मार्क्सवाद की प्रासंगिकता और पुनर्रचना
Author: रामशरण जोशी Edition : February 2013
प्रस्तुत लेख की शुरुआत मैं एक चीनी हिंदी विद्यार्थी1 के चंद विचारपूर्ण वाक्यों से करूंगा। कुछ वर्ष पहले इस युवा विद्यार्थी से मैं दिल्ली में मिला था। तब चीन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विदेशी पूंजी नियोजन को लेकर मीडिया में काफी चर्चाएं थीं। आंकड़े दिए जा रहे थे कि चीन ने कितनी बड़ी मात्रा में अमेरिका के सरकारी बांड खरीद रखे हैं। वह किसी भी रोज इस महाशक्ति को 'वित्तीय सबक' सिखा सकता है। अमेरिकी रणनीतिकार इस स्थिति पर चिंताएं जता रहे थे। यह जूनियर बुश की दूसरी पारी का दौर था और अमेरिका में आर्थिक मंदी या 'इकोनॉमिक मेल्टडाउन' के बर्फानी तूफान शुरू हो चुके थे। राज्य की मुक्त अर्थव्यवस्था में 'हस्तक्षेपकारी भूमिका' को लेकर मीडिया में बहसें हो रही थीं। भारतीय मीडिया भी इसमें अपना कम-अधिक योगदान दे रहा था।
इस पृष्ठभूमि में जब इस बाईस-चौबीस वर्षीय विद्यार्थी से चीन में भूमंडलीकरण, आधुनिकीकरण, निजी-पूंजीवादीकरण जैसे मुद्दों पर सवाल किया गया तो उसने बगैर किसी विचलन व हतप्रभता के हिंदी में उत्तर दिया। उसके उत्तर का सार है: हमारे नेता कहते हैं कि मार्क्सवाद के अनुसार सामंतवाद के बाद पूंजीवाद और अंत में इसके बाद समाजवाद व साम्यवाद आते हैं। 1949 में चेयरमैन माओ के नेतृत्व में सामंतवाद को खत्म कर समाजवाद आया था। पूंजीवाद के चरण को बाईपास किया गया था। सामंतवाद से समाजवाद में सीधी छलांग गैर-मार्क्सवादी थी। अब हमारी पार्टी (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) इस गलती को सुधार रही है। जब चीन में परिपक्व पूंजीवाद स्थापित हो जाएगा, तभी इसके बाद साम्यवाद को लाने का नए ढंग से अभियान चलाया जाएगा।
चीनी छात्र राजनीतिक दृष्टि से काफी जागरूक था। तेज-तर्रार था। उसकी हिंदी साफ-सुथरी थी। उसने बड़े सहज भाव व सटीक शब्दों से सवालों का सामना किया था और चीनी सरकार की नीतियों को सही ठहराया था। वर्धा2 स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में भी चीनी विद्यार्थियों के साथ इसी प्रकार के अनुभव हैं। वे उपभोक्तावाद और पूंजीवादी जीवन शैली के दीवाने लगे। उनमें अमेरिका के लिए अपार क्रेज था। मेरे लिए यह किसी भावनात्मक आघात से कम नहीं था जब हूनान प्रांत से आए छात्र ने माओ के संबंध में अनभिज्ञता व्यक्त की थी। आपसी परिचय के दौरान मैंने उससे पूछा था कि बताओ तुम्हारे प्रांत की विशेषता क्या है? चीनी क्रांति में उसका क्या ऐतिहासिक योगदान था? वह खामोश रहा। फिर पूछा- वहां का सबसे बड़ा नेता कौन था? उसके पास फिर कोई जवाब नहीं था। तीसरी बार पूछा- क्या तुम्हारे प्रांत के किसी नेता ने कभी चीनी क्रांति का नेतृत्व किया था? वह पुन: निरुत्तर था। जब मैंने उसे माओ त्से तुंग की याद दिलाई तब उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। वह क्षमाप्रार्थी था। जब क्लास में औपचारिक परिचय का सिलसिला शुरू हुआ तब उसने सर्वप्रथम अपना परिचय 'माओ के गृहप्रांत' हूनान से दिया।
वैसे ये दोनों घटनाएं सतह पर सामान्य लगेंगी। लेकिन इनकी अंतर्वस्तु गहरे अर्थों और परिवर्तनों और राज्य के बदलते चरित्र का संकेत देती हैं। प्रथम दृष्टांत में जब एक हिंदी का युवक कहता है कि उनका नेतृत्व अब पूंजीवाद चाहता है, इसके बाद साम्यवाद, तो इसे मामूली बात कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। इसके गर्भ में माओत्तर चीन में 1977 से चल रही बहुस्तरीय पूंजीवादी प्रक्रियाएं छिपी हुई हैं। आज ये प्रक्रियाएं चीन के राजनीतिक और आर्थिक तंत्र में गहरे तक पैठ कर चुकी हैं। कुछ वर्ष पहले चीन के एकछत्र शासक दल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने औपचारिक निर्णय लेकर करीब आठ से दस प्रतिशत तक पूंजीपतियों को पार्टी की सदस्यता देने का रास्ता खोला था। चीनविदों का मानना है कि आज यह प्रतिशत पहले से अधिक हो गया है। विदेशी पूंजी नियोजन कई गुना बढ़ गया है। बहुराष्ट्रीय निगम और विदेशी पूंजी नियोजक भारत की तुलना में चीन को अधिक महत्त्व दे रहे हैं। वे अपनी पूंजी को इस कम्युनिस्ट राज्य (अब तथाकथित) में अधिक सुरक्षित व लाभ विस्तारक समझते हैं जबकि पूंजीवादी भारतीय राज्य उन्हें कमतर असुरक्षित व अलाभकर लगता है। चीन में प्रतिवर्ष करीब 600 करोड़ डालर का पूंजी नियोजन होता है जबकि भारत में 10 करोड़ डालर से कम है। आज चीनी महानगरों और शहरों की सड़कें आयातित कारों से पटी हुई हैं। साइकिलें गायब हो चुकी हैं और तीव्रतर होते प्रदूषण से बीजिंग नेतृत्व चिंतित है। इसके विपरीत भारत, जोकि अपने चरित्र और व्यवहार में मूलत: पूंजीवादी रहा है तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था की ओट में एकाधिकारवादी पूंजी व नवउदारीकरण को प्रोत्साहित करता आ रहा है, बहुराष्ट्रीय पूंजी नियोजकों की प्राथमिकता तालिका में आज तक पहली पसंद नहीं बन सका है।
माओत्तर चीन में सुधार
माओत्तर चीन में चल रहे पूंजी समर्थक सुधारों, पूंजीवादीकरण और उपभोक्ताकरण के संदर्भ में क्या यह माना जाना चाहिए कि 1949 की 'चीनी क्रांति' गलत थी? क्या माओ के नेतृत्व में सक्रिय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी गलत थी और उसने क्लासिकी मार्क्सवाद की दृष्टि से सैद्धांतिक भूलें की थीं? क्या उसे 1949 में ही माओ के नेतृत्व में सफल क्रांति के पश्चात चीन में पहले पूंजीवाद नहीं लाना चाहिए था? यदि ऐसा है तो क्या अब यह माना जाना चाहिए कि चीन में पूंजीवाद के पश्चात् साम्यवाद लाया जाएगा? चीन के संपूर्ण पूंजीवादीकरण की क्या शर्तें हैं? पूंजीवादी विकास की विभिन्न अवस्थाएं हैं। आज चीन में पूंजीवाद का कौन-सा चरण चल रहा है? क्या चीन के पूंजीवाद का मॉडल क्वार्ड समूह (अमेरिका, कनाड़ा, योरोपीय संघ, जापान) से भिन्न होगा? चीनी पूंजीवाद के संपूर्ण विकास में कितना वक्त लगेगा?
