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Friday, September 20, 2013

चुनौती जो सामने है

चुनौती जो सामने है

Friday, 20 September 2013 10:31

कुमार प्रशांत

जनसत्ता 20 सितंबर, 2013 : अब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह भ्रम बना कर रखने की नाकाम कोशिश की कि वह सांस्कृतिक संगठन है, जिसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। यह वैसा सफेद झूठ है, जो बार-बार बोल कर सच साबित किया जाता है, लेकिन रह जाता वह काला ही है! फासीवादी दर्शन की बुनियाद ही इस पर टिकी है कि आप उसके मुख्य संगठन और व्यक्तियों के बारे में कितना और कितनी तरह के भ्रम फैला कर रख सकते हैं। दूसरी इसकी पहचान है कि यह आॅक्टोपस की तरह अपने हाथ-पांव सभी क्षेत्रों में फैलाए रखता है। वह साहित्य, समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान, युवा, मजदूर आदि-आदि सबमें, अलग-अलग नामों से, विभिन्न घोष-वाक्यों के साथ अपनी पैठ बनाता है, ताकि मौके पर इन सबका वह एक समन्वित स्वरूप सामने आ सके जो समाज में, हर स्तर पर भिन्न सोच को कुंठित और खत्म कर सके। 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसी मॉडल का अनुकरण कर, विभिन्न नामों से विभिन्न संगठन बना रखे हैं। इन सबका काम एक ही है- हिंदुत्व का वह स्वरूप मजबूत करना जो संकीर्ण है, सांप्रदायिक है, आक्रामक और हिंस्र है। वह अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए किसी गांधी को भी मार सकता है; अल्पसंख्यकों को ही नहीं, तथाकथित हिंदू समाज की सीढ़ी पर जो सबसे नीचे खड़े हैं उन्हें दोयम हैसियत में रखने की क्रूरता भी कर सकता है; राम से उनका देवत्व और उनकी मर्यादा छीन सकता है और अकर्मण्य कायरों की तरह देश का विभाजन देखता रह सकता है और फिर भी अखंड हिंदुस्तान का नारा उठा कर लोगों को भ्रमित कर सकता है। उनका यह सब कारनामा हमने आजादी की लड़ाई के दिनों से आज तक देखा ही है। 
हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि देश के दूसरे राजनीतिक और सामाजिक संगठनों में गहरी कायरता और अवसरवादिता भरी हुई है। वे भी जब मौका मिलता है तब इन्हीं तत्त्वों का सहारा लेकर अपनी गोटी लाल करते हैं। वे इस दर्शन में विश्वास नहीं करते हैं, लेकिन इसका लाभ मिलता हो तो उसे हथियाने में कभी पीछे नहीं रहते हैं। यह अत्यंत खतरनाक कायर मनोभूमिका है, जिसकी बड़ी कीमत भारतीय समाज ने चुकाई है और आज भी चुका रहा है। इसलिए ये अवसरवादी कायर शक्तियां कभी भी नैतिक या राजनीतिक दृष्टि से फासीवादी ताकतों को सीधी चुनौती नहीं दे पाती हैं। आज भी हम ऐसी ही स्थिति के रूबरू खड़े हैं। 
