत्र का उत्पादन घटकर २५.५ लाख टन हो गया जबकि भारत का कुल उत्पादन ६५.५ लाख टन था। सन् १९०६ तक झरिया क्षेत्र (बिहार) का उत्पादन रानीगंज से बढ़ गया। द्रुत गति से कोयला उद्योग का विकास होने के फलस्वरूप १९१४ ई. में उत्पादन १६५ लाख टन तक पहुँच गया, जिसमें ९१.५ लाख टन झरिया और ५० लाख टन रानीगंज का उत्पादन सम्मिलित है।
झरिया, छोटानागपुर-संथाल परगना प्रभाग का एक अंश रहा है। यह एक वनांचल था। आबादी यहां काफी कम थी। यहां के निवासी मुख्यत: खेती और जंगलों पर निर्भर थे। मूल रूप से जंगल और खेती भू-उपयोग का माध्यम था। सन् 1774 में जब देश के अन्य भागों में कोयला खनन शुरू हुआ, तो कुछ वर्षों बाद कोयला अन्वेषकों की नजर इस क्षेत्र पर पड़ी। 1839 में सर्वप्रथम लेफ्टिनेंट हेरिंगटन ने यहां कोयला होने की पुष्टि की। 1858 में मेसर्स बोरोडेली एण्ड कम्पनी ने लीज पर यहां से कोयला निकालने के लिए आवेदन दिया, वह अस्वीकृत हो गया, चूंकि सरकार को, कोयला कहां-कहां है, इसकी पूरी जानकारी नहीं थी। सन् 1865 में भूवैज्ञानिक टी.डब्लू.एच. ह्यूज द्वारा यहां का भू-सर्वेक्षण कराया गया, तत्पश्चात 1890 में ईस्ट इंडिया रेलवे की तरफ से टी.एच.वार्ड ने पुन: सर्वेक्षण किया और कोयले की अनुमानित मात्रा के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। मिस्टर वार्ड की रिपोर्ट आने के बाद 1893-94 में कोयला खनन शुरू हुआ। कोयला खनन तो शुरू हुआ, परन्तु उसे क्षेत्र से बाहर भेजने की कोई व्यवस्था नहींं थी। इसी वजह से ईस्ट इंडिया रेलवे ने बराकर के कतरास तथा कुसुण्डा से पाथरडीह तक रेलवे लाइन बिछाने का काम किया, जिससे कोयला का परिवहन आसान हो गया।चन्द वर्षों में ही यहां कोयला खनन चरम पर पहुंचने लगा। 1894 में झरिया कोलफील्ड का कुल उत्पादन केवल 1500 टन था जो कि महज 7 सालों के बाद 1901 में बढ़कर 200000 टन हो गया।
1906 में झरिया क्षेत्र ने कोयला उत्पादन के मामले में रानीगंज को पछाड़ दिया, जहां झरिया से कई वर्ष पहले से ही उत्पादन कार्य हो रहा था। प्रथम विश्व युद्घ के वर्षों में (1914-18) कोयले की मांग में बढ़ोत्तरी हो गई, जिसके कारण कोयलांचल में विविध गतिविधियां तेज हो गई। यहां पर 112 कोयला कम्पनियां स्थापित हुईं। रेलवे प्रणाली का विकास होने लगा। झरिया स्टेशन तो पहले ही बन चुका था। धनबाद-टाटानगर रेलवे लाइन पर प्रमुख स्टेशन बनने लगे। शहर में आबादी बढ़ने लगी। कुछ वर्षों बाद जन स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की समस्या के चलते सन् 1920 में बिहार सरकार के द्वारा बिहार और उड़ीसा सेटलमेन्ट एक्ट 1920 के तहत झरिया माइन्स बोर्ड ऑफ हेल्थ का भी गठन हुआ।
झरिया प्रथम विश्वयुद्ध के समय एक उदीयमान शहर बन गया। द्वितीय विश्वयुद्घ के समय झरिया के कोयले की मांग और बढ़ गई। झरिया का कोयला उस समय तक विदेशों में भी काफी मात्रा में भेजा जाने लगा था। यूं तो द्वितीय विश्व युद्घ से पहले ही यहा टेलीफोन, बिजली और पानी जैसी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हो गईं थीं, लेकिन युद्ध के समय इन सबको और सुदृढ़ किया गया। 1951 में झरिया वाटर बोर्ड की स्थापना की गई।
आधिकारिक तौर पर सरकार की ओर से सर्वप्रथम 1959-60 में नेशनल कोल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन द्वारा सुदामडीह और मुनीडीह में उत्खनन कार्य प्रारंभ किया गया। अक्तूबर 1971 में खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिसकी पृष्ठभूमि में श्रमिकों को कानूनी हक से वंचित रखना, इस्पात उद्योग आदि के लिए कोकिंग कोल मांग को पूरा न करना, खान सुरक्षा नियमों का पालन न करना और कोयला निकालने के लिए गलत तरीके अपनाना आदि मुद्दे प्रमुख थे।
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