इसी से जुड़े सवाल ये भी हैं कि पूंजीवाद को किस प्रकार से ध्वस्त किया जाएगा? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी ही पूंजीवादी निर्मिति के विरुद्ध किस प्रकार की क्रांति लाएगी? उस क्रांति का चरित्र कैसा होगा और उसके वाहक (किसान, श्रमिक, मध्यवर्ग, तकनीकी प्रोफेशनल, नवउद्यमी, पार्टी के पूंजीपति सदस्य, लाल सेना, विदेश शिक्षित-दीक्षित युवा वर्ग आदि) कौन होंगे? क्या मार्क्स एंगेल्स के 19वीं सदी के कम्युनिस्ट घोषणापत्र से अलहदा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र होगा? क्या वह क्रांति शांतिपूर्ण होगी या सशस्त्र क्रांति होगी? इसी प्रकार के अनेक वैचारिक, सैद्धांतिक, व्यवहारिक और रणनीतिगत सवाल हैं जोकि नए विमर्श की मांग करते हैं। दूसरे दृष्टांत से भी इस बात के पुख्ता संकेत मिलते हैं कि चीनी नेतृत्व के लिए अब माओ की 'कल्ट वेल्यू' भी चुक गई है क्योंकि हूनान का माओ ऐसी व्यवस्था और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है जोकि पूंजीवादी आख्यान को जड़ समेत खारिज ही नहीं, ध्वस्त करने वाला है। एक वैकल्पिक जीवन शैली और राज्य दर्शन प्रस्तुत करता है। जाहिर है, इन दोनों परस्पर विरोधी आख्यानों के रूपक, बिंब, प्रतीक, पात्र, कथ्यशैली आदि भी अलहदा रहेंगे। इसलिए विस्मृति में धकेले जाना ही माओ की नियति वर्तमान चीनी राज्य की नीति बन चुकी है। एक नए पूंजीवादी यथार्थ को गढऩे के लिए माओत्तर चीनी नेतृत्व की यह अपरिहार्यता भी है। इसलिए उक्त युवक के स्मृति पटल से माओ का लोप होना राज्य के चरित्र के बदलते यथार्थ की परछाई मात्र है। चीन का यह संक्रमणकालीन यथार्थ 21वीं सदी में मार्क्सवाद के पुनरावलोकन की आवश्यकता जरूर पेश करता है।
पुनरावलोकन की आवश्यकता का अवसर आज पहली दफा पैदा हुआ है, ऐसा भी नहीं है। बीती सदी के अंतिम दशक में सोवियत संघ व पूर्वी योरोप की साम्यवादी सरकारों के अप्रत्याशित त्रासद अंत के दौर में भी मार्क्सवाद, साम्यवादी राज्य व राजसत्ता और साम्यवाद के भविष्य को लेकर सवाल उठे थे। राजनीतिक व बौद्धिक क्षेत्रों में यह निष्कर्षात्मक सहमति उभरी थी कि पूंजीवाद ने अपने परंपरागत जानी दुश्मन-साम्यवाद को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया है। यह मृतप्राय है। यह पुनर्जीवित नहीं होगा। इसकी आधारभूत पुननिर्मिति की सभी संभावनाएं नष्ट हो चुकी हैं। यदि इसका नया अवतार जन्म भी लेता है तो वह किन्हीं अर्थों में पूंजीवाद का 'सहयात्री' ही होगा। वह उसके लिए 'भस्मासुर' की भूमिका नहीं निभा सकेगा। और उस समय मैंने लिखा था कि पूंजीवाद ने स्वयं को मानवता का 'स्वयंभू मसीहा'3 घोषित कर दिया है। इस काल में कई युगांतकारी घटनाएं अस्तित्व में आईं जिन्होंने विश्व में नए समीकरणों, अंतर्विरोधों और विमर्शों को जन्म दिया। नि:संदेह इनके पश्चात दुनिया पहले जैसी कतई नहीं रही; 20वीं सदी के आरंभिक काल में जन्मी राज्य व्यवस्थाओं की अंतर्निहित सीमाएं व कमियां उजागर हुई हैं; राज्य की परंपरागत संप्रभुता व प्रभावशीलता पर प्रश्न चिन्ह लगा; पूंजी की आक्रामकता का विस्तार हुआ और राज्य के समक्ष नई चुनौतियां पेश कीं; समतावादी दर्शन व विचारधाराओं की भावी प्रासंगिकता सवालों के घेरे में आई; पूंजीवाद ने धार्मिक अस्मिताओं का आतंकीकरण (या तालिबानीकरण) किया; एकल ध्रुवीय व्यवस्था को जन्म मिला और अमेरिकी वर्चस्व व साम्राज्य (एंपायर) विश्व छाती पर अभेद्य (फिलहाल) रूप से स्थापित हुआ है।
साम्यवाद का राजसत्ता और विचारधारा के रूप में निर्णायक रूप से अंत करने के लिए पूंजीवाद ने जहां खाड़ी युद्ध-1 (1990-91) शुरू किया, वहीं भूमंडलीकरण, नव-उदारीकरण, सभ्यताओं का टकराव, इतिहास व सभ्यता का अंत आदि के विमर्शों के गुब्बारे बौद्धिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में छोड़े। वास्तव में 1989 में 'बर्लिन-दीवार' के ढहाने के साथ ही पूंजीवाद ने साम्यवादी राज्यों से निर्णायक जंग की घोषणा कर डाली थी। साम्यवाद को सीधी चुनौती दी थी- 'यह शह, यह मात'। बर्लिन दीवार के टूटने के साथ ही पूंजीवादी अर्थात् भूमंडलीकरण के रूप में 'अवश्वमेध अभियान' शुरू हो गया। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् 'शीत युद्ध' का अंत और 'वारसा संधि' की समाप्ति हुई लेकिन पूंजीवादी राष्ट्रों (अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान, इटली, कनाड़ा आदि) ने अपना 'नाटो संगठन' यथावत रखा। 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति और शीत युद्ध की शुरुआत के दौर में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी राष्ट्रों का मुख्य अंतर्विरोध था- 'साम्यवाद' जोकि सोवियत संघ, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, क्यूबा, रोमानिया, चीन जैसे साम्यवादी राष्ट्रों के रूप में मौजूद था। लाल क्रैमेलिन राजसत्ता का पतन, शीत युद्ध की समाप्ति, वारसा संधि का अंत, और परिणामत: मुख्य अंतर्विरोध के समाधान की तार्किक परिणति नाटो सैन्य संगठन के स्वत: विसर्जन में हो जानी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब पूंजीवाद ने अपने मुख्य शत्रु को साम्यवादी राज्य की दृष्टि से ध्वस्त कर दिया है, तब उसे किसका भय है? क्यों अमेरिकी नेतृत्व में संगठित पूंजीवादी राष्ट्रों ने शीत युद्धकालीन उत्तरी एटलांटिक संधि संगठन (नाटो) को आज तक जिंदा रखा हुआ है? इसे भंग क्यों नहीं किया गया?
पूंजीवाद और साम्यवाद: क्या संघर्ष जारी है?
क्या यह माना जाए कि पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच आज भी युद्ध जारी है? क्यों दोनों के बीच सदियों से मौजूद 'शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध' का अभी तक निर्णायक समाधान होना शेष है? तब क्या 1991 में सोवियत संघ का अवसान मुख्य अंतर्विरोध का केवल 'डिफ्यूजन' था, वैज्ञानिक समाधान नहीं? इससे जुड़ा सवाल यह भी है कि क्या 'साम्यवादी राज्य' के अंत का अर्थ दर्शन के रूप में मार्क्सवाद या साम्यवादी दर्शन का अंत होना होता है? क्या ये दोनों स्वायत्त धु्रव हैं अर्थात् दर्शन और राज्य? क्या पूंजीवाद साम्यवादी राज्य की संभावित पुनर्वापसी के भय से कहीं गहरे तक ग्रस्त तो नहीं है? पूंजीवादी चिंतक और रणनीतिज्ञ सोचते होंगे कि 'लाल राज्यों' का पतन ही काफी नहीं है। इनके प्राणवायु दर्शन साम्यवाद की जब तक वैचारिक युद्ध भूमि में निर्णायक रूप से मृत्यु नहीं होती है तब तक राज्य के रूप में पुनर्वापसी का खतरा बना रहेगा। इस खतरे का सामना करने के लिए नाटो जैसी व्यवस्थाएं बनी रहनी चाहिए। शीत युद्ध की तुलना में आज नाटो सदस्य राष्ट्रों की सेनाएं अधिक सक्रिय व शक्तिशाली हैं। विश्व का सबसे बड़ा कर्जदार देश अमेरिका है और विगत दस-बारह सालों से आर्थिक मंदी से ग्रस्त है। इसके बावजूद, विश्व के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में उसकी सेनाएं तैनात हैं। वह दो-दो खाड़ी युद्ध लड़ चुका है, अफगानिस्तान में नाटो सेनाएं सक्रिय हैं और अमेरिकी ड्रोनों (मानवरहित सैन्य विमान) की बरसात पाकिस्तान के सीमांत इलाकों में हो रही है। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान के पश्चात अब ईरान को भी युद्ध क्षेत्र में तब्दील करने की तैयारियां चल रही हैं। वास्तव में 1991 के बाद भूमंडलीकरण और विश्व व्यापार संगठन के रूप में पूंजीवाद का नया अवतार सामने आया है। इस अवतार की यात्रा को गंतव्य बिंदु तक पहुंचाने के लिए नाटो की भूमिका की अपरिहार्यता बनी रहेगी। बल्कि इसका विस्तार होगा और इसमें नए-नए आयाम जुड़ेंगे। क्योंकि अब नव पूंजीवादी व नवसाम्राज्यवादी शक्तियां 'आत्म रक्षात्मक साम्राज्यवाद' की थीसिस देने लगी हैं। इस बिंदु पर आगे चर्चा की जाएगी। यहां इतना कहना पर्याप्त होगा कि मार्क्सवाद का हौवा आज भी पूंजीवाद को आतंकित किए हुए है।
