Thursday, 19 September 2013 11:03 |
कुमार प्रशांत जनसत्ता 19 सितंबर, 2013 : जो बात एकदम शुरू से निश्चित थी, उसे अनिश्चय के कितने ही दौरों से गुजारने की कला कोई संघ परिवार से सीखे! नरेंद्र मोदी भले अब भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बताए जा रहे हों, देश में सभी जानते थे कि हवा का रुख किधर है। हम यह न समझें कि घोषणा में देर इसलिए हो रही थी कि पार्टी के भीतर कहीं कोई उलझन थी, या कि कोई गहरा विमर्श चल रहा था। सभी एकाधिकारवादी संगठनों की यही शैली है! वे भीतर-भीतर निर्णय कर लेते हैं, जहां निर्णय बता देने की जरूरत होती है, वहां बता भी देते हैं, लेकिन व्यापक तौर पर देश में भ्रम बनाए रखते हैं। आंदोलन का संचालन करने वाली छात्र संघर्ष संचालन समिति में उन्होंने इन दलों को प्रवेश नहीं दिया, बल्कि इनकी अलग से समन्वय समिति बनाई। उन्होंने छात्र संघर्ष संचालन समिति के उन सदस्यों से, जो राजनीतिक दलों द्वारा संचालित छात्र-युवा संगठनों में काम करते थे, कहा कि वे अपने-अपने संगठन का विसर्जन कर दें। आंदोलन समर्थक राजनीतिक दलों के विधायकों से उन्होंने कहा कि वे बिहार विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दें। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके विरुद्ध थी और उसने इंदिरा गांधी का दामन थाम लिया था। मार्क्सवादी (माकपा के लोग) खासे पशोपेश में रहे और अंतत: इस शर्त के साथ आंदोलन में आने को तैयार हुए कि वे अपने झंडे के साथ कार्यक्रमों में शिरकत करेंगे। जयप्रकाश ने उन्हें बाहर ही रहने को कह दिया- 'आंदोलन का एक ही झंडा है- काला झंडा! किसी को दूसरा कोई झंडा लाने की अनुमति नहीं है। मार्क्सवादियों को सुर्खाब के पंख लगे हैं कि उन्हें उनके झंडे के साथ अनुमति दी जाए!' अंतत: बिना झंडे के मार्क्सवादी आंदोलन में शामिल हुए और फिर उनका झंडा ऐसा ऊंचा हुआ कि ज्योति बसु से लेकर बुद्धदेव भट्टाचार्य तक पश्चिम बंगाल में उनका ही राज रहा। निरपवाद रूप से दलीय राजनीति की चूलें हिला दी थीं जयप्रकाश नारायण ने। इस पूरे दौर में कहीं भी संघ परिवार के साथ जयप्रकाश नहीं थे। उनका सीधा संपर्क-संवाद जनसंघ से, अटल-आडवाणी से ही था। बालासाहब देवरस और संघ परिवार के दूसरे कुछेक लोग मिलते जरूर रहे, लेकिन वह आंदोलन के सर्वोच्च नेता से उनकी मुलाकात भर से ज्यादा कुछ नहीं होती थी। आंदोलन और जनसंघ के साथ तालमेल की सारी बातें वे अटल-आडवाणी से या उनकी तरफ से अनुमोदित व्यक्तियों से करते थे। ऐसा वे इसलिए करते थे कि वे अपने आंदोलन का चरित्र राजनीतिक विकल्प की तलाश का रखने के बारे में बेहद सावधान थे और अटल-आडवाणी को इसमें समर्थ भी पाते थे और उन्हें किसी हद तक बदलना भी चाहते थे। अलबत्ता अटल-आडवाणी को वे बदल पाए या नहीं, यह अलग सवाल है, पर आंदोलन का मकसद सत्ता में उलटफेर करना नहीं था। आंदोलन छात्र असंतोष से आरंभ हुआ था और न तो शुरू में और न ही बाद में दलीय राजनीति से इसका नाता रहा। युवाओं के अनुरोध पर जेपी ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला तो आंदोलन का दायरा और उद््देश्य, दोनों व्यापक होते गए। संपूर्ण क्रांति का नारा इसी का प्रतीक बना। बहरहाल, चंडीगढ़ की नजरबंदी से जब मरणासन्न अवस्था में इंदिराजी ने उन्हें रिहा किया और अर्द्ध-बेहोशी की हालत में वे इलाज के लिए मुंबई लाए गए तब से उन्हें इसकी चिंता थी कि वे अपने इस पूरे प्रयास की कहानी लिख डालें ताकि बाद में कोई अपना ही इतिहास न लिखने लगे। उनकी तबीयत जैसे ही थोड़ी सुधरी, उन्होंने अपना वह काम पूरा किया और बिहारवासियों के नाम खुला पत्र नाम से उनका लिखा वह दस्तावेज प्रकाशित हुआ। उसमें जेपी ने साफ लिखा है कि हिंदुत्ववादियों को साथ लेने की उनकी कोशिश उनको डिकम्यूनलाइज (सांप्रदायिकता से रहित) करने की बड़ी रणनीति का हिस्सा थी और उनकी यह कोशिश दूसरी कोशिशों से ज्यादा रचनात्मक थी और वे इसमें किसी हद तक कामयाब भी हुए! आज संघ परिवार जो कर रहा है, वह इतिहास के उन पन्नों को उलटने की कसरत है जिन्हें बदलने की कोशिश जयप्रकाश ने की थी। अब किसी को यह मुगालता नहीं रहना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रूप में देश के सामने पेश किया है। भाजपा ने तो सिर्फ उस आदेश का पालन किया है जो संघ परिवार ने उसे 2002 में हुए गुजरात के दंगों के बाद दिया था। क्या था वह आदेश? कि नरेंद्र मोदी को अनुशासित करने का काम संघ परिवार करेगा; उन्हें राजनीतिक संरक्षण देने का काम भारतीय जनता पार्टी को करना है! जब-जब इस आदेश के पालन में किसी ने हिचक दिखाई या ना-नुकुर की, चाहे वे लालकृष्ण आडवाणी हों या मुरली मनोहर जोशी या सुषमा स्वराज या सुधींद्र कुलकर्णी या नितिन गडकरी, संघ ने सबको किनारे लगाया या उन्हें उनकी जगह दिखा दी। संघ की यही हैसियत थी जो अटल-आडवाणी काल में खो गई थी और जिस गुनाह के लिए संघ ने उन दोनों को कभी माफ नहीं किया! (जारी)
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Friday, September 20, 2013
सांप्रदायिकता की बिसात पर
सांप्रदायिकता की बिसात पर
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