मैं तुम्हारा गुस्सा समझती हूं… तुम लड़ो… हम साथ हैं…
♦ कामायनी
आज कल मैं लगातार गुस्से से भरी रहती हूं। बहुत साल पहले जब यह गुस्सा मुझ पर हावी हुआ था, तब मेरी मनोविज्ञान की एक मददगार शिक्षिका ने मुझे एक किताब पढ़ने के लिए दी थी, "The Dance of Anger"। किताब ने मेरे दिमाग पर गहरा असर किया था और मैंने एक मूल बात कुछ इस प्रकार ग्रहण की, "गुस्सा आना समस्या नहीं, उसकी वजह को समझें, गुस्से को कैसे व्यक्त (act out) करते हैं, यह समस्या हो सकती है!"
खैर बात यहां मेरे गुस्से की नहीं, एक सामूहिक गुस्से के एहसास की है। मुझे ही नहीं 'हमें' गुस्सा आता है और हम इस गुस्से को कैसे व्यक्त करेंगे? How will we act out our anger?
मैं आपके सामने कुछ उदाहरण रखती हूं कि हमें गुस्सा क्यों आता है और हम क्या करते हैं!
एक अप्रैल 2013
बढ़ती महंगाई के मद्देनजर बिहार सरकार मनरेगा मजदूरों की मजदूरी छह रुपये घटा देती है। सरकारी कर्मचारी और अफसर के वेतन और भत्ते इस समय बढ़ाये जाते हैं। यहां तक कि हाल ही में बिहार में PRS (पंचायत रोजगार सेवक), जो कि मनरेगा कर्मचारी है, उसका वेतन भी बढ़ाया गया। हमें सरकार की इस दोरंगी नीति पर गुस्सा आता है।
हमारे साथी न दिन देखते हैं न रात। न गर्मी और न अंधड़। चार टीम अररिया, कटिहार और पूर्णिया जिलों में 'मजदूरी की जंग' के लिए एक यात्रा निकालती है और एक मई, 2013 को हजारों लोग यादव कालेज, अररिया में 'मजदूरी की जंग' का एलान करते हैं। दो मई को संगठन के द्वारा दायर जनहित याचिका को पटना उच्च न्यायालय में स्वीकार कर लिया जाता है और 15 मई को कोर्ट का अंतरिम आदेश आता है की राज्य सरकार मनरेगा मजदूरी को वापस 144 करे। हमारा गुस्सा कुछ शांत होता है!
26 अप्रैल, 2013
ग्राम पंचायत चित्तोरिया। बूढ़े टूटे लोग कड़ी धूप में पोखर से मिट्टी काट रहे हैं। हमारी साइकिल जब साइट के नजदीक पहुंचती है तो दूर से ही कुछ महिलाएं रोक कर हमें बताती हैं कि वो साइट पर काम नहीं कर रहीं, अभी उन्हें घर चलाने का पैसा नहीं और मकई काटने में उन्हें रोज नगद पैसे मिल रहे हैं। साइट पर बातचीत में धीरे धीरे मजदूर खुलता है। उसे गुस्सा है कि अभी भी चार महीने पहले जो काम उन्होंने किया था, उसका भुगतान उन्हें नहीं मिला है। हम लोग लिस्टें बनाते हैं, लगभर 60 लोगों का चार से नौ दिन का भुगतान बाकी है। सरकार सबसे गरीब (mostly landless dalit workers) से उधार पर काम करवा रही है। गुस्से में लोग बहुत सारी बातें कहते हैं। वह उग्र हैं और मारपीट की बात बार-बार उठती है!
27 अप्रैल 2013
हम फरियाद ले कर DDC कटिहार के पास जाते हैं… "महोदय, चित्तोरिया जैसी पंचायतों में जहां मजदूर जागृत है और संगठित हो कर काम मांग रहा है, पूर्व में बढ़िया काम कर के दिखा चुका है, वहां बड़े काम ठेकेदारों के माध्यम से न करा कर मजदूर से मनरेगा में कराएं।" आश्वासन मिला है हर बार की तरह। मैंने उसे समेट कर अपने झोले में रख लिया है हर बार की तरह। आज ही और भी बातें सामने आयी हैं। मोहनपुर पंचायत में PRS ने लिखित में मेठ से जवाब मांगा है, "आपकी मिट्टी कम क्यों कटी है?" PRS काम की जगह पर रह कर काम नहीं कराते हैं, मेठ को कोइ प्रशिक्षण नहीं, कार्यस्थल व्यवस्था के नाम पर कोई सहूलियत नहीं पर मट्टी नापी जाती है 'सोने' की तरह। काम मांगने पर पूरा काम नहीं मिलता, भुगतान आने में हफ्तों से महीनों लग जाते हैं और मिट्टी नापने में मजदूरी काटी जाती है, क्या हमारा गुस्सा होना वाजिब नहीं? वोट के लिए कानून बनाया जाता है और फिर उसे लागू करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं, क्या हमें गुस्सा नहीं आएगा? हैरत तो इस बात की है कि हमें इतना कम गुस्सा क्यों आता है?