मार्क्सवाद की प्रासंगिकता को लेकर शीत युद्धकाल में भी सवाल खड़े लिए जा चुके हैं। तब भी घोषणाएं की गई थी कि 'वह ईश्वर जो पिट चुका है।' स्टालिन-काल में भी मार्क्सवाद और साम्यवाद की खासी धुनाई की गई थी। वैयक्तिक स्वतंत्रता विरोधी, मानवता विरोधी, पार्टी तानाशाहीवादी, राज्य पूंजीवादी, विकास विरोधी, जड़ व गतिहीन, ईश्वर व धर्मविरोधी, अवैज्ञानिक व प्रकृति विरोधी, राज्य सत्तावादी जैसी कई उपाधियां मार्क्सवाद पर जड़ी गई थीं। 1962 या 63 में हवाना में पश्चिम के वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच क्यूबा की साम्यवादी व्यवस्था को लेकर खुला संवाद चला था। अच्छी खासी चीराफाड़ी की गई थी। पूंजीवाद की चुनौतियां और मार्क्सवाद व साम्यवादी राज्य के रेसपौंसों को लेकर बेबाक बहस हुई थी। बहस का चरित्र मूलत: आलोचनात्मक था। इसमें स्टालिन शासन के अतिवादियों, असहिष्णुताओं और राजसत्ता की हिंसात्मक व दमनकारी प्रवृत्तियों पर भी फोकस डाला गया था। क्यूबाई क्रांति के सूत्रधार व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने धैर्यपूर्वक तीखी आलोचनाओं को सुना था। उनके समापन भाषण का सारतत्व यह था कि जब पूंजीवादी लोकतंत्र व राज्य को आत्मरक्षा का अधिकार प्राप्त है तो सर्वहारा क्रांति को भी अपनी रक्षा का अधिकार दिया जाना चाहिए क्योंकि अब भी समाज में शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध और सामंतवादी, पूंजीवादी एवं साम्राज्यवादी शक्तियां मौजूद हैं जो कि सर्वहारा क्रांति की उपलब्धियों को तहस-नहस करने पर आमादा हैं। यह सही भी है कि सर्वहारा क्रांति और राज्य का शैशवकाल ही उस समय चल रहा था जबकि पूंजीवाद और राज्य प्रत्येक दृष्टि से विकसित व बलिष्ठ हो चुके थे। राज्य के लंबे इतिहास में 1917 से 1991 तक की 'सर्वहारा राज्य' की आयु की हैसियत ही क्या रही है? पूंजीवादी राज्य के मुकाबले में 70-75 वर्ष के कालखंड को शैशवकाल कहना भी लगभग अतिशयोक्ति ही होगी। फिर भी सच्चाई यही है कि राज्य के रूप में पूंजीवाद विजयी रहा, और साम्यवाद हारा। और इसके साथ ही मार्क्सवाद की भावी प्रासंगिकता पर गहरा सवालिया निशान भी लगा। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह अंतिम यथार्थ है, यह भी हरगिज नामंजूर है। 1991 में सोवियत संघ का अवसान, इतिहास का अंतिम फैसला नहीं है, और न ही इतिहास का अंत हुआ है।
मार्क्सवाद को लेकर 19वीं और 20वीं सदी में योरोप में गंभीर विमर्श चलते रहे हैं। अमेरिका और एशिया भी इससे अछूता नहीं रहा है। भारत में भी यह आलोचनाओं का शिकार रहा है। मार्क्सवाद के कई आयाम हैं: दर्शन, विचाराधारा, संपूर्ण जीवन दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, राजनीतिक प्रायोगिकता आदि। यहां यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि मार्क्स ने कभी भी स्वयं को 'अंतिम' घोषित नहीं किया था, और न ही उन्होंने विश्व के लिए किसी सार्विक क्रांति के समान 'पैटर्न' की पैरवी की थी। 1871 में पेरिस कम्यून की असफलता के बाद किसी अमेरिकी पत्रकार (शायद न्यूयार्क ट्रिब्यून के संवाददाता) ने उनसे पूछा था कि क्या वे विश्व के अन्य देशों में क्रांति के लिए कोई समान रणनीति देना चाहेंगे। उन्होंने इससे साफ इंकार कर दिया। उनका स्पष्ट मत था कि जिस देश में भी क्रांति आएगी, उसका स्वरूप और तरीका वहां की भौतिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक विशिष्टताओं पर निर्भर करेगा। मार्क्स को उम्मीद थी कि पश्चिम में क्रांति होगी, क्योंकि इसका निर्धारण पूंजीवाद की विकसित अवस्था और औद्योगिकीकरण से उत्पन्न सर्वहारा की चेतना से होगा। लेकिन, पहली सफल क्रांति 1917 में रूस में हुई, और दूसरी बड़ी क्रांति 1949 में चीन में हुई। दोनों सशस्त्र क्रांतियों के स्वरूप, चरित्र, रणनीति और परिणाम में नितांत भिन्नता थी; रूसी क्रांति मूलत: श्रमिक वर्ग की थी जबकि चीनी क्रांति किसान क्रांति थी। वास्तव में, पूर्वी योरोप, क्यूबा सहित दक्षिण अमेरिकी देशों में जो भी क्रांतियां हुई हैं, वे वहां की ठोस भौतिक परिस्थितियों पर आधारित थीं। इन वामपंथी क्रांतियों में कोई एकरूपता नहीं थी, यदि कोई समानता थी तो वह था मार्क्सवाद और शोषण, उत्पीडऩ व विषमताओं के विरुद्ध विचारधारात्मक एवं सांगठनिक एकजुटता। पिछले दशक में नेपाल में हुए परिवर्तन इसकी ताजा मिसाल हैं। वहां किसी श्रमिक वर्ग ने माओवादियों के नेतृत्व में सामंतशाही को ध्वस्त नहीं किया था। इस क्रांति (लेकिन अधूरी) में नेपाली किसान, जन-जाति, ग्रामीण व कस्बाई निम्न वर्ग आदि शामिल थे। यह एक सशस्त्र क्रांति थी। यह अलग बात है कि आज यह अपने आधारभूत उद्देश्यों से भटक चुकी है, सत्ता में आने के पश्चात् विभाजित हो चुकी है। लेकिन, इतना तय है कि यह आज भी मार्क्सवादी और माओवादी है।
मार्क्स के जीवन काल में ही कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848) और साम्यवादी दर्शन पर तीखी बहसें होती रही हैं। 20वीं सदी में लेनिन, ट्राटस्की, स्टालिन, माओ, कास्त्रो, चे ग्वेरा सहित बड़ी संख्या में ऐसे चिंतक व रणनीतिकार रहे हैं जिन्होंने मार्क्सवाद की व्याख्या अपने अपने ढंग से की। इटली के प्रखर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी व राजनीतिक कर्मी एंटोनिओ ग्रामशी ने भी कई मामलों में मार्क्सवादी व्याख्याओं से असहमति जाहिर की थी।4 वामपंथी इतिहासकार हॉब्सबाम ने अपनी पुस्तक5 में मार्क्स, मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद पर हुई ऐतिहासिक बहसों का विचारोत्तेजक विश्लेषण किया है। और इस विश्लेषण से यह निष्कर्ष जरूर निकलता है कि मार्क्सवाद एक गतिशील जीवन दर्शन है। इसे यांत्रिक ढंग से समझना और लागू करना मार्क्सवाद से विचलित होना होगा। हॉब्सबाम लिखते भी हैं कि मार्क्सवाद हमेशा से यथास्थितिवाद का क्रांतिवादी आलोचक रहा है। पूंजीवाद इससे इसलिए हमेशा भयभीत रहा है कि मार्क्सवाद केवल चिंतन, मनन और बौद्धिकता तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि यह निरंतर शक्तिशाली राजनीतिक आंदोलन की भी शक्ल लेता है और यथास्थितिवादी व्यवस्थाओं के लिए खतरा पैदा करता है। 20वीं सदी के अंतिम दशक तक यह शक्तिशाली क्रांतिकारी दर्शन रहा है। लेकिन इसके बाद भी इसकी यात्रा जारी रही है। नेपाल तथा दक्षिण अमेरिका के कुछ देशों में इसके ताजा पड़ावों को देखा जा सकता है।
मार्क्सवाद का लचीलापन
