Friday, 20 September 2013 10:31 |
कुमार प्रशांत जनसत्ता 20 सितंबर, 2013 : अब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह भ्रम बना कर रखने की नाकाम कोशिश की कि वह सांस्कृतिक संगठन है, जिसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। यह वैसा सफेद झूठ है, जो बार-बार बोल कर सच साबित किया जाता है, लेकिन रह जाता वह काला ही है! फासीवादी दर्शन की बुनियाद ही इस पर टिकी है कि आप उसके मुख्य संगठन और व्यक्तियों के बारे में कितना और कितनी तरह के भ्रम फैला कर रख सकते हैं। दूसरी इसकी पहचान है कि यह आॅक्टोपस की तरह अपने हाथ-पांव सभी क्षेत्रों में फैलाए रखता है। वह साहित्य, समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान, युवा, मजदूर आदि-आदि सबमें, अलग-अलग नामों से, विभिन्न घोष-वाक्यों के साथ अपनी पैठ बनाता है, ताकि मौके पर इन सबका वह एक समन्वित स्वरूप सामने आ सके जो समाज में, हर स्तर पर भिन्न सोच को कुंठित और खत्म कर सके। और यहीं संघ गच्चा खा गया है। उसने राजनीतिक तौर पर नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की जैसी कुसेवा की है वैसी तो कांग्रेस ने कभी सोची भी न होगी! उसकी इस पूरी रणनीति का परिणाम यह हुआ है कि जो चुनाव राजनीतिक दलों के बीच होना चाहिए था, वह अब विचारधाराओं के बीच की लड़ाई में बदल गया है। 2013 के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अब किस आधार पर लड़े जाएंगे? उन सबका अब एक ही आधार होगा कि संघ के रवैये का देश समर्थन करता है या नहीं? 2014 का आम चुनाव किस केंद्रीय मुद््दे पर लड़ा जाएगा? उसका केंद्रीय मुद््दा होगा- सांप्रदायिकता की जिस राजनीति को संघ नरेंद्र मोदी के माध्यम से देश पर थोपना चाहता है, क्या देश उसे स्वीकार करता है? कांग्रेस की जिस भ्रष्ट और अकुशल सरकार को भारतीय जनता पार्टी चुनाव में घेरना चाहती थी, उसकी जगह होगा यह कि संघ के कठघरे में वह स्वयं खड़ी दिखाई देगी। संघ की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विचारधारा से जो हमेशा लड़ते आए हैं, उन सबको संघ के रवैये ने सावधान कर दिया है कि देखो, फासिज्म रूप बदल कर आ रहा है! सारे सवाल ही उलट-पलट गए! अब सवाल यह नहीं होगा कि क्या आप भारतीय जनता पार्टी को वोट देते हैं, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं? अब सवाल यह है कि क्या आप वैसा भारत बनाना चाहते हैं जैसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है? फिर सवाल यह खड़ा होगा कि संघ कैसा भारत बनाना चाहता है? और फिर जवाब भी दिया जाएगा कि क्या आप वैसा भारत चाहते हैं कि जिसमें जन्म के आधार पर सामाजिक हैसियत तय की जाएगी? वैसा भारत जिसमें महिलाओं को बराबरी का अधिकार और सम्मान नहीं मिलेगा और महिलाओं के साथ जघन्य से जघन्य अपराधों को इस आधार पर देखा और तौला जाएगा कि अपराधी का और पीड़िता का धर्म क्या है? जहां पुलिस-तंत्र का इस्तेमाल इसमें किया जाएगा कि अल्पसंख्यकों को आतंकवादी कह कर मार गिराया जाए और बहुसंख्यकों के आतंकवादियों को मंत्री, अधिकारी और चुनाव-प्रभारी आदि बनाया जाए? जहां बलात्कारियों में इस आधार पर फर्क किया जाए कि वह किस धर्म का है और क्या वह साधु-संन्यासी या बड़े रसूख वाला है? क्या वैसा भारत आप चाहते हैं, जिसमें कॉरपोरेट घरानों की तूती बोलती हो और जिस भारत में सरकार का एकमात्र काम कॉरपोरेट घरानों की लूट के अनुकूल परिस्थितियां बना कर, उनकी चाकरी करना हो? क्या आप ऐसा भारत बनाना चाहते हैं, जिसमें गैरबराबरी लगातार बढ़ती जाए और इसे विकास का नाम देकर महिमामंडित किया जाए? क्या आप ऐसा भारत बनाना चाहते हैं, जिसमें राज्य सरकारें इसलिए लोकायुक्त बनाने को राजी न हों कि वे अपने ऊपर किसी भी तरह का अंकुश चाहती ही नहीं हैं? लोकतंत्र स्वतंत्रता का वह शास्त्र है, जिसमें सभी एक-दूसरे के साथ ही स्वतंत्र होते हैं। यहां हर स्वतंत्रता की मर्यादा यह है कि वह हमेशा दूसरे से मर्यादित होने को प्रस्तुत रहे। लोकतंत्र हमें वहां तक तो रसगुल्ले जैसा लगता है, जहां तक वह हमें स्वतंत्रता देता है, लेकिन जैसे वह हमें यह भी बतलाने लगता है कि दूसरों की भी उतनी ही और वैसी ही स्वतंत्रता संरक्षित है, हमें लोकतंत्र नीम से भी कड़वा लगने लगता है और फिर आपातकाल ही उसका एकमात्र जवाब नजर आता है। आपातकाल हम सबका सबसे प्रिय काल है, अगर वह लगाने का निर्बाध अधिकार हमारे पास ही हो! केंद्र और राज्यों में बैठी हर सरकार कोशिश तो यही करती है कि कानून का राज बनाए रखने के लिए कठोर से कठोर कानून बना कर, सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में किए जाएं। आपातकाल इससे अलग क्या था? और इससे अलग वह होता क्या है? यह असली चुनौती है, जिसके सामने संघ ने हमें खड़ा कर दिया है। इसे देखने, पहचानने और सावधान हो जाने की घड़ी है। (समाप्त)
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Friday, September 20, 2013
चुनौती जो सामने है
चुनौती जो सामने है
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