7 मई, 2013
कटिहार के एक साथी गुस्से में मुझे फोन करते हैं और बताते हैं कि सैकड़ों लोगों ने मनरेगा में काम मांगा था और आज जो मस्टर रोल निकला है, उसमें आधे लोगों का नाम छूट गया है। आगे वह कहते हैं, "हम कल ब्लॉक जा रहे हैं"। स्पष्ट है कि गुस्से में मजदूरों ने ब्लॉक के घेराव का निर्णय लिया है। अररिया से हम दो साथी अगले दिन दोपहर में ब्लॉक पर पहुंचते हैं। सैकड़ों मजदूर धूप में ब्लॉक की ओर बढ़ रहे हैं। हाथ में संगठन की झंडी। कई साइकिल पर, बाकी सैकड़ों कई किलोमीटर से पैदल बढ़ते आ रहे हैं। उनमें गुस्सा है। कुछ लोग कर्मचारी और अफसर को झाड़ने के लिए कड़वे शब्दों के साथ झाडू भी लाये हैं। गीत, गाने और नारों के बीच बातचीत भी हो रही है। पुलिस बल आया है। हमारे जैसे कुछ टूटे-फटे घरों के थोड़े-पढ़े लिखे बच्चे इनके सिपाही हैं। क्योंकी गरीब मजदूर के पास इन नौकरियों के सिवा आराम की जिंदगी का कोई और रास्ता नहीं। बहुत कड़वी बातें कहीं जा रहीं हैं। लोगों का आक्रोश बस कल का नहीं, सालों से हो रही नाइंसाफी का है। क्या हमें इंसान की तरह जीने का हक़ नहीं? क्या हमारे पास भी रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा की गारंटी नहीं होनी चाहिए?
14 मई 2013
अररिया प्रखंड कार्यालय में विकलांगता शिविर लगा है। शिविर में विकलांग लोगों को सर्टिफिकेट दिया जाएगा। आज orthopaedic डाक्टर बैठे हैं। सर्टिफिकेट के लिए एक पीला कार्ड दिया जाता है। यह कार्ड स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी के पास रहता है और इसे लाभुक को मुफ्त मिलना है। पर वह कर्मचारी हर कार्ड के लिए पचास रुपये वसूल रहा है। दिन भर में 107 सर्टिफिकेट बने, 5350 रुपये की कमाई। क्या यह कमाई सिर्फ एक अदना कर्मचारी हड़प कर लेगा, इसमें औरों का PC (percentage) कितना होगा? सबसे गरीब विकलांग से भी यह लोग चोरी करते हैं, यह कौन हैवान हैं? इस पर गुस्सा, दुःख सब कुछ एक साथ आता है!
अगले दिन विभोर और अरविंद पूरे दिन बैठ कर कैंप में मदद करते हैं और एक भी पैसे का लेन देन नहीं होता है, और 170 से अधिक लोगों का कार्ड बनाता है। पर क्या हर कैंप में ऐसे साथियों का बैठना संभव है?
15 मई 2013
फिर कहीं एक मेहनतकश मजदूर लड़ रहा है PTA (Panchayat Technical Assistant) से। एक बार फिर एक कर्मचारी को मिट्टी पूरी नहीं मिल रही। उसका कहना है मजदूर कोढ़िया है। हम कहते हैं कर्मचारी कोढ़िया है। वह कोढ़िया है, जिसकी तनाख्वाह बेवजह बढ़ रही है, न कि वह मजदूर जो काम कर रहा है और सरकार उसकी मजदूरी घटा रही है। हर बार की तरह हम पूरी मजदूरी के लिए लड़ रहे हैं और बिना गुस्से के क्या कोइ लडाई लड़ी जा सकती है?
ऐसे सैकड़ों किस्से हैं… पर जैसा मैंने कहा, बस कुछ हाल के उदाहरण आपके सामने रख रही हूं कि व्यवस्था से गुस्सा लोगों से जब आप मिलें, तो मेरी तरह आप भी शायद कह सकें, "मैं तुम्हारा गुस्सा समझ सकती हूं, तुम लड़ो साथी, मैं तुम्हारे साथ हूं…"
(कामायनी की डायरी का यह अंश बीबीसी की वरिष्ठ पत्रकार रूपा झा ने अपनी फेसबुक वॉल पर शेयर किया है।
कामायनी बिहार के जन जागरण शक्ति संगठन से जुड़ी हैं।)
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