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Friday, September 20, 2013

सांप्रदायिकता की बिसात पर

सांप्रदायिकता की बिसात पर

Thursday, 19 September 2013 11:03

कुमार प्रशांत

जनसत्ता 19 सितंबर, 2013 : जो बात एकदम शुरू से निश्चित थी, उसे अनिश्चय के कितने ही दौरों से गुजारने की कला कोई संघ परिवार से सीखे! नरेंद्र मोदी भले अब भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बताए जा रहे हों, देश में सभी जानते थे कि हवा का रुख किधर है।

हम यह न समझें कि घोषणा में देर इसलिए हो रही थी कि पार्टी के भीतर कहीं कोई उलझन थी, या कि कोई गहरा विमर्श चल रहा था। सभी एकाधिकारवादी संगठनों की यही शैली है! वे भीतर-भीतर निर्णय कर लेते हैं, जहां निर्णय बता देने की जरूरत होती है, वहां बता भी देते हैं, लेकिन व्यापक तौर पर देश में भ्रम बनाए रखते हैं। 
यह भ्रम बहुत घातक हथियार है, जिससे आप जब चाहें हवा को अपने पक्ष में कर सकते हैं। आपका निर्णय देश को व्यापक तौर पर रास नहीं आया तो आप कह सकते हैं कि ऐसा कोई निर्णय हुआ ही नहीं था, अफवाह फैलाई जा रही थी; जिसके बारे में फैसला हुआ वह अगर अपनी पर आ गया तो आप जब चाहें तब उसे गच्चा दे सकते हैं कि आपने बात ही गलत समझी, आपके नाम पर विचार भर हो रहा था, फैसला तो कुछ हुआ ही नहीं था! 
भ्रम बहुत कीमती हथियार है, उनके लिए, जो निर्णय को हमेशा अपनी मुट्ठी में भी रखते हैं और सुविधा देख कर निर्णय बदलने की जगह रखते हैं। इसे राजनीतिक समझदारी कहने वाले भी होंगे, लेकिन लोकतंत्र और राष्ट्र-हित के संदर्भ में यह गैर-ईमानदार चालाकी भर होती है। नरेंद्र मोदी के मामले में संघ परिवार ने 2002 से ही इस हथियार का इस्तेमाल किया है। सांप्रदायिकता की अपनी बिसात पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नरेंद्र मोदी सबसे मुफीद प्यादे भी लगते रहे हैं और उसे यह संकोच भी होता रहा है कि मोदी कहीं वह जिन्न साबित न हों कि जो फिर बोतल में वापस जाए ही नहीं! लालकृष्ण आडवाणी इसके पहले शिकार हुए हैं, बाकी की कहानी अभी बाकी है।
