मित्रवर
'तितास एकटि नदीर नाम' को बांग्ला के पहले दलित उपन्यास का दर्जा हासिल है। इसके लेखक अद्वैत खुद दलित मालो समुदाय से थे। 1956 में जब यह उपन्यास छपा था, तब तक अद्वैत मल्लबर्मन की मात्र सैंतीस साल की उम्र में अकाल मौत हो चुकी थी। वर्ण व्यवस्था और उसके भीतर से पैदा होनेवाली सामाजिक विकृतियों का मुखर प्रतिरोध इस उपन्यास को नया परिप्रेक्ष्य देता है। बंगाली समाज में मौजूद 'छुआछूत' और 'जातिप्रथा' के तमाम मार्मिक प्रसंग इस उपन्यास को व्यापक फलक और व्यापक परिप्रेक्ष्य की कथाकृति बनाते हैं। बांग्लाभाषी समाज की विषम संरचना ने सामाजिक दृश्य पट में जो कड़वाहट घोली है, उसकी तीखी और तिलमिला देनेवाली अनुभूति के लिए अद्वैत ने तितास किनारे बसे गाँवों को बैरोमीटर बनाया है जो पूरे बंगाल का बैरोमीटर बन गया है। इस बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास का हिंदी अनुवाद तितास एक नदी का नाम हिंदी समय (http://www.hindisamay.com)पर प्रस्तुत करते हुए हम एक हार्दिक संतोष का अनुभव कर रहे हैं। साथ में पढ़ें कृपाशंकर चौबे का जायजा लेता हुआ आलेख बांग्ला दलित उपन्यास : अतीत और वर्तमान।
कबीर ऐसे कवि हैं जो जितने प्रासंगिक अपने समय में थे उतने ही प्रासंगिक आज भी हैं। यहाँ कबीर की कविता पर केंद्रित सदानंद शाही का व्याख्यानसबदन मारि जगाये रे फकीरवा। कबीर की तरह महात्मा गांधी भी लगातार हमारे लिए जरूरी बने हुए हैं। यहाँ पढ़ें गिरीश्वर मिश्र का निबंध गांधी जी की मानव-दृष्टि : नियति और संभावना। कहानियों के अंतर्गत पढ़ें चर्चित युवा कथाकार जेब अख्तर की पाँच कहानियाँ - नाली, अंबेदकर जयंती, जींस वाली लड़की, मैं ठीक हूँ पापा और एक्सट्रा वर्जिन। आलोचना में पढ़ें राजेंद्र यादव की कहानी 'उसका आना' पर केंद्रित राकेश बिहारी का लेख आत्महंता उत्सवधर्मिता की कहानी तथा त्रिलोचन की कहानी 'सोलह आने' पर केंद्रित राहुल शर्मा का लेख व्यक्ति चरित्र की कसौटी 'सोलह आने'। व्यंग्य के अंतर्गत पढ़ें अरविंद कुमार खेड़े के चार व्यंग्य - अंधा बाँटे रेवड़ी, चल दरिया में डूब जाएँ, गधा बन कर ही खुश रहा जा सकता है और सुबह की सैर और कुत्ते। विशेष में पढ़ें मदन पाल सिंह का आलेख समकालीन फ्रेंच कविता और उसका विधान। इसी तरह सिनेमा के अंतर्गत प्रस्तुत है विजय शर्मा का लेखशेक्सपीयर सिनेमा के परदे पर। एक समय के बेहद चर्चित कवि कमलेश पिछले दिनों हमारे बीच में नहीं रहे। यहाँ उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। साथ में पढ़ें यशस्विनी, सुभाष राय, अनवर सुहैल और आत्माराम शर्मा की भी कविताएँ।
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सादर, सप्रेम
अरुणेश नीरन
संपादक, हिंदी समय
'तितास एकटि नदीर नाम' को बांग्ला के पहले दलित उपन्यास का दर्जा हासिल है। इसके लेखक अद्वैत खुद दलित मालो समुदाय से थे। 1956 में जब यह उपन्यास छपा था, तब तक अद्वैत मल्लबर्मन की मात्र सैंतीस साल की उम्र में अकाल मौत हो चुकी थी। वर्ण व्यवस्था और उसके भीतर से पैदा होनेवाली सामाजिक विकृतियों का मुखर प्रतिरोध इस उपन्यास को नया परिप्रेक्ष्य देता है। बंगाली समाज में मौजूद 'छुआछूत' और 'जातिप्रथा' के तमाम मार्मिक प्रसंग इस उपन्यास को व्यापक फलक और व्यापक परिप्रेक्ष्य की कथाकृति बनाते हैं। सबसे तात्पर्यपूर्ण यह है कि हाशिए के आदमी को लिखने की कोशिश में ही अद्वैत की यह रचना संभव हुई है। बांग्लाभाषी समाज की विषम संरचना ने सामाजिक दृश्य पट में जो कड़वाहट घोली है, उसकी तीखी और तिलमिला देनेवाली अनुभूति के लिए अद्वैत ने तितास किनारे बसे गाँवों को बैरोमीटर बनाया है जो पूरे बंगाल का बैरोमीटर बन गया है। जायजा काव्य परंपरा निबंध पाँच कहानियाँ आलोचना व्यंग्य विशेष |
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