राजनाथ सिंह की राजनीतिक पारी तभी खत्म हो गई थी, जब उन्हें विफल अध्यक्ष बता कर, किनारे कर दिया गया था। अब जाकर संघ ने उन्हें राजनीतिक वनवास से बाहर निकाला है और अध्यक्ष पद पर बिठाया है। लालकृष्ण आडवाणी बेचारे राजनाथ सिंह की कार्यशैली पर नाहक ही नाराज हो रहे हैं। उनकी कोई कार्यशैली है ही नहीं, क्योंकि संघ ने उन्हें आगे का सारा नक्शा बना कर और मोदी की राजनीतिक कुंडली भी लिख कर दी है! इस बार संघ के एजेंडे में राजनीतिक समीकरण और उसकी जरूरतें नहीं दर्ज हैं। 
इस बार संघ सिर्फ अपना एजेंडा पूरा करना चाहता है और भारतीय जनता पार्टी को उसके पीछे चलना है। राजनाथ सिंह वही कर रहे हैं। हम देख ही रहे हैं कि अभी नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा उत्साह में राजनाथ सिंह दिखाई दे रहे हैं। यह गुमनामी से निकलने की खुशी भी है और इस अहसास का आनंद भी कि संघ स्वामिभक्ति का पूरा पुरस्कार देता है। 
लेकिन जब तक भारतीय जनता पार्टी चुनाव में बहुमत नहीं पाती है तब तक संघ उन्हें पुरस्कार देगा भी तो क्या? जवाब राजनाथ सिंह को और टीवी के विभिन्न चैनलों पर बौद्धिकता की बहुत सारी कसरतें करते लोगों को समझना भी है और बताना भी। 
लालकृष्ण आडवाणी का सारा गणित गलत साबित हुआ और पार्टी पर अपनी पकड़ का उनका अंदाजा भी! लेकिन एक बात का श्रेय उन्हें देना होगा कि जनसंघ से लेकर आज तक जिस टेक पर अटल-आडवाणी अड़े रहे कि राजनीतिक पार्टी के रूप में वही फैसले करेंगे, संघ नहीं, वे उस पर डटे रहे हैं। अगर आज भी अटल बिहारी वाजपेयी उनके साथ होते तो वे बाजी पलटने की सोच सकते थे, लेकिन आज वे अकेले हैं। फिर भी उन्होंने हथियार नहीं डाले हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी से उतना एतराज नहीं है जितना उन तरीकों से है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी की स्थिति संघ के कारकून की रह गई है। 
यही काम अगर आडवाणी जी के हाथों कराया गया होता और वे मोदी पर जो भी बंदिशें लगाना चाहते, उसकी उन्हें इजाजत दी गई होती तो आज जैसी हालत नहीं बनती। 
लालकृष्ण आडवाणी और संघ की राजनीति में कोई बुनियादी फर्क नहीं रहा है। फर्क है तो पार्टी की स्वायत्तता और स्वतंत्रता के आग्रह का! असलियत यह है कि मोदी के नाम पर पार्टी के उस संसदीय बोर्ड में कोई विचार ही नहीं हुआ, राजनाथ सिंह पिछले कई महीनों से जिसका जाप कर रहे थे। हुआ यह कि मोदी के नाम की घोषणा का आदेश संघ ने दिया और राजनाथ सिंह ने उसका पालन किया। बारह सितंबर को ही पटना से सुशील मोदी ने आडवाणी-युग की समाप्ति की घोषणा करते हुए, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता दिया। फिर तेरह सितंबर को संसदीय बोर्ड की बैठक का मतलब ही क्या रह गया? 