जो बाकी है उसकी तो तब देखेंगे जब वह पूरी तरह सामने आएगी, लेकिन जो सामने आ चुकी है उसे ठीक से समझ लेने की जरूरत है। कहते हैं कि अपराधी चाहे जितनी सावधानी से अपराध करे, वह कुछ न कुछ निशान ऐसे छोड़ ही जाता है जिसका सिरा पकड़ कर खोजी उस तक पहुंच जाता है। कुछ ऐसा ही संघ परिवार के साथ हुआ! नरेंद्र मोदी को संघ परिवार ने जिस तरह कदम-दर-कदम आगे बढ़ाया, पार्टी के भीतर उनकी स्थिति मजबूत की, मोदी से असहमति रखने या मोदी के लिए मुश्किल पैदा करने वाले हर आदमी को रास्ते से हटाया, पार्टी के नेतृत्व में ऐसे लोगों की भीड़ जमा की, जिनकी अपनी कोई जड़ है ही नहीं, मोदी को भी बार-बार अपनी अदालत में बुला कर उन्हें अहसास कराते रहे कि आखिरकार आपकी औकात संघ के प्रचारक भर की है! इससे वे अपनी वह सर्वोपरि भूमिका फिर से हासिल कर सकें जो उनसे छीन ली गई थी। यह सब काफी बड़ी और शिद््दत से लड़ी लड़ाई के बाद संभव हुआ था और यह सारा कुछ कमाया था अटल-आडवाणी की जोड़ी ने। 
अटल और आडवाणी दोनों ही संघ परिवार की उपज थे, लेकिन उस परिवार में पैदा हुए वे पहले ऐसे राजनीति-कर्मी थे, जो संसदीय लोकतंत्र के ढांचे में अपनी जगह बनाने की गंभीर कोशिश में लगे थे। इस कोशिश के क्रम में ही इनकी समझ में आया कि संघ परिवार का सदस्य होने में दिक्कत नहीं है, संघ परिवार का हित-साधन करने में भी दिक्कत नहीं है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गणवेश धारण कर सदा वत्सले मातृभूमि गाने में भी दिक्कत नहीं है। 
मुश्किल वहां से शुरू होती है, जहां से आप राजनीति में वैसा दखल देने लगते हैं जिससे संसदीय राजनीति में हमारी विश्वसनीयता कम होने लगती है। अटल-आडवाणी की राजनीतिक योग्यता, भारतीय राजनीति में उनकी स्वीकार्यता और जनसंघ हो कि जनता पार्टी कि भाजपा इन सबमें इनकी अनिवार्यता के कारण ऐसी स्थिति बनती गई कि ये संघ परिवार की पकड़ से बाहर होने लगे। इस आजादी का स्वाद इन्हें भी बहुत भाया। इसलिए अपनी इस आजादी का संरक्षण करने की लड़ाई बड़ी मजबूती और चालाकी से लड़ी इन दोनों ने! 
श्यामाप्रसाद मुखर्जी या दीनदयाल उपाध्याय या फिर बलराज मधोक जैसी आजादी की बात सोच भी नहीं सकते थे, वैसी आजादी इन दोनों ने हासिल की और जनता पार्टी के सबसे मजबूत खंभे के रूप में भी और विदेश और सूचना एवं प्रसारण जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के अत्यंत प्रभावी मंत्री के रूप में भी उस आजादी को पुख्ता किया। 
गौरतलब है कि मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे और लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री। यह पहला ही अवसर था कि जब संघ परिवार का कोई पक्का सदस्य सरकार में गया हो और इतने प्रभावी मंत्रालयों का अगुआ बना हो। इससे इनका कद ही बड़ा नहीं हुआ, इनकी पहुंच भी बढ़ी। 

