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Saturday, May 18, 2013

फैशन उनका त्रासदी हमारी

फैशन उनका त्रासदी हमारी

Saturday, 18 May 2013 11:17

सुनील 
जनसत्ता 18 मई, 2013: जब पूरी दुनिया के मजदूर एक मई को मजदूर दिवस मनाने की तैयारी कर रहे थे, उसके ठीक एक सप्ताह पहले बांग्लादेश में एक हजार से ज्यादा मजदूर एक जर्जर इमारत के ढहने से दब कर मर गए। पहले खबर करीब तीन सौ मौतों की आई थी, लेकिन लाशें निकलती गर्इं, आंकड़ा बढ़ता गया। दस दिन बाद तक बुरी तरह सड़ी हुई लाशें निकलती रहीं।
ढाका के पास सावर नामक जगह पर चौबीस अप्रैल को राणा प्लाजा नामक एक आठ मंजिला इमारत ढहने से यह हादसा हुआ। इस इमारत में रेडीमेड वस्त्रों के चार कारखाने थे। एक दिन पहले इमारत में दरारें नजर आ गई थीं और इमारत को खाली करा लिया गया था। लेकिन अगले दिन कारखाना मालिकों ने फिर मजदूरों को काम पर बुला लिया। उन्होंने धमकी दी कि नहीं आने पर उन्हें काम से निकाल दिया जाएगा या वेतन काट लिया जाएगा। जिस वक्त हादसा हुआ, करीब साढ़े तीन हजार मजदूर काम कर रहे थे। इनमें ज्यादातर युवतियां थीं।
हादसे के बाद एक-दूसरे पर दोषारोपण का चिर-परिचित सिलसिला चला। पता चला कि इमारत की मूल स्वीकृति केवल पांच मंजिलों की और शॉपिंग मॉल की थी, भारी मशीनों से युक्त कारखाना चलाने की नहीं। बांग्लादेश भारत जैसा ही है, जहां नियमों के उल्लंघन को तब तक अनदेखा किया जाता है जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए। इमारत का मालिक मोहम्मद सोहेल राणा सत्तादल अवामी लीग की युवा शाखा का स्थानीय नेता था। उसे और कारखाना मालिकों को गिरफ्तार कर लिया गया है। 
इस घटना की हलचल पश्चिमी देशों में भी मची, क्योंकि ये कारखाने उन्हीं देशों को निर्यात के लिए कपड़े तैयार करते थे। वहां की खुदरा दुकानों की शृंखला वाली कंपनियां विविध ब्रांडों के कपड़े ऐसे ही कारखानों में तैयार करवाती हैं। वहां के संवेदनशील लोगों और एनजीओ ने हल्ला मचाया कि इन कंपनियों को भी इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए। वे इन कारखानों में मजदूरों के लिए सुरक्षा उपायों को क्यों नहीं लागू करवाती हैं? ब्रिटेन की प्रिमार्क कंपनी मृतकों के परिजनों को कुछ मुआवजा देने के लिए तैयार हुई है। डिस्ने कंपनी ने घोषणा की कि अब वह बांग्लादेश से आयात नहीं करेगी। 