यदि मार्क्सवाद जड़ व ठस होता तो क्रांति के अनेक रूप दिखाई नहीं देते। पूर्वी योरोप, रूस, एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में मार्क्सवाद के अलग अलग ब्रांड रहे हैं। इतना ही नहीं, एक ही देश में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद पर आधारित पार्टियों की व्याख्याएं और रणनीतियां अलग अलग होती हैं। योरोप में 'न्यू लैफ्ट' के मार्क्सवाद का इतिहास में विशिष्ट स्थान है। पूर्व यूगोस्लाविया के नेता मार्शल टीटो मास्को-वृत से सदैव स्वतंत्र रहे। यही बात वियतनाम के नेता हो ची मिन्ह के संबंध में कही जा सकती है। वे भी बीजिंग नेतृत्व के अनुयायी नहीं थे। उन्होंने भी अपनी स्वतंत्र राह चुनी थी। कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद और सत्तारूढ़ मार्क्सवाद की कोई केंद्रीकृत सत्ता कभी नहीं रही: 'मार्क्सवाद व साम्यवाद एक, संस्करण अनेक'। यही स्थिति 21वीं सदी में भी बनी हुई है। चीन को कोई भी मार्क्सवाद व साम्यवाद की धुरी मानने के लिए तैयार नहीं है। पड़ोसी देश वियतनाम का भी बीजिंग का छाता नामंजूर है, यही सच क्यूबा के संबंध में है। पूंजीवाद, प्रथम विश्वयुद्ध और शीत युद्ध के काल में साम्यवादी क्रांति को प्रेषित या आयातित किए जाने से निश्चित ही भयभीत था। उसे आशंका थी कि तीसरी दुनिया के देशों में सोवियत संघ और चीन से आयातित क्रांतियां हो सकती हैं। कई लातिन देशों में वामपंथी सशस्त्र आंदोलन काफी शक्तिशाली थे। इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट पार्टी काफी मजबूत हो चुकी थी। श्रीलंका में भी वामपंथी छापामार लड़ाई लड़ रहे थे। ईरान और अफगानिस्तान में भी वामपंथी शक्तियों की काफी तगड़ी मौजूदगी थी। सोवियत संघ की मदद से काबुल में भी वामपंथी सत्तारूढ़ हुए थे। भारत में भी साम्यवादी संसद में लोकतांत्रिक प्रणाली से अपनी प्रभावशाली उपस्थिति अर्जित कर चुके थे। यह स्थिति 1962 में भारत-चीन युद्ध तक अभेद्य तौर पर बनी रही लेकिन 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट के विभाजन से यह शक्ति बिखरती चली गई। यह बिखराव आगे भी जारी रहा जिसकी परिणति भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मा. ले.) या नक्सलबाड़ी आंदोलन के जन्म में हुई। यह सिलसिला यहीं नहीं थमता है, आगे भी चलता रहता है। पीपुल्स वार ग्रुप, पीपुल्स यूनिटी, माओवादी कम्युनिस्ट सैंटर जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ आज यह कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) का रूप ले चुका है। नेपाल में भी ऐसा ही बिखराव हुआ है। आज इस देश में साम्यवादी शक्तियों के दो शिविर स्थापित हो चुके हैं: 1. एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और 2. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)। पहला घटक प्रचंड के नेतृत्व में आज भी सत्तारूढ़ है, लेकिन उत्तर राजशाही नेपाल में मार्क्सवादी व माओवादी ही निर्णायक शक्तियां हैं, यह भी समकालीन यथार्थ है।
सर्वहारा क्रांति के पश्चात साम्यवादी राज्य के उदय के बाद मार्क्सवादी राजसत्ताएं किस प्रकार अपने अंतर्विरोधों का समाधान करें, इसका दिशा मार्ग स्पष्ट नहीं है। मार्क्स और एंगेल्स के जीवन कालों में कोई सफल सर्वहारा-क्रांति नहीं हुई थी। पेरिस कम्यून या गृह युद्ध भी असफल रहा। 18 वीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति का चरित्र भिन्न था। अलबत्ता उसके अनुभवों का इतिहास इन दोनों के पास था। लेकिन एक साम्यवादी राज्य के सफल संचालन के अनुभव से दोनों ही वंचित थे। घोषणापत्र और उसका क्रियात्मक परिवर्तन, दोनों ही भिन्न स्थितियां हैं और इनका गतिविज्ञान भी अलग अलग है। 1917 की क्रांति, सर्वहारा राज्य के निर्माण की चुनौतियों, उपराष्ट्रीयताओं के अंतर्विरोध, पूंजीवाद व आर्थिक मंदी की चुनौतियां, पूंजीवादी राष्ट्रों द्वारा घेरा बंदी, पूंजीवादी राष्ट्रों के अंतर्विरोध, उभरता फासीवाद व नाजीवादी, साम्यवाद राज्य (सोवियत संघ) और पूंजीवादी शिविरों (फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, जापान, अमेरिका आदि) के मध्य व्याप्त शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध जैसी जटिल स्थितियों से निपटने के लिए बहुआयामी अनुभव की आवश्यकता थी। क्या सत्तारूढ़ लेनिन और स्टालिन के पास ऐसे अनुभव थे? उत्तर है: नहीं। सर्वहारा राज्य के क्रांतिकारी प्रबंधक के रूप में दोनों ही पहली दफा पूंजीवादी शासकों से रू-ब-रू हुए थे। अभ्यस्त पूंजीवादी राज्यों के उस्ताद व शातिर खिलाड़ी चर्चिल (ब्रिटेन) और रूजवेल्ट (अमेरिका) की मांद में घुसना आसान काम नहीं था। लेकिन, हजार दोषों के बावजूद स्टालिन ने द्वितीय विश्वयुद्ध में ऐतिहासिक हस्तक्षेप किया ही था, और पूर्वी योरोप में कई साम्यवादी सत्ताएं अस्तित्व में आई थीं। मार्क्सवाद में यह नया आयाम जुड़ा था। इस आयाम ने पूंजीवाद को नई चुनौती दे डाली थी।
इस विस्तार से पूंजीवादी शिविर सिहर उठा था। द्वितीय युद्ध की समाप्ति के बाद 1949 में चीनी क्रांति ने मार्क्सवाद को आगे बढ़ाया। इसमें एक और अध्याय जुड़ा। एशिया और अफ्रीकी देशों में चल रहे मुक्ति संघर्षों को बल मिला। यद्यपि भारत में 1947 में जनवादी क्रांति नहीं हुई थी, लेकिन मुक्त पूंजीवाद के लिए यह घटना निश्चित ही स्वागत योग्य नहीं थी। इससे लातिन देशों के सघर्षों को भी बल मिला। यह स्थिति अमेरिका के मिल्टन फ्रीडमेनवादियों (शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स) के लिए असहनीय थी। साम्यवादी राज्यों और संघर्षरत मार्क्सवादी आंदोलनकारियों के विरुद्ध विभिन्न स्तरों पर षडयंत्र रचे जाते थे। इस का विस्तार से वर्णन 'शॉक डाक्टराइन' 6 में किया गया है। लेखिका ने बतलाया है कि पूंजीवादी राजसत्ता ने लातिनी देशों में समाजवादी व्यवस्थाओं को तहस-नहस करने के लिए किस प्रकार के कुचक्र रचे। किस प्रकार अर्थशास्त्री फ्रीडमैन की रणनीति पर अमेरिकी राष्ट्रपति (निक्सन, रेगन आदि) नाचते रहे। यही स्थिति ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री मैगी थैचर की थी। पूंजीवादी राष्ट्रों के लिए साम्यवादी तो क्या, समाजवादी राजसत्ताएं भी असहनीय थीं।
आत्ममंथन की जरूरत
लेकिन, पूंजीवाद को ही कटघरे में खड़ा करना स्वयं को गलत प्रकार से निर्दोष सिद्ध करना होगा। आज मार्क्सवाद और साम्यवादी आंदोलन जिस रेतीले मचान पर खड़े हैं, इसके लिए आत्ममंथन भी कम जरूरी नहीं है। इस संबंध में तत्कालीन सोवियत संघ और साम्यवादी चीन, चीन बनाम वियतनाम तथा अन्य साम्यवादी देशों के परस्पर संबंधों की भी पड़ताल जरूरी है। वास्तव में, विश्व के दो महान साम्यवादी देशों-सोवियत संघ और चीन-के मध्य प्राय: तनावपूर्ण संबंध ही रहे हैं। सीमाओं पर तनाव रहा। स्टालिन और माओ के बीच मधुर संबंध नहीं रहे। आगे भी यही स्थिति रही। शीत युद्ध काल में सोवियत संघ को विश्व महाशक्ति माना जाता था। वह 'बाई पोलर काल' था। दूसरी तरफ चीन की महत्त्वाकांक्षाएं भी बढ़ रही थीं। मास्को और बीजिंग, दोनों में अपने प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए होड़ मची हुई थी। इन तनावपूर्ण संबंधों का लाभ पूंजीवादी देशों ने जमकर उठाया भी। सातवें दशक में अमेरिकी विदेश मंत्री कीसींगर की कूटनीतिक सफलता से इंकार नहीं किया जा सकता जब तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन ने नाटकीय ढंग से चीन की यात्रा की और माओ से मुलाकात की। एक तरफ उभरती हुई महान साम्यवादी शक्ति थी, तो दूसरी ओर विराट पूंजीवादी व साम्राज्यवादी शक्ति थी। दोनों के बीच लंबे समय तक 'शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध' थे। लेकिन अचानक इन्हें पृष्ठभूमि में खिसका दिया जाता है और जीवन मूल्यों व राजनीतिक दर्शन की दृष्टि से परस्पर शत्रु राष्ट्रों के बीच प्रेम की बयार बहने लगती है। चीनी समर्थक मार्क्सवादी सिद्धांतकार सोवियत संघ को 'सामाजिक साम्राज्यवादी' घोषित कर देते हैं। भारत की सी. पी. आई (एम. एल) उर्फ नक्सलवाड़ी क्रांतिकारी इस फारम्यूलेशन पर यहां भी रणनीति तैयार करती है। उस समय दो नारे उछाले गए थे 'सामाजिक साम्राज्यवाद और साम्यवादी चीन का अध्यक्ष माओ, हमारा अध्यक्ष'। दोनों ही नारे गैर-मार्क्सवादी थे। चीन और अमेरिका के बीच दोस्ती नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी? इसका जवाब किसी के पास नहीं था। जब निक्सन ने बीजिंग पहुंच कर कम्युनिस्ट दुर्ग में सेंध लगा दी, तब सभी को धक्का जरूर लगा लेकिन 'सामाजिक साम्राज्यवाद' का फारम्युलेशन इसके बाद भी यथावत रहा। वर्तमान यथार्थ यह है कि तथाकथित सामाजिक साम्राज्यवाद का दुर्ग 1991 में ध्वस्त हो गया और दूसरा अमेरिका का एकलध्रुवीय नव-साम्राज्यवाद विश्व फलक पर स्थापित हो गया। आज चीन 'आर्थिक महाशक्ति' के रूप में तेजी से स्थापित हो रहा है और प्रत्येक दृष्टि से अमेरिका को चुनौती भी दे रहा है। अब 'सामाजिक साम्राज्यवाद' कहां है?, मार्क्सवादी सिद्धांतकार बतलाएं।