जयप्रकाश नारायण ने इन दोनों नेताओं को संघ परिवार से अलग ले जाने में जो भूमिका निभाई, उसका अलग से आकलन करना जरूरी है। लेकिन यहां इतना ही कहना काफी होगा कि बड़ी लंबी जद्दोजहद के बाद जब विपक्षी दलों को जयप्रकाश ने अपने आंदोलन में शामिल होने की छूट दी, तभी यह साफ भी कर दिया कि उनमें से किसी से भी जुड़े, किसी भी संगठन के लिए यह छूट नहीं है।
आंदोलन का संचालन करने वाली छात्र संघर्ष संचालन समिति में उन्होंने इन दलों को प्रवेश नहीं दिया, बल्कि इनकी अलग से समन्वय समिति बनाई। उन्होंने छात्र संघर्ष संचालन समिति के उन सदस्यों से, जो राजनीतिक दलों द्वारा संचालित छात्र-युवा संगठनों में काम करते थे, कहा कि वे अपने-अपने संगठन का विसर्जन कर दें। आंदोलन समर्थक राजनीतिक दलों के विधायकों से उन्होंने कहा कि वे बिहार विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दें। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके विरुद्ध थी और उसने इंदिरा गांधी का दामन थाम लिया था। 
मार्क्सवादी (माकपा के लोग) खासे पशोपेश में रहे और अंतत: इस शर्त के साथ आंदोलन में आने को तैयार हुए कि वे अपने झंडे के साथ कार्यक्रमों में शिरकत करेंगे। जयप्रकाश ने उन्हें बाहर ही रहने को कह दिया- 'आंदोलन का एक ही झंडा है- काला झंडा! किसी को दूसरा कोई झंडा लाने की अनुमति नहीं है। मार्क्सवादियों को सुर्खाब के पंख लगे हैं कि उन्हें उनके झंडे के साथ अनुमति दी जाए!' अंतत: बिना झंडे के मार्क्सवादी आंदोलन में शामिल हुए और फिर उनका झंडा ऐसा ऊंचा हुआ कि ज्योति बसु से लेकर बुद्धदेव भट्टाचार्य तक पश्चिम बंगाल में उनका ही राज रहा। 
निरपवाद रूप से दलीय राजनीति की चूलें हिला दी थीं जयप्रकाश नारायण ने। इस पूरे दौर में कहीं भी संघ परिवार के साथ जयप्रकाश नहीं थे। उनका सीधा संपर्क-संवाद जनसंघ से, अटल-आडवाणी से ही था। बालासाहब देवरस और संघ परिवार के दूसरे कुछेक लोग मिलते जरूर रहे, लेकिन वह आंदोलन के सर्वोच्च नेता से उनकी मुलाकात भर से ज्यादा कुछ नहीं होती थी।
आंदोलन और जनसंघ के साथ तालमेल की सारी बातें वे अटल-आडवाणी से या उनकी तरफ से अनुमोदित व्यक्तियों से करते थे। ऐसा वे इसलिए करते थे कि वे अपने आंदोलन का चरित्र राजनीतिक विकल्प की तलाश का रखने के बारे में बेहद सावधान थे और अटल-आडवाणी को इसमें समर्थ भी पाते थे और उन्हें किसी हद तक बदलना भी चाहते थे। 
अलबत्ता अटल-आडवाणी को वे बदल पाए या नहीं, यह अलग सवाल है, पर आंदोलन का मकसद सत्ता में उलटफेर करना नहीं था। आंदोलन छात्र असंतोष से आरंभ हुआ था और न तो शुरू में और न ही बाद में दलीय राजनीति से इसका नाता रहा। युवाओं के अनुरोध पर जेपी ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला तो आंदोलन का दायरा और उद््देश्य, दोनों व्यापक होते गए। संपूर्ण क्रांति का नारा इसी का प्रतीक बना। 
बहरहाल, चंडीगढ़ की नजरबंदी से जब मरणासन्न अवस्था में इंदिराजी ने उन्हें रिहा किया और अर्द्ध-बेहोशी की हालत में वे इलाज के लिए मुंबई लाए गए तब से उन्हें इसकी चिंता थी कि वे अपने इस पूरे प्रयास की कहानी लिख डालें ताकि बाद में कोई अपना ही इतिहास न लिखने लगे।
उनकी तबीयत जैसे ही थोड़ी सुधरी, उन्होंने अपना वह काम पूरा किया और बिहारवासियों के नाम खुला पत्र नाम से उनका लिखा वह दस्तावेज प्रकाशित हुआ। उसमें जेपी ने साफ लिखा है कि हिंदुत्ववादियों को साथ लेने की उनकी कोशिश उनको डिकम्यूनलाइज (सांप्रदायिकता से रहित) करने की बड़ी रणनीति का हिस्सा थी और उनकी यह कोशिश दूसरी कोशिशों से ज्यादा रचनात्मक थी और वे इसमें किसी हद तक कामयाब भी हुए!
आज संघ परिवार जो कर रहा है, वह इतिहास के उन पन्नों को उलटने की कसरत है जिन्हें बदलने की कोशिश जयप्रकाश ने की थी। 
अब किसी को यह मुगालता नहीं रहना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रूप में देश के सामने पेश किया है। भाजपा ने तो सिर्फ उस आदेश का पालन किया है जो संघ परिवार ने उसे 2002 में हुए गुजरात के दंगों के बाद दिया था। क्या था वह आदेश? कि नरेंद्र मोदी को अनुशासित करने का काम संघ परिवार करेगा; उन्हें राजनीतिक संरक्षण देने का काम भारतीय जनता पार्टी को करना है! जब-जब इस आदेश के पालन में किसी ने हिचक दिखाई या ना-नुकुर की, चाहे वे लालकृष्ण आडवाणी हों या मुरली मनोहर जोशी या सुषमा स्वराज या सुधींद्र कुलकर्णी या नितिन गडकरी, संघ ने सबको किनारे लगाया या उन्हें उनकी जगह दिखा दी। संघ की यही हैसियत थी जो अटल-आडवाणी काल में खो गई थी और जिस गुनाह के लिए संघ ने उन दोनों को कभी माफ नहीं किया!   (जारी)

 

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