दूसरी भोपाल गैस त्रासदी की तैयारी
सरकार की शह पर चलते जहर उद्योग
जिस प्रकार देश के नेता देश को लूट व बेचकर खाने पर तुले हैं, उसी तरह तमाम सरकारी विभागों के लोग भी चंद पैसों की रिश्वत की ख़ातिर तमाम नाजायज़ व ज़हरीले उद्योग धंधों को निर्धारित मापदंड पूरा किए बिना उन्हें चलाने के लिए हरी झंडी दे देते हैं...
निर्मल रानी
भोपाल गैस त्रासदी को अभी देश भूल नहीं पाया है. उस त्रासदी से पीड़ित परिवारों के लोगों की तो आने वाली नस्लें उसके दुष्प्रभावों का अभी तक सामना कर रही हैं. यूनियन कार्बाईड नामक उस केमिकल फैक्ट्री में हुए हादसे में हज़ारों लोग मारे गए थे और लाखों लोग आज तक प्रभावित हैं. इस हादसे ने यह भी साबित कर दिया है कि हमारे देश के नागरिकों की जान की कीमत पर बड़े-बड़े औद्योगिक घराने औद्योगिक मानदंड पूरा किए बिना धड़ल्ले से देश में अपने उद्योग कहीं भी स्थापित-संचालित कर सकते हैं.
अभी गर्मी की शुरुआत ही हुई है कि कहीं न कहीं से आग लगने के समाचार आने भी शुरू हो गए हैं. पिछले दिनों ऐसी ही एक ख़बर अंबाला शहर के एक रिहाईशी क्षेत्र से आई. यहां एक रसायन आधारित औद्योगिक परिसर में भीषण आग लग गई. सैकड़ों फ़ीट की ऊंचाई तक आग की लपटें उठती देखी गईं. आसपास के लगभग दो किलोमीटर तक आग व धुएं की भीषण दुर्गंध फैल गई. फैक्ट्री के आसपास के लोग दहशत के चलते अपने घरों को छोडक़र पलायन कर गए. सैकड़ों लोगों को उल्टी, आंखों में जलन, आंख व मुंह से पानी बहने तथा खुजली,दमा, घुटन व सांस फूलने जैसी शिकायतों का सामना करना पड़ा.
ज़हरीले धुएं से ख़ासतौर पर प्लास्टिक अथवा रासायनिक धुएं से व अमोनिया जैसी गैस के फैलने से वातावरण में कार्बन मोनोआक्साईड व साईनाईट जैसी ज़हरीली गैस पैदा होती है जो जानलेवा होती है. आम लोगों के अलावा प्रशासन के लोग खासतौर पर स्वास्थ्य विभाग तथा प्रदूषण नियंत्रण विभाग व उद्योग विभाग से जुड़े हुए लोग भी इन बातों से अच्छी तरह वाकि़फ हैं. इसके बावजूद न केवल हरियाणा-पंजाब, बल्कि लगभग पूरे देश में रिहाईशी इलाकों में ऐसे ज़हरीले उद्योग धड़ल्ले से चल रहे हैं.
ख़ासतौर पर बर्फ़ बनाने व आईसक्रीम आदि बनाने की फैक्ट्रियां गर्मी शुरू होते ही शहरों की तंग गलियों, बाज़ारों व मोहल्लों में चलती देखी जा सकती हैं. परंतु प्रशासन इन्हें रिहाईशी इलाक़ों से बाहर करने के लिए कोई बड़े व सख्त क़दम उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आम लोगों की जान की कोई क़ीमत नहीं है? क्या ऐसे ज़हरीले व रसायन व गैसयुक्त उद्योग चलाने वाले लोगों को उनके धंधों से होने वाला मुनाफ़ा आम लोगों की जान की कीमत से बढक़र है?
सबसे बड़ा सवाल तो यह कि ऐसे उद्योग रिहाईशी क्षेत्रों में चलाने वालों के लिए औद्योगिक इकाई स्थापित करने के मापदंड पूरे करने की कोई ज़रूरत नहीं है. ऐसे लोग क्या क़ायदे से ऊपर की हैसियत रखते हैं या फिर इन उद्योगों की जांच-पड़ताल करने वाले जि़म्मेदार विभागों के कर्मचारी जानबूझ कर अपनी आंखें मूंदकर बैठे रहते हैं और अपनी आंखें बंद रखने के बदले में ऐसे ग़ैरक़ानूनी उद्योग चलाने वालों से बाकाएदा 'सुविधाशुल्क' प्राप्त करते हैं. भ्रष्ट कर्मचारी-अधिकारी चंद पैसों की रिश्वत के बदले में क्या किसी दूसरी भोपाल गैस त्रासदी की प्रतीक्षा में लगे रहते हैं.