शीतयुद्ध के दौरान मास्को-बीजिंग संबंधों के साथ-साथ बीजिंग-हनोई संबंध भी बेहद तनावपूर्ण थे। सामरिक झड़पें भी हुईं। आज वियतनाम में भी अमेरिका की पैठ जम चुकी है। साम्यवादी वियतनाम और होची मिन्ह के उत्तराधिकारियों ने अमेरिकी अत्याचारों व नापाम बम-वर्षा के इतिहास को पुस्तकालयों, संग्रहालयों व स्कूली किताबों तक सीमित कर दिया, और हनोई सरकार वाशिंगटन के साथ नवउदारवाद के संबंध रचने के लिए लालायित है। यह भी साम्यवादी देशों का वर्तमान यथार्थ है जोकि नव-उदारवाद के संसर्ग से जन्मा है।
पूंजीवादी संरचना की गलती
मार्क्सवादी चिंतक समीर अमीन7 के मत में पूर्व समाजवादी देशों की सबसे बड़ी रणनीतिक गलती यह रही कि वे अपने यहां समाजवाद के निर्माण के स्थान पर पूंजीवादी संरचना कर रहे थे। वास्तव में यह एक प्रकार से पंूजीवाद का 'राज्य नियंत्रणवादी रूप' था जोकि पूंजीवाद की विश्व व्यवस्था के दबावों से असंबद्ध था। अमीन के इस मत से असहमति हो सकती है लेकिन यह भी सच्चाई है कि पूर्व समाजवादी देश और वर्तमान समाजवादी देश अपने परंपरागत राष्ट्रवाद से उत्पन्न अंतर्विरोधाो के वैज्ञानिक समाधान में असफल रहे। समाजवादी विचारधारा के स्थान पर आर्थिक दौड़ में पूंजीवादी गतिवविज्ञान से अधिक संचालित हुए। इन राज्यों ने पंूजीवादी राष्ट्रों के साथ पूंजीवादी रणनीति के अंतर्गत संबंध स्थापित किए। समाजवादी देशों की जनता क्रांतिकारी चेतना से दूर अर्थवादी अधिक बनती गई। इसका परिणाम यह निकला कि निर्णायक क्षणों में सर्वहारा जनता समाजवादी राज्य के साथ खड़ी दिखाई नहीं दी। वह नव उदारवादी शक्तियों द्वारा निर्मित मायाजाल में फंसती चली गई। 1991 में येल्तसिन ने जिस प्रकार रूस की जनता को भ्रमित किया था, वह वहां की जनता के गैर-राजनीतिकरण की ऐतिहासिक मिसाल है। यदि पूर्व-समाजवादी देशों की जनता मार्क्सवादी राजनीति से लैस रही होती तो समाजवादी राजसत्ताओं का चंद झटकों से पतन नहीं होता।
क्या बात थी कि स्टालिन युग की जनता ने फासीवाद-नाजीवाद को ऐतिहासिक शिकस्त दी? यह निर्विवाद है कि ब्रेजनेव और गोर्वाचेव के कालों में जनता के पूंजीवादी उपभोग की ओर झुकाव में तेजी आई जिसका राजनीतिक व आर्थिक लाभ येल्तसिन और अमेरिका को मिला। यह सर्वविदित है कि जब येल्तसिन के समर्थक और भ्रमित जनता ने मास्को की ससंद की घेराबंदी की हुई थी तब सड़कों पर यूरो-अमेरिका द्वारा निंयत्रित मैकडोनाल्ड जैसे बहुराष्ट्रीय खाद्य पदार्थ कंपनियां बर्गर, हॉट डॉग, चिकन, फ्रैंच फ्राइज जैसे फास्ट फूड की बरसात भीड़ पर कर रही थीं। क्या यह सब अकस्मात हुआ था? क्या यह सब पूंजीवादी शिविर की दीर्घकालीन रणनीति का एक हिस्सा नहीं था? आठवें दशक में प्रकाशित तत्कालीन सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और संघ के राष्ट्रपति गोर्बाचेव की पुस्तक 'पेरोस्त्रोइका' (पुननिर्माण) में वैचारिक फिसलन के कई ठोस संकेत मिलते हैं। वे योरोप के संदर्भ में 'कॉमन योरोपियन होम' (समान योरोपीय घर) की बात करते हैं। इसका सहज निष्कर्ष यह है कि वे साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच मौजूद शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों के अस्तित्व को नकार देते हैं। इसी प्रकार के संकेत वे अमेरिका को भी देते हैं। पुस्तक में वे उसके साथ किसी प्रकार के वैचारिक मुद्दे नहीं उठाते हैं। वे राजनीतिक विमर्श में अक्सर प्रयुक्त मार्क्सवादी शब्दावली से भी बचते हैं। 'पुनर्निर्माण' और 'खुलापन (ग्लास्तनोस्त)' की थीसिस को प्रचारित व प्रोत्साहित करने के लिए वे पूंजीवादी शिविर से दोस्ती की खातिर तरह-तरह के संकेत देते हैं। तर्क दिया जा सकता है कि उनकी पेरोस्त्रोइका राजसत्ता की व्यवहारिकता, विवशता और तात्कालिक या दूरगामी रणनीति थी। इसका प्रतितर्क यह है कि आधारभूत दर्शन पर समझौते का अर्थ है अन्य दर्शन का वरण। जब अंतर्विरोधों की तिलांजलि और जातीय व भौगोलिक समीपता की दुहाई दी जाएगी तो मार्क्सवाद या साम्यवाद के प्रति वैज्ञानिक एवं वर्ग दृष्टि के स्थान पर भाववादी, मनोगतवादी और व्यक्तिवादी दृष्टि को अपनाना कहलाएगा। गोर्बाचेव ने यही किया जिसके परिणाम विश्व की उत्पीडि़त मानवता को अभी तक भुगतने पड़ रहे हैं। मानवता के समतावादी व चिर अनुपम स्वप्न की हत्या का अक्षम्य अपराध गोर्बाचेव और उनके साथियों ने किया। इसके साथ ही विश्व में भूमंडलीकरण की अश्वमेध यात्रा और तेज हो गई।
पूंजीवाद की आक्रामकता सर्वत्र बढ़ गई है। आज चीन में यही सब कुछ हो रहा है। फरक इतना है कि रूसियों के लिए समाजवाद से पूंजीवाद में रूपांतरण नितांत नया अनुभव था, जबकि चीन के तथाकथित साम्यवादी नेतृत्व के समक्ष सोवियत संघ व पूर्वी योरोप के साम्यवादी राज्यों के अवसान-संक्रमणकालीन अनुभव हैं। चीनी नेता रूसी-गलतियों से सबक लेकर कदम उठा रहे हैं और अपने यहां नियंत्रित व खुली, दोनों प्रकार की पूंजीवादी संरचना कर रहे हैं। जब ब्रिटेन ने 15 वर्ष पहले हांगकांग द्वीप की संप्रभुता साम्यवादी मुख्यचीन को सौंपी थी तब बीजिंग ने इस द्वीप के पूंजीवादी चरित्र को सुरक्षित रखा था। इस पर साम्यवादी राज्य की संपत्ति सिद्धांत लागू नहीं किए थे। तब मार्क्सवादी व गैर-मार्क्सवादी चिंतक क्षेत्रों में एक विमर्श समान रूप से उठा था: एक देश (साम्यवादी चीन), दो व्यवस्थाएं (साम्यवादी और पूंजीवादी)। इसे साम्यवाद और पूंजीवाद के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का चीनी-प्रयोग भी कहा जा सकता है। इसी प्रयोग के अनुभवों से लैस होकर वह आज मुख्य चीन (मेन लैंड चाइना) में तेजी से पूंजीवादी संरचना का निर्माण कर रहा है। अब पूंजीवादी शिविर चीन से मार्क्सवादी दर्शन के स्तर पर आतंकित नहीं है, बल्कि उत्तरोत्तर बनते शक्तिशाली पूंजीवादी चीनी राज्य से जरूर भयभीत है। सातवें दशक के आरंभ में सोवियत संघ और इटली की कार निर्माता फिएट कंपनी के साथ रूस में कार निर्माण पर समझौता हुआ था। उस समय अमेरिकी उद्योगपति फोर्ड ने प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका न्यूजवीक में मार्के की टिप्पणी की थी कि अब यह उम्मीद करनी चाहिए कि इस समझौते के बाद "मास्को का बरताव एक सामान्य देश (पूंजीवादी देश) के रूप में होगा, न कि वह किसी उद्देश्य या कारण (साम्यवादी देश) के रूप में व्यवहार करेगा।" यह कितनी भविष्यवादी टिप्पणी थी, स्वत: सिद्ध है।
रूढि़वादी सोच से बचने की जरूरत
