कहीं काँग्रेस तो मोदी को प्रोजेक्ट नहीं कर रही है
कर्नाटक चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जबर्दस्त हार के बावजूद गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी के हौसले बुलन्द हैं। भाजपा की दुर्गति होने से भी उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा है और एक दिन तबियत खराब रहने के बाद वह फिर से अपने प्रोपेगण्डा अभियान पर निकल पड़े हैं। उनकी वाचालता का आलम यह है कि उन्हें यह होश ही नहीं रहता कि वह कहाँ बोल रहे हैं और क्या बोल रहे हैं। अमरीका जाने को बेताब मोदी के अरमानों पर पानी पड़ता रहा है और वहाँ जाने में नाकामयाब रहे मोदी ने बीते सोमवार अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीयों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये सम्बोधित किया।
मोदी ने केन्द्र सरकार की नीतियों की जमकर आलोचना की और कहा कि शासन में लोगों का विश्वास घट रहा है, और यह देश की सबसे बड़ी समस्या है। इसके लिये उन्होंने केन्द्र की काँग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा, "यदि देश की सरकार चलाने वाले कमजोर हों तो मैं जानता हूँ कि इससे क्या नुकसान हो सकता है। आप पिछले एक माह के घटनाक्रम पर नजर डाल सकते हैं।"
उन्होंने कहा, "देश में सबसे बड़ी समस्या आत्मविश्वास का अभाव है। देश के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के कार्यों के कारण शासन में लोगों का विश्वास घटा है। हमें व्यवस्था, प्रक्रिया, उद्देश्य, नीतियों एवं नैतिकता में फिर से लोगों का विश्वास बहाल करना होगा। देश के समक्ष यह सबसे बड़ी चुनौती है।"
अहम बात तो यह है कि मोदी को यह ख्याल ही नहीं रहा कि वे क्या कह रहे हैं और किनके बीच कह रहे हैं। ठीक है कि उन्होंने प्रवासी भारतीयों को सम्बोधित किया लेकिन यह नहीं भूलना चाहिये कि वे भारतीय नहीं हैं और भारत की जमीन पर नहीं रह रहे हैं। इसलिये देश की नीतियों के मुद्दों को एनआरआई के मंच पर उठाकर मोदी ने देश के साथ विश्वासघात तो किया ही है लेकिन इसके साथ ही प्रश्न तो यह भी उठता ही है कि राष्ट्रीय मसलों से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों तक वह किस हैसियत से सवाल उठा रहे हैं। क्या वे लोक सभा या राज्य सभा में नेता विपक्ष हैं या प्रमुख विपक्षी दल के अध्यक्ष या उसके प्रवक्ता हैं अगर नहीं तो पहले मोदी को अपनी हैसियत स्पष्ट करनी चाहिये। तमाशा यह है कि जिन नीतियों और मुद्दों पर बहस के लिये संसद् बनी है वहाँ मोदी का दल बहस नहीं करता है। पिछले मानसून सत्र से लेकर शीत सत्र तक और हाल ही में समाप्त हुये बजट सत्र तक भाजपा ने संसद् नहीं चलने दी और सरकार के साथ मिलकर जनविरोधी विधेयक तो पास करवा दिये लेकिन जनहित में खाद्य सुरक्षा विधेयक था उसे पारित नहीं होने दिया। फिर मोदी किस हैसियत से सवाल उठा रहे हैं, क्या मोदी ने यह सवाल उठाने से पहले भाजपा नेतृत्व से अनुमति ले ली थी?