यूरोपीय संघ बांग्लादेश में तैयार वस्त्रों का प्रमुख आयातक है। उसने धमकी दी कि आयात शुल्कों में बांग्लादेश को दी गई रियायतें वापस लेने पर विचार किया जाएगा। तब बांग्लादेश सरकार ने प्रार्थना की कि ऐसा न करें, क्योंकि इसका बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था और मजदूरों के रोजगार पर असर पड़ेगा। इसी बीच नए पोप का बयान आया कि बांग्लादेश में मजदूरों की हालत 'गुलाम मजदूरों' जैसी है जो प्रभु को मंजूर नहीं है। कुल मिलाकर स्वर यह था कि यह गरीब दुनिया में काम की बुरी दशा, भ्रष्टाचार और कुशासन का मामला है, जिसको सुधारने की कुछ जिम्मेदारी अमीर देशों को भी उठानी पड़ेगी।
लेकिन बात क्या महज इतनी है? क्या कुछ गिरफ्तारियों, जुर्माने, मुआवजे, नियम-कानूनों की समीक्षा, पश्चिमी देशों के दबाव और कंपनियों के खिलाफ नैतिक अभियानों से समस्या हल हो जाएगी? समग्रता से विचार करने के लिए इस घटना को पूरे परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। पहली बात तो यह है कि यह हादसा भीषण जरूर है और यह रेडीमेड वस्त्र उद्योग का अभी तक का सबसे भयानक हादसा है, लेकिन पहला और अकेला नहीं है। और यह बांग्लादेश तक सीमित भी नहीं है।
ऐसे औद्योगिक हादसे बांग्लादेश, पाकिस्तान, चीन, भारत, विएतनाम, दक्षिण अफ्रीका जैसे नए औद्योगिक देशों में आम हो चले हैं। खुद बांग्लादेश में अभी इस हादसे की लाशें निकल ही रही थीं कि नौ मई को एक और कपड़ा कारखाने में आग लगने से आठ मौतें हो गर्इं। 
इस हादसे के ठीक पांच महीने पहले ही 24 नवंबर को ढाका के पास एक रेडीमेड वस्त्र कारखाने में आग लगी थी और 112 मजदूर मारे गए थे। इसके पहले, 2010 में एक कारखाने में आग लगने से सत्ताईस मौतें हुई थीं। मौजूदा हादसे के स्थान सावर में ही अप्रैल 2005 में इसी तरह कारखाने की इमारत ढहने से चौंसठ मजदूर मारे गए थे। 
पाकिस्तान में पिछले साल सितंबर में एक ही रात में कराची और लाहौर के दो कपड़ा कारखानों में आग लगने से तीन सौ लोग मारे गए। इनमें कई बाल-मजदूर थे। जिस चीन की प्रगति से सब चमत्कृत हैं, वहां के कारखानों और खदानों में भी ऐसी दुर्घटनाएं आम बात हैं। खदानों के हादसों में मरने की दर (प्रति दस लाख टन खनिज के पीछे मौतें) तो पूरी दुनिया में चीन की सबसे ज्यादा है।
आज बांग्लादेश में रेडीमेड वस्त्रों के करीब चार हजार कारखाने हैं। इनमें छत्तीस लाख मजदूर काम करते हैं, जिनमें अट्ठाईस लाख महिलाएं हैं। इस उद्योग में सालाना दो हजार करोड़ डॉलर का माल तैयार होता है जो बांग्लादेश की राष्ट्रीय आय में दस फीसद का योगदान करता है। 
बांग्लादेश के कुल औद्योगिक निर्यात का यह नब्बे फीसद और कुल निर्यात का अस्सी फीसद है। इस निर्यात में साठ फीसद यूरोप को, तेईस फीसद संयुक्त राज्य अमेरिका को और पांच फीसद कनाडा को जाता है। आज दुनिया में चीन के बाद बांग्लादेश ही रेडीमेड वस्त्रों का सबसे बड़ा निर्यातक है। भारत का नंबर छठा है। इस तरह बांग्लादेश 'निर्यात आधारित विकास' की सफलता का एक मॉडल बन गया है।