वास्तव में 21वीं सदी में मार्क्सवाद और उस पर आधारित राज्य व्यवस्था के संबंध में गैर-पारंपरिक, खुली और यथार्थवादी दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है। इन दोनों के प्रति रूढि़वादी सोच सही निष्कर्ष तक पहुंचने के मार्ग को बाधित कर सकती है। यह एक निरंतर गतिशील दर्शन है जोकि भौतिक परिस्थितियों की परिवर्तनीयता से संबद्ध है। विगत दो सौ वर्षों में व्यक्ति, समाज और राज्य की कार्य शैलियों में कई ऐतिहासिक परिवर्तन हुए हैं। इन तीनों इकाइयों के परस्पर संबंध बदले हैं; सूक्ष्म व वृहत स्तरों पर पूंजी की गत्यात्मकता का विस्तार हुआ; वित्तीय पूंजी व संस्थाओं में अभूतपूर्व ढंग से भूमंडलीकृत हुई; राज्य की परंपरागत संप्रभुता की पवित्रता अक्षुण्ण नहीं रही; राज्य प्रबंधन में पूंजी नियंत्रकों की हस्तक्षेपकारी भूमिका बहुआयामी हुई; कारपोरेट शक्तियों द्वारा परंपरागत राज्य के प्रतिस्थापन और उसे 'कारपारेट राज्य' में रूपांतरित करने की व्यूहरचना, टेकनोलॉजी का असाधारण विकास व विस्तार और जीवन के सभी क्षेत्रों पर गहरा प्रभाव, सूचना-संचार क्रांति के कारण आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक वर्चस्वतावादी प्रवृत्तियों का विस्फोट; पूंजीवाद की निरंतर कल्पनाशीलता; प्रयोगधर्मिता और भविष्यवादी रणनीति; वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था (मार्क्सवादी) में गतिहीनता; असृजनात्मकता, रूढि़वादिता और अंतर्विरोधों के समाधान की अक्षमता; धार्मिक कट्टरतावाद और जातीय अस्मिताओं का उभार; पूंजी के बरक्स परंपरागत सामरिक शक्ति, परमाणु शक्ति व तकनोलॉजी शक्ति का निर्माण (अमेरिकी शिविर); एकल धु्रवीय व्यवस्था का उदय व गुटनिरपेक्ष आंदोलन का हाशियाकरण; प्राकृतिक संसाधनों (तेल, गैस, लोहा आदि) के आधिपत्यीकरण का नया अभियान (बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा); क्षेत्रीय संघर्षों (खाड़ी जंग, अफगानिस्तान युद्ध आदि) का उभार (तीसरे विश्वयुद्ध के विकल्प के रूप में) जैसे परिवर्तनशील परिदृश्य ने पूंजीवाद के लिए 'समयानुकूल जीवन रेखा' की भूमिका निभाई है, और आज भी यह जारी है। हॉब्सबाम, के अनुसार8 विकसित देशों ने हमेशा अपने राजनीतिक ढांचे और मैकेनिज्म पर हमेशा विशेष ध्यान दिया है। इसके ऐतिहासिक कारण हैं। इसीलिए वहां राजनीतिक व्यवस्थाएं शक्तिशाली बनती गईं और 'बुर्जुआ वर्चस्वता' सुदृढ़ होती गई। यह सब 'लोकतंत्र की रक्षा', 'गणतंत्र की रक्षा', 'नागरिक अधिकार' व 'स्वतंत्रता के नारे लगा कर किया गया।
साम्यवादी राज्य व्यवस्था की तुलना में पूंजीवादी राज्य व्यवस्था में जिजीविषा बला की है और यह समय की चुनौतियों को ध्यान में रखकर स्वयं को लगातार पुनर्आविष्कृत करती रहती है। महाजनी पूंजीवाद, मुक्त अर्थव्यवस्था (लेसिस फेअर) मिश्रित अर्थव्यवस्था, जनकल्याणकारी राज्य, सामाजिक सुरक्षा, एकाधिकारवादी पूंजीवाद, बहुराष्ट्रीय निगम पूंजीवाद, कारपोरेटर राज्य (संभावित), भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद, दलाल पूंजीवाद, कृत्रिम आर्थिक संकट, मानवीय व संवेदनशील पूंजीवाद (?), सामाजिक जिम्मेदारोन्मुख पूंजीवाद (?) जैसे नकाब समय समय पर बदलकर पूंजीवाद राज्य सत्ता मंच पर जमा हुआ है। इसे जमाए रखने के लिए विश्व बैंक, आई.एम.एफ., गैट, विश्व व्यापार मंच, नव अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (नि.ई. ओ.), एशिया विकास बैंक, ग्रुप-8, क्वार्ड, बहुराष्ट्रीय निगम, जैसे शक्तिशाली माध्यमों (या हथियारों) का देश, काल, समय, परिस्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रयोग किया जाता है।
इतना ही नहीं, पूंजीवाद आत्मरक्षा और दीर्घ जीवनावधि के लिए नए-नए शस्त्रों का निर्माण व इस्तेमाल करता है। इसके लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकने के लिए तत्पर रहता है। वह परमाणु बमों का विस्फोट (1945 जापान) करता है, रासायनिक नापाम बमों (वियतनाम) की वर्षा करता है, दो विश्वयुद्ध और दो खाड़ी युद्ध करता है; सद्दाम हुसैन व ओसामा का इस्तेमाल करता है; वह पश्चिम एशिया को अशांत बनाए रखता है; लातिनी देशों में तख्ता पलट और हत्याएं करवाता है; पाकिस्तान, सउदी अरब, इंडोनेशिया, चिली, फिलिपींस (सउदी अरब का शाही घराना, पिनोचेट, मार्कोस, सुहार्तो, मोबूतु, टोनटोन्स माकोउत्स, याहिया खां, जिया उल हक आदि) आदि के सामंती, सैनिक तानाशाह, अलोकतांत्रिक नेतृत्व की हर प्रकार से रक्षा करता है। उसे अपने 'सरवाइवल' के लिए दोस्त और शत्रु समान रूप से चाहिए। वह शत्रु को दोस्त, दोस्त को शत्रु बनाता रहता है। इराक, लीबिया तथा कई अन्य राष्ट्रों के मामले में अमेरिकी साम्राज्य ने यही किया है। तालिबान और लादेन, उसी की पैदाइश हैं। आज 'इस्लामी आतंकवाद' को पूंजीवाद ने अपने शस्त्रागार में ताजा हथियार के रूप में शामिल किया है। यूरो- अमेरिकी शिविर 'आतंकवाद से जंग' के नाम पर तटस्थ राष्ट्रों को आतंकित किए रखता है। विश्व-मानवता के समक्ष आतंकवाद का हौवा खड़ा करके रख दिया है।
आज आतंकवाद को विश्व मानवता और विकास का सबसे बड़ा शत्रु माना जा रहा है। इससे पहले पूंजीवादी राज्यों और सिद्धांतकारों ने साम्यवाद को मानवता और विकास का एक मात्र शत्रु घोषित किया था। जब तक मार्क्सवाद और साम्यवादी व्यवस्था रहेगी तब तक विश्व मानवता का कल्याण और सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। धार्मिक सत्ताओं की दृष्टि में भी मार्क्सवाद ईश्वर, धर्म, समाज और मानवता का एकमात्र शत्रु था।
धार्मिक सत्ताओं से गठजोड़
पूंजीवादी राजसत्ताओं ने भी इन धार्मिक सत्ताओं को अपना सभी प्रकार का समर्थन दिया। दोनों के बीच मौजूद प्रत्यक्ष और परोक्ष गठबंधन ने मार्क्सवाद और उसके समतावादी राज्यों के लिए प्रत्येक स्तर पर संकट पैदा किए, उनके पतन के लिए षडयंत्र रचे। वेटिकन के द्वितीय पोप पॉल पर अमेरिका की कुख्यात गुप्तचर संस्था सीआईए का एजेंट होने का आरोप लगा था। उन्होंने किस प्रकार पोलैंड में पूंजीवादी देशों द्वारा समर्थित 'सोलेडेरिटी आंदोलन' को समर्थन देकर तत्कालीन साम्यवादी सरकार के पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। किस प्रकार के धर्मगुरु होने के बावजूद वाशिंगटन के इशारों पर काम किया करते थे, यह जग जाहिर है। वास्तव में धर्म सत्ता और पूंजीवाद का रिश्ता बहुत पुराना है और समय व आवश्यकता के संदर्भ में इसके रूप बदलते रहते हैं। जब साम्यवाद राज्य के रूप में पराजित हो गया तो पूंजीवादी राजसत्ता ने दो दशक पहले 'इस्लामी आतंकवाद' के रूप में अपना एक नया शत्रु गढ़ लिया है और हटिंगटन की 'सभ्यताओं' के टकराव9 की थीसिस के आधार पर उसने असुविधाजनक मुस्लिम राज्यों के विरुद्ध विभिन्न बहानों से युद्ध अभियान छेड़ रखा है।
पूंजीवाद अपने भविष्य को ध्यान में रखकर एशिया और अफ्रीकी ब्रांड के लोकतंत्रों को भी पश्चिमी लोकतंत्र (यानि पूंजीवादी लोकतंत्र) के शत्रु के रूप में देख रहा है। यूरो-अमेरिकी पूंजीवादी राज्यों और सिद्धांतकारों की दृष्टि में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देशों में लोकतंत्र असफल हो चुका है। वहां जेनुइन लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं नहीं हैं। वहां निरंकुशवादी, प्रतिगामी और अत्यंत पिछड़े किस्म का लोकतंत्र है, जोकि मानवता की प्रगति में बाधक है। इससे पश्चिमी लोकतंत्र को कई प्रकार के खतरे पैदा हो रहे हैं। इसलिए पूंजीवादी देशों को चाहिए कि वे आत्मरक्षा में 'सुरक्षात्मक साम्राज्यवाद' 10 (डिफेंसिव इम्पीरियलिज्म) की रणनीति अपनाएं। यद्यपि, विगत दो शताब्दियों में साम्राज्य और उपनिवेशवाद शब्दों को तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा है। लेकिन, अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था (अर्थात् भूमंडलीकृत पूंजीवाद) की हिफाजत के लिए 'सुरक्षात्मक साम्राज्यवाद' की आवश्यकता है। अब इस शब्द से परहेज नहीं करना चाहिए। यह भी बुर्जुआ वर्चस्वता को अक्षुण्ण रखने के लिए राजनीतिक व्यवस्थाओं की ही एक अंतर्निहित प्रवृत्ति है।
इस घिनौनी व पूंजीवाद रक्षक थीसिस के प्रवर्तक सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। बल्कि ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के राजनीतिक व रणनीतिक सलाहकार राबर्ट कूपर हैं। कूपर ने द्वितीय खाड़ी युद्ध में ब्रिटेन की भूमिका को लेकर ब्लेयर को आक्रमण की सलाह दी थी। कूपर ने उक्त थीसिस को द्वितीय खाड़ी युद्ध की समाप्ति के बाद हुए तत्कालीन सत्तारूढ़ लेबरपार्टी के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर पुस्तिका के रूप में प्रस्तुत की थी। इस थीसिस की मीडिया में खासी चर्चा हुई थी। इसकी तीखी आलोचना भी हुई। इस थीसिस ने पूंजीवादी राजसत्ताओं के समक्ष आत्मरक्षा का भावी एजेंडा प्रस्तुत किया है। पूंजीवादी सिद्धांतकारों व रणनीतिकारों को भय है कि यदि एशिया, अफ्रीका और लातिन देशों की पिछड़ी या विकासशील लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं गोलबंद हो जाती हैं तो क्वार्डब्रांड पूंजीवादी व्यवस्था (अमेरिका, कनाडा, योरोपियन, यूनियन, जापान) के समक्ष अस्तित्व संकट पैदा हो सकता है। भूमंडलीकरण की उपलब्धियां खतरे में पड़ सकती हैं। संयुक्त राष्ट्र के साथ विश्व व्यापार मंच के लोकतांत्रीकरण और अमेरिकी साम्राज्य की समाप्ति की मांग आक्रामक ढंग से उठ सकती है। इसलिए यूरो-अमेरिकी पूंजीवादी ब्रांड के लोकतांत्रिक राज्यों को चाहिए कि वे अभी से सुरक्षात्मक कार्रवाई शुरू कर दें और साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद को पुनर्जीवित करें। जहां यह थीसिस पूंजीवाद के मंसूबों को उजागर करती है वहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि साम्यवाद की तुलना में इसका शत्रु कितना बड़ा कल्पनाशील, प्रयोगधर्मी और आविष्कारक है।
पिछले दिनों दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें नजर से गुजरी थीं। दोनों का यहां उल्लेख प्रासंगिक रहेगा। मिसाल के तौर पर डॉ. मेकर स्टेवार्ड हाराबीरा की पुस्तक: दी न्यू इम्पीरियल आर्डर- इंडीजीनियस रेसपांस टू ग्लोबलाईजेंशन में पूंजीवाद द्वारा की गई बहुकोणीय किलेबंदी और वर्चस्व साम्राज्य का अद्भुत विश्लेषण किया गया है। विगत पांच दशकों, विशेष रूप से भूमंडलीकरण के दौर में पूंजीवाद ने अपनी अस्तित्व जिजीविषा के लिए क्या-क्या उपक्रम रचे और वर्चस्वादी संस्कृति की क्या भूमिका रही। भूमंडलीकरण ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बसी मूलनिवासी (दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया, भारत, उत्तरी अमेरिका जैसे क्षेत्रों के आदिवासी या रेडइंडियन या नेटिव) मानवता को कितनी गहराई से प्रभावित किया और इसकी क्या जबावी कार्रवाई रही, इसका गंभीर अध्ययन हाराबीरा ने किया है। लेखिका स्वयं भी न्यूजीलैंड की नेटिव हैं और वर्तमान में एडमिंटन विश्वविद्यालय (कनाडा) में नेटिव अध्ययन में प्राध्यापिका हैं। पुस्तक में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पूंजीवाद की अस्तित्व लड़ाई का सांस्कृतिक, आर्थिक, सामरिक और तकनीकी दृष्टि से किया गया अध्ययन इस बात का सबूत है कि वह अपने अभय प्रतिद्वंद्वी साम्यवाद से कितना आगे निकल गया है। इसके लिए उसने कितने स्तरों पर कितनी व्यापक तैयारियां अग्रिम रूप से कर ली थीं।
इसी प्रकार जोइल बाकन ने अपनी चर्चित पुस्तक 'दी कारपोरेशन' में 'निगम' व 'निगम पूंजीवाद' की कार्यप्रणाली के तथ्यात्मक अध्ययन के माध्यम से पूंजीवाद के सहस्त्रभुजाधारी संस्करण को बेपर्द किया है। इस पर आधारित विश्वविख्यात वृत्तचित्र निर्माता माइकल मूर का वृत्तचित्र भी 'निगम पूंजीवाद' की असंवेदनशीलता व शोषणवादी प्रवृत्तियों को परत-दर-परत उद्घाटित करता है।
बीते दशक में प्रकाशित माइकल हर्ट और एंटोनियो नेग्री की पुस्तक 'एम्पायर' (साम्राज्य) ने भी अमेरिकी नेतृत्व में सुरक्षित पूंजीवाद के सहस्त्ररूपी साम्राज्य की अत्यंत जटिल प्रवृत्तियों का बड़ा महीन अध्ययन संसार के समक्ष रखा था। 21वीं सदी के प्रथम दशक में इस अध्ययन में वामपंथी और दक्षिणपंथी बौद्धिक क्षेत्रों में समानरूप से धूम मचाई थी। लेखकद्वय ने साम्राज्य के लगभग सभी लक्षणों और प्रभावों की तात्विक मीमांसा करके यह जताया था कि पूंजीवाद कितना रचनाशील रहा है। साम्राज्य की जड़ें, प्राणवायु और परछाइयों को आसानी से चिह्नित नहीं किया जा सकता। साम्राज्य के इतने मुखौटे बन चुके हैं जिन्हें घिसीपिटी दृष्टि से पहचाना नहीं जा सकता। विगत शताब्दियों का पूंजीवाद और 21वीं शताब्दी का पूंजीवाद, दोनों के मध्य कोई आधारभूत संरचनात्मक व क्रियात्मक समानता नहीं है। दोनों की संचालन-नियंत्रण पद्धतियां और प्रभाव नितांत भिन्न हैं। तब का साम्राज्य स्पष्ट, चिह्नित और साक्षात था; आज यह दृश्य भी है, अदृश्य भी; यह मित्र है, शत्रु भी; लोकतांत्रिक है, अधिनायकवादी भी; रक्षक है, भक्षक भी, इसके असंख्य रूप हैं, असंख्य अवतार भी। सारांश में, इसकी लीलाएं अनगिनत हैं। ऐसे पूंजीवाद के मायाजाल को कैसे भस्म किया जाए? यह इस सदी का अक्षय प्रश्न है।
एक बात तय है कि साम्राज्य या पूंजीवाद के मायावी अवतार को निर्णायक रूप से पराजित करने के लिए कठमुल्ला मार्क्सवादी दृष्टि को अपनाना पुन: करारी शिकस्त को निमंत्रण देना होगा। यहां यह समझ लेना चाहिए कि अब विश्व 1917 और 1949 से बहुत दूर निकल चुका है। आज न जारशाही रूस का सर्वहारा है, और न ही लांग मार्च का कृषक समाज। 19वीं व 20वीं सदी की मंथर गति के आज राष्ट्र राज्य भी नहीं रहे। पूंजीवादी राष्ट्रों ने अपने यहां बुनियादी सुविधाएं भरपूर जुटा ली हैं। क्वार्ड राष्ट्रों की जनता पूरी तौर पर भ्रमित है और वह पूंजीवादी व्यवस्थाओं को समतावादी व्यवस्था में बदलने के लिए निर्णायक प्रतिरोधी संघर्ष करेगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। सिएटल प्रतिरोध इसकी मिसाल है। पिछड़े व विकासशील राष्ट्रों में भी शक्तिशाली नवमध्य वर्ग पैदा हो रहा है जोकि अपने यहां सशस्त्र क्रांति से रेडिकल बदलाव नहीं होने देगा। यह भी वस्तुस्थिति है।
21वीं सदी के राष्ट्र राज्य अत्यंत शक्तिशाली व संवेदनशील दूरनियंत्रित व स्वचालित तकनीक से भी लैस हो चुके हैं। अब पूंजीवादी राजसत्ताओं की रक्षा के लिए मानव सैनिकों के स्थान पर रोबोट सैनिक तैनात होंगे, साम्राज्य 'स्टार वार' की तैयारी कर रहा है। नेपाल जैसी पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में होनेवाली आधी-अधूरी क्रांति को साम्राज्य अपनी रणनीति के तहत सहन कर सकता है क्योंकि सामंतशाही व महाजनी पूंजीवादी समाजों को क्रांतिकारी झटकों की जरूरत है। क्रांतिकारी परिवर्तन से ही पूंजी में गति आती है, उन्नत पूंजीवादी संरचना के निर्माण में मदद मिलती है जोकि अंतत: साम्राज्य की मुख्यधारा से जुड़ जाएगी। मूल प्रश्न है राज्य के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन और संपत्ति-संबंधों में ढांचागत बदलाव। नेपाल में अभी तक निजी संपत्ति समाप्त नहीं की गई है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवी प्रो. रणधीर सिंह ने दिल्ली स्थित राजेंद्र सभागार में एक मार्के की टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि नेपाल के माओवादियों की अग्नि परीक्षा तब होगी जब वे सत्तारूढ़ हो जाएंगे। तब देखना होगा कि वे नेपाली राज्य के चरित्र को कितना बदल पाते हैं और संपत्ति संबंधों में कितना हस्तक्षेप करते हैं। इस समय नेपाल में माओवादी क्रांति 'त्रिशंकु दशा' में है। भारत के कई आदिवासी अंचलों में माओवादी भारतीय राज्य के अर्धसैन्य बलों से मजबूत टक्कर ले रहे हैं। दोनों तरफ के सैनिक सशस्त्र झड़पों में मर भी रहे हैं। लेकिन क्या छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडीशा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे सुदूर अंचलों से नई दिल्ली तक 'सशस्त्र लांगमार्च' संभव है? क्या राज्य इतना कमजोर है? मान भी लें कि भारतीय राज्य 'निर्बल व मुलायम' है, इसे पराजित कर साउथ ब्लाक पर कब्जा किया जा सकता है। लेकिन क्या वैश्विक साम्राज्य मूक दर्शक बना रहेगा? उसने पैट्रियट मिसाइलें, ड्रोन, रोबोट सैनिकों का आविष्कार किस लिए किया है? क्या सातवां बेड़ा और नाटो सेनाएं फ्रीज रहेंगे? इस यथार्थ की उपेक्षा करना भी आत्मघाती सोच होगी। इसलिए वस्तुनिष्ठता के साथ मार्क्सवाद के संबंध में सोचना होगा। समीर अमीन की इस बात से किसे असहमति होगी कि वर्तमान काल में पूंजीवाद के विश्लेषण में रचनात्मक मार्क्सवादी पद्धति की जरूरत है। उनका यह भी कहना है कि परंपरागत ढंग से पूंजीवाद के संकटों का राग अलापना भी गलत है। उनका मत है कि पूंजीवाद का सफाया तभी मुमकिन है जब इसके विरोधियों को इसकी शक्ति की पुख्ता समझदारी हो।
