कहानी कहने के लिए पात्रों के बारे में इतना क्यों सोचना पड़ता है? बड़ी देर से एक अधूरी कहानी को हाथ में लिए सोच रहा था. तभी अचानक आमा (दादी) की याद आ गई, बचपन में जब हम आमा से कहानी सुनाने की जिद्द करते, तो वो बिना किसी पात्र के बारे में सोचे कहानी की शुरुआत कर देती थी. पात्र जैसे हमारे बीच से ही उठकर कहानी को आगे खींचते चलते.
उन कहानियों के पात्र कभी अकाल्पनिक नहीं लगते थे. हमारे आसपास, गांव-देहात के पात्र आमा की कहानी संसार में रचे-बसे होते. उन पात्रों से हम सभी बच्चे भलीभांति परिचित होते, जुड़ जाते, गांव के कई लोगों को हम उन्हीं पात्रों के नाम से बुलाते. आज भी आमा की कहानियों के कई पात्रों से यदा-कदा भेंट हो ही जाती है.
बुढ़िया आमा के जाने के बाद आज तक समझ नहीं आया की उनके पास कहानियों का इतना भंडार आया कहां से! न आमा कभी स्कूल गयी, न उसने चेखव, गोर्की, टॉलस्टॉय, प्रेमचंद्र इत्यादि को पढ़ा. आमा की कहानियों में किस्सागोई होती, फसक (गप्पों) में तो आमा का कोई सानी नहीं था. गांव की औरतें आमा को तलबाखई फसकी बुढ़िया कहते. अगर आमा ने कलम पकड़ी होती तो 'क्याप' से बड़ी फसक हिंदी प्रेमियों को पढ़ने को मिलती.
आमा कभी कहानी सुनाने में हड़बड़ी नहीं करती थी. हम बच्चों को बैठाकर वो सबसे पहले डोर बंधे अपने मोटे चश्मे को गले से निकालती, उस पर दो तीन फूंक मारती, तब जाकर उसे आंखों पर चढ़ाती. स्कूल से आने के बाद शाम को हमारा मनोरंजन का एकमात्र साधन होती आमा की कहानियां...रमती सेठ, कलूली काकी, बिन सिंग बाकर, रौंसी का गुस्सा, अनपढ़ मास्टर का स्कूल और भी ना जाने क्या-क्या नाम होते उन कहानियों के..
'कलूली काकी' कहानी की गोविंदी को गांव के सभी बच्चे कलूली काकी कहकर पुकारते. गोविंदी इससे बड़ा चिढ़ती, कई बार वो बच्चों के पीछे झाड़ू लेकर पड़ जाती, उनको खूब खरी-खोटी सुनाती. एक बार उसने एक बच्चे को कलूली काकी कहने पर सिंसोड़ तक लगा दिया. लेकिन उसी गोविंदी के जब प्राण निकल रहे थे, वो चाक में एकजुट बच्चों की भीड़ से कह रही थी कोई उसे कलूली काकी कहकर पुकारे..और उसने तब तक अपनी आंखें हमेशा के लिए बंद नहीं की, जब तक बच्चों ने उसे कलूली काकी नहीं कहा..
आमा कहती इसमें गोविंदी का दोष नहीं था, उसके बाप ने उसे 4 साल की उम्र से गोठ में खाना बनाने में लगा दिया, जिससे उसका रंग काला पड़ गया था. अनपढ़ मास्टर के स्कूल में बच्चे उसे ही पढ़ाते और बिग सिंग के बाकर (बकरे) की गांव भर में पूजा होती थी.
आमा के पात्रों में जहां स्वर्ण जाति की अकड़ होती, वहीं गांव के हरिजनों की लाचारी, बेबसी भी झलकती. अपने ही परिजनों द्वारा दमित, शोषित, उत्पीड़ित गोमती भी आमा की कहानियों थी, लेकिन कलिया जैसा दलित सामंत आमा की कहानियों में कभी नजर नहीं आया.
ललित फुलारा पत्रकारिता के छात्र हैं.
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