अंबाला के मंढोर क्षेत्र में हुए अग्रिकांड को हालांकि प्रशासन ने बड़ी फुर्ती के साथ क़ाबू कर लिया. आसपास के शहरों व क़स्बों से अग्रिशमन गाडिय़ां आने के अलावा सेना तथा वायुसेना की अग्रिशमन गाडिय़ां भी 24 घंटे तक लगी रहीं. केमिकल के बड़े-बड़े ड्रम तथा सिलेंडर दो दिनों तक फटते रहे. गौरतलब है कि इस केमिकल फैक्ट्री से कुछ ही दूरी पर धूलकोट विद्युतगृह भी स्थित हैं जहां बड़ी संख्या में ट्रांसफ़ार्मर भी रखे होते हैं. यदि यह आग वहां तक फैल जाती तो न जाने क्या हश्र होता.
हादसे के बाद प्रशासन के लोग उस फ़ैक्टरी की वैधता तथा उसके मापदंड पूरे होने या न होने की जांच-पड़ताल में जुटे हुए हैं. यदि इन बातों पर पहले ही नज़र रखी जाए तो शायद ऐसी दुर्घटना होने ही न पाए और यदि हो भी जाए तो उद्योग परिसर के स्तर पर ही नियंत्रण पा लिया जाए.
अंबाला शहर में ही घने रिहाईशी क्षेत्र में यहां तक कि पुलिस चौकी नंबर 4 के ठीक सामने सिमरन आईस फैक्टरी के नाम से एक बर्फ़ बनाने की फैक्टरी एक मकान के अंदर लगभग 12 वर्षों संचालित हो रही है. इस फ़ैक्टरी में कई बार ज़हरीली गैस लीक होने की शिकायत मोहल्लेवासी प्रशासन से कर चुके हैं. इस बर्फ़खाने के साथ लगते कई मकान व इमारतें उसकी सीलन तथा बेतहाशा जल प्रयोग के चलते प्रभावित व कमज़ोर हो रहे हैं.
परंतु शिकायतों के बावजूद जि़ला प्रशासन केवल प्रदूषण नियंत्रण विभाग अथवा स्वास्थ्य विभाग को जांच-पड़ताल करने के लिए लिखकर अपनी कार्रवाई की इतिश्री कर देता है. उधर प्रदूषण व स्वास्थ्य विभाग के लोग वही ढाक के तीन पात की कहावत पर अमल करते हुए उद्योग के मालिक के 'प्रभाव' में आकर अपनी रिपोर्ट उसके पक्ष में दे डालते हैं. पीड़ित लोग ऐसे में प्रशासन से शिकायत करने के बावजूद स्वयं को ठगा सा महसूस करने लगते हैं. ऐसे मामलों में जब प्रशासन से शिकायत करने के बावजूद इन अवैध औद्योगिक इकाईयों को संचालित करने वाले मालिकों का कुछ नहीं बिगड़ता और इस प्रकार की अवैध फ़ैक्टरी बदस्तूर चलती रहती है तो शिकायकर्ता से इनकी व्यक्तिगत रंजिश भी हो जाती है और विभागीय जांचकर्ताओं की शह पाकर इनके हौसले और भी बुलंद हो जाते हैं.
जिस प्रकार देश के नेता देश को लूट व बेचकर खाने पर तुले हैं, उसी तरह तमाम सरकारी विभागों के लोग भी चंद पैसों की रिश्वत की ख़ातिर तमाम नाजायज़ व ज़हरीले उद्योग धंधों को निर्धारित मापदंड पूरा किए बिना उन्हें चलाने के लिए हरी झंडी दे देते हैं. इसका नतीजा जानलेवा साबित होता है. इंसान ही नहीं निरीह पशु-पक्षी भी इन त्रासदियों से अपनी जानें गंवा बैठते हैं. बड़ा हादसा न भी हो तो भी इन रसायनयुक्त उद्योगों से निकलने वाली जहरीली गैस के कारण पास-पड़ोस के लोगों को खांसी, उल्टी, सांस फूलने व दमा जैसी बीमारी हो जाती है. तमाम लोगों की आंखों में खुजली होती है. यहां तक कि आंखों की रोशनी भी कम होने लगती है. लगता है प्रत्येक अनापत्ति प्रमाण पत्र के नाम पर संबंधित विभाग इनके पक्ष में बड़ी आसानी से अपनी टिप्पणी लिख कर इन्हें आम लोगों की सामूहिक हत्या किए जाने की छूट का गोया प्रमाण पत्र जारी कर देता है.
आम नागरिकों की जान से खिलवाड़ करने की शर्त पर ज़हरीली औद्योगिक इकाई चलाना न केवल अमानवीय बल्कि अवैध व ग़ैरक़ानूनी भी होना चाहिए. समय रहते प्रशासन की आंखें नहीं खुलीं ऐसे उद्योगों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करते हुए इन्हें बंद नहीं कराया गया तो आश्चर्य नहीं कि भविष्य में भी भोपाल और मंढोर जैसी घटनाएं और भी होती रहें.
निर्मल रानी उपभोक्ता मामलों की जानकार हैं.
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