बांग्लादेश की इस सफलता का राज क्या है? दरअसल, बांग्लादेश के मजदूर दुनिया के सबसे सस्ते मजदूर हैं। वे चीन, भारत और पाकिस्तान से भी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हैं। दो हजार रुपए महीने की पगार   पर उनसे रोज दस-बारह घंटे काम कराया जा सकता है। बांग्लादेशी वस्त्रों के प्रति अमीर देशों की कंपनियों के लगाव का यही राज है।
रेडीमेड वस्त्र उद्योग में विभिन्न देशों की मजदूरी के आंकड़े देखने से बहुत कुछ बातें साफ हो जाती हैं और वैश्वीकरण का रहस्य खुल जाता है। रेडीमेड वस्त्र उद्योग में मजदूरी जर्मनी में पचीस डॉलर, अमेरिका में सोलह डॉलर प्रतिघंटा है। दूसरी ओर यही मजदूरी चीन में पचास सेंट, पाकिस्तान में इकतालीस सेंट, भारत में पैंतीस सेंट और बांग्लादेश में पंद्रह सेंट है। अमीर देशों की मजदूरी और गरीब देशों की मजदूरी में दस से लेकर सौ गुने तक का फर्क है। बांग्लादेश की मजदूरी सबसे कम है; अमेरिका की मजदूरी के तो सौवें हिस्से से भी कम। जर्मनी के मुकाबले यह 166वां हिस्सा है। इसीलिए अब पश्चिमी देशों के बजाय गरीब देशों में उत्पादन करवाना बहुत सस्ता पड़ता है। रेडीमेड वस्त्र जैसे श्रम-प्रधान उद्योग में तो यह फायदा और ज्यादा है। 
इसीलिए पिछले तीन-चार दशकों में बड़ी मात्रा में उद्योग पश्चिमी अमीर देशों से गरीब देशों को स्थानांतरित हुए हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्र्रीय मुद्राकोष इसे 'निर्यात आधारित विकास' बता कर गरीब देशों की सरकारों और वहां के अर्थशास्त्रियों के गले उतारने में लगे रहे हैं। असली बात है कि दुनिया के गरीब देशों के सस्ते मजदूरों का शोषण करके अमीर देशों की कंपनियों के मुनाफे बढ़ाना और इन देशों के उपभोक्ताओं को सस्ता माल उपलब्ध कराना। इसी से पूंजीवादी सभ्यता का यह भ्रम भी बनाए रखने में मदद मिली है कि 'उपभोक्ता' राजा है और उपभोग को अंतहीन रूप से बढ़ाया जा सकता है। 
'आउटसोर्सिंग' का भूमंडलीकरण नई व्यवस्था की विशेषता है। रेडीमेड वस्त्र कंपनी नायके के कपड़े दुनिया भर में फैले आठ सौ कारखानों में बनते हैं। वालमार्ट, एचएंडएम, जारा, ली, रेंगलर, डिस्ने, गेप, मेंगो, बेनेट्टन, लोबलो जैसी तमाम कंपनियां दुनिया में जहां सबसे सस्ता माल बन सके, वहां बनवाती हैं। बहुराष्ट्रीय खुदरा कंपनियों की सफलता का यही राज है। इसमें मेहनत गरीब देशों के मजदूरों की होती है, कंपनियों का केवल ब्रांड का ठप्पा होता है, जिसका एकाधिकार उनका होता है। 
मजदूरों को नाममात्र की मजदूरी देकर असली कमाई ये 'ब्रांडधारी' कंपनियां हड़प लेती हैं। नई व्यवस्था के समर्थन में अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि इसमें गरीब देशों के 'तुलनात्मक लाभ' का उपयोग हो रहा है। इससे लागतें कम होती हैं, उत्पादकता बढ़ती है और सबका भला होता है। इसमें अमीर देशों को सस्ता माल मिल रहा है, गरीब देशों का औद्योगीकरण हो रहा है, उनका निर्यात बढ़ रहा है और वहां के लोगों को रोजगार मिल रहा है। इसी के तहत यह भी पाठ पढ़ाया गया कि गरीब देशों को प्रतिस्पर्धी बने रहने और अपनी लागतें कम रखने के लिए 'श्रम सुधार' करना चाहिए, यानी मजदूरों के हित में बने कानूनों को शिथिल करते हुए, मजदूर आंदोलन को दबाते हुए, उनके शोषण की पूरी छूट देना चाहिए। निर्यात बढ़ाने के नाम पर इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में दुनिया के गरीब देश लग गए हैं।
निर्यात आधारित विकास और औद्योगीकरण की इस योजना में लागतों में कमी का ही एक हिस्सा है कि उद्योगपतियों और कंपनियों को काम की दशाओं और सुरक्षा के प्रति लापरवाह होने की छूट दी जाए। पर्यावरण के विनाश की छूट देना भी इसका एक हिस्सा है। अमीर देशों में कड़े नियमों और जागरूकता के कारण यह संभव नहीं है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कचरा हम पैदा करें और उसे पड़ोसी के आंगन में डालते जाएं। पूंजीवाद के नए दौर ने यह सुविधा भी अमीर पूंजीवादी देशों को दे दी है।
लेकिन बांग्लादेश के सावर जैसे हादसे बीच-बीच में हमें बताते हैं कि यह स्थिति सबके फायदे और भले की नहीं है। इसमें अमीर देशों के हिस्से में तो समृद्धि, मुनाफा और उपभोग का अंबार आता है, लेकिन गरीब देशों के हिस्से में शोषण, काम की अमानवीय दशाएं, पर्यावरण का क्षय और ऐसे भीषण हादसे आते हैं। जिसे 'उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं' कह कर शाबासी दी जा रही है और औद्योगीकरण और विकास बताया जा रहा है, वह पूंजीवादी व्यवस्था का नव-औपनिवेशिक चेहरा है। 
इसके तहत गरीब देश अपने श्रम और अन्य संसाधनों का इस्तेमाल अपनी जनता के लिए न करके अमीर देशों के लिए सस्ता माल पैदा करने में करते हैं। इससे रोजगार और आय का जो सृजन होता है, वह भी इन देशों की बहुसंख्यक आबादी को फायदा नहीं पहुंचा पाता है। केवल उसके कुछ टापू बनते हैं। विदेशी मांग पर निर्भर रहने के कारण अमीर देशों में मंदी आने पर ये टापू भी डूब सकते हैं। मैक्सिको से लेकर चीन तक और दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत और बांग्लादेश तक की यही कहानी है।
इस मायने में सावर हादसे के अपराधी केवल उस इमारत का मालिक, कारखाना मालिक, खरीदार कंपनियां या बांग्लादेश सरकार नहीं है। असली अपराधी 'निर्यात आधारित औद्योगीकरण' का वह मॉडल है जो पूंजीवाद ने पिछले चालीस-पचास सालों में गरीब देशों को निर्यात किया है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44935-2013-05-18-05-48-50

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