साम्राज्य की कोशिश तीसरे महायुद्ध को हर संभव ढंग से टालने की रहेगी क्योंकि इससे उसकी स्थिति पहले से अधिक दयनीय हो सकती है। इससे भूमंडलीकृत पूंजीवादी उपलब्धियों को गहरा धक्का लगेगा। समतावादी व्यवस्था की मांग जोर पकड़ेगी। साम्यवादी राज्य व्यवस्था की पुनर्वापसी की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। यहां इस ऐतिहासिक सच्चाई का पुनस्र्मरण उचित ही रहेगा कि दोनों महायुद्धों (1914-1945) के कारण भी साम्यवादी राज्यों की स्थापना ने गति पकड़ी थी। अत: तीसरा महायुद्ध निर्णायक होगा जिसमें साम्राज्य भरभरा कर मिट भी सकता है। इसलिए इसके समक्ष एकमात्र विकल्प है तीसरे युद्ध की संभावनाओं को यथार्थ में रूपांतरण से स्थगित रखना। उभरती महाशक्ति चीन के साथ अंतर्विरोधों को 'ब्लो हॉट-ब्लो कोल्ड कूटनीति' से 'डिफ्यूज' करते रहना। अलबत्ता, स्थानीय व क्षेत्रीय लड़ाइयों के माध्यम से अपने वर्चस्व को बनाए रखना भी है। 1997 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की महासभा को संबोधित करते हुए स्वीकार किया था कि शीत युद्ध की समाप्ति (1991) के बावजूद सैन्य संघर्ष कम होने के बजाए, बढ़े हैं। सभी सदस्य राष्ट्रों को उनकी इस स्वीकारोक्ति पर हैरत थी। उम्मीद थी कि 1991 में सोवियत संघ के अवसान के पश्चात साम्राज्य दुनिया को शांति के साथ रहने देगा। क्षेत्रीय युद्ध नहीं होंगे। लेकिन पूंजीवाद ने अपने आंतरिक व बाह्य अंतर्विरोधों के समाधान के लिए युद्ध नीति जारी रखी और खाड़ी व अफगानिस्तान में शीत युद्ध के ताजा संस्करण को जन्म दे दिया। (संयोग से क्लिंटन के भाषण के अवसर पर यह लेखक मीडिया दीर्घा में मौजूद था) उत्तर शीत युद्ध काल की युद्ध शृंखला और आर्थिक मंदियों के झटकों के बावजूद साम्राज्य अक्षुण्ण रहा है। यह भी साम्राज्य की समय-समय पर पैदा होने वाले अंतर्विरोधों से निपटने की रणनीति है जोकि अब तक उसके लिए प्रत्येक दृष्टि से लाभकारी ही सिद्ध हुई है। एक तरफ तबाही, दूसरी तरफ निर्माण और अंतत: मुनाफा। इराक, अफगानिस्तान और लीबिया की मिसालें ताजा हैं।
तब क्या इस परिदृश्य से भिड़े बगैर ही पराजित हो जाना चाहिए? यह भी साम्राज्य की विजय होगी और साम्यवादी शक्तियों के लिए आत्मघाती कदम। मार्क्सवाद के अनुसार प्रत्येक स्थिति में द्वंद्व रहता है। अत: साम्राज्य की स्थिति अजेय है और यथास्थिति बनी रहेगी, यह सोच भी अमार्क्सवादी व भाववादी है। यथास्थिति की एक सीमा होती है। इसमें भी द्वंद्व मौजूद हैं। आवश्यकता है इनके आकार-प्रकार और प्रभाव-परिणाम की वस्तुनिष्ठ पहचान। बृहत स्तर और सूक्ष्म स्तर (वैश्विक व स्थानीय) पर क्रियाशील अंतर्विरोधों की सटीक पहचान और तद्नुसार रणनीति। परिवर्तन और प्रतिरोध के नए माध्यमों के आविष्कार की आवश्यकता है। कठमुल्लावाद और मनोगत पूर्वाग्रहों से काम नहीं चलेगा। 1917 व 1949 के साम्यवादी आख्यान में पूर्ववत लौटने की कामना करना भी अवैज्ञानिकता व अमार्क्सवादी दृष्टि होगी। भौतिक स्थितियां परिवर्तनशील हैं। मार्क्सवाद इनका ही यथार्थवादी दर्शन कहलाता है। अत: तब क्या 'यथावादिता' की कामना भाववादी नहीं कहलाएगी। इसके अतिरिक्त, वर्तमान यथार्थ यह भी है कि 'यथावादी वापसी' नितांत असंभव है। इसके कारणों पर सरसरी प्रकाश डाला जा चुका है। हॉब्सबाम मानते हैं कि मार्क्स की विचारधारात्मक उपस्थिति निश्चित ही उनके जीवनकाल की तुलना में बीती सदी के आठवें दशक तक विश्व स्तर पर अधिक रही है। उनके लेखन ने पहले से अधिक लोगों को प्रेरित व प्रभावित किया है। आज भी इसका प्रभाव है। "मार्क्स के पूंजीवाद का विकास और कार्यशैली का बुनियादी विश्लेषण" आज भी विगत के समान प्रासंगिक है। विश्लेषणात्मक शक्ति यथावत है। लेकिन हॉब्सबाम का यह भी मत है कि भविष्य में मार्क्सवाद में पुनर्रुचि तभी होगी जोकि उनकी चिंतन प्रक्रिया के परंपरागत विचारों के ठोस पुनरांकन पर आधारित रहे। वास्तव में मार्क्सवाद के व्यापक फ्रेम में वैचारिक उपक्रमों को विकसित किया जाना चाहिए। जब पूंजीवादी चिंतक आज भी मार्क्सवाद से आतंकित हैं; विकसित देशों में मार्क्सवादी साहित्य की बिक्री सूखी नहीं है; विगत वर्षों में कतिपय लातिनी देशों में समाजवादी शासन के नए प्रयोग आज बहस का मुद्दा हैं; पूंजीवाद के संकट को समझने के लिए मार्क्स की ओर ताका जा रहा है। तब मार्क्सवादी समाज को अनावश्यक चिंतित नहीं होना चाहिए। यहां मुझे जॉक देरिदा का एक कथन याद आ रहा है। उन्होंने अपनी अंतिम भारत यात्रा के दौरान दूरदर्शन को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि जब तक संसार में असमानता, विषमता, शोषण, उत्पीडऩ आदि रहेंगे तब तक मार्क्सवाद एक भरोसेमंद हथियार के रूप में हमेशा मौजूद रहेगा। वैश्विक पूंजीवाद भी अब समझ चुका है कि उसकी स्वयंभू मसीहाई पिटती जा रही है इसलिए राजनीतिक शक्ति के रूप में मार्क्सवाद के प्रेत से वह आतंकित है। सूक्ष्म व लघु स्तरों पर जनआंदोलन फूट रहे हैं और बड़े आंदोलनों की शक्ल ले रहे हैं। अत: वैयक्तिक स्वतंत्रता और सामूहिक स्वतंत्रता के अंतर्संबंधों और अंतर्विरोधों को नए ढंग से समझने की जरूरत है ताकि दोनों की संगठित शक्ति पर मजबूत व विषमता मुक्त व्यवस्था का पुनर्निमाण किया जा सके। हॉब्सबाम के इस आशा भरे नोट के साथ लेख को समाप्त किया जा सकता है: "एकाकी या संयुक्त रूप में आर्थिक और राजनीतिक उदारवाद 21वीं शताब्दी की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। (इसलिए) फिर से मार्क्स को गंभीरता से लेने का समय आ गया है।" 11 द्द
टिप्पणियां
1. केंद्रीय हिंदी संस्थान में प्रतिवर्ष चीन से अनेक विद्यार्थी हिंदी सीखने के लिए आते हैं। मैं सन 2006 से 2009 तक वहां उपाध्यक्ष था। उसी दौर विद्यार्थियों के साथ चर्चाएं हुआ करती थीं।
2. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में भी प्रतिवर्ष चीन समेत विभिन्न देशों से हिंदी अध्ययन के लिए छात्र आते हैं।
3. देखें- नई दुनिया, वार्षिक विशेषांक, 1991 और चुनौतियों का चक्रव्यूह, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
4. विस्तार के लिए देखें: एरिक हॉब्सबाम की ताजा पुस्तक: हाउ टू चेंज द वल्र्ड, पृ.-314-343
5. वही
6. शॉक डाक्टराइन, ले. नोएमी क्लेन
7. राजन हर्षे द्वारा समीर अमीन की पुस्तक की समीक्षा, मार्क्सवाद, पूंजीवाद और भूमंडलीकरण, इकोनॉमिक एंड पॉलीटिकल वीकली, अप्रैल, 13, 2002
8. हाउ टू चेंज वल्र्ड, पृ.- 331-32
9. हंटिंगटन: क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन
10. राबर्ट कूपर: डिफेंसिव इम्पीरियलिज्म
11. वही, पृ.-419
(जाने-माने पत्रकार और चिंतक रामशरण जोशी, संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में विजिटिंग प्रोफेसर हैं।)
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