लेकिन राजनाथ सिंह ने तो सुशील मोदी को भी मीलों पीछे छोड़ते हुए, अपनी तरफ से अकाली दल और शिवसेना को फोन से खबर दे दी कि पार्टी ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय कर लिया है। अब पार्टी और संसदीय बोर्ड एक बड़े नाटक में विदूषक की भूमिका करते ही नजर आए न! यह संघ का लोकतंत्र है! 
और यहीं संघ गच्चा खा गया है। उसने राजनीतिक तौर पर नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की जैसी कुसेवा की है वैसी तो कांग्रेस ने कभी सोची भी न होगी! उसकी इस पूरी रणनीति का परिणाम यह हुआ है कि जो चुनाव राजनीतिक दलों के बीच होना चाहिए था, वह अब विचारधाराओं के बीच की लड़ाई में बदल गया है। 2013 के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अब किस आधार पर लड़े जाएंगे? उन सबका अब एक ही आधार होगा कि संघ के रवैये का देश समर्थन करता है या नहीं? 2014 का आम चुनाव किस केंद्रीय मुद््दे पर लड़ा जाएगा? 
उसका केंद्रीय मुद््दा होगा- सांप्रदायिकता की जिस राजनीति को संघ नरेंद्र मोदी के माध्यम से देश पर थोपना चाहता है, क्या देश उसे स्वीकार करता है? कांग्रेस की जिस भ्रष्ट और अकुशल सरकार को भारतीय जनता पार्टी चुनाव में घेरना चाहती थी, उसकी जगह होगा यह कि संघ के कठघरे में वह स्वयं खड़ी दिखाई देगी। संघ की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विचारधारा से जो हमेशा लड़ते आए हैं, उन सबको संघ के रवैये ने सावधान कर दिया है कि देखो, फासिज्म रूप बदल कर आ रहा है! सारे सवाल ही उलट-पलट गए! अब सवाल यह नहीं होगा कि क्या आप भारतीय जनता पार्टी को वोट देते हैं, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं? 
अब सवाल यह है कि क्या आप वैसा भारत बनाना चाहते हैं जैसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है? फिर सवाल यह खड़ा होगा कि संघ कैसा भारत बनाना चाहता है? और फिर जवाब भी दिया जाएगा कि क्या आप वैसा भारत चाहते हैं कि जिसमें जन्म के आधार पर सामाजिक हैसियत तय की जाएगी? वैसा भारत जिसमें महिलाओं को बराबरी का अधिकार और सम्मान नहीं मिलेगा और महिलाओं के साथ जघन्य से जघन्य अपराधों को इस आधार पर देखा और तौला जाएगा कि अपराधी का और पीड़िता का धर्म क्या है? जहां पुलिस-तंत्र का इस्तेमाल इसमें किया जाएगा कि अल्पसंख्यकों को आतंकवादी कह कर मार गिराया जाए और बहुसंख्यकों के आतंकवादियों को मंत्री, अधिकारी और चुनाव-प्रभारी आदि बनाया जाए? जहां बलात्कारियों में इस आधार पर फर्क किया जाए कि वह किस धर्म का है और क्या वह साधु-संन्यासी या बड़े रसूख वाला है? 
क्या वैसा भारत आप चाहते हैं, जिसमें कॉरपोरेट घरानों की तूती बोलती हो और जिस भारत में सरकार का एकमात्र काम कॉरपोरेट घरानों की लूट के अनुकूल परिस्थितियां बना कर, उनकी चाकरी करना हो? क्या आप ऐसा भारत बनाना चाहते हैं, जिसमें गैरबराबरी लगातार बढ़ती जाए और इसे विकास का नाम देकर महिमामंडित किया जाए? क्या आप ऐसा भारत बनाना चाहते हैं, जिसमें राज्य सरकारें इसलिए लोकायुक्त बनाने को राजी न हों कि वे अपने ऊपर किसी भी तरह का अंकुश चाहती ही नहीं हैं? 
लोकतंत्र स्वतंत्रता का वह शास्त्र है, जिसमें सभी एक-दूसरे के साथ ही स्वतंत्र होते हैं। यहां हर स्वतंत्रता की मर्यादा यह है कि वह हमेशा दूसरे से मर्यादित होने को प्रस्तुत रहे। लोकतंत्र हमें वहां तक तो रसगुल्ले जैसा लगता है, जहां तक वह हमें स्वतंत्रता देता है, लेकिन जैसे वह हमें यह भी बतलाने लगता है कि दूसरों की भी उतनी ही और वैसी ही स्वतंत्रता संरक्षित है, हमें लोकतंत्र नीम से भी कड़वा लगने लगता है और फिर आपातकाल ही उसका एकमात्र जवाब नजर आता है। आपातकाल हम सबका सबसे प्रिय काल है, अगर वह लगाने का निर्बाध अधिकार हमारे पास ही हो! केंद्र और राज्यों में बैठी हर सरकार कोशिश तो यही करती है कि कानून का राज बनाए रखने के लिए कठोर से कठोर कानून बना कर, सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में किए जाएं। आपातकाल इससे अलग क्या था? और इससे अलग वह होता क्या है? 
यह असली चुनौती है, जिसके सामने संघ ने हमें खड़ा कर दिया है। इसे देखने, पहचानने और सावधान हो जाने की घड़ी है।      (समाप्त)

 

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