मोदी यह कैसे भूल जाते हैं कि जिस कैग की रिपोर्ट्स को लेकर भाजपा ने देश भर में ऊधम मचाया और संसद् नहीं चलने दी उसी कैग ने गुजरात में भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किये हैं। जरा मोदी जी उस भ्रष्टाचार पर भी रोशनी तो डालें। साथ ही उस कारण पर भी प्रकाश डालें कि उन्होंने अपने राज्य में लोकायुक्त क्यों नहीं बनने दिया? और क्या कोई साधारण बुद्धि रखने वाला भी यकीन कर सकता है कि जिसके अंबानी और अडानी जैसे पूँजीपति मित्र हों वह ईमानदार भी हो सकता है? इतना ही नहीं गुजरात में सूचना का अधिकार कानून की दुर्दशा है और वहाँ कई आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या में भाजपा नेताओं के नाम आये हैं। कुछ दिन पहले ही एक आरटीआई कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता बिलाल कागजी के परिवार पर एक भाजपा के विधायक के इशारे पर जानलेवा हमला किया गया और कागजी के विरुद्ध ही फर्जी मुकदमा भी कायम कर दिया गया।
अगर मोदी के गुजरात का विकास रोल मॉडल हैं तो राज्य में लोग कुपोषण का शिकार क्यों हैं?' भूख सूचकाँक में गुजरात फिसड्डी क्यों है और झारखण्ड जैसा राज्य उससे बेहतर क्यों है। विकास की तथाकथित गंगा बहाने वाले गुजरात में किसान सूखे से त्राहि-त्राहि क्यों कर रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि यह विकास शुद्ध रूप से प्रोपेगण्डा है जबकि वस्तुस्थिति एकदम उलट है।
पहली बात तो यही कि मोदी के मुख्यमन्त्री बनने के पहले से गुजरात विकसित राज्य है जबकि मोदी के मुख्यमन्त्री बनने के बाद गुजरात की विकास दर गिरी है। वर्ष 2010-11 में प्रति व्यक्ति आय के मामले में गुजरात देश में आठवें नंबर पर जबकि दिल्ली पहले नंबर पर था और हरियाणा व अण्डमान निकोबार जैसे छोटे राज्यों का प्रदर्शन गुजरात से बेहतर था। दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय 1,08,876 रुपये प्रति वर्ष थी जबकि गुजरात की 52,708 रुपये मात्र थी। कहाँ टिकते हैं मोदी? इसी तरह वर्ष 2000 से 2012 के बीच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में भी गुजरात फिसड्डी था। इस दौरान महाराष्ट्र में 2,54,624 करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ जबकि गुजरात में कुल 36,913 करोड़ रुपये ही हुआ। इसलिये मोदी जी को चाहिये कि गप्प कम किया करें वरना उनके बाईव्रेंट गुजरात की सारी पोल खुलने लगेगी।
मोदी का सोमवार का सम्बोधन देश के आर्थिक विकास के लिहाज से भी राष्ट्र विरोधी ही था। देश के कई राज्य इस समय प्रवासी भारतीयों की ओर निवेश के लिये आशा की नज़र लगाये हुये हैं और प्रवासी भारतीयों में एक बड़ा तबका उन लोगों का है जो गुजरात छोड़कर अन्य राज्यों में निवेश करना चाहते हैं। मोदी के सम्बोधन ने ऐसे निवेशकों के दिमाग में भारत की छवि खराब करने का काम किया है जिसके लिये राष्ट्र कभी मोदी को माफ नहीं कर सकता।
वैसे भी मोदी जिस तरह से असयंमित होकर जिस असंसदीय भाषा का प्रयोग कर रहे हैं उसके चलते वे स्वयं 2014 में रेस से बाहर होने की पटकथा लिख रहे हैं। उनकी वाचालता उनके लिये ही महँगी पड़ेगी।
चीन और जापान और पाकिस्तान जैसे संवेदनशील मसलों पर मिथ्या प्रचार करने से पहले मोदी को यह याद रखना चाहिये कि वह उस राज्य के मुख्य मन्त्री हैं जिसके एक मन्त्री को नरसंहार में सजा हुयी है, फर्जी एन्काउन्टर करने में उनकी पुलिस को महारत हासिल है और उनकी पुलिस के 30 बड़े अफसर (जिनमें कई आईपीएस अधिकारी शामिल हैं) इन फर्जी मुठभेडों में इस समय जेल में हैं। पूरे देश में एक भी ऐसा राज्य नहीं है जहाँ इतने बड़े पैमाने पर फर्जी एन्काउन्टर करने के चलते 30 पुलिस अफसर जेल में हों। वास्तव में यह समझना पड़ेगा कि इतने गम्भीर आरोपों के बावजूद सार्वजनिक रूप से इतना अधिक वाचाल होने की ऊर्जा मोदी को मिल कहाँ से रही है। कहीं काँग्रेस तो मोदी को प्रोजेक्ट नहीं कर रही है ताकि भाजपा के अंदर सिर फुटौव्वल बढ़ायी जा सके?
No comments